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Tuesday, 28 June 2016
Saturday, 18 June 2016
तीन लंगड़ियाँ एक बैसाखी
मेरे सेक्टर से पहले जो चोराहा है न, वहाँ लाल बत्ती पर गाड़ी रूकते ही, एक बड़ी प्यारी सी पंद्रह सोलह साल की लड़की, जिसने जेब वाली कमीज़, पैरों तक का घाघरा पहना हुआ था, बैसाखी पर चलती आई। उसके मोहने से चेहरे पर मैल थी और रूखे बाल थे। गाड़ी के शीशे को वह खटखटाने लगी और साथ अपने प्रोफैशन के अनुसार दयनीय मुहं बनाने लगी। हांलाकि उसे ऐसा करने की जरूरत नहीं थी। उस अपंग बच्ची को देख कर तो वैसे ही कष्ट हो रहा था। उसने हाथ फैलाया, साथ ही मैंने विंडो का शीशा हटाया। पर्स में हाथ डालकर मेरे हाथ में जो भी नोट आया, मैंने उसकी हथेली पर रख दिया। उसने दोनों हाथ वैसे ही फैलाये रक्खे, उसके चेहरे के भाव तक नहीं बदले, मानों रूपये उसके लिये मात्र कागज के टुकड़े हों और मैं थी कि बैग में जो रूपये थे उसके फैले हाथों में रखती गई। रुपए खत्म होने पर, ढूंढ कर सिक्के ही डाल रही थी साथ ही उसके चेहरे को निहार रही थी , जो इतने पैसे मिलने पर भी निर्वीकार रहा। अंकुर बोला ,’’माँ, ए. टी. म. कार्ड ही दे दो न।’’ पर्स भी खाली हो गया, साथ ही सिंगनल भी ग्रीन हो गया। अब मैं रास्ते भर उस लड़की के बारे में सोचती रही। कल्पना में उसे देखती रही कि उसके बैसाखी नहीं है। उसका मुंह धुला हुआ है। बाल संवरे हुए हैं। साफ सुथरी कितनी सुन्दर लगेगी! काश ऐसा हो। अब मुझे भगवान जी पर गुस्सा आने लगा। उसका रूप चाहे कम कर देते, मसलन नाक चौड़ी कर देते, रंग काला कर देते पर टाँगे साबुत लगा देते तो उनको क्या फर्क पड़ जाता!! लड़की तो लंगड़ी न होती न। चलो, मैं जिस जरुरी काम के लिये गई थी, मेरा वह अटका हुआ काम पूरा हो गया। इस खुशी में, मैं लौटते हुए शाम को, घर आने से पहले मंदिर में भगवान का धन्यवाद करने गई। मंदिर के बाहर भण्डारा वितरण हो रहा था। पूजा करके बाहर आई तो क्या देखती हूँ! सुबह वाली लंगड़ी लगभग दौड़ती हुई भण्डारा लेने आ रही है। उसके साथ उसी की तरह ड्रेसअप(पैरों तक घाघरा पहने) दो लड़कियाँ और हैं। लेकिन अब उनमें से सबसे छोटी लड़की ने बगल में छाते की तरह, बैसाखी दबा रक्खी थी। भण्डारा न खत्म हो जाये इसलिये तीनों इतनी तेज चली आ रहीं थी, मानो मैराथन में भाग ले रहीं होंं। उन्हें चलता देख कर मुझे खुशी हुई। साथ ही दुख और क्षोभ भी हुआ। ऐसा क्यों!
Thursday, 9 June 2016
नेकी कर, और जूते खा मैंने भी खाए हैं, तू भी खा नीलम भागी
मुझे गाडि़यों, ट्रकों के पीछे लिखी कविता, शायरी पढ़ने का बहुत शौक है। उसे मैं दिल से पढ़ती हूं इसलिये मुझे याद भी हो जाती हैं। अधिकतर उनके पीछे नसीहत, चेतावनी लिखी होती है। मसनल ’हंस मत पगली, प्यार हो जायेगा।’ ’नाली में पैर डालोगी, धोना ही पड़ेगा। ड्राइवर से प्यार करोगी तो, रोना ही पड़ेगा।’
मालिक की गाड़ी,
डाइवर का पसीना।
चलती है रोड पर,
बन के हसीना।
जब भी मुझसे कोई गलती होती है, तो पछताने के समय मेरे मुँह से ट्रक के पीछे लिखी चेतावनी, अपने आप निकल जाती है, जैसे किसी वेदपाठी के मुँह से एैसे मौके पर श्लोक निकलता है।
हुआ यूँ कि मैं शाॅपिंग करने जा रही थी। एक 16 -17 साल का लड़का बैग लिए खड़ा था। उसके चेहरे से घोर दुख टपक रहा था। मुझसे बोला, “मैडम, आप शैंपू लेंगी।” मैंने कहा, “नहीं”। उसकी आँखें भर आईं। वह बोला, “आधे रेट में ले लीजिए न।” मैंने उससे कड़क आवाज में पूछा, “कहाँ से चुरा कर लाए हो?” वह बोला, “मैं आपको चोर लगता हूं।” अब मेरी आँखें उसे एक्स रे मशीन की तरह जाँचने लगी। मेरी जाँच की रिर्पोट से पहले ही, वह बोला,’’ मैं जिस स्टोर में काम करता था, वह बंद हो गया है। उसका किराया बहुत ज्यादा था। दुकानदार स्टोर का किराया ही नहीं निकाल पा रहा था, तो हमारी तनख्वाह कहां से देता! स्टोर बंद होने पर उसने हमें तनख्वाह के बदले सामान दे दिया।’’
अपनी कहानी के साथ-साथ वह हथेली पर बोतलों से निकाल कर तरह-तरह के शैंपू दिखाने लगा। और मैं आधे रेट के अमुक, दमुक, तमुक, लमुक ....... आदि शैंपू अपने बैग में रखने लगी। जब सब शैंपू रख चुकी तो लड़के ने मुझसे पूछा, “आपको दूसरे शैंपू दे दूं क्योंकि इनका सैंपल दिखाते हुए, ये कुछ कम हो गए है, वैसे जैसी आपकी मर्जी।’’ मैंने मन में सोचा सस्ते हैं, तो क्या हुआ? मैं तो लबालब भरी बोतलें लूंगी। मैंने कहा, “सील बंद दो।’’ उसने मुझे बैग के अंदर पाॅलिथिन में रखी बोतलें दे दी। मैंने उसे शैंपू के पैसे दिये और नसीहत दी कि बेटा पढ़ाई जरूर करो, तुम्हारी उम्र ही क्या है! स्कूल जाने का समय नहीं हेै तो प्राइवेट परीक्षा दो। उसने भी हामी भरी कि वह जरुर पढ़ेगा।
