शाम के समय मैं अकसर अपने गेट के सामने कुर्सी पर बैठ जाती हूं। मेरे घर के आगे से जो भी गुजरता है वो मुझे बड़ी हिकारत से देखता हुआ निकलता है। मैंने बड़ा इसका कारण खोजा। काफी माथा पच्ची करने के बाद भी न समझ सकी। अचानक सामने रहने वाली भाभी जी मुंह पर मास्क लगाये आई और दो मीटर की दूरी रख कर 91वें वर्ष में मेरी अम्मा को झाड़ू लगाते देख कर बोलीं,’’दीदी, हम तो अम्मा जी के कारण बहुत मोटीवेट होते हैं। जिस दिन लॉकडाउन शुरु हुआ था, हमें तो चिंता हो गई थी कि मेड के बिना कैसे काम चलेगा? अब काम तो करना ही था। अचानक मुझे याद आया जनता कर्फ्यू के दिन 22 मार्च को शाम 5 बजे आप सब बर्तन पीट रहे थे और अम्मा जी सबसे बेख़बर, आंगन में झाड़ू लगा कर पेड़ के पत्तों का ढेर लगा रहीं थीं। ढेर लगा कर वे अंदर चली गईं। आपने हमेशा की तरह कूड़ा डस्टबिन में डाल दिया। ये याद करके मैं भी अपने काम में लग गई।" हम दोनों घरों ने मिल कर तीन पार्ट टाइम मेड रक्खी हैं। जब भी कोई नहीं आती तो दोनों उसका काम कर देती हैं। हमें कभी मेड की परेशानी नहीं हुई। उनके जाते ही मुझे लोगों के देखने का नज़रिया समझ आ गया कि मैं कुर्सी पर बैठी होती हूं और मेरी बूढ़ी मां झाड़ू लगा रही होती है। अम्मा कभी खाली नहीं बैठती थीं। न किसी को काम कहतीं थीं। मंदिर उन्होंने सबसे ऊपर छत पर बना रखा था। वे भाभियों के स्कूल से आने के बाद खाना पानी और अमर उजाला अखबार और मेरी साहित्य एकेडमी से लाई किताब लेकर छत पर चलीं जातीं। वहीं वे पूजा पाठ करके शाम को उतरतीं। नीचे जो फालतू सामान होता, उसे तुरंत ऊपर रख आती। जब किसी को जरुरत होती तुरंत ले आती। चार साल पहले उन्हें चिकनगुनिया हो गया। बड़ी मुश्किल से बचीं। जरा सी हिम्मत आते ही सहारे से आंगन में आकर पेड के नीचे लेट गई। अब टी.वी. देखना, दूसरी किताबें पढ़ना बंद कर दिया है। बाल खुद से नहीं संभलते इसलिये एक मीटर लम्बी चोटी कटवा दी। सुबह दस बजे तक धार्मिक किताबें पढ़ कर बाहर पेड़ के नीचे लेटी, बैठी रहती हैं। जब से अमर उजाला अखबार शुरु हुआ तब से उसे ही पढ़ती हैं। कभी वैण्डर दूसरा अखबार दे जाये तो उनका मूड ख़राब हो जाता है। फिर मैं बाजार से उन्हें अमर उजाला लाकर देती हूं। धीरे धीरे नाश्ता करती हैं। ग्यारह बजे से अखबार उनकी हो जाती है। शाम तक वे उसकी एक भी लाइन पढ़े बिना नहीं छोड़ती। बांहे दुख जाती हैं। तो रैस्ट कर लेतीं हैं। लॉकडाउन में जब अमर उजाला नहीं आया तो दुखीं थीं। टी. वी. में खबरें सुन कर, देख कर कहती,’’ अखबार पढ़ने का स्वाद अलग होता।’’ लाल सिंह ने अमर उजाला अखबार पहुंचाई। पढ़कर बहुत खुश हुईं। ढेरों आर्शीवाद देकर बोलीं,’जो भी अखबार देने आता है। उसे मना कर दे। कोरोना पूछ कर नहीं आयेगा। मुझे अपने जीवन के अंतिम चरण में ऐसा महामारी काल देखना है तो बिना अखबार के भी रह लूंगी।’’हमने मना कर दिया। एक हाथ में डण्डी और दूसरे में झाड़ू लेकर शाम को आंगन जरुर बुहारती हैं। शुरु में मेड ने उनके हाथ से झाड़ू लेने की कोशिश की। उसे कहा,’’बेटी बैठे रहने से मेरे हाथ पैर बिल्कुल रह जायेंगे।’’