मेरा देश महान, मुफ्त सलाह देना,
जहाँ लोगों का काम!!
नीलम भागी
मैं ये दावे के साथ कह सकती हूँ कि मेरे जैसी गंभीर समस्या औरों के घर में भी होगी, जिनके यहाँ दो से चार साल तक के बच्चे हैं। हुआ यूं कि ढाई साल की गीता को शॉपिंग में ंसाथ जाना बहुत पसंद है पर प्रैम में बैठना बिल्कुल भी पसंद नहीं है। न लेकर जाओ तो जब तक लौटो नहीं, चीख चीख कर रोती रहती है। लेकर जाओ तो गाड़ी से उतरते ही भागना शुरू कर देती है। कितना समझाओ कि चोट लग जायेगी पर बच्चा कहाँ मानता है! जब तक चोट खाने का अनुभव न हो और हम बच्चे को ऐसा अनुभव होने नहीं देते। अंगुली पकड़ कर चलो तो वह अंगुली छोड़ देता है क्योंकि हम लम्बे होते हैं और बच्चा छोटा होता है। हमारी अंगुली पकड़े पकड़े उसकी बाँह ऊँची रहती है, जिससे उसके कंधों में दर्द होने लगता है। बोलो कुर्ते का कोना पकड़ कर चलो, तोे जब दिल करता है तो उसे भी छोड़ कर सड़क पर भागने लगता है। शो रूम में कुछ सलैक्ट करने में हम खो गये तो, तो बेबी भी खो जाता है। बच्चा कहीं भी मुहँ उठा के चल देता है। फिर शॉपिंग छोड़ उसे खोजो। यू. के. में बेबी लीष (ठंइल समंेीमे) की सहायता से बच्चे मजे से माँ के साथ शॉपिंग एनजॉय कर रहे थे। हम भी गीता के लिये ले आये। पहली बार मैं और गीता बाँहों में पहन कर शॉपिंग के लिये निकले गीता बहुत खुश, मैंने भी इत्मीनान से खरीदारी की घर लौटे रहे थे तो एक सज्जन बोले,’’अरे! वाह कुत्ते के गले में पट्टा होता है और बच्चे की बाँह में होता है। जैसे मर्जी हो घुमाओ।’’बच्चे की कुत्ते से तुलना करने पर, गुस्सा तो मुझे बहुत आया, पर उनकी उम्र का लिहाज कर चुप रही और गुस्सा मैंने थूक दिया। अगले दिन गीता ने मेरे हाथ में लीष दिया और बोली,’’घुम्मी चलो।’’ मैं भी उसे घुमाने ले गई। जो देख रहा था, मुस्कुराये बिना नहीं जा रहा था। इतने में एक गाड़ी आकर मेरे पास रूकी, उसमें से एक महिला उतरी। उतरते ही उसने मुझे अपना परिचय दिया कि वो एक चाइल्ड साइकोलोजिस्ट है और छुटते ही एक लैक्चर दे दिया। जिसे मैंने अपनी बी.एड. में पढ़ी चाइल्ड साइकोलोजि में नहीं पढ़ा था। अब मुझे समझ नहीं आ रहा कि मैं गीता की खुशी और उसकी सुरक्षा देखूँ या उस महिला के द्वारा दिये गए बाल मनोविज्ञान के लैक्चर को मानू।
जहाँ लोगों का काम!!
नीलम भागी
मैं ये दावे के साथ कह सकती हूँ कि मेरे जैसी गंभीर समस्या औरों के घर में भी होगी, जिनके यहाँ दो से चार साल तक के बच्चे हैं। हुआ यूं कि ढाई साल की गीता को शॉपिंग में ंसाथ जाना बहुत पसंद है पर प्रैम में बैठना बिल्कुल भी पसंद नहीं है। न लेकर जाओ तो जब तक लौटो नहीं, चीख चीख कर रोती रहती है। लेकर जाओ तो गाड़ी से उतरते ही भागना शुरू कर देती है। कितना समझाओ कि चोट लग जायेगी पर बच्चा कहाँ मानता है! जब तक चोट खाने का अनुभव न हो और हम बच्चे को ऐसा अनुभव होने नहीं देते। अंगुली पकड़ कर चलो तो वह अंगुली छोड़ देता है क्योंकि हम लम्बे होते हैं और बच्चा छोटा होता है। हमारी अंगुली पकड़े पकड़े उसकी बाँह ऊँची रहती है, जिससे उसके कंधों में दर्द होने लगता है। बोलो कुर्ते का कोना पकड़ कर चलो, तोे जब दिल करता है तो उसे भी छोड़ कर सड़क पर भागने लगता है। शो रूम में कुछ सलैक्ट करने में हम खो गये तो, तो बेबी भी खो जाता है। बच्चा कहीं भी मुहँ उठा के चल देता है। फिर शॉपिंग छोड़ उसे खोजो। यू. के. में बेबी लीष (ठंइल समंेीमे) की सहायता से बच्चे मजे से माँ के साथ शॉपिंग एनजॉय कर रहे थे। हम भी गीता के लिये ले आये। पहली बार मैं और गीता बाँहों में पहन कर शॉपिंग के लिये निकले गीता बहुत खुश, मैंने भी इत्मीनान से खरीदारी की घर लौटे रहे थे तो एक सज्जन बोले,’’अरे! वाह कुत्ते के गले में पट्टा होता है और बच्चे की बाँह में होता है। जैसे मर्जी हो घुमाओ।’’बच्चे की कुत्ते से तुलना करने पर, गुस्सा तो मुझे बहुत आया, पर उनकी उम्र का लिहाज कर चुप रही और गुस्सा मैंने थूक दिया। अगले दिन गीता ने मेरे हाथ में लीष दिया और बोली,’’घुम्मी चलो।’’ मैं भी उसे घुमाने ले गई। जो देख रहा था, मुस्कुराये बिना नहीं जा रहा था। इतने में एक गाड़ी आकर मेरे पास रूकी, उसमें से एक महिला उतरी। उतरते ही उसने मुझे अपना परिचय दिया कि वो एक चाइल्ड साइकोलोजिस्ट है और छुटते ही एक लैक्चर दे दिया। जिसे मैंने अपनी बी.एड. में पढ़ी चाइल्ड साइकोलोजि में नहीं पढ़ा था। अब मुझे समझ नहीं आ रहा कि मैं गीता की खुशी और उसकी सुरक्षा देखूँ या उस महिला के द्वारा दिये गए बाल मनोविज्ञान के लैक्चर को मानू।