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Sunday 26 May 2019

द्वारकाधीश मंदिर और आस पास के दर्शनीय स्थल गुजरात यात्रा Gujrat Yatra Part 17 Neelam Bhagi नीलम भागी

द्वारकाधीश मंदिर और आस पास के दर्शनीय स्थल गुजरात यात्रा भाग 17
नीलम भागी
मंदिर की पताका दिन में पाँच बार बदली जाती है। बैण्ड बाजे के साथ पताका लाने वालों का भक्ति डांस देखना, बहुत सुखद लग रहा था। मंदिर सुबह 6 से 1 बजे तक, शाम को 5 से 9.30 बजे तक खुलता है। मंदिर के दो प्रवेश द्वार हैं। बाजार की ओर से मुख्य द्वार, जिससे हम आये थे, ये उत्तर दिशा में है, इसे मोक्ष द्वार कहते हैं। 72 स्तम्भों, 5 मंजिला इमारत का मुख्यमंदिर, जगत मंदिर या निज मंदिर के रूप में जाना जाता है। पुरात्तववेत्ताओं का कहना है कि ये 2200-2500 साल पुराना है। चालुक्य शैली में इसका निर्माण हुआ है। मंदिर की सबसे ऊँची चोटी 51.8 मीटर ऊँची है। ध्वज का सूर्य, चंद्र दर्शाता है कि जब तक सूर्य चंद्र है तब तक कृष्ण है। और मेरे मन में तो कन्हैया ही बसे थे। और उन्हें द्वारकाधीश के रूप में देखना! अंजना  ने तो ’जय नंदलाला, जय गोपाला’ भजन गाना शुरू कर दिया और हम सब कोरस करने लगे। वहाँ जो मैं महसूस कर रही थी, उसे लिखने में असमर्थ हूं। माया शर्मा ने बताया कि उनका परिवार तो सुबह बिना नहाये दर्शन के लिये आ गया था तब द्वारकाधीश का श्रृंगार नहीं था। वे दक्षिण प्रवेश द्वार से, 56 सीढ़ियां से गोमती द्वारका की ओर गये। जिसे निष्पाप कुण्ड कहते हैं। यहाँ स्नान करते हैं। फिर अपनी श्रद्धा से तुलादान और गऊ दान करते हैं। उसने कहा कि गोमती दर्शन जरूर करना चाहिये क्योंकि गोमती सागर से मिलने से पहले भगवान से प्रार्थना करती हुई कहने लगी कि भगवान आपके बिना मेरे दिन कैसे कटेंगे? ये सुनकर भगवान ने कहा कि मैं प्रतिदिन यहाँ दो समय आऊंगा और जो व्यक्ति द्वारकानाथ के दर्शन करेगा तो उसको आधी यात्रा का फल मिलेगा। हम बाहर आये, बाजार से निकल कर सागर की ओर गये। समय कम था गोमती जी के दर्शन किये । सजे हुए ऊँट थे उन पर सवारी कर सकते हैं। सागर दर्शन किये। सागर तट की हवा का आनन्द उठाया। धूप तीखी लगने लगी। रात दो  ढाई घण्टे की नींद ली थी और सुबह खाली चाय पी थी। मन में था कि पहले दर्शन फिर जलपान। अब एक रैस्टोरैंट में गये। जे. पी. गौड़ आलू का परांठा, भाजी और लस्सी का आर्डर कर आये। मुझसे सलाह करते तो मैं नया गुजराती खाना ढूंढती। पर फिर मैं कैसे जान पाती कि यहाँ पंजाब जैसा परांठा मिला, खूब मसाला भरा हुआ कि कई जगह से कवर से मसाला बाहर आ जाता है, जो बनाने में मुश्किल होता है पर स्वाद लाजवाज!!