डॉक्टर ने मुझे कहा कि ये इनकी बोनस उम्र है, जैसे करती हैं करने दो। अब वे धुले कपड़े जैसे जैसे सूखते जायेंगे, उन्हें उतार कर तह लगा देतीं हैं। कहीं से उधड़ा हो या बटन टूटा हो तो अपने आप सुई में धागा डाल कर रिपेयर कर देतीं हैं। वैण्डर अखबार रैगुलर लाने लगा है। उनकी दिनचर्या पहले जैसी हो गई है। जो घर के आगे से गुजरते हुए, अम्मा को शाम को झाड़ू लगाते और मुझे कुर्सी पर बैठे देखता है। उसका ऐसे देखना लाज़मी है।
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Thursday, 23 July 2020
ऐसे तो न देखो!! नीलम भागी Aise Toh Na Dekho Neelam Bhagi
शाम के समय मैं अकसर अपने गेट के सामने कुर्सी पर बैठ जाती हूं। मेरे घर के आगे से जो भी गुजरता है वो मुझे बड़ी हिकारत से देखता हुआ निकलता है। मैंने बड़ा इसका कारण खोजा। काफी माथा पच्ची करने के बाद भी न समझ सकी। अचानक सामने रहने वाली भाभी जी मुंह पर मास्क लगाये आई और दो मीटर की दूरी रख कर 91वें वर्ष में मेरी अम्मा को झाड़ू लगाते देख कर बोलीं,’’दीदी, हम तो अम्मा जी के कारण बहुत मोटीवेट होते हैं। जिस दिन लॉकडाउन शुरु हुआ था, हमें तो चिंता हो गई थी कि मेड के बिना कैसे काम चलेगा? अब काम तो करना ही था। अचानक मुझे याद आया जनता कर्फ्यू के दिन 22 मार्च को शाम 5 बजे आप सब बर्तन पीट रहे थे और अम्मा जी सबसे बेख़बर, आंगन में झाड़ू लगा कर पेड़ के पत्तों का ढेर लगा रहीं थीं। ढेर लगा कर वे अंदर चली गईं। आपने हमेशा की तरह कूड़ा डस्टबिन में डाल दिया। ये याद करके मैं भी अपने काम में लग गई।" हम दोनों घरों ने मिल कर तीन पार्ट टाइम मेड रक्खी हैं। जब भी कोई नहीं आती तो दोनों उसका काम कर देती हैं। हमें कभी मेड की परेशानी नहीं हुई। उनके जाते ही मुझे लोगों के देखने का नज़रिया समझ आ गया कि मैं कुर्सी पर बैठी होती हूं और मेरी बूढ़ी मां झाड़ू लगा रही होती है। अम्मा कभी खाली नहीं बैठती थीं। न किसी को काम कहतीं थीं। मंदिर उन्होंने सबसे ऊपर छत पर बना रखा था। वे भाभियों के स्कूल से आने के बाद खाना पानी और अमर उजाला अखबार और मेरी साहित्य एकेडमी से लाई किताब लेकर छत पर चलीं जातीं। वहीं वे पूजा पाठ करके शाम को उतरतीं। नीचे जो फालतू सामान होता, उसे तुरंत ऊपर रख आती। जब किसी को जरुरत होती तुरंत ले आती। चार साल पहले उन्हें चिकनगुनिया हो गया। बड़ी मुश्किल से बचीं। जरा सी हिम्मत आते ही सहारे से आंगन में आकर पेड के नीचे लेट गई। अब टी.वी. देखना, दूसरी किताबें पढ़ना बंद कर दिया है। बाल खुद से नहीं संभलते इसलिये एक मीटर लम्बी चोटी कटवा दी। सुबह दस बजे तक धार्मिक किताबें पढ़ कर बाहर पेड़ के नीचे लेटी, बैठी रहती हैं। जब से अमर उजाला अखबार शुरु हुआ तब से उसे ही पढ़ती हैं। कभी वैण्डर दूसरा अखबार दे जाये तो उनका मूड ख़राब हो जाता है। फिर मैं बाजार से उन्हें अमर उजाला लाकर देती हूं। धीरे धीरे नाश्ता करती हैं। ग्यारह बजे से अखबार उनकी हो जाती है। शाम तक वे उसकी एक भी लाइन पढ़े बिना नहीं छोड़ती। बांहे दुख जाती हैं। तो रैस्ट कर लेतीं हैं। लॉकडाउन में जब अमर उजाला नहीं आया तो दुखीं थीं। टी. वी. में खबरें सुन कर, देख कर कहती,’’ अखबार पढ़ने का स्वाद अलग होता।’’ लाल सिंह ने अमर उजाला अखबार पहुंचाई। पढ़कर बहुत खुश हुईं। ढेरों आर्शीवाद देकर बोलीं,’जो भी अखबार देने आता है। उसे मना कर दे। कोरोना पूछ कर नहीं आयेगा। मुझे अपने जीवन के अंतिम चरण में ऐसा महामारी काल देखना है तो बिना अखबार के भी रह लूंगी।’’हमने मना कर दिया। एक हाथ में डण्डी और दूसरे में झाड़ू लेकर शाम को आंगन जरुर बुहारती हैं। शुरु में मेड ने उनके हाथ से झाड़ू लेने की कोशिश की। उसे कहा,’’बेटी बैठे रहने से मेरे हाथ पैर बिल्कुल रह जायेंगे।’’डॉक्टर ने मुझे कहा कि ये इनकी बोनस उम्र है, जैसे करती हैं करने दो। अब वे धुले कपड़े जैसे जैसे सूखते जायेंगे, उन्हें उतार कर तह लगा देतीं हैं। कहीं से उधड़ा हो या बटन टूटा हो तो अपने आप सुई में धागा डाल कर रिपेयर कर देतीं हैं। वैण्डर अखबार रैगुलर लाने लगा है। उनकी दिनचर्या पहले जैसी हो गई है। जो घर के आगे से गुजरते हुए, अम्मा को शाम को झाड़ू लगाते और मुझे कुर्सी पर बैठे देखता है। उसका ऐसे देखना लाज़मी है।
Sunday, 29 September 2019
जीने के लिए, ऐसे सोचा ही नहीं विदेश को जानो, भारत को समझो घरोंदा Videsh Ko Jano, Bharat Ko Samjho GHARONDA Part 8 नीलम भागी
सुबह विला में
सन्नाटा छाया हुआ था। बिल्लियां भी चुपचाप घूम रहीं थीं। उत्कर्षिनी भी कह कर सोई थी कि
उसे जगाना नहीं है। अकेली मैं ही बाहर फर्श से बेर सीख वाले झाड़ू से समेट कर
डस्टबिन में डाल रही थी। मैं ये काम गाते गुनगुनाते कर रही थी। इण्डिया में होती
तो बाई से करवाती। मेरी बाई अगर न आती तो दूसरी बाइयां खोजने में समय लगाती। खुद बहुत ही मजबूरी में झाडू लगाती। लेकिन रात की कात्या मूले ने तो मेरी सोच ही बदल दी।
दस बजे के करीब कात्या मूले भी गाती हुई आई और अपनी बिल्लियों को खाना देने लगी।
मुझे देखते ही बोली अभी आपको फुज़ैरा के लिए निकलना है। जाने के लिए बेटी तैयार
होकर आ गई। मुझे भी बोला माँ जल्दी तैयार हो जाओ। बेटी और कात्या मूले बतियाने बैठ
गई। मै साड़ी पहन कर आ गई। कात्या मूले ने मेरे इतनी जल्दी साड़ी में तैयार होकर आने
पर ताली बजाई। बेटी बोली सूट पहन कर आओ। वहाँ हवा बहुत तेज चलती है। बीच पर आपकी
साड़ी ऊँची ऊँची उड़ेगी। मैंने कहा बाहर के लिए तूने मुझे एक भी सलवार कमीज नहीं
लाने दिया कि आप वहाँ मेरे साथ साड़ी में ही जाओगी। वो बोली मेरा र्कुता और चूड़ीदार
पहन कर आओ, मैं पहन आई। गाड़ी र्स्टाट
करते ही मैंने पूछा कि कात्या मूले हमारे साथ नहीं जायेगी। बेटी बोली,” माँ यहाँ कोई किसी की प्राइवेसी में खलल नहीं
डालता।“ अंधेरा पड़ने पर हम लौटे। देखते ही कहीं जाने को तैयार, कात्या मूले
ने मुझसे पूछा,” माई डियर तुमने आज दाल
खाई? मैंने कहा,” डिनर में लूंगी।“ फिर उसने मुझसे वायदा लिया कि मैं एक घण्टा वॉक
जरूर करूं। मैंने हामी भर दी। वो पार्टी के लिये चल दी। बेटी ड्राइविंग से थकी हुई
थी, खाना लगा कर उसे जगाया वो खाकर सो गई।
मैं एक घण्टा सैर करके सोई। कात्या मूले रात में पता नहीं कब आई। सुबह कल जैसी ही
