अनोखा मध्य प्रदेश जनरल डिब्बा और बुलेट ट्रेन भाग 10
नीलम भागी
समय से आधा घण्टा पहले गाड़ी आ गई। हम जल्दी जल्दी जनरल डिब्बों में झाँक रहे थे, किसी में भी जगह नहीं थी। एक डिब्बे में किसी तरह चढ़े। सामान फिट किया। लेकिन बैठने की जगह नहीं। दो साथियों को जगह मिल गई, वे सामान के पास बैठ गये। अब हम खाली हाथ, एक डिब्बे में जगह देख, उसमें घुस गये। फर्श पर नींद में बेसुध लोग थे। उन्हें बचा बचा कर कूदते हुए, एक बर्थ पर थोड़ी सी जगह दिखी वहाँ पहुँचे।
उस पर एक प्रौढ़ आदमी खिड़की के पास बैठा था, दूसरा किनारे पर, उन दोनों के बीच में अंजना और कार्तिक बैठ गये। मैं खड़ी सोच ही रही थी कि किनारे वाले ने मुझे सीट का कोना देकर अपनी टाँगे रास्ते में कर लीं। मैं भी किसी तरह उस कोने में अपने पचास प्रतिशत कूल्हे रख कर हवा में लटक गई। दो सीटों के बीच एक महिला जूतियाँ और छोटा सा सामान का झोला सर के नीचे रख कर सोई हुई थी। हम पैर सिकोड़ कर बैठ गये कि हमारा पैर उसे न लग जाये। लोगों के पास छोटी छोटी गठरियाँ थी, जो उनके तकियों का काम कर रहीं थी। सामान रखने की जगह पर भी लोग सो रहे थे। जरा भी गाड़ी का फर्श खाली नहीं था। टॉयलेट के आगे भी एक आदिवासी महिला, जिसके शरीर पर कपड़े भी ठीक तरह से नहीं थे, दो बच्चों के साथ सो रही थी। राह में सोने वालों को सपने में भी ख्याल नहीं था कि कोई उन्हे चोट पहुंँचा सकता है। इसलिये वे बेफिक्री से सो रहे थे। जिसे कहीं जाना होता था, वह संभल संभल कर जाता। मजा़ल है कि बोल जाय कि रास्ते में क्यों पड़े हो? आधे घण्टे के बाद यानि साढ़े चार बजे गाड़ी चली, सामने की बर्थ पर एक महिला सो रही थी, वह नीच सोई महिला पर, गाड़ी के चलते ही गिर पड़ी। पर वह फुर्ती से उठ गई। गिरने से चादर हट गई। उसके पैरों के पास उसकी दो सात साल की जुड़वां बेटियाँ और बराबर में पाँच साल का बेटा सो रहा था यानि तीन बच्चों के साथ वो कैसे लेटी सो रही थी! मैंने सोचा, जिस पर गिरी है। वह महिला उठ कर लड़ेगी पर वह करवट बदल कर फिर सो गई। गिरने वाली, हंसते हुए उठी और उसने खिड़की खोलकर, चहकते हुए हमारे बराबर बैठे प्रौढ़ से बोली,’’चाचा फ्रेस हवा में साँस लेना कितना अच्छा लगता है न।’’चाचा बोले,’’हाँ, बिटिया।’’अब उसने हमसे पूछा,’’आप लोग कहाँ से आ रहीं हैं।’’ हमने बताया कि नौएडा से। उसने अगला प्रश्न दागा,’’ मायके जा रही हो या ससुराल।’’ हमने कहा,’’ अमरकंटक।’’वो बोली,’’वहाँ कोई रिलेटिवा है?’’ हमने कहा,’’नहीं, घूमने जा रहें हैं।’’ सुनते ही वह अपने आलता लगे पैरों को देखते और मेंहदी लगे हाथों को नचाते हुए बोली,’’मुझे भी घूमने का बहुत शौक है। हमारे ससुराल में रिवाज़ है कि साल में एक बार भइया आकर लिवा जाये, लेने इनके (बच्चों की ओर इशारा करके) पापा आयेंगे। अब चाहे जित्ते दिन मर्जी रहो पर आना साल में एक ही बार है। अब मायके में खूब घूमूंगी। यहाँ कोइ्ई नियम कायदा नहीं है न।’’