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Monday 29 August 2016

रेन फाॅरेस्ट वाॅक, काॅफी की कहानी Happy World Coffee Day Coorg Yatra 6 Kernatak कूर्ग यात्रा भाग 6 नीलम भागी





रेन फाॅरेस्ट वाॅक, काॅफी की कहानी                          कूर्ग यात्रा भाग 6
                                                             नीलम भागी
रेन फाॅरेस्ट वाॅक के लिये ढाई बजे बग्गी मुझे लेने आ गई। इस वाॅक के शौकीन सब एक जगह एम्फीथिएटर पर एकत्रित होते जा रहे थे। पहुंंचते ही हमें घुटनों तक लम्बी जुराबें, गम शूज़, रेनकोट, पीने के पानी की बोतल और बड़ा छाता दिया गया। जब हम वाॅक के लिये तैयार हो गये, तो हमारे जूतों पर स्प्रे भी कर दिया गया। वो इसलिये कि लीच आदि हमारे पैरों पर न चिपटे। ढाई घण्टे की ये न भूलने वाली वाॅक, कूर्ग को जीवन भर के लिये मेरे साथ ले आई। हमारे गाइड महेश का वर्णन करने का तरीका भी गज़ब का था। बी.एस.सी. में मेरे पास बाॅटनी सबजेक्ट था। तब मैंने सलेबस परीक्षा में अच्छी परसेंटेज़ लेने के लिये रटा था और एक्जा़म में जाकर उगल दिया था बस। शायद बाॅटनी पढ़ने के कारण, मुझे पेड़ पौधों से बहुत लगाव है और यहाँ तो उनसे, पेड़ पौधों और उनपर बसेरा करने वाले कुछ पक्षियों की विचित्र बातें पता चलीं। सबसे पहले महेश ने काॅफी के पौधे के पास खड़े होकर उसके पत्तों को सहलाते हुए काॅफी की कहानी सुनाई जो मैंने अपनी मैमोरी में फीड कर ली थी। एक दिन इथोपिया के कफा प्रांत में एक गडरिया पशु चरा रहा था। उसने ध्यान दिया कि उसके पशुओं के व्यवहार में अचानक परिवर्तन आया, वे बड़े चुस्त और फुर्तीले लग रहे थे। उसने गौर किया कि ये परिवर्तन उन्हीं जानवरों में आया जो एक पौधे के गहरे लाल बीजों को चर रहे थे। इथोपियाई गडरिये कलड़ी ने भी उन बीजों को खाया और अपने अंदर भी परिवर्तन महसूस किया। उसकी थकान दूर और उसने उर्जा और शक्ति का अनुभव किया। ऐसा 600वीं सदी में हुआ था।
हमारे देश मे काफी उगाने का श्रेय एक संत बाबा बुदान को है। वे मक्का की तीर्थयात्रा पर गये थे और अपनी कमर पर बांध कर सात काॅफी बीन्स लाये थे। काॅफी के बीजों को अरब से बाहर ले जाना गैर कानूनी था। इसलाम में सात अंक पवित्र माना है और ये काम एक संत द्वारा हुआ इसलिये ये धार्मिक कार्य माना गया। उन्होने उसे चंद्रगिरी की पहाड़ियों पर उगाया था। इसके बाद  से ही काफी की व्यवस्थित खेती की शुरुआत हो गई। चिकमंग्लूर के पास ये पहाड़ियां ’बाबा बुदान गिरी’ यानि पहाड़ी के नाम से मशहूर हो गई। इस सराहनीय काम के लिये बाबा बुदान की जितनी तारीफ की जाये वो कम है। क्योंकि अरब में सख्त कानून था कि उनके देश से काफी बींस बिना उबाले या भूने बाहर नहीं जा सकती। ये कहानी सुन कर मेरा मन बाबा बुदान के प्रति श्रद्धा से भर गया। अब काफी के पौधे की पहचान तो हो गई थी। फल का मौसम नहीं था। मेरी बड़ी इच्छी थी कि मैं हरी टहनी पर गहरे लाल रंग के काॅफी से जड़े बीज देखूं। महेश भी हमें दिखाना चाहतेे थे। दूर दूर से लोग यह  देखने आते हैं क्योंकि काॅफी उगाने के लिये तो परिस्थितियाँ यहीं अनुकूल हैं। यहाँ दो प्रकार की काॅफी रोबस्टा और अरेबिका को, पानी से भरपूर मिट्टी में उगाया जाता है। इसे छाया के दो स्तरों में उगाया जाता है। बीच बीच में इलायची, दालचीनी, लौंग और जायफल उगाया जाता है। महेश ने जैसे ही एक पौधे पर हरी हरी इलायची लगी दिखाई, मैंने तो झट से उसकी तस्वीर ले ली। काफी के फूल सफेद रंग के होते हैं। जब वे खिलते हैं, तो सारा बागान हरे और सफेद रंग में तब्दील हो जाता है। ये नजा़रा देखने में बहुत खूबसूरत होता है। लेेकिन इनका जीवन काल केवल चार दिन का होता है और ये फल में बदल जाते हैं। फूल खिलने की और फल आने का समय किस्म और जलवायु के अनुसार अलग अलग होता है। अरेबिका का फल पकने में सात महीने और रोबेस्टा में यह प्रक्रिया लगभग नौ महीने चलती है। रोबेस्टा काफी का फल छोटा होता है और अरेबिका काॅफी का फल आकार में थोड़ा बड़ा होता है। फल पकने पर इन गहरे लाल जामनी फलों को हाथ से इक्कट्ठे कर लेते है। काॅफी और काली मिर्च की खेती कुर्गी लोगों का मुख्य व्यवसाय है।  क्रमशः             

