वो बहुत हैरान
होकर बोली,’’तुम कैसी हो! न
नानवेज खाती हो, न वाइन लेती हो।’’बदले में मैं मुस्कुरा दी। वो मेरे लिए
फिक्रमंद हो गई कि मुझे क्या दे, ये देखकर मुझे
बहुत अच्छा लगा। उसने पूछाकि मैं अब डिनर से पहले क्या लूंगी? मैं बोली कि अभी आती हूँ। मैंने अपने फ्रिज से
लवान यानि मट्ठे का जार निकाला एक बड़ा गिलास भरा, उसमें काला नमक और भुना जीरा डाल कर लाई। सामने से पौदीने
की ताजी कोंपलें तोड़ी, धोई डालीं और बर्फ के
टुकड़े भी डाल दिए। कात्या मुले ने उसका एक घूंट पीकर, स्वाद अच्छा लगने से आंखे मटकाई और मुझे पकड़ा
दिया। शायद उसका अपने प्रति स्नेह देख कर, मुझे उसका जूठा किया गया, छाछ पीने में जरा
भी परहेज नहीं हुआ। वो मुझसे अंग्रेजी में बात बहुत आसान शब्द खोज कर, बहुत कम
स्पीड से बोलती थी। मैं तो थी ही स्लो मोशन में। अब उसने मुझसे पूछा कि मेरा वाइन
न पीना क्या धार्मिक कारण है? मैंने जवाब दिया," नहीं।" उसने फिर प्रश्न किया कि फिर क्या कारण है? वाइन न पीने का।
मैंने कहाकि जहाँ तक मैं समझती हूँ इसका कारण पारिवारिक और भौगोलिक हो सकता है।
मैं ब्राह्मण हूँ। कपूरथला के जिस घर में मेरा जन्म हुआ, वहाँ मंदिर है। जो बनता है वह ठाकुर जी को भोग लगता,
वही सब परिवार खाता है। जो उनकी पसंद होती है।
वो खाने पीने की हमारी आदत बन जाती है। गाय हम पालते है। एक मटका लस्सी का भरा रहता है। हम खाने
के साथ मट्ठा पीते हैं। ये भी फरमेंटेशन और बैक्टिरिया प्रोडक्ट है। हमारे यहाँ बर्फ
नहीं पड़ती इसलिये शायद हमें ये सूट करता है। हम जहाँ भी जाते हैं दूध, दहीं, लस्सी की आदत साथ लेकर जाते हैं। ऐसा क्यों? कभी प्रश्न ही नहीं मन में उठता। जो बचपन से देखते हैं शायद
यही परंपरा बन जाती है। आप जो पीते हैं, ये शुगर का फरमंटेशन है, जो एल्कोहल में बदल
जाता है। र्जमनी में माइनस में तापमान हो जाता है। वनस्पतियाँ भी इतनी ठण्ड में कम
होती होंगी, हो सकता है
इसलिये आपके खाने में वाइन और मांस अवश्य होता है। तुम्हें हैरानी होगी कि मैंने
अपने जीवन में आज पहली बार अपने सामने किसी को शराब पीते देखा है। उसने एक सांस
में पता नहीं कितनी बार सॉरी कहा। मैंने हंसते हुए उसे समझाया कि ये कहने का मेरा
कोई मतलब नहीं था क्योंकि हमारे परिवारों में कोई पीता नहीं है। इसलिये वाइन घर
में नहीं होती। तो देखती कहाँ से? हमारे बुर्जुग
रिश्ता करते समय बड़े गर्व से कहते हैं कि हमारे यहाँ पीने खाने(मांस मदिरा शब्द का
भी प्रयोग नहीं करते) का रिवाज नहीं है। अपने बारे में मैं यह कह सकती हूँ कि बचपन
से ये शब्द सुनते सुनते, मेरे लिये ये
शायद संस्कार बन गया है। मेरे सामने चाहे कैसा नानवेज, कीमती वाइन रख दो, मैं चख भी नहीं सकती। डिनर का समय होते ही तुरंत चर्चा पर स्टॉप लग गया। हम
दोनो किचन में गये। उसने मुझसे कहा कि आपने जितना लेना है ले लो। सैण्डविच और
लस्सी पीने के बाद मेरी खाने की गुंजाइश नहीं थी पर उसने मेरी पंसद का बनवाया था,
उसे बुरा लगेगा इसलिये सब्जी, दाल, रायता मैंने ले लियां। ये देख कर वह रूआसी होकर बोली,’’ नीलम मैंने तुम्हें डिनर करने को कहा है न कि चखने को।" मैंने झूठ बोला कि जितना डॉक्टर ने कहा है, मैंने उतना ही लिया है। उसने मुझसे चार
गुना पोरशन लिया। रोटी चावल की जगह प्लेट में उबले हुए आलू रखे। वह इतना खा सकती
है क्योंकि काम के साथ इतने बड़े विला को बिना किसी हैल्पर के मेनटेन जो किया हुआ
था। साथ ही साफ सुथरे ग्यारह बिल्लयां और एक कुत्ता भी पाले थे उनका भी काम। उसे
मेरी दाल सब्जी बहुत पसंद आई। मैंने चैन की सांस ली कि सांबर मसाला उसे सूट कर
गया। उसका रायता गज़ब का स्वाद। जिसे अब मैं भारत में अपने घर में उगाई ताजी लहसुन
की पत्तियों से बनाती हूँ। मेरे मंद गति के अनुवाद के कारण, हम कम बाते कर सकते थे। लेकिन करते लगातार थे। मैंने उसे
कहा मैं तुम्हें रोटी या चावल बना देती न, अपनी बेटी के लिए भी तो बनातीं हूं। तुम्हेँ उबले आलू खाते देख कर मुझे अच्छा
नहीं लग रहा. सुनकर उसने मेरा हाथ चूम लिया और बोली मैं चालीस प्रतिशत
कार्बोहाइड्रेट लेती हूँ। हमारे यहाँ आलू और तरह तरह की ब्रेड खाते हैं। उसने
कहाकि बेटी का खाना ले जाओ न। मैंने कहाकि उसने जो कहा था, मैंने बना रखा था। बाय करके हम अपने अपने जूठे बरतन लेकर,
अपने अपने घर चल दिये। क्रमशः