अब मुझे उसके चहकने का कारण समझ आया। उसने हमें दो चार लोगों के नाम बताये, जो दिल्ली नौएडा में रहते थे और पूछा,’’ क्या हम उन्हें जानते हैं? हमारा जवाब था, नहीं। महिला की सहज सरल बाते भी मन मोह रहीं थी और मैं बाहर के खूबसूरत प्राकृतिक नजारों को भी नहीं मिस करना चाहती थी। इतने में चाचा खिड़की की सीट छोड़ खड़े होकर बोले, ’’हम तो यहीं के हैं। आप आराम से बाहर देखिये।’’मैं झट से ठीक तरह बैठ गई। महिला ने उसी समय अपनी बेटियों को जगाया,’’ आंसी, फांसी उठो, दाँत मांजो।’’ दोनों ने माँ की आज्ञा का पालन किया। महिला ने बेटे प्रिंस को ठीक तरह से लिटा कर, चाचा को बैठने की जगह दी। लौट कर आंसी फांसी भी वहीं एडजस्ट हो गईं। हर स्टेशन पर गाड़ी रुकती थी और चाचा पाण्ड्रा रोड तक पड़ने वाले सभी स्टेशनों का नाम लेते थे। इसलिये मुझे भी स्टेशनों के नाम याद हो गये। सऱ को हमारी लाइन की साइड सीट मिली थी। वे सीट पर रुमाल रखकर गये। एक मजदूर टाइप आदमी ने आधी सीट पर रुमाल खिसका कर, आधी सीट पर दखल कर लिया। सर लौटे, उन्होंने मुस्कुराकर उस व्यक्ति की ओर देखा, रुमाल तय करके जेब में रक्खा और बची हुई सीट पर बैठ गये। कुछ देर बाद वह अपने आप कहीं और बैठ गया। सर के सामने एक ग्रामीण फैशनेबल कम पढ़ा लिखा युवक बैठा था। महिला ने बिना पूछे बताया कि ये कल से ऐसे ही बैठे बैठे सो रहा है। मैंने गौर किया तो, वह सोते सोते ही कोई किसी से कुछ भी पूछता, तो उसे जवाब वह देता। जिसने मुझे बैठने का कोना दिया था। वह बार बार पूछता कि यह गाड़ी कटनी जायेगी। वह बंद आँखों से ही जवाब देता। अनूपपुर उतर कर बस पकड़ लेना। उसने सऱ को अपना टिकट दिखाया। सर ने कहा कि टिकट तो कटनी तक है। उस युवक ने बंद आँखों से ही जवाब दिया कि मैंने इन्हें जल्दी कटनी पहुँचाने के लिये बस पकड़ने को कहा था। चाचा ने बुराहर पर उतरना था। महिला की ऊपरी बर्थ पर सोये युवक के मुहँ से चाचा ने चादर हटाई, उसे हिला कर जगाया और उन्हें राम राम जी कहा। हम सब को भी राम राम जी कहा और उतर गये। राम राम जी करने से युवक की नींद खुल गई, वह बर्थ से उतर कर चाचा की जगह पर बैठ गया और महिला से बोला,’’छुटकी बरश देना तो, जरा दाँत माँज कर आते हैं। छुटकी बोली,’’ हमारा नाम पद्मा है। लेकिन भइया बाहर भी घर के नाम से बुलाते हैं। अब फर्श पर सोई महिला एकदम उठ कर खड़ी हो गई और अपनी चादर को दोनों सीटों के बीच में खड़ी होकर अच्छी तरह से झाड़ कर(इस धूल के बैक्टिरिया से मुझे डर नहीं लगा) तह किया और झोले में डालकर, साड़ी ठीक की और आंसी फांसी के पास थैला रख कर, चल दी। भइया भी आकर बैठ गये। महिला भी धुले हुए गीले मुहँ के साथ आकर बैठ गई। छुटकी ने भइया को हमारी ओर इशारा करके बताया कि ये अमरकंटक जा रहें हैं। उसी समय चाय समोसे वाला आ गया। भइया ने छुटकी और उसके बच्चों को दो दो समोसे और चाय ले कर दी। हमें भी लेने को बहुत कहा, हमने मना कर दिया। चाय वाले के पास लौटाने को पाँच रुपये नहीं थे तो भइया ने साथ बैठी मजदूर महिला को चाय दिला कर, हिसाब बराबर कर दिया। इतने में भइया को फोन आ गया, बात करके जैसे ही भइया फोन जेब में रखने लगा। मजदूरनी की चाय खत्म हो गई थी। उसने ब्लाउज में हाथ डाल कर, एक पसीने से भीगा पर्चा निकाल कर, भइया को देकर बोली,’’जरा ये नम्बर मिला देना।’’ भइया ने मिला दिया। वह फोन पर बातों में लग गई, उसकी बातें हीं न खत्म हों। आखिरकार छुटकी ने उसके हाथ से फोन लेकर भइया की जेब में रख दिया। मुझे छुटकी की ये हरकत बहुत अच्छी लगी। अल्प साधन संपन्न लोग हैं। भाई इस मंहगाई में उसके परिवार को मायके घुमाने ला रहा है। वह इतने अच्छे भाई के पैसे कैसे लुटवा सकती है। अब भइया ने अमरकंटक का वर्णन शुरु किया। दिल किया कि उड़ कर पहुँच जायें। स्टेशन आता, सवारियाँ चढ़ती उतरती। कुछ ने तो अटैचियों पर भी पुरानी धोती बाँध रक्खी थी ताकि वे खराब न हो। गाड़ी बिना स्टेशन के कहीं भी रूकती तो कुछ लोग उतर कर सामने की पटरी पर बैठ कर हवा खा लेते और बीढ़ी पी लेते। उन्हें ऐसा करते देख, मेरे जे़हन में बुलेट ट्रेन की कल्पना घूम जाती कि ये देशवासी गाड़ी चलने के इंतजार में, सामने बिछी बुलेट ट्रेन की पटरी पर बैठे, बिड़ी पी रहें हैं और बुलेट ट्रेन, बुलेट की स्पीड से निकल गई फिर.....। हम साढ़े आठ बजे, एक घण्टे का सफर साढे़ चार घण्टे में पूरा कर पाण्ड्रा रोड पर उतरे।क्रमशः
नीलम भागी
समय से आधा घण्टा पहले गाड़ी आ गई। हम जल्दी जल्दी जनरल डिब्बों में झाँक रहे थे, किसी में भी जगह नहीं थी। एक डिब्बे में किसी तरह चढ़े। सामान फिट किया। लेकिन बैठने की जगह नहीं। दो साथियों को जगह मिल गई, वे सामान के पास बैठ गये। अब हम खाली हाथ, एक डिब्बे में जगह देख, उसमें घुस गये। फर्श पर नींद में बेसुध लोग थे। उन्हें बचा बचा कर कूदते हुए, एक बर्थ पर थोड़ी सी जगह दिखी वहाँ पहुँचे।
उस पर एक प्रौढ़ आदमी खिड़की के पास बैठा था, दूसरा किनारे पर, उन दोनों के बीच में अंजना और कार्तिक बैठ गये। मैं खड़ी सोच ही रही थी कि किनारे वाले ने मुझे सीट का कोना देकर अपनी टाँगे रास्ते में कर लीं। मैं भी किसी तरह उस कोने में अपने पचास प्रतिशत कूल्हे रख कर हवा में लटक गई। दो सीटों के बीच एक महिला जूतियाँ और छोटा सा सामान का झोला सर के नीचे रख कर सोई हुई थी। हम पैर सिकोड़ कर बैठ गये कि हमारा पैर उसे न लग जाये। लोगों के पास छोटी छोटी गठरियाँ थी, जो उनके तकियों का काम कर रहीं थी। सामान रखने की जगह पर भी लोग सो रहे थे। जरा भी गाड़ी का फर्श खाली नहीं था। टॉयलेट के आगे भी एक आदिवासी महिला, जिसके शरीर पर कपड़े भी ठीक तरह से नहीं थे, दो बच्चों के साथ सो रही थी। राह में सोने वालों को सपने में भी ख्याल नहीं था कि कोई उन्हे चोट पहुंँचा सकता है। इसलिये वे बेफिक्री से सो रहे थे। जिसे कहीं जाना होता था, वह संभल संभल कर जाता। मजा़ल है कि बोल जाय कि रास्ते में क्यों पड़े हो? आधे घण्टे के बाद यानि साढ़े चार बजे गाड़ी चली, सामने की बर्थ पर