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Tuesday, 26 September 2017

भोजन प्रशाद और अन्न बर्बाद, 20 प्रतिशत खाना सामाजिक एवं धार्मिक समारोह में फेंका जाता है नीलम भागी

विश्व खाद्य सुरक्षा दिवस पर शुभकामनाएं
                                          
तुम  तो दुनिया में निन्दा करने के लिए ही तशरीफ लाई हो, गीता उत्कर्षनी  का मेरे बारे में ये कहना है। अब देखिए न, हमारा देश उत्सवों और त्यौहारों का देश है।  मंदिरों  के हॉल और प्रांगण में, आए दिन  विभिन्न सामाजिक संस्थाओं द्वारा और मंदिर समिति द्वारा कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। कार्यक्रम के समापन पर प्रशाद वितरण किया जाता है और कभी-कभी भोजन प्रशाद की भी व्यवस्था होती है। सभी सभ्य लोग होते हैं, वे उतना ही लेते हैं, जितना वे खा सकते हैं। पीने के पानी की व्यवस्था के पास ही, पहिये वाले बड़े-बड़े कूड़ेदान रख दिये जाते हैं । जिसमें श्रद्धालु भोजन के बाद अपनी डिस्पोजेबल प्लेट डालते हैं।
मैं अपनी निन्दा करने की आदत से मजबूर होकर डस्टबिन के पास खड़ी होकर देखती रहती हूँ कि कौन भोजन प्रशाद फेंक रहा है? पर मुझे निराशा ही हाथ लगती है क्योंकि ये लोगो की श्रद्धा ही है कि वे मंदिर में मिलने वाले भोजन को प्रशाद के रुप में लेते हैं, उसे कूड़े में नहीं फेंकते। मंदिर के बाहर बैठने वाले भिखारी भी आते हैं, क्षमता से अधिक लेते है, जब खाया नहीं जाता तो बचे हुए को साथ ले जाते हैं। ये भी ठीक है।
नवरात्रों, कन्यापूजन, रामनवमीं, हनुमान जयंती और अन्य त्यौहारों और विशेष दिनों में  जगह-जगह भण्डारे लगते हैं पर सबसे ज्यादा मंदिरों के आगे। इन दिनो मंदिर सुबह 5 बजे से रात 10 बजे तक खुलता है। आप हर समय पूजा कर सकते हैं। मैं प्रतिदिन अपनी सुविधा के अनुसार अलग-अलग समय पर मंदिर जाती हूँ। जितना मंदिर अंदर से साफ होता है, उतना ही बाहर। पर बाहर बार-बार सफाई करवाने पर भी गन्दा हो जाता है। कारण वहाँ श्रद्धालु गाड़ियों में खाने का सामान लाते हैं और भण्डार शुरु कर देते। दिन में कई बार भण्डारा वितरण होता है। खाने वाले अघाये हुए होते हैं। कूड़े कचरे से या सड़क पर जैसी भी पॉलिथिन की थैली मिलती, उसमें खाना ले लेकर भरते जाते हैं और जहाँ सुविधा होती है, वहाँ टाँग देते हैं। अगर मंदिर के आस पास कोई पार्क है, तो उसकी ग्रिल पर खाने से भरी थैलियाँ टाँगी हुई होती हैं। जिस पर लगातार धूप पड़ रही होती है। जिसे कुत्ते भी सूंघ जाते हैं। घर ले जाकर जिसे भी खिलाते होंगे, पता नहीं वो कैसे पचाते होंगे? या इन शुभ दिनों में जगह-जगह लगने वाले भण्डारों में खा कर, उनके घर वालों में भी खाने की क्षमता ही नहीं बचती होगी। खाने से भरी थैलियाँ कूड़े में ही फैंकी जाती होंगी।
एक परिवार थैलियों और प्लेटों में भर कर खा रहा था। इतने में कुछ भक्त आये, वे भी खाना बाँटने लगे। अब ये परिवार वहाँ से भी लेने लगा। दूसरे वाला खाना सूंघ कर, पहले वाला खाना छोड़ कर, वे दूसरा खाना खाने लगे क्योंकि ये खाना देसी घी का था। अब बचा हुआ खाना भीड़ के कारण, लोगों के पैरों के नीचे आकर गन्दगी फैला रहा था। जबकि पास ही कूड़ेदान पड़ा था, जिसका प्रयोग ये लोग करना ही नहीं जानते। या नुकसान की वजह से ये कूड़ेदान में प्लेट फेंकने नहीं जा रहे थे क्योंकि कुछ लड़के-लड़कियाँ कभी भी दस के नोट बाँटना शुरु कर देते थे।
   किसी संस्था ने जब पहला विशाल कार्यक्रम किया तो उत्तम व्यवस्था के कारण हजारों लोगों के भण्डारा खाने के बाद भी राशन बच गया। बचा हुआ राशन 



न उन युवकों ने मंदिर की रसोई को दे दिया। मैं वहाँ उस समय उपस्थित थी। जिसका उचित उपयोग हुआ। क्या श्रद्धालु ऐसा नहीं कर सकते? वे अपना अन्न, धन मंदिर को दे।ं जिससे मंदिर की ओर से चलने वाली प्रशाद व्यवस्था में उसका उपयोग हो। प्रशाद तो यहाँ से राजा और रंक दोनों को मिलता है। हाँ, प्रशाद कूड़े और पैरों में नहीं जाता, न ही समारोह के बाद बाल्टियाँ भर-भर के अन्न कूड़े में फैंका जाता है।

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