क्योंकि जहां  से मसाला तवे पर डायरेक्ट सिकता है तो वो आलू टिक्की का स्वाद देता है। लस्सी ने तो मुझे गाय पालने के दिन याद करवा दिये। हमारी जर्सी और साहिवाल गाय बहुत दूध देती थीं। हम दहीं में तेज चीनी डाल कर , मथा हुआ फ्रिज में रख देते। ठंडा होने पर पीते। वैसी लस्सी यहाँ मिली। अब पैदल बाजार घूमने लगे। गुजराती रंगों में हाथ के काम की सिंधी कढ़ाई की, शीशे के काम के अनगिनत सामान, बैग और दुप्पट्टे आदि। पूनम माटिया तो एक दुप्पट्टे पर बुरी तरह रीझ गई। तुरंत खरीद कर जिंस र्शट पर शॉल की तरह ओढ़ कर चल दी। द्वारका पुरी में कहीं भी कूड़े के ढेर नहीं दिखे। एक टैर्क्टर रूक रूक कर निकल रहा था। लोग उसमें कूड़ा डाल रहे थे। लोगों से पूछने पर पता चला कि भद्रकाली चौक पर टूर एण्ड टैर्वल्स की दुकाने हैं। वहाँ से वॉल्वो बुक होती है। जिसे आराम करना था , वह होटल चल पड़े। मुझे तो शहर से परिचित होना था। मैं बुकिंग के लिये साथ चल दी। दुकान पर और हैरान हुए, यहाँ से 100रू में एक बजे बस चलती है बेट द्वारका के लिये, रास्ते में रूक्मणी मंदिर, नागेश्वर, गोपी तालाब दर्शन करवाती ले जाती है। अहमदाबाद के लिए ए.सी. स्लिीपर वॉल्वो 550रू में रात 9 बजे की टिकट ले ली और बेट द्वारका की भी। 12 बजे होटल से चैक आउट करना था। पैकिंग  तो मैंं सुबह कर आई थी। त्यागी  जी को होटल का हिसाब करना था,’’ मैं बोली,"मैं आती हूँ।’’ और मैं अकेली इधर उधर डोलती रही। एक टाँगा देख कर मैंने उसमें भी चक्कर लगाया। मैंने होटल आकर सीरियसली सबसे से कहा कि इकोफैंडली टाँगा ,यातायात का बहुत अच्छा साधन है। सब हंसते हुए बोल,’’अगर तुम घोड़े का चारा लाने और घोड़े की लीद उठा कर, ठिकाने लगाने की ड्यूटी ले लो, तो हम पॉल्यूशन फैलाने वाली गाड़ी हटा कर, इकोफैंडली टांगा रख लेंगे। जिस पर तुम घुड़सवारी भी कर लेना|   क्रमशः          



Sunday 15 May 2016

अनोखा मध्य प्रदेश, होशंगाबाद नर्मदे हर हर हर नीलम भागी Hoshangabad Madhya Pradesh Part 1 Neelam Bhagi

  
                                    
        नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से जी. टी. एक्सप्रेस के सेकण्ड .सी. के डिब्बे में अपनी लोअर साइड सीट पर बैठी ही थी कि डिब्बे में शोर मच गया। खाकी कपड़े पहने, हाथ में डण्डे लिये दो व्यक्ति, एक युवक से पूछ रहे थे,’’कहाँ है? कहाँ है? वो डरा हुआ हैण्डसम युवक, सीट के नीचे झाँक कर बोले जा रहा था,’’अभी तो यहीं था। मैं जैसे ही आपको बुलाने गया, वो भाग गया।’’ मैंने अपने सामने बैठे युवक से पूछा,’’कौन भाग गया?’’ उसने जवाब दिया,’’चूहा।’’इतने में  गाड़ी चल पड़ी और चूहे के शिकारी भी प्लेटफार्म पर कूद गये। चूहा काण्ड खत्म होते ही हम अपना सामान व्यवस्थित करने लगे। सामान को जंजीर से कसने में अपर साइड सीट के युवक ने मेरी मदद की। इतने में मेरी नज़र सामने लोअर सीट के नीचे रक्खे एक बड़े से पिंजड़े पर पड़ी। जैसे ही मैंने उसे बाहर निकाला, वह तो चूहेदान था।सब को चर्चा का विषय मिल गया। इस मींमांसा का परिणाम यह निकला कि चूहेदान में मैन्यूफैक्चरिंग डिफैक्ट है। पर फिर भी मैंने अपना ज्ञान  बघारा कि इसमें खाने को भी तो कुछ नहीं है। चूहा बेचारा किस लालच में आयेगा और फंसेगा? सहयात्री ने बताया कि खाना रखने का कोई फायदा नहीं है, चूहे आकर, खा कर, इसमें से चले जाते होंगे। यह कह कर उसने पिंजरे को जहाँ से उठाया था, वहीं पर रख दिया और मेरे सामने बैठकर पूछा,’’आप कहाँ जा रहीं हैं?’’