Search This Blog

Monday, 4 February 2019

विद्यापति जन्मस्थली विस्पी जिला मधुबनी बिहार यात्रा 16 Vidhyapati Janmsthali Vispi Madhubani Bihar Part 16 Neelam Bhagi नीलम भागी


 इनके अंत समय की एक जनश्रुति है कि जब इनका अंत समय आया तो इन्होंने अपने परिवार से कहा कि अब वे इस शरीर को त्याग करना चाहते हैं और गंगालाभ के लिये सिमरिया गंगाघाट जाना चाहते हैं। अपनी अंतिम सांसे वहीं गंगा माँ को स्पर्श कर छोड़ना चाहते हैं। उनके प्राण पखेरू कभी भी उड़ सकते हैं तो परिवार को दुख होगा कि वे उनकी अंतिम इच्छा पूरी नहीं कर पाये। तुरंत चार कहारों का इंतजाम किया गया और पालकी में उन्हें लिटा कर सब चल दिए। आगे आगे कहार, पीछे पीछे परिवार और सगे संबंधी चल रहे थे। पूरी रात चलते बीत गई। सूर्योदय पर अचानक महाकवि ने पूछा,’’गंगा जी कितनी दूर हैं?’’ कहारों ने कहा कि दो कोस। वे बोले,’’ रूक जाओ। हम आगे नहीं जायेंगे। गंगा जी को यहाँ आना होगा। कहारों ने कहा ,’’ठाकुर जी ऐसा सम्भव नहीं है। गंगा जी यहाँ से पौने दो कोस से भला कैसे आ सकतीं हैं। थोड़ा सब्र करें एक घंटे के अंदर हम सिमरिया घाट पहुँच जायेंगे।’’

वे बोले,’’ रूक जाओ। कह दिया, हम आगे नहीं जायेंगे। गंगा जी को यहाँ आना ही होगा। बेटा इतनी दूर से माँ को मिलने आया है। थोड़ा माँ को भी पु़त्र के लिये आगे आना चाहिये। बीमार और कमजोर शरीर लेकर, अंत समय में इतनी दूर माँ से मिलने आया हूं ,तो क्या माँ पौने दो कोस दूर बेटे से मिलने नहीं आ सकती। गंगा माँ तो यहीं आयेंगी। बड़े आत्मविश्वास से उन्होंने कहा। नहीं नहीं पालकी यहीं रोको।’’ कहारों ने आज्ञा पालन किया। सबने वहीं डेरा डाल लिया। अब यहाँ वे ध्यान मुद्रा में बैठ गये। कहते हैं कि कुछ ही समय बाद गंगा की धारा उछलती हुई तेज प्रवाह से अपने यशस्वी पुत्र से मिलने आई। महाकवि ने गंगा जी को प्रणाम किया और उसके जल में बैठ कर एक पद की रचना की। और दूसरा पद अपनी पुत्री दुल्लहि के लिये गाया। इनके विश्वविख्यात पदों को गाना गायकों को बहुत पसंद है। मैं यहाँ आना तीर्थयात्रा से कम नहीं समझ रहीं हूं। पर....                 गेट के आगे तो धान सूख रहा था और गेट के बराबर में र्बोड लगा था। जिस पर लिखा था ’विद्यापति जन्मस्थली सेवा समिति बिस्पी आपका अभिनन्दन करती है।' पर गेट पर तो लटका ताला स्वागत कर रहा था। सूर, कबीर, तुलसी और मीरा से भी पहले के महाकवि की पवित्र जन्मस्थली को नमन किए बिना तो हमने लौटना नहीं था। गेट से भवन, विशाल हराभरा परिसर दिख रहा था। यहाँ का नेटवर्क बड़ा मजबूत है। ब्यटीपार्लर वाले अमुक जी भी तुरंत आ गये थे और यहाँ भी र्कमचारी जल्दी हाजिर हो गए  |सामने ब्राह्मण परिवार में 1350 में जन्में विद्यापति ठाकुर की मूर्ति है। इन्हें महाकवि कोकिल की उपाधि से सम्मानित किया गया था। मैथिल साहित्य के आदि कवि श्रंगार परम्परा के साथ भक्ति परंपरा के भी प्रमुख स्तम्भों में से एक हैं। इनकी रचनाएं संस्कृत, अवहट्ट एवं मैथली में हैं। इन्होंने ग्यारह ग्रंथों की रचना की है। लेकिन इनकी पदावली गीत संगीत में गाई जाती है। इन्होंने अनगिनत पदों की रचना की। समकालीन आठ राजाओं का इन्हें प्रश्रय प्राप्त था और तीन रानियों के सलाहकार थे| शिव और शक्ति के प्रबल भक्त थे। इन्हें श्रृंगारी और दरबारी कवि भी कहते हैं। इन्होंने नीति कथाओं की भी रचना की है। र्कीतिलता गाथा छंद में हैं। जिस शैली में चंद्रबरजाई ने पृथ्वी दास रासो लिखा है। शहर की भीड़ शोर शराबे से दूर यह परिसर बहुत अच्छा लग रहा था। धीरे धीरे आस पास के लोग जुटने लगे। किसी अखबार का रिर्पोटर भी आ गया। इनकी मृत्यु 1448 में हुई थी। क्रमशः