एक महिला सो रही थी, वह नीच सोई महिला पर, गाड़ी के चलते ही गिर पड़ी। पर वह फुर्ती से उठ गई। गिरने से चादर हट गई। उसके पैरों के पास उसकी दो सात साल की जुड़वां बेटियाँ और बराबर में पाँच साल का बेटा सो रहा था यानि तीन बच्चों के साथ वो कैसे लेटी सो रही थी! मैंने सोचा, जिस पर गिरी है। वह महिला उठ कर लड़ेगी पर वह करवट बदल कर फिर सो गई। गिरने वाली, हंसते हुए उठी और उसने खिड़की खोलकर, चहकते हुए हमारे बराबर बैठे प्रौढ़ से बोली,’’चाचा फ्रेस हवा में साँस लेना कितना अच्छा लगता है न।’’चाचा बोले,’’हाँ, बिटिया।’’अब उसने हमसे पूछा,’’आप लोग कहाँ से आ रहीं हैं।’’ हमने बताया कि नौएडा से। उसने अगला प्रश्न दागा,’’ मायके जा रही हो या ससुराल।’’ हमने कहा,’’ अमरकंटक।’’वो बोली,’’वहाँ कोई रिलेटिवा है?’’ हमने कहा,’’नहीं, घूमने जा रहें हैं।’’ सुनते ही वह अपने आलता लगे पैरों को देखते और मेंहदी लगे हाथों को नचाते हुए बोली,’’मुझे भी घूमने का बहुत शौक है। हमारे ससुराल में रिवाज़ है कि साल में एक बार भइया आकर लिवा जाये, लेने इनके (बच्चों की ओर इशारा करके) पापा आयेंगे। अब चाहे जित्ते दिन मर्जी रहो पर आना साल में एक ही बार है। अब मायके में खूब घूमूंगी। यहाँ कोइ्ई नियम कायदा नहीं है न।’’अब मुझे उसके चहकने का कारण समझ आया। उसने हमें दो चार लोगों के नाम बताये, जो दिल्ली नौएडा में रहते थे और पूछा,’’ क्या हम उन्हें जानते हैं? हमारा जवाब था, नहीं। महिला की सहज सरल बाते भी मन मोह रहीं थी और मैं बाहर के खूबसूरत प्राकृतिक नजारों को भी नहीं मिस करना चाहती थी। इतने में चाचा खिड़की की सीट छोड़ खड़े होकर बोले, ’’हम तो यहीं के हैं। आप आराम से बाहर देखिये।’’मैं झट से ठीक तरह बैठ गई। महिला ने उसी समय अपनी बेटियों को जगाया,’’ आंसी, फांसी उठो, दाँत मांजो।’’ दोनों ने माँ की आज्ञा का पालन किया। महिला ने बेटे प्रिंस को ठीक तरह से लिटा कर, चाचा को बैठने की जगह दी। लौट कर आंसी फांसी भी वहीं एडजस्ट हो गईं। हर स्टेशन पर गाड़ी रुकती थी और चाचा पाण्ड्रा रोड तक पड़ने वाले सभी स्टेशनों का नाम लेते थे। इसलिये मुझे भी स्टेशनों के नाम याद हो गये। सऱ को हमारी लाइन की साइड सीट मिली थी। वे सीट पर रुमाल रखकर गये। एक मजदूर टाइप आदमी ने आधी सीट पर रुमाल खिसका कर, आधी सीट पर दखल कर लिया। सर लौटे, उन्होंने मुस्कुराकर उस व्यक्ति की ओर देखा, रुमाल तय करके जेब में रक्खा और बची हुई सीट पर बैठ गये। कुछ देर बाद वह अपने आप कहीं और बैठ गया। सर के सामने एक ग्रामीण फैशनेबल कम पढ़ा लिखा युवक बैठा था। महिला ने बिना पूछे बताया कि ये कल से ऐसे ही बैठे बैठे सो रहा है। मैंने गौर किया तो, वह सोते सोते ही कोई किसी से कुछ भी पूछता, तो उसे जवाब वह देता। जिसने मुझे बैठने का कोना दिया था। वह बार बार पूछता कि यह गाड़ी कटनी जायेगी। वह बंद आँखों से ही जवाब देता। अनूपपुर उतर कर बस पकड़ लेना। उसने सऱ को अपना टिकट दिखाया। सर ने कहा कि