मैंने शॉपिंग का आइडिया ड्राॅप कर दिया क्योंकि पैसों से मैने पूरे खानदान के लिए एक साल के लिये शैंपू खरीद लिए थे। अब मैं लोभ के कारण, नेकी करके खुशी-खुशी घर आई। रास्ते भर सोचती रही कि मैंने एक बार में ही उसका कितना भार हलका कर दिया। जब परिवार के सदस्य इकट्ठे हुए तो मैंने उन्हें उस पढ़ाई के शौकीन लड़के की दुखभरी कहानी सुना कर, शैंपू दिखाए। सबने शैंपू खोले, सभी के अंदर एक ही रंग और गंध का पतला घोल भरा था। कोई कुछ बोले, उससे पहले मेरे मुंह से तपाक से ट्रक के पीछे लिखा, सड़क साहित्य निकला।
नेकी कर और जूते खा, मैंने भी खाएं है तू भी खा।
मेरा शौक !! विश्व जल दिवस World Water Day नीलम भागी
ज्यादातर लोग कोई न कोई शौक रखते हैं जैसे कैक्टस और मनीपलान्ट चुराना, नौकरानी से छेड़छाड़ करना आदि। ये शौक कभी भी किसी भी मौसम में किए जा सकते हैं। मेरा शौक है पाइप लेकर पानी छिड़कना। ये मैं गर्मी में ही कर पाती हूँ। सर्दी में बीमार न पड़ जाऊँ इसलिए नहीं करती।
जैसे जैसे गर्मी बढ़ती जाती है पानी का दबाव कम होता जाता है। पानी का पहली मंजिल पर चढ़ने का सवाल ही पैदा नहीं होता। निचले तल पर भी मोटर से आता है। वैसे ही मेरा शौक भी बढ़ता जाता है। मैं सुबह शाम पाइप लेकर मोटर चलाकर खूब छिड़काव करती हूँ। मेरे घर के सामने सड़क है उसे मैं खूब धोती हूँ बाहरी दीवारें ठंडी करती हूँ। पाइप के आगे अंगुली लगाकर खूब पानी उछालती हूँ। ऐसा करना मुझे बहुत अच्छा लगता है, ये उस समय मेरे चेहरे से भी लगता है। गर्मी के कारण सड़क थोड़ी देर में फिर सूख जाती है और नल चला जाता है। फिर मैं सड़क ठण्ड़ी करने का काम शाम को शुरू करती हूँ। खूब दूर-दूर तक पानी की धार बिखेरती हूँ पर गर्म हवा के कारण वह पहले जैसी गर्म हो जाती है। जितना पानी मैं छिड़कती हूँ उतना पानी यदि किसी गड्ढे में भरूँ, तो उसमें मछली पालन हो सकता है।लोग कार धोने के लिए एक बाल्टी पानी लेते हैं और उसमें कपड़ा गीला करके रगड़-रगड़ कर कार चमकाते हैं। मैं पानी की मोटी धार पाइप से डालकर गाड़ी धोती हूँ। गाड़ी साफ और उसके नीचे छोटा सा तालाब बन जाता है। मेरे घर मे बर्तन साफ करने का तरीका भी अलग है। लोग नल बन्द करके बरतन मांजते हैं, जब धोते हैं तो नल खोल लेते हैं। मेरे घर में पहला बर्तन मंजने से नल खुला रहता है अन्तिम बर्तन धुलने तक। मेरे कूलर की टंकी हमेशा भरी रहती है उसमे एक पाइप से हल्की धार पानी की हर समय चलती रहती है। फालतू पानी नीचे गिरता रहता है और कूलर की टंकी हमेशा लबालब भरी रहती है।
मैं छत से पानी की मोटी धार से पेड़ धो रही थी। मेरी सहेली उत्कर्षिनी आई। आते ही बोली,’’तुम्हारा पानी का बिल तो बहुत आता होगा।’’ मैं बोली,’’ कम इस्तेमाल करो या ज्यादा बिल फ्लैट रेट है।’’ वह कहने लगी,’’तभी तुम पानी से खेलती हो।’’ मैंने उत्तर दिया,’’न न, ऐसी बात नहीं है, ये मेरा शौक है। प्रशासन का पानी नहीं आयेगा तो, मैं बोरिंग करवा लूंगी फिर मैं जितना मरज़ी पानी निकाल लूंगी।’’वह मुझे घूरने लगी फिर घूरना स्थगित कर बोली,’’तुम जैसे लोगों की वजह से भूजल बहुत नीचे जा चुका है।’’ पर मैं कहाँ हार मानने वाली? मैंने कहा,’’ मैं सबमरसिवल पम्प लगवा लूंगी। मुझे पानी की कमी होगी ही नहीं।’’
उत्कर्षिनी ने कहा कि वह एक बूंद भी पानी व्यर्थ नहीं करती। कुछ समय पहले हमने सोचा था कि हमें पीने के लिए पानी खरीदना पड़ेगा। यदि हम पानी बरबाद करते रहे तो परिणाम अच्छा नहीं होगा। पानी बचाना, हमारी नैतिक जिम्मेदारी है। हमारे शहर के स्लम एरिया में ही जाकर देखो, पानी के लिए कितनी लम्बी लाइन लगी होती है। पानी की बर्बादी तो अनपढ़ और गवार लोग करते हैं। तुम्हें याद है कुछ साल पहले ग्रिड फेल हो गया था। शायद दो दिन तक बिजली पानी नहीं आया था। टंकियों का पानी खत्म हो गया था। पानी का टैंकर देख कितनी खुशी हुई थी। हम तुम कैसे बाल्टियाँ भर-भर कर पानी लाए थे। मुझे याद आया कि मैं टैंकर से पानी की बाल्टी ला रही थी और साथ में रहीम की चेतावनी याद कर रही थी।
रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून।
पानी बिना न उबरैं, मोती मानुस चून।।
Monday, 6 June 2016
मुझे काले घोड़े ने ठगा!