Wednesday 24 August 2016

मुरली वाले का हैप्पी बर्थ डे Lord Krishana Happy Birthday Neelam Bhagi नीलम भागी





                                   
                                    
’’भारत से आप बाँसुरी लेती आना, मेरी जर्मन लैंड लेडी कात्या मुले के लिए ,वो प्रोफैशनल बाँसुरी वादक है।’’ उत्कर्षिनी का फोन सुनते ही मैं बेहतरीन बाँसुरी की खोज में जुट गई। विदेशी महिला को गिफ्ट देना था, वो याद करे मेरे भारत महान की बाँसुरी को, इसके लिए मैंने एक बाँसुरी वादक को ढूँढा। उसे साथ लेकर, दिल्ली की मशहूर म्यूजिकल इन्स्ट्रूमेंट की दुकान पर गई। मैंने दुकानदार से पूछा,’’आपके पास बहुत बढ़िया बाँसुरी है।’’दुकानदार ने मुझे ऐसे घूरा, जैसे किसी गंवार को घूरते हैं। फिर घूरना स्थगित कर बोला,’’बाँसुरी नहीं मुरली’’। साथ ही सेल्समैन ने मेरे हाथ में एक मुरली पकड़ा दी। मैंने अब तक जो बाँसुरी बचपन से देखी थीं, उसमें मुँह से फूँक मारते ही हवा आवाज में बदल जाती थी। लेकिन इस मुरली में मेरी फूँक योंहि बिना आवाज के निकल गई। मेरा साथी बाँसुरी वादक यह देखकर मुस्कराया और उसने मेरे हाथ से मुरली लेकर, उसका अच्छी तरह से मुआयना किया और मधुर धुने निकालने लगा। वह तो बजाता ही जा रहा था। मैंने उसके हाथ से मुरली छीनकर, दुकानदार से रेट पूछा। दुकानदार ने बताया,’’तीन हजार।’’ दाम सुनते ही, बाँसुरी वादक को जोर का झटका लगा। साथ ही दुकानदार उस बाँस की तारीफ करने लगा, जो केवल उस मुरली  के निर्माण के लिए ही उगाया गया था, उस झाड़ में विशेष खाद पानी दिया गया था, जिससे वह बाँस उगा तो यह मुरली तैयार हुई। बड़ी दुकान होने के कारण, बाँसुरी वादक, मेरे कान के पास धीरे-धीरे कहने लगा कि ये दुकानदार तो डाकू है। आप मेरठ की हैं। हम मेरठ से यही मुरली बहुत सस्ती ले आयेंगे। पर मैं कहाँ मानने वाली!! बात विदेशी महिला और देश की थी। इसलिए रेट और दुकान का नाम ही मेरा आत्मविश्वास था।  छः हजार में मैंने दो मुरलियाँ ली और उनकी खूबसूरत पैकिंग करवाई।
   मुरलियों को कोई नुकसान न पहुँचे, इसलिये मैं उन्हें हाथों में पकड़, एअरपोर्ट में दाखिल हुई। सामान जाँच की लाइन में मुरली कंधे से लगा, सैनिक की तरह खड़ी थी। यदि बच्चे की तरह बाहों में लेती, तो बराबर वाले को छूती। जैसे ही मैं काउण्टर पर पहुँची, तो पर्स से डाक्यूमेंट निकालने के लिए मैंने मुरलियों को बगल में दबाया, और पर्स खोलने लगी, मेरे पीछे, खड़ी मोहर्तमा, -’उई माँचिल्लायी, क्योंकि उससे मुरलियाँ टकरा गई थी। मैंने पीछे मुड़ के उसे साॅरी कहा। अब वह पीछे खिसक गई। पूरी लाइन में बैक गियर लग गया।