थी। बेटी ने लंच के लिए बाहर ले जाना था और हमने पिक्चर देखनी थी। शाम को हम लौटे
तो लॉन में कात्या मूले बैठी थी. उसका वीकएंड उतार पर था। मुझे देखते ही पूछा,” दाल खायी?” मैंने झूठ बोल
दिया,” हाँ।“ मैंने बेटी से
कहा था कि मेरी माँ, जाते ही दाल का पूछेगी
तूं दाल मंगा ले। बेटी बोली,” मैं यहाँ आपको
दाल खिलाने नहीं लाई हूं। उसके खाने में नानवेज जरूर होता है। आप खाती नहीं हो।
दाल में प्रोटीन होता है और खाने में प्रोटीन जरूरी होता है। आप से बहुत स्नेह
करती है इसलिये आप का बहुत ध्यान रखती है। जब रैजीडेंशियल और कर्मशियल के चक्कर
में एथॉरिटी ने आपका स्कूल बंद करवाया तो मैं बहुत खुश हुई थी। पच्चीस साल आपके
झुग्गी झोंपड़ी के अनपढ माँ बाप के बच्चों को अक्षर ज्ञान कराते बीत गए। न कहीं आना
हुआ न जाना, इतनी व्यस्त रही। मुझे अपने पैरों पर खड़ा कर दिया। मैं भगवान का शुक्र
करती हूं कि स्कूल बंद हुआ। अब मैं आपके लिये कुछ कर तो सकूंगी। लेकिन आपने स्कूल
का बंद होना दिल पर लगा लिया और ठीक से खाना सोना नहीं करतीं थी। घर से फोन आने पर
मुझे पता चला। मैंने कात्या मूले को बताया। उसने कहा कि माँ को यहाँ बुला लो।
उनका काम भी बंद हो गया है, जिसकी उन्हें आदत हो गई थी और तुम भी तो नहीं हो पास में, वो खाली क्या
करें? तुम्हे अच्छे से सैटल देख
कर उन्हें अपनी मेहनत सफल लगेगी। मैंने कहा कि मैं खुद लेकर आउंगी माँ को। इण्डिया
आते ही मैं आपको डॉक्टर के ले कर गई। उसने कहा कि एक घण्टा सैर करें और व्यस्त
रहें। मैंने कात्या मूले को फोन किया उसने
कहा कि हम दोनो ध्यान रखेंगे और उन्हें ठीक कर देंगे बस तुम माँ को ले आओ। क्रमशः
Wednesday, 18 September 2019
वाइन न पीना क्या धार्मिक कारण है? विदेश को जानो, भारत को समझो घरोंदा Videsh Ko Jano, Bharat Ko Samjho GHARONDA Part 5 नीलम भागी
वो बहुत हैरान
होकर बोली,’’तुम कैसी हो! न
नानवेज खाती हो, न वाइन लेती हो।’’बदले में मैं मुस्कुरा दी। वो मेरे लिए
फिक्रमंद हो गई कि मुझे क्या दे, ये देखकर मुझे
बहुत अच्छा लगा। उसने पूछाकि मैं अब डिनर से पहले क्या लूंगी? मैं बोली कि अभी आती हूँ। मैंने अपने फ्रिज से
लवान यानि मट्ठे का जार निकाला एक बड़ा गिलास भरा, उसमें काला नमक और भुना जीरा डाल कर लाई। सामने से पौदीने
की ताजी कोंपलें तोड़ी, धोई डालीं और बर्फ के
टुकड़े भी डाल दिए। कात्या मुले ने उसका एक घूंट पीकर, स्वाद अच्छा लगने से आंखे मटकाई और मुझे पकड़ा
दिया। शायद उसका अपने प्रति स्नेह देख कर, मुझे उसका जूठा किया गया, छाछ पीने में जरा
भी परहेज नहीं हुआ। वो मुझसे अंग्रेजी में बात बहुत आसान शब्द खोज कर, बहुत कम
स्पीड से बोलती थी। मैं तो थी ही स्लो मोशन में। अब उसने मुझसे पूछा कि मेरा वाइन
न पीना क्या धार्मिक कारण है? मैंने जवाब दिया," नहीं।" उसने फिर प्रश्न किया कि फिर क्या कारण है? वाइन न पीने का।
मैंने कहाकि जहाँ तक मैं समझती हूँ इसका कारण पारिवारिक और भौगोलिक हो सकता है।
मैं ब्राह्मण हूँ। कपूरथला के जिस घर में मेरा जन्म हुआ, वहाँ मंदिर है। जो बनता है वह ठाकुर जी को भोग लगता,