उसने मुझे काले घोड़ें की नाल पर एक लैक्चर दे दिया। इस नाल का संबंध घोड़े से न होकर मुझसे था। मसलन मेरा शनि ग्रह खराब होगा, तो मेरे जीवन में क्या क्या संभावित दुर्घटनाएँ घटेंगी। जिसे सुनकर मैं डर गई। डर को मेरी शक्ल से टपकता देख, वह नाल दिखा कर बोला,’’इसकी अंगूठी पहनने से शनिदेव खुश हो जाते हैं।’’ अब वह शनिदेव की मुझ पर कृपा के फायदे बताने लगा। मुझे लगता है, जरूर उस समय मेरे चेहरे से खुशी टपक रही होगी। मैंने पूछा,’’नाल कितने की है।’’ वो बोला,’’चार हजार की।’’ जरा से लोहे के टुकड़ें की इतनी कीमत सुन कर मुझें बहुत जोर से झटका लगा। उसने मुझे समझाया कि ये आम घोड़ें की नाल नहीं है। ये है काले घोड़े की नाल। मुंबई में तो काला घोड़ा नाम का मेला भी लगता है। काला घोड़ा फैस्टिवल सुन कर मैं उसके जनरल नालिज़ से भी प्रभावित होने लगी। उसने बताया कि पहले नई चमचमाती नाल घोड़ें के पाँव में ठोकी गई। कई महीनों ये दौड़ा तब ये घिसी फिर नई नाल ठोकी तो ये पुरानी नाल मिली। मुझें चुप देख कर उसने अपने मैले कुर्ते की जे़ब से काले काले लोहे के छल्ले निकाल कर एक छल्ला मुझे देकर बोला,’’ये अंगुठी आपको फिट बैठेगी। पाँच सौ की है। काले घोड़े की नाल से बनी है। जल्दी करो बारिश आने वाली है।’’ शनि महाराज की प्रसन्नता से होने वाले फायदों के आगे तो पाँच सौ रुपयें कुछ भी नहीं है। मैं बदल बदल कर अपने नाप की अंगुठियाँ पहन कर देखने लगी। वो बारिश आने वाली है, का शोर मचा रहा था। मैं गुस्से से बोली,’’भीगने से तेरे घोड़ें को निमोनिया हो जायेगा क्या?।’’ इतने में बारिश तेज होने लगी। वो चेतक को ढकता हुआ गुस्से से बोला,’’लेना है तो लो वरना मैं चला।’’ जल्दी से मैंने उसे रुपयें दिये और अपना एक हाथ काले घोड़ें के गीले माथे पर और दूसरा हाथ उसकी गर्दन पर फेरा। झट से उसने रुपये जेब के हवाले किये और वो तेजी से ये जा वो जा । मैंने अपने हाथ को देखा हथलियाँ हल्की सी काली थी। मैं समझ गई कि उस पर रंग या सस्ती डाई की गई थी। जब तक चल जाये काला घोड़ा, जब रंग उतर जाये तो शादियों का घोड़ा। वो तो पाँच के पाँच सौ बना कर चला गया और मैं उसकी तस्वीर भी नहीं ले पाई। अब मैं अपनी काली हथेलियाँ देखते हुए सोच रहीं हूँ कि मैं ऐसी क्यूँ हूँ!