टिकट तो कटनी तक है। उस युवक ने बंद आँखों से ही जवाब दिया कि मैंने इन्हें जल्दी कटनी पहुँचाने के लिये बस पकड़ने को कहा था। चाचा ने बुराहर पर उतरना था। महिला की ऊपरी बर्थ पर सोये युवक के मुहँ से चाचा ने चादर हटाई, उसे हिला कर जगाया और उन्हें राम राम जी कहा। हम सब को भी राम राम जी कहा और उतर गये। राम राम जी करने से युवक की नींद खुल गई, वह बर्थ से उतर कर चाचा की जगह पर बैठ गया और महिला से बोला,’’छुटकी बरश देना तो, जरा दाँत माँज कर आते हैं। छुटकी बोली,’’ हमारा नाम पद्मा है। लेकिन भइया बाहर भी घर के नाम से बुलाते हैं। अब फर्श पर सोई महिला एकदम उठ कर खड़ी हो गई और अपनी चादर को दोनों सीटों के बीच में खड़ी होकर अच्छी तरह से झाड़ कर(इस धूल के बैक्टिरिया से मुझे डर नहीं लगा) तह किया और झोले में डालकर, साड़ी ठीक की और आंसी फांसी के पास थैला रख कर, चल दी। भइया भी आकर बैठ गये। महिला भी धुले हुए गीले मुहँ के साथ आकर बैठ गई। छुटकी ने भइया को हमारी ओर इशारा करके बताया कि ये अमरकंटक जा रहें हैं। उसी समय चाय समोसे वाला आ गया। भइया ने छुटकी और उसके बच्चों को दो दो समोसे और चाय ले कर दी। हमें भी लेने को बहुत कहा, हमने मना कर दिया। चाय वाले के पास लौटाने को पाँच रुपये नहीं थे तो भइया ने साथ बैठी मजदूर महिला को चाय दिला कर, हिसाब बराबर कर दिया। इतने में भइया को फोन आ गया, बात करके जैसे ही भइया फोन जेब में रखने लगा। मजदूरनी की चाय खत्म हो गई थी। उसने ब्लाउज में हाथ डाल कर, एक पसीने से भीगा पर्चा निकाल कर, भइया को देकर बोली,’’जरा ये नम्बर मिला देना।’’ भइया ने मिला दिया। वह फोन पर बातों में लग गई, उसकी बातें हीं न खत्म हों। आखिरकार छुटकी ने उसके हाथ से फोन लेकर भइया की जेब में रख दिया। मुझे छुटकी की ये हरकत बहुत अच्छी लगी। अल्प साधन संपन्न लोग हैं। भाई इस मंहगाई में उसके परिवार को मायके घुमाने ला रहा है। वह इतने अच्छे भाई के पैसे कैसे लुटवा सकती है। अब भइया ने अमरकंटक का वर्णन शुरु किया। दिल किया कि उड़ कर पहुँच जायें। स्टेशन आता, सवारियाँ चढ़ती उतरती। कुछ ने तो अटैचियों पर भी पुरानी धोती बाँध रक्खी थी ताकि वे खराब न हो। गाड़ी बिना स्टेशन के कहीं भी रूकती तो कुछ लोग उतर कर सामने की पटरी पर बैठ कर हवा खा लेते और बीढ़ी पी लेते। उन्हें ऐसा करते देख, मेरे जे़हन में बुलेट ट्रेन की कल्पना घूम जाती कि ये देशवासी गाड़ी चलने के इंतजार में, सामने बिछी बुलेट ट्रेन की पटरी पर बैठे, बिड़ी पी रहें हैं और बुलेट ट्रेन, बुलेट की स्पीड से निकल गई फिर.....। हम साढ़े आठ बजे, एक घण्टे का सफर साढे़ चार घण्टे में पूरा कर पाण्ड्रा रोड पर उतरे।क्रमशः
4 comments:
खूबसूरत प्रसंग लिखने में आप माहिर हैं
धन्यवाद
चिट्ठा अनुसरणकर्ता बटन (ब्लॉग फौलोवर) उपलब्ध करायें ताकि छपने की खबर प्राप्त होती रहे और लेखन ज्यादा लोगों तक पहुँचे।
धन्यवाद
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