मैंने अपने साथियों की ओर इशारा करके जवाब दिया,’’हम सब पचमढ़ी और अमरकंटक जा रहे हैं और आप?’’ वह बोला,’’मैं चेन्नई जा रहा हूँ?’’मैंने जितने भी प्रश्न किये, उसने मोबाइल से अपनी अपूर्व सुन्दरी पत्नी की फोटो दिखा कर बताया कि  वह चेन्नई में इंजीनियर है। उसके पिता शिमला में उच्च अधिकारी हैं। छह महीने पहले ही उसकी शादी हुई हैं। शादी से आठ दिन पहले उसकी पत्नी की शिमला में ही सरकारी नौकरी लग गई। हिमाचल से बाहर उसका तबादला नहीं हो सकता। वह कोशिश कर रहा है कि उसकी शिमला में नौकरी लग जाये। चेन्नई में उसे शिमला का मौसम बहुत याद आता है। इसी तरह साथ ही सब बतियाते हुए मथुरा आने पर भोजन करने लगे। ब्राउन पेपर बैग में सफेद चादरें थी। बिस्तर लगाने के बाद अड़तालिस यात्रियों में से दो ने बैडशीट निकालने के बाद लिफाफे गाड़ी के फर्श पर फैंके बाकि सबने कूड़ेदान में, ये स्वच्छ भारत अभियान का असर था। अब लाइट बंद कर पर्दे खींच कर सब लेट गये युवा मोबाइल में लग गये। एग्जिट गेट के साथ टी.टी. की सात नम्बर सीट थी और उससे अगली मेरी। आधी रात को बहस सुन कर मेरी नींद खुल गई। एक व्यक्ति शायद टी.टी बोल रहा था कि तुम डिब्बे में घुसे कैसे? बाहर निकलो।’’ दूसरी आवाज,’’तूँ मुझे जानता नहीं है। झाँसी पहुँचते ही तेरी वो गत बनाऊँगा कि घर जाने के लायक नहीं बचेगा। मेरा जीजा अमुक राजनेता का सिक्योरिटी गार्ड है। अब पहली आवाज़,’’ज्यादा से ज्यादा तूँ क्या कर सकता है? मुझे मार ही तो डालेगा न? ले अब मार डाल।" दूसरी आवाज,’’ बस तूँ झाँसी आने दे। फिर देखियो’’ पहली आवाज़,’’तूँ गेट से बाहर खड़ा होकर झाँसी का इंतजार कर।’’दूसरे का लेक्चर शुरू,’’ मैं क्यूँ गर्मी में बाहर खड़ा होऊँ। मेरे बाप की औकात नहीं है, मुझे .सी. की टिकट दिलाने की। गलती किसकी है मेरी या मेरे बाप की?’’ अब शांति। क्योंकि तर्क का तो जवाब होता है, कुतर्क का कोई कब तक जवाब दे। मैं पर्दे की झिर्री में से डरी हुई झाँक रही थी, बस एक खड़े व्यक्ति की पीठ दिखाई दे रही थी। पता नहीं कब आँख लग गई। पौ फटने पर देखा गाड़ी हबीबगंज स्टेशन पर रुकी है। हमारे डिब्बे के आगे पुलिस खड़ी है। एक आदमी कलप कलप कर कुछ बोल रहा है। मैं फिर गहरी नींद में सो गई। होशंगाबाद स्टेशन से पहले मुझे जगाया क्योंकि यहाँ हमें उतरना था। मैं पानी की बोतल खरीदने लगी। एक सवारी बोली,’’यहाँ माँ नर्मदा का पानी है। बिना डरे पियो। बोतल का तो अपनी दिल्ली में ही पीना।’’मैंने उसका कहना मान लिया। स्टेशन पर उतरते ही पता चला कि हमारे डिब्बे में किसी की अटैची चोरी हो गई। उसमें उसका सब कुछ था। सोने से पहले उसने अपना मोबाइल भी उसमें रख दिया था। इसलिये गाड़ी आधा घण्टा लेट हुई। होशंगाबाद में कुली नहीं था। अपना सामान हमने स्वयं उठाया। स्टेशन पर साँची वालों का मिल्क पार्लर था, जहाँ बहुत सस्ता फ्लेर्वड दूध, दहीं और मट्ठा था, जिसे खाया पिया और स्टेशन से बाहर आये। तिराहे चौराहे बहुत देखे थे
सतरस्ता होशंगाबाद में ही देखा.स्टेशन के बाहर. एक साथ सात रास्ते.