अनोखा मध्य प्रदेश जनरल डिब्बा और बुलेट ट्रेन Madhya Pradesh Part 10 Neelam Bhagi
अनोखा मध्य प्रदेश जनरल डिब्बा और बुलेट ट्रेन भाग 10
नीलम भागी
समय से आधा घण्टा पहले गाड़ी आ गई। हम जल्दी जल्दी जनरल डिब्बों में झाँक रहे थे, किसी में भी जगह नहीं थी। एक डिब्बे में किसी तरह चढ़े। सामान फिट किया। लेकिन बैठने की जगह नहीं। दो साथियों को जगह मिल गई, वे सामान के पास बैठ गये। अब हम खाली हाथ, एक डिब्बे में जगह देख, उसमें घुस गये। फर्श पर नींद में बेसुध लोग थे। उन्हें बचा बचा कर कूदते हुए, एक बर्थ पर थोड़ी सी जगह दिखी वहाँ पहुँचे।
उस पर एक प्रौढ़ आदमी खिड़की के पास बैठा था, दूसरा किनारे पर, उन दोनों के बीच में अंजना और कार्तिक बैठ गये। मैं खड़ी सोच ही रही थी कि किनारे वाले ने मुझे सीट का कोना देकर अपनी टाँगे रास्ते में कर लीं। मैं भी किसी तरह उस कोने में अपने पचास प्रतिशत कूल्हे रख कर हवा में लटक गई। दो सीटों के बीच एक महिला जूतियाँ और छोटा सा सामान का झोला सर के नीचे रख कर सोई हुई थी। हम पैर सिकोड़ कर बैठ गये कि हमारा पैर उसे न लग जाये। लोगों के पास छोटी छोटी गठरियाँ थी, जो उनके तकियों का काम कर रहीं थी। सामान रखने की जगह पर भी लोग सो रहे थे। जरा भी गाड़ी का फर्श खाली नहीं था। टॉयलेट के आगे भी एक आदिवासी महिला, जिसके शरीर पर कपड़े भी ठीक तरह से नहीं थे, दो बच्चों के साथ सो रही थी। राह में सोने वालों को सपने में भी ख्याल नहीं था कि कोई उन्हे चोट पहुंँचा सकता है। इसलिये वे बेफिक्री से सो रहे थे। जिसे कहीं जाना होता था, वह संभल संभल कर जाता। मजा़ल है कि बोल जाय कि रास्ते में क्यों पड़े हो? आधे घण्टे के बाद यानि साढ़े चार बजे गाड़ी चली, सामने की बर्थ पर एक महिला सो रही थी, वह नीच सोई महिला पर, गाड़ी के चलते ही गिर पड़ी। पर वह फुर्ती से उठ गई। गिरने से चादर हट गई। उसके पैरों के पास उसकी दो सात साल की जुड़वां बेटियाँ और बराबर में पाँच साल का बेटा सो रहा था यानि तीन बच्चों के साथ वो कैसे लेटी सो रही थी! मैंने सोचा, जिस पर गिरी है। वह महिला उठ कर लड़ेगी पर वह करवट बदल कर फिर सो गई। गिरने वाली, हंसते हुए उठी और उसने खिड़की खोलकर, चहकते हुए हमारे बराबर बैठे प्रौढ़ से बोली,’’चाचा फ्रेस हवा में साँस लेना कितना अच्छा लगता है न।’’चाचा बोले,’’हाँ, बिटिया।’’अब उसने हमसे पूछा,’’आप लोग कहाँ से आ रहीं हैं।’’ हमने बताया कि नौएडा से। उसने अगला प्रश्न दागा,’’ मायके जा रही हो या ससुराल।’’ हमने कहा,’’ अमरकंटक।’’वो बोली,’’वहाँ कोई रिलेटिवा है?’’ हमने कहा,’’नहीं, घूमने जा रहें हैं।’’ सुनते ही वह अपने आलता लगे पैरों को देखते और मेंहदी लगे हाथों को नचाते हुए बोली,’’मुझे भी घूमने का बहुत शौक है। हमारे ससुराल में रिवाज़ है कि साल में एक बार भइया आकर लिवा जाये, लेने इनके (बच्चों की ओर इशारा करके) पापा आयेंगे। अब चाहे जित्ते दिन मर्जी रहो पर आना साल में एक ही बार है। अब मायके में खूब घूमूंगी। यहाँ कोइ्ई नियम कायदा नहीं है न।’’अब मुझे उसके चहकने का कारण समझ आया। उसने हमें दो चार लोगों के नाम बताये, जो दिल्ली नौएडा में रहते थे और पूछा,’’ क्या हम उन्हें जानते हैं? हमारा जवाब था, नहीं। महिला की सहज सरल बाते भी मन मोह रहीं थी और मैं बाहर के खूबसूरत प्राकृतिक नजारों को भी नहीं मिस करना चाहती थी। इतने में चाचा खिड़की की सीट छोड़ खड़े होकर बोले, ’’हम तो यहीं के हैं। आप आराम से बाहर देखिये।’’मैं झट से ठीक तरह बैठ गई। महिला ने उसी समय अपनी बेटियों को जगाया,’’ आंसी, फांसी उठो, दाँत मांजो।’’ दोनों ने माँ की आज्ञा का पालन किया। महिला ने बेटे प्रिंस को ठीक तरह से लिटा कर, चाचा को बैठने की जगह दी। लौट कर आंसी फांसी भी वहीं एडजस्ट हो गईं। हर स्टेशन पर गाड़ी रुकती थी और चाचा पाण्ड्रा रोड तक पड़ने वाले सभी स्टेशनों का नाम लेते थे। इसलिये मुझे भी स्टेशनों के नाम याद हो गये। सऱ को हमारी लाइन की साइड सीट मिली थी। वे सीट पर रुमाल रखकर गये। एक मजदूर टाइप आदमी ने आधी सीट पर रुमाल खिसका कर, आधी सीट पर दखल कर लिया। सर लौटे, उन्होंने मुस्कुराकर उस व्यक्ति की ओर देखा, रुमाल तय करके जेब में रक्खा और बची हुई सीट पर बैठ गये। कुछ देर बाद वह अपने आप कहीं और बैठ गया। सर के सामने एक ग्रामीण फैशनेबल कम पढ़ा लिखा