वही सब परिवार खाता है। जो उनकी पसंद होती है।
वो खाने पीने की हमारी आदत बन जाती है। गाय हम पालते है। एक मटका लस्सी का भरा रहता है। हम खाने
के साथ मट्ठा पीते हैं। ये भी फरमेंटेशन और बैक्टिरिया प्रोडक्ट है। हमारे यहाँ बर्फ
नहीं पड़ती इसलिये शायद हमें ये सूट करता है। हम जहाँ भी जाते हैं दूध, दहीं, लस्सी की आदत साथ लेकर जाते हैं। ऐसा क्यों? कभी प्रश्न ही नहीं मन में उठता। जो बचपन से देखते हैं शायद
यही परंपरा बन जाती है। आप जो पीते हैं, ये शुगर का फरमंटेशन है, जो एल्कोहल में बदल
जाता है। र्जमनी में माइनस में तापमान हो जाता है। वनस्पतियाँ भी इतनी ठण्ड में कम
होती होंगी, हो सकता है
इसलिये आपके खाने में वाइन और मांस अवश्य होता है। तुम्हें हैरानी होगी कि मैंने
अपने जीवन में आज पहली बार अपने सामने किसी को शराब पीते देखा है। उसने एक सांस
में पता नहीं कितनी बार सॉरी कहा। मैंने हंसते हुए उसे समझाया कि ये कहने का मेरा
कोई मतलब नहीं था क्योंकि हमारे परिवारों में कोई पीता नहीं है। इसलिये वाइन घर
में नहीं होती। तो देखती कहाँ से? हमारे बुर्जुग
रिश्ता करते समय बड़े गर्व से कहते हैं कि हमारे यहाँ पीने खाने(मांस मदिरा शब्द का
भी प्रयोग नहीं करते) का रिवाज नहीं है। अपने बारे में मैं यह कह सकती हूँ कि बचपन
से ये शब्द सुनते सुनते, मेरे लिये ये
शायद संस्कार बन गया है। मेरे सामने चाहे कैसा नानवेज, कीमती वाइन रख दो, मैं चख भी नहीं सकती। डिनर का समय होते ही तुरंत चर्चा पर स्टॉप लग गया। हम
दोनो किचन में गये। उसने मुझसे कहा कि आपने जितना लेना है ले लो। सैण्डविच और
लस्सी पीने के बाद मेरी खाने की गुंजाइश नहीं थी पर उसने मेरी पंसद का बनवाया था,
उसे बुरा लगेगा इसलिये सब्जी, दाल, रायता मैंने ले लियां। ये देख कर वह रूआसी होकर बोली,’’ नीलम मैंने तुम्हें डिनर करने को कहा है न कि चखने को।" मैंने झूठ बोला कि जितना डॉक्टर ने कहा है, मैंने उतना ही लिया है। उसने मुझसे चार
गुना पोरशन लिया। रोटी चावल की जगह प्लेट में उबले हुए आलू रखे। वह इतना खा सकती
है क्योंकि काम के साथ इतने बड़े विला को बिना किसी हैल्पर के मेनटेन जो किया हुआ
था। साथ ही साफ सुथरे ग्यारह बिल्लयां और एक कुत्ता भी पाले थे उनका भी काम। उसे
मेरी दाल सब्जी बहुत पसंद आई। मैंने चैन की सांस ली कि सांबर मसाला उसे सूट कर
गया। उसका रायता गज़ब का स्वाद। जिसे अब मैं भारत में अपने घर में उगाई ताजी लहसुन
की पत्तियों से बनाती हूँ। मेरे मंद गति के अनुवाद के कारण, हम कम बाते कर सकते थे। लेकिन करते लगातार थे। मैंने उसे
कहा मैं तुम्हें रोटी या चावल बना देती न, अपनी बेटी के लिए भी तो बनातीं हूं। तुम्हेँ उबले आलू खाते देख कर मुझे अच्छा
नहीं लग रहा. सुनकर उसने मेरा हाथ चूम लिया और बोली मैं चालीस प्रतिशत
कार्बोहाइड्रेट लेती हूँ। हमारे यहाँ आलू और तरह तरह की ब्रेड खाते हैं। उसने
कहाकि बेटी का खाना ले जाओ न। मैंने कहाकि उसने जो कहा था, मैंने बना रखा था। बाय करके हम अपने अपने जूठे बरतन लेकर,
अपने अपने घर चल दिये। क्रमशः
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