   सड़क के दोनों ओर होटल थे। रूम लिये सामान रक्खा और तैयार हुये। हर शहर की कुछ कुछ विशेषता होती है। मैं शाकाहारी हूँ और मुझे एक आदत है, मैं जिस भी शहर में घूमने जाती हूँ, वहाँ खाने पीने में कुछ नया हो तो उसे ट्राई जरूर करती हूँ। होशंगाबाद एक पुराना शहर है। जिसके भी घर के आगे सड़क है, उसने नीचे दुकान बना रक्खी है। ताजा सब कुछ बन रहा था। समोसा, कचौड़ी, पोहा, जलेबी, आलूबड़ा, मिर्ची पकौड़े तरह तरह के नमकीन चाय , (छाछ) मही आदि। स्वाद सभी का गज़ब। शायद वहाँ घर में नाश्ता बनाने कर रिवाज़ कम है क्योंकि स्कूली बच्चे दुकानों से पंसंद का नाश्ता अपने लंच बाक्स में डलवा कर ले जा रहे थे। बढ़िया स्वादिष्ट भारतीय नाश्ता करके हम ऑटो से सेठानी घाट गये। रास्ते में पड़ने वाली दुकाने हैंण्डीक्रॉफ्ट से भरी पड़ी थी। घाट पर पहुँच कर ऑटो वाले से किराया पूछा,’’बोला दस रूपये सवारी। बड़ी हैरानी हुई। इस समय मुझे नौएडा बहुत याद आया। यहाँ आटो वाले इधर उधर घूमा कर दो, तीन सौ रूपये मज़े से माँग लेते हैं। ख़ैर सेठानी घाट पर पहुँच कर मैं विस्मय विमुग्ध माँ नर्मदा को निहारने लगी।
   त्रिभिः सारस्वतं तोयं, सप्ताहेन तु यामुनाम।
   सद्यः पुनाति गांगेयं, दर्षनादेवि नर्मदा।।
स्कन्द पुराण में कहा गया है कि सरस्वती का जल तीन दिनों में, यमुना का जल सात दिनों में या सात बार स्नान करने पर, गंगा जी का जल एक बार स्नान करने पर पवित्र करता है किन्तु माँ नर्मदा जी का जल दर्शन करने से ही पवित्र कर देता है। साफ सुथरा घाट चौड़ा पाट नर्मदा जी का, वहीं सीढ़ियों पर बैठे रहे। अंजना  मुझसे पूछती हैं,’’ नर्मदा जी का प्रवाह किस ओर है?’’मैं ध्यान से स्थिर नज़रों से उन्हे देख रही हूँ। मुझे लगा वे भी रूकी हुई हमें देख रहीं हैं। मैं नहीं बता सकी, वे किस दिशा में बह रहीं हैं? हमारे बराबर में एक परिवार बच्ची के मुण्डन करवा रहा था। मैंने ये सोच कर कि यहाँ मुण्डन के समय गाये जाने वाले लोक गीत सुनने को मिलेंगे, उस परिवार की महिलाओं से कहा,’’इस समय गीत गाओ न।’’उन्होंने जवाब में गीत की जगह ही...ही....ही...किया। उस परिवार  के बुर्जुग ने जवाब दिया,’’ये .मे., बी.मे पढ़ी हैं। इनसे तो सिनेमा के गीत गवा लो।’’जवाब में फिर ही..ही..ही.... एक श्रद्धालू ने संतरा खाकर छिलके फैंके। कार्तिके तुरंत नीचे जाकर उसे समझा कर आया कि अंकल कूड़ा डस्टबिन में डालो। वो बच्चे से लड़ा नहीं। वह बोला ,’’ आगे से नहीं डालेगा।’’इतने में तीन बकरियाँ आकर छिलके खा गईं।
  हमने नाव वाले से कहा,’’हमे परली तरफ जाना है।’’ वह बोला,’’दस रूपये आने के और दस रूपये जाने के। बीस रूपये पहले लेंगे। जब भी आप लौटो गे। जिस मर्जी नाव में बैठ जाना वो आपको ले कर ही आयेगा।’’ माँ नर्मदा पार, साफ सुथरा पेड़ों से घिरा मंदिर था। हम वहीं बैठे नर्मदा जी का दर्शन करते रहे और प्राकृतिक सौन्दर्य को निहारते रहे। दोपहर बीत रही थी। एक नाव से सवारियाँ उतरी हम उसमें बैठ गये। उसने हमें घाट पर उतार दिया। पैसों का कोई ज़िक्र नहीं किया। गाड़ी से गुज़रने में और पैदल चलने में फर्क होता है। हम होटल की तरफ पैदल चल दिये। दुकानों में तरह तरह के हैंण्डीक्राफ्ट थे। अभी तो हमें  दस दिन तक और शहरों में जाना था। सामान कहाँ उठा सकते थे? पर देख कर मोहित तो हो ही सकते थे न। लेकिन  एक जगह मैं अपना लोभ संवरण नहीं कर पाई। पहले छोटे बच्चे एक तीन पहिये के लकड़ी के ठेले को पकड़ कर खड़े होते थे और धीरे धीरे उसी के सहारे चलना सीखते थे।  होशंगाबाद में एक दुकान पर रंग बिरंगी लकड़ियों से बने वे रेड़े थे। मुझे गीता याद आई जो खड़ा होना सीख रही थी। मैं ठेले को लेने की सोच ही रही थी। दुकानदार ने एक रेड़ा खोल कर पैक कर दिया और मुझे समझा दिया ऐसे ही घर जाकर फिट कर लेना। कीमत कुल दो सौ रूपये। नई नई चीजों का हम स्वाद लेते और कुछ चीज़ों के नाम नये थे जैसे गोल गप्पे का नाम फुल्की और चाट पापड़ी का नाम दहीं पूरी था ,हम होटल पहुँचे। थोड़ा आराम किया फिर चल दिये शाम को नर्मदा जी की आरती देखने।
    घाट हाई मास्ट लाइट से जगमगा रहा था। यहाँ मेरे पास शब्द नहीं हैं कि जो मैंने आरती के समय महसूस किया, उसका वर्णन कर सकूँ। क्योंकि श्रद्धा और आस्था से जो लोगो के दिल से आरती गाई जा रही थी, उसने अलग ही समां बांध रक्खा था। घण्टे घड़ियाल बज रहे थे। लोग आते जा रहे थे और ताल से तालियाँ बजाते हुए  आरती में शामिल हो रहे थे। आरती के नर्मदा जी में धीरे धीरे चलते हुए दीपक देख कर लगा कि माँ नर्मदा धीरे धीरे बह रही हैं। दिन में ऐसे लग रहा था जैसे विश्राम कर रहीं हों। आरती ली और सब बैठ गये। लोग मछलियों को आटे की गोलियाँ खिलाने लाये थे और खिला रहे थे।
हम भी ठंडे ठंडे पानी में पैर डाल कर स्थानीय लोगों से बतियाने में मशगूल हो गये। कुछ लोगों का कहना था कि वे रोज माँ नर्मदा के पास बैठने आते हैं। वहाँ से लौटे और जल्दी सो गये।        
 अगले दिन इटारसी से हमारी पिपरिया के लिये गाड़ी में सीट रिजर्व थी।  स्टेशन भी पास था पर मुझे सड़क मार्ग से ही इटारसी जाना था क्योंकि बस शहर के बीच से गुजरती है जिससे शहर का लगभग परिचय हो जाता है। सुबह सुबह नर्मदा जी के दर्शन किये, जो शैंपू ,साबुन से नहा रहे थे। उन्हें ऐसा  करने के लिये डाँटा। बस के कैबिन में इटारसी के लिये बैठे, छाया और विनीता दो छात्रायें लग रहीं थी हमारे पास बस के बोनट पर बैठ गई। वे इटारसी की रहने वाली थीं। लेकिन पढ़ाई उन्होंने होशंगाबाद में की थी। अब वे अध्यापिकाएँ हैं। मैंने उनसे पूछा, ’’यहाँ कुली, भिखारी और मैनुअल रिक्शा चालक नहीं दिखाई दिये।’’ दोनों तपाक से बोलीं,’’ वो तो दिल्ली में होते हैं।’’ मैंने दूसरा प्रश्न दागा,’’ आप अकेली सफ़र करती हो, मनचले  छेड़ते तो नहीं!’’ दोनो कोरस में बोली,’’वो तो दिल्ली में छेड़ते हैं।’’ अब मैंने पूछना बंद कर दिया। इटारसी तक वे होशंगाबाद की तारीफ़ करती आईं और गर्व से बताया, यहाँ घाट पर गंगाजल फिल्म की शूटिंग हुई थी। हम अगली यात्रा के लिए इटारसी के स्टेशन पहुँचे। क्रमशः

 
बहुमत मध्य प्रदेश एवम छत्तीसगढ़ से एक साथ प्रकाशित समाचार पत्र में यह लेख प्रकाशित है