युवक बैठा था। महिला ने बिना पूछे बताया कि ये कल से ऐसे ही बैठे बैठे सो रहा है। मैंने गौर किया तो, वह सोते सोते ही कोई किसी से कुछ भी पूछता, तो उसे जवाब वह देता। जिसने मुझे बैठने का कोना दिया था। वह बार बार पूछता कि यह गाड़ी कटनी जायेगी। वह बंद आँखों से ही जवाब देता। अनूपपुर उतर कर बस पकड़ लेना। उसने सऱ को अपना टिकट दिखाया। सर ने कहा कि टिकट तो कटनी तक है। उस युवक ने बंद आँखों से ही जवाब दिया कि मैंने इन्हें जल्दी कटनी पहुँचाने के लिये बस पकड़ने को कहा था। चाचा ने बुराहर पर उतरना था। महिला की ऊपरी बर्थ पर सोये युवक के मुहँ से चाचा ने चादर हटाई, उसे हिला कर जगाया और उन्हें राम राम जी कहा। हम सब को भी राम राम जी कहा और उतर गये। राम राम जी करने से युवक की नींद खुल गई, वह बर्थ से उतर कर चाचा की जगह पर बैठ गया और महिला से बोला,’’छुटकी बरश देना तो, जरा दाँत माँज कर आते हैं। छुटकी बोली,’’ हमारा नाम पद्मा है। लेकिन भइया बाहर भी घर के नाम से बुलाते हैं। अब फर्श पर सोई महिला एकदम उठ कर खड़ी हो गई और अपनी चादर को दोनों सीटों के बीच में खड़ी होकर अच्छी तरह से झाड़ कर(इस धूल के बैक्टिरिया से मुझे डर नहीं लगा) तह किया और झोले में डालकर, साड़ी ठीक की और आंसी फांसी के पास थैला रख कर, चल दी। भइया भी आकर बैठ गये। महिला भी धुले हुए गीले मुहँ के साथ आकर बैठ गई। छुटकी ने भइया को हमारी ओर इशारा करके बताया कि ये अमरकंटक जा रहें हैं। उसी समय चाय समोसे वाला आ गया। भइया ने छुटकी और उसके बच्चों को दो दो समोसे और चाय ले कर दी। हमें भी लेने को बहुत कहा, हमने मना कर दिया। चाय वाले के पास लौटाने को पाँच रुपये नहीं थे तो भइया ने साथ बैठी मजदूर महिला को चाय दिला कर, हिसाब बराबर कर दिया। इतने में भइया को फोन आ गया, बात करके जैसे ही भइया फोन जेब में रखने लगा। मजदूरनी की चाय खत्म हो गई थी। उसने ब्लाउज में हाथ डाल कर, एक पसीने से भीगा पर्चा निकाल कर, भइया को देकर बोली,’’जरा ये नम्बर मिला देना।’’ भइया ने मिला दिया। वह फोन पर बातों में लग गई, उसकी बातें हीं न खत्म हों। आखिरकार छुटकी ने उसके हाथ से फोन लेकर भइया की जेब में रख दिया। मुझे छुटकी की ये हरकत बहुत अच्छी लगी। अल्प साधन संपन्न लोग हैं। भाई इस मंहगाई में उसके परिवार को मायके घुमाने ला रहा है। वह इतने अच्छे भाई के पैसे कैसे लुटवा सकती है। अब भइया ने अमरकंटक का वर्णन शुरु किया। दिल किया कि उड़ कर पहुँच जायें। स्टेशन आता, सवारियाँ चढ़ती उतरती। कुछ ने तो अटैचियों पर भी पुरानी धोती बाँध रक्खी थी ताकि वे खराब न हो। गाड़ी बिना स्टेशन के कहीं भी रूकती तो कुछ लोग उतर कर सामने की पटरी पर बैठ कर हवा खा लेते और बीढ़ी पी लेते। उन्हें ऐसा करते देख, मेरे जे़हन में बुलेट ट्रेन की कल्पना घूम जाती कि ये देशवासी गाड़ी चलने के इंतजार में, सामने बिछी बुलेट ट्रेन की पटरी पर बैठे, बिड़ी पी रहें हैं और बुलेट ट्रेन, बुलेट की स्पीड से निकल गई फिर.....। हम साढ़े आठ बजे, एक घण्टे का सफर साढे़ चार घण्टे में पूरा कर पाण्ड्रा रोड पर उतरे।क्रमशः
नीलम भागी
समय से आधा घण्टा पहले गाड़ी आ गई। हम जल्दी जल्दी जनरल डिब्बों में झाँक रहे थे, किसी में भी जगह नहीं थी। एक डिब्बे में किसी तरह चढ़े। सामान फिट किया। लेकिन बैठने की जगह नहीं। दो साथियों को जगह मिल गई, वे सामान के पास बैठ गये। अब हम खाली हाथ, एक डिब्बे में जगह देख, उसमें घुस गये। फर्श पर नींद में बेसुध लोग थे। उन्हें बचा बचा कर कूदते हुए, एक बर्थ पर थोड़ी सी जगह दिखी वहाँ पहुँचे।
उस पर एक प्रौढ़ आदमी खिड़की के पास बैठा था, दूसरा किनारे पर, उन दोनों के बीच में अंजना और कार्तिक बैठ गये। मैं खड़ी सोच ही रही थी कि किनारे वाले ने मुझे सीट का कोना देकर अपनी टाँगे रास्ते में कर लीं। मैं भी किसी तरह उस कोने में अपने पचास प्रतिशत कूल्हे रख कर हवा में लटक गई। दो सीटों के बीच एक महिला जूतियाँ और छोटा सा सामान का झोला सर के नीचे रख कर सोई हुई थी। हम पैर सिकोड़ कर बैठ गये कि हमारा पैर उसे न लग जाये। लोगों के पास छोटी छोटी गठरियाँ थी, जो उनके तकियों का काम कर रहीं थी। सामान रखने की जगह पर भी लोग सो रहे थे। जरा भी गाड़ी का फर्श खाली नहीं था। टॉयलेट के आगे भी एक आदिवासी महिला, जिसके शरीर पर कपड़े भी ठीक तरह से नहीं