 सबसे पहले चैक इन में उसकी पैकिंग फाड़ कर डस्टबिन में डाली गई। कई मशीनों पर गुजारने के बाद ,उस पर स्टीकर चिपका दिया और मुझे बोर्डिंग पास दिया गया।  सुरक्षा जांच मेंं भी वह फिर मशीन से गुजरने के बाद मुझे मिली।
  प्लेन में प्रवेश करते समय मैं इकलौती सबसे कम इनहैण्ड बैगेज़ की यात्री थी, जिसका सामान कुछ ग्राम की मुरलियां थीं। एअरहोस्टेज़ ने हाथ में लेकर स्टिकर पढ़ा और मुरलियां अपने पास हिफाजत से रख ली। लैंड करते ही उसने मुझे पकड़ा दी| दुबई में घर पहुँचते ही उत्कर्षनी बोली,’’माँ, आप ही दे आओ न, उससे मिलना भी हो जायेगा।’’
सिल्क की साड़ी पहने, हाथ में मुरलियां लेकर, मैंने कात्या मुले की काॅलबैल बजाई। कात्या ने मुझे गले लगा कर, मेरे गाल पर चुम्बन जड़ दिया। वैभवशाली ड्रांइगरुम में मुरलीधर विराजमान थे। मैंने कान्हा के चरणों में मुरलियाँ अर्पित कर दी और कात्या मुले से कहा,’’आज इनका हैप्पी बर्थ डे है।’’कृष्ण जन्माष्टमी वह नहीं समझती थी। उसने चहक कर पूछा,’’कैसे सैलिब्रेट करते हैं?’’मैंने कहा,’’ नहा कर, इनके आगे घी का दीपक जलाते हैं।’’ मेरे आगे बोलने से पहले, उसने तपाक से पूछा,’’घी क्या होता है?’’ मैंने जीनियस की अदा से उसे समझाया कि दूध उबाल कर, उसे जमाकर दहीं बनाते हैंदही बिलोकर, मक्खन निकाल कर, उसे पिघला कर, घी बनाते हैं। उसने इस सारे प्रौसेस को बहुत ध्यान से सुना। वह सोच में डूब गई और मैं घर आ गई।
थोड़ी देर में उसका कृष्णा के बर्थ डे सैलिब्रेशन का बुलावा आया। मैं पहुँची। मूर्ति के आगे, कटोरी में दीपक, बगीचे के ताजे फूल सजे थे। मैंने कहा,’’दीपक जलाओ।’’हाॅट प्लेट, अवन, माइक्रोवेव पर खाना बनाने वाली माचिस नहीं जानती थी। उसने अपने सिग्रेट लाइटर से दीपक जलाया। मैंने गणेश वन्दना कर, उसके हाथ में मुरली दी। सोफे पर बैठ कर, उसने धुन छेड़ी। सामने मैं बैठ गई। वो आँखें बंद कर बजाने में तल्लीन थी। मधुर धुन सुनकर, उसकी 11 बिल्लियाँ, एक कुत्ता भी चुपचाप आकर बैठ गये। दीपक की लौ भी मुझे, उसकी बासुँँरी वादन की मधुर धुन के साथ झूमती लग रही थी। बजाने में खोई हुई वह और भी खूबसूरत लग रही थी।