थे, दो बच्चों के साथ सो रही थी। राह में सोने वालों को सपने में भी ख्याल नहीं था कि कोई उन्हे चोट पहुंँचा सकता है। इसलिये वे बेफिक्री से सो रहे थे। जिसे कहीं जाना होता था, वह संभल संभल कर जाता। मजा़ल है कि बोल जाय कि रास्ते में क्यों पड़े हो? आधे घण्टे के बाद यानि साढ़े चार बजे गाड़ी चली, सामने की बर्थ पर एक महिला सो रही थी, वह नीच सोई महिला पर, गाड़ी के चलते ही गिर पड़ी। पर वह फुर्ती से उठ गई। गिरने से चादर हट गई। उसके पैरों के पास उसकी दो सात साल की जुड़वां बेटियाँ और बराबर में पाँच साल का बेटा सो रहा था यानि तीन बच्चों के साथ वो कैसे लेटी सो रही थी! मैंने सोचा, जिस पर गिरी है। वह महिला उठ कर लड़ेगी पर वह करवट बदल कर फिर सो गई। गिरने वाली, हंसते हुए उठी और उसने खिड़की खोलकर, चहकते हुए हमारे बराबर बैठे प्रौढ़ से बोली,’’चाचा फ्रेस हवा में साँस लेना कितना अच्छा लगता है न।’’चाचा बोले,’’हाँ, बिटिया।’’अब उसने हमसे पूछा,’’आप लोग कहाँ से आ रहीं हैं।’’ हमने बताया कि नौएडा से। उसने अगला प्रश्न दागा,’’ मायके जा रही हो या ससुराल।’’ हमने कहा,’’ अमरकंटक।’’वो बोली,’’वहाँ कोई रिलेटिवा है?’’ हमने कहा,’’नहीं, घूमने जा रहें हैं।’’ सुनते ही वह अपने आलता लगे पैरों को देखते और मेंहदी लगे हाथों को नचाते हुए बोली,’’मुझे भी घूमने का बहुत शौक है। हमारे ससुराल में रिवाज़ है कि साल में एक बार भइया आकर लिवा जाये, लेने इनके (बच्चों की ओर इशारा करके) पापा आयेंगे। अब चाहे जित्ते दिन मर्जी रहो पर आना साल में एक ही बार है। अब मायके में खूब घूमूंगी। यहाँ कोइ्ई नियम कायदा नहीं है न।’’अब मुझे उसके चहकने का कारण समझ आया। उसने हमें दो चार लोगों के नाम बताये, जो दिल्ली नौएडा में रहते थे और पूछा,’’ क्या हम उन्हें जानते हैं? हमारा जवाब था, नहीं। महिला की सहज सरल बाते भी मन मोह रहीं थी और मैं बाहर के खूबसूरत प्राकृतिक नजारों को भी नहीं मिस करना चाहती थी। इतने में चाचा खिड़की की सीट छोड़ खड़े होकर बोले, ’’हम तो यहीं के हैं। आप आराम से बाहर देखिये।’’मैं झट से ठीक तरह बैठ गई। महिला ने उसी समय अपनी बेटियों को जगाया,’’ आंसी, फांसी उठो, दाँत मांजो।’’ दोनों ने माँ की आज्ञा का पालन किया। महिला ने बेटे प्रिंस को ठीक तरह से लिटा कर, चाचा को बैठने की जगह दी। लौट कर आंसी फांसी भी वहीं एडजस्ट हो गईं। हर स्टेशन पर गाड़ी रुकती थी और चाचा पाण्ड्रा रोड तक पड़ने वाले सभी स्टेशनों का नाम लेते थे। इसलिये मुझे भी स्टेशनों के नाम याद हो गये। सऱ को हमारी लाइन की साइड सीट मिली थी। वे सीट पर रुमाल रखकर गये। एक मजदूर टाइप आदमी ने आधी सीट पर रुमाल खिसका कर, आधी सीट पर दखल कर लिया। सर लौटे, उन्होंने मुस्कुराकर उस व्यक्ति की ओर देखा, रुमाल तय करके जेब में रक्खा और बची हुई सीट पर बैठ गये। कुछ देर बाद वह अपने आप कहीं और बैठ गया। सर के सामने एक ग्रामीण फैशनेबल कम पढ़ा लिखा युवक बैठा था। महिला ने बिना पूछे बताया कि ये कल से ऐसे ही बैठे बैठे सो रहा है। मैंने गौर किया तो, वह सोते सोते ही कोई किसी से कुछ भी पूछता, तो उसे जवाब वह देता। जिसने मुझे बैठने का कोना दिया था। वह बार बार पूछता कि यह गाड़ी कटनी जायेगी। वह बंद आँखों से ही जवाब देता। अनूपपुर उतर कर बस पकड़ लेना। उसने सऱ को अपना टिकट दिखाया। सर ने कहा कि टिकट तो कटनी तक है। उस युवक ने बंद आँखों से ही जवाब दिया कि मैंने इन्हें जल्दी कटनी पहुँचाने के लिये बस पकड़ने को कहा था। चाचा ने बुराहर पर उतरना था। महिला की ऊपरी बर्थ पर सोये युवक के मुहँ से चाचा ने चादर हटाई, उसे हिला कर जगाया और उन्हें राम राम जी कहा। हम सब को भी राम राम जी कहा और उतर गये। राम राम जी करने से युवक की नींद खुल गई, वह बर्थ से उतर कर चाचा की जगह पर बैठ गया और महिला से बोला,’’छुटकी बरश देना तो, जरा दाँत माँज कर आते हैं। छुटकी बोली,’’ हमारा नाम पद्मा है। लेकिन भइया बाहर भी घर के नाम से बुलाते हैं। अब फर्श पर सोई महिला एकदम उठ कर खड़ी हो गई और अपनी चादर को दोनों सीटों के बीच में खड़ी होकर अच्छी तरह से झाड़ कर(इस धूल के बैक्टिरिया से मुझे डर नहीं लगा) तह किया और झोले में डालकर, साड़ी ठीक की और आंसी फांसी के पास थैला रख कर, चल दी। भइया भी आकर बैठ गये। महिला भी धुले हुए गीले मुहँ के साथ आकर बैठ गई। छुटकी ने भइया को हमारी ओर इशारा करके बताया कि ये अमरकंटक जा रहें हैं। उसी समय चाय समोसे वाला आ गया। भइया ने छुटकी और उसके बच्चों को दो दो समोसे और चाय ले कर दी। हमें भी लेने को बहुत कहा, हमने मना कर दिया। चाय वाले के पास लौटाने को पाँच रुपये नहीं थे तो भइया ने साथ बैठी मजदूर महिला को चाय दिला कर, हिसाब बराबर कर दिया। इतने में भइया को फोन आ गया, बात करके जैसे ही भइया फोन जेब में रखने लगा। मजदूरनी की चाय खत्म हो गई थी। उसने ब्लाउज में हाथ डाल कर, एक पसीने से भीगा पर्चा निकाल कर, भइया को देकर बोली,’’जरा ये नम्बर मिला देना।’’ भइया ने मिला दिया। वह फोन पर बातों में लग गई, उसकी बातें हीं न खत्म हों। आखिरकार छुटकी ने उसके हाथ से फोन लेकर भइया की जेब में रख दिया। मुझे छुटकी की ये हरकत बहुत अच्छी लगी। अल्प साधन संपन्न लोग हैं। भाई इस मंहगाई में उसके परिवार को मायके घुमाने ला रहा है। वह इतने अच्छे भाई के पैसे कैसे लुटवा सकती है। अब भइया ने अमरकंटक का वर्णन शुरु किया। दिल किया कि उड़ कर पहुँच जायें। स्टेशन आता, सवारियाँ चढ़ती उतरती। कुछ ने तो अटैचियों पर भी पुरानी धोती बाँध रक्खी थी ताकि वे खराब न हो। गाड़ी बिना स्टेशन के कहीं भी रूकती तो कुछ लोग उतर कर सामने की पटरी पर बैठ कर हवा खा लेते और बीढ़ी पी लेते। उन्हें ऐसा करते देख, मेरे जे़हन में बुलेट ट्रेन की कल्पना घूम जाती कि ये देशवासी गाड़ी चलने के इंतजार में, सामने बिछी बुलेट ट्रेन की पटरी पर बैठे, बिड़ी पी रहें हैं और बुलेट ट्रेन, बुलेट की स्पीड से निकल गई फिर.....। हम साढ़े आठ बजे, एक घण्टे का सफर साढे़ चार घण्टे में पूरा कर पाण्ड्रा रोड पर उतरे।क्रमशः
अब मैं क्या करूँ! The saviour has a greater right than the slayer! Neelam Bhagi
बुलबुल जब मुझसे
काम माँगने आई
थी तो, मैं
उसकी फिटनैस देख
कर खुश हो
गई थी। इस
खुशी के भी
कई कारण थे।
मसलन सेहतमंद होने
कारण वह बार
बार बीमारी का
बहाना नहीं बना
सकती थी। लम्बा
कद होने से
जाले पंखो की
सफाई आराम से
करेगी। उसकी लम्बी
बाँहों का ये
फायदा कि पोचा
लगाते समय उसका
हाथ दूर तक
जायेगा यानि मेरे
घर के कोने
कोने का कूड़ा
निकलेगा। हफ्ते में एक
दिन उससे छत
साफ करवाना तय
था। जब पहली
बार छत साफ
करने गई, तो अब
वह आते ही
सबसे पहले छत
पर जाने लगी।
उसके आने से
पहले मैं रोज
कबूतरों को दाना
पानी डालने छत
पर जाती थी,
उसने मुझे इस
काम से भी
मुक्ति दे दी।
वह जाते समय
दाना पानी और
एक पाॅलिथिन लेकर
ऊपर जाती लेकिन
झाड़ू सिर्फ हफ्ते
में एक दिन
ही वह लेकर
जाती थी। मैं
उससे बहुत खुश थी। एक दिन
मैं वैसे ही
ऊपर छत पर
गई देखती क्या
हूँ? उसने दोनों
हाथों के बीच
में एक कबूतर
पकड़ कर अपने
पेट से चिपका
रक्खा था। मैं
देखते ही चिल्लाइ,’’छोड़ बुुलबुल,
छोड़ बिचारे को।’’
उसने तुरंत उसे
छोड़ दिया। मैंने
उसे पक्षी प्रेम
पर एक लैक्चर
पिला दिया। उसने
भी चुपचाप पी
लिया और मैं
भी इस बात
को भूल गई। एक दिन मैं
डस्टबिन में कुछ
फैंकने गई। उसके
पास एक बँधी
काले रंग
की पाॅलिथिन पड़ी
थी। जबकि डस्टबिन
आधा खाली था।
मैं थैली को
कूड़ेदान में डालने
ही वाली थी
कि इतने में
वह हिल पड़ी।
मैंने खोल कर
देखा उसमें कबूतर
था। मैंने उसे
उड़ा दिया। समझदार
को इशारा काफी
इसलिये मैंने उसे कुछ
नहीं कहा। और
न कहने का
भी एक कारण
था .कहीं नाराज़ होकर
ये मेरा काम न
छोड़ दे फिर
नई ढूँढने का
चक्कर। इसलिए मैं चुप
लगा गई। लगातार
चार दिन तक
वह जिंदा कबूतर
की थैली जगह
बदल बदल कर
रखती रही और
मैं उसे उड़ाती रही चौथे दिन शाम को वह
छः अपने जैसी
बाइयाँ लेकर आई।
मैंने हँसते हुए
उसकी साथिनों की
ओर इशारा करके
पूछा,’’बुलबुल ये सब
कौन हैं?’’ वह
गुस्से से बोली,’’मेरे देश की हैं?’’ मैंने
हँसते हुए जवाब
दिया?’’मैं भी
तो तेरे देश की हूँ?’’ जवाब
में वे सीधे
मुद्दे पर आईं।
चपटी शक्ल की
उनकी नेतानी ने
मुझसे पूछा,’’आपने
बुलबुल के पाँच
कबूतर क्यों उड़ाये।’’मुझे कोई
जवाब नहीं सूझा
पर मैं बोली,’’मेरे घर
से पकड़े थे
इसलिए।’’ यह सुनते
ही नेतानी फैसला
सुनाते हुए बोली,’’इसने कबूतर
का शोरबा पीने
के लिए, उन्हें
बड़ी मेहनत से
पकड़ा था। अब
आप इसे पाँच
कबूतर के पैसे
दो, तब यह
आपके घर काम
करेगी।’’मैंने जवाब दिया, सोच कर बताऊँगी। शाकाहारी ब्राह्मणी हूँ। मैं
ऐसी क्यों हूँ?
पाठक ही बतायें,
अब मुझे क्या
करना चाहिये।
Saturday, 4 June 2016
धारोष्ण दूध Dharoshn Doodh Neelam Bhagi
नीलम भागी
मेरे पूर्वजों को न
जाने कौन से
वैद्यराज चरक या
धन्वतरि ने कहा
था कि धारोष्ण
दूध (सामने दुहा
दूध) पीने से
सेहत अच्छी रहती
है। इसलिये जब
मैं यहाँ आई
तो अपनी गाय
गंगा, यमुना(मेरे
परिवार में गाय
का नाम नदियों
के नाम पर
रखने का रिवाज
है) साथ लाई।
खाली प्लाट थे
गंगा, यमुना कहीं
भी बंधी रहती
थी। ये देख
कर तो मुझे और
भी खुशी हुई कि मेरी तरह
धारोष्ण दूध के
शौकीन और लोग
भी हैं जिनके
लिए बाहर से
गाय भैसों का
रेवड़ आता, दूधिए
दूध दुह कर
उन्हें बेचकर, पशु लेकर
चले जाते हैं।
एक दिन मेरी
गंगा, यमुना भी
चली गई फिर
वो आज तक
नहीं मिली। गंगा,
यमुना की चोरी
से मैं इतनी
ग़मगीन हो गई
कि वातावरण में
करूणा तैरने लगी।
पड़ोसियों ने समझाया
कि ईश्वर की
यही मरजी़,अब
आप पाष्चुराइज्ड दूध
पिया करो। पर
मैं अपनी आदत
क्यों छोड़ू भला?
अब मैं डब्बा
हाथ में लटकाकर
जहाँ भैंसे आती,
वहाँ दूध लेने
जाती हूं। वहाँ
मैं लोगों से
प्रशासन की निन्दा
करती हूं कि
उन्होंने भैंसे बाँधने के
लिए पार्कों में
खूटे नहीं गाढ़े
हैं। ग्राहकों के
बैठने के लिए
बैंच क्यों नहीं
लगवाए हैं?
मेरी सहेली उत्कर्षिणी आई।
उसके मुँह पर
मेकअप लगा हुआ
था और सैंडिल
में गोबर। गंगा
यमुना की चोरी
सुनकर बहुत खुश
हुई। कहने लगी
’’अगर चोरी न
होती तो मैं
उन्हें गऊशाला में दे
आती।’’ मैंने दुखी होकर
कहा कि अब
मुझे धारोष्ण दूध
खरीदने जाना पड़ता
उत्कर्षिणी ने कहा,
’’तुम पाष्चुराइज्ड दूध
क्यों नहीं लेती?
धारोष्ण दूध पीने
से तुम्हारा परिवार
स्वस्थ परिवार का विज्ञापन
देने लायक तो
नहीं हुआ है।
हाँ इतना धारोष्ण
दूध का शौक
है तो वहाँ
से दूध लाओ न, जहाँ इनको पाला
जाता है। भैंसे
आती हैं, सड़कों
पर गोबर पेशाब
करती हैं। कई
बार गोबर से
लोगों के स्कूटर
स्लिप कर जाते
हैं। सुबह स्कूल
का समय होता
है। सड़कों पर
भीड़ होती है।
कोई भी भैंस
झुण्ड में से पूँँछ उठा कर
भागने लगती है।
महिलाएँ, बच्चे डर कर
इधर-उधर दौड़ते
हैं। कुछ लोग
जिन्होंने पशु नहीं
पाला होता, उन्हें
दौड़ती हुई भैंस ,भैैंस नहीं, वह यमराज
का भैंसा दिखाई
देता है। पार्कों
की ग्रिल भैसों
को बाँघने के
काम आती है।
पार्कों में गोबर
और पेशाब की
गन्ध आती है।
उसका उपदेश सुनकर मैं
कनविंस भी होने
लगी और बोर
भी, पर मैं
कहाँ मानने वाली।
मैंने उसे कहा,
’’धारोष्ण दूध पीने
से तुम मेरे
चेहरे की चमक
तो देखो’’।
वह कुछ देर
तक मुझे घूरती
रही, फिर घूरना
स्थगित कर बोली,’’
मुझे तो तुम्हारा
चेहरा श्मशान भूमि
जैसा दिखाई दे
रहा है। रोज
तुम कुढ़ती हो
कि दुधिया दूध
में पानी न
मिला दे, भैंस
के थन भैंस
के पेशाब से
न धो दे,
दूध में ज्यादा
झाग न नाप
दे, समय से
आए।’’ यह कह
कर उत्कर्षिणी चली
गई। मैंने भी
फैसला कर लिया
कि अब उस
शहर में रहूँगी
जहाँ मैं गाय,
भैंस पाल सकूँ। कम से कम
भैंस का दूध
बिना हाॅरमोन का
इन्जेक्शन लगाए तो
मिलेगा।
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