मैं राग-रागनियाँ नहीं जानती, लेकिन सुनना बहुत अच्छा लगता है। देश के विख्यात संगीतकारों के कार्यक्रम सुनती हूँ। वैसी ही अनुभूति मुझे यहाँ हो रही थी। जैसे ही उसने बजाना बंद किया। मेरी तंद्रा टूटी। 
मैंने कहा,’’तुम तो बहुत अच्छा बजाती हो।’’उसने गोपाल की मूर्ति की ओर इशारा कर, बताया,"उनकी पूजा के कारण, आज जैसा बजाने मेंं आनंद मुझे आया वैसा पहले  कभी नहीं आया।’’फिर कहने लगी ,’’दीपक में एनिमल फैट मैंने बहुत कीमती, अपनी पसंद की गूस (पक्षी)लीवर फैटडाली है। मैंने फिर हैरान होकर पूछा, ’’क्या’’? उसने समझाया’’इट इज़ आलसो काॅल्ड गूस पेट ,बड़ी श्रद्धा से बोली , मैंने उससे दीपक जलाया है।" उसके चेहरे से टपकती हुई आस्था और श्रद्धा देखकर, मैं उसे नहीं समझा पाई कि हमारे यहाँ दीपक में जलने वाली फैट में एनिमल भी जिन्दा रहता है और फैट भी मिलती है। 

अमर उजाला रूपायन में भी प्रकाशित

बहुमत मध्य प्रदेश और छतीसगढ़ से एक साथ प्रकाशित समाचार पत्र में यह लेख प्रकाशित

Monday 22 August 2016

कूर्ग तो मन पर छा गया! प्राकृतिक सौन्दर्य ही मनोहारी है कूर्ग यात्रा Coorg Yatra भाग 5 नीलम भागी






                                                     
रात बहुत गहरी नींद सोई, शायद कूर्ग की हवा की ताज़गी के कारण, अभी भी सो रही थी कि मुझे लगा कि मेरे बराबर कोई एक्टिविटी चल रही है। करवट बदल कर देखा तो गीता बड़ी मेहनत से कपड़े खोलने में लगी हुई थी। अब दो साल की बच्ची भला, कैसे बटन खोल सकती है! मैंने जैसे ही उसकी ओर देखा वो खुशी से खिल गई और बोली,’’पापा स्वीमिंग।’’दरवाजा खुला था, शुक्र है भगवान का कि वो खुद जाकर नहीं पूल में कूदी। वह हमेशा पापा के साथ स्वीमिंग करती है, शायद इसलिये नहीं कूदी। इतने में उत्तकर्षिणी राजीव आ गये। हम लोग जाने के लिये तैयार हो गये, बग्गी के लिये फोन किया। बग्गी से बेहद खूबसूरत रास्ते से नाश्ते के लिये पहुँचे। ब्रेकफास्ट का तो मैं ज़िक्र न ही करुँ! क्योंकि जितने शब्दों में कुर्ग का वर्णन होगा, उतने ही शब्द ब्रेकफास्ट में परोसे गये व्यंजनों के नाम, उनके स्वाद और उनकी सर्विस की प्रशंसा में लगेगे। कुछ ही शब्दों में, मेरा तीन दिन के नाश्ते में, वैराइटी का स्वाद चखने से ही पेट भरा, फिर भी आधे व्यंजनों का स्वाद मैं नहीं ले पाई। वेजिटेरियन हूँ, और जूठा मैं छोड़ती नहीं। राजीव उत्तकर्षिणी का कहना है कि नान वेज की तो बात ही अलग है, जिसके लिये  कूर्ग में खाने को बहुत कुछ है।  पांधी(पोर्क), कोली(चिकन), और यार्ची(लैंब) को काली मिर्च, कोकुम, लाल मिर्च, बेंबला करी, कुडुमबुट्टु, नूलपुट्टु, बोटी, बैंबू शूट और काॅफी के साथ खाने का मजा ही कुछ और है। ब्रेकफाॅस्ट के बाद लाॅबी में खड़े होकर बाहर देखते रहे, कभी पहाड़ियाँ धुंधली हो जाती, धूप पड़ने पर वनस्पितियाँ हरे रंग के अलग अलग शेड में तब्दील हो जाती। हम पैदल ही अपने विला की ओर चल पड़े। विवंता बाइ ताज़ की व्यवस्ता इतनी उत्तम थी कि बच्चे के साथ भी चिंता की कोई बात ही नहीं थी। हर जगह नीले बड़े छाते रक्खे थे, फिर भी आप लेकर नहीं चले, तो आपके पास से गुजरती बग्गी का चालक, आपको बैठने को कहेगा या आप उस पर रक्खे छाते ले सकते हैं। गीता को तो एक तालाब दिख गया, उसमें बतख़ तैर रहीं थी। गीता तो उसमें मस्त हो गई। बग्गी में एक परिवार जा रहा था। उनके बच्चों की नज़र क्यारियों में लगी स्ट्राबेरी पर पड़ी। हरे हरे पौधों में लगी, लाल स्ट्राबेरीज़ ने उन्हें रुकने को मजबूर कर दिया। वे बच्चे भी नीचे उतर गये और क्यारियों में लगी स्ट्राबेरीज़ लगे तोड़ के खाने। मैं भी यहाँ के लजी़ज स्ट्राबेरीज़ शेक के स्वाद का राज जान गई, कि वह एसेंस की बजाय ताजी स्ट्राबरीज़ से बना था। संतरों के लिये मशहूर कूर्ग में जूस भी बहुत स्वादिष्ट था क्योंकि ताजे संतरों से बनता था। हल्की बूंदा बांदी हो रही थी। लेकिन पैदल चलना बहुत अच्छा लग रहा था। रात को तो ठीक से देखा नहीं था। विला में पहुँचते ही देखा कि हमारा विला प्रकृति की गोद में है। वैसे सभी विला दूर दूर पेड़ पौधों के झुरमुट में थे। अन्दर बैठे हम सब ओर जंगल देख सकते थे। हमारे और उनके बीच पारदर्शी काँच की दीवार थी। मेरा बैड लकड़ी की दीवार के साथ था। उसे स्लाइड किया तो वही पारदर्शी काँच। जब भी मैं लेटी, अब तो मेरा मुँह जंगल की ही ओर रहा। यानि नींद में आँखें बंद होने पर ही, कूर्ग नज़र से ओझल होता था पर ताजी हवा कूर्ग को महसूस करवा रही थी। वैसे तो वहाँ पानी की कमी नहीं थी पर पानी का रिसाइकिल अच्छा लगा। पूल का पानी पेड़ों में जा रहा था। ये मुझे अच्छा लगा। गीता के तंग करने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता था। वह स्वीमिंग करके थक जाती थी और सो जाती थी। अब मुझे रेन फारेस्ट वाॅक के लिये निकलना था। क्रमशः 

Thursday 18 August 2016

कोडावा प्रदर्शन और प्राकृतिक सौन्दर्य का साथ Coorg Yatra Part 4 कूर्ग यात्रा Neelam Bhagi नीलम भागी




                                              
हल्की बूंदाबांदी चल रही थी और अंधेरा घिर आया था। दोनो ओर घने वृक्षों से घिरी पतली सी सड़क से हमारी गाड़ी गुजर रही थी। वही आवाज और मामूली बौछार वाली ठंडी हवा, जिसे हमने खिड़की बंद करके आने से नहीं रोका था क्योंकि हमें लगा कि ऐसी हवा शायद ही कहीं और हमें मिलेगी। अचानक गाड़ी रुकने से मेरी तंद्रा टूटी। अरे! ये क्या!! ये तो जंगल में मंगल। मेरी तो ये सरप्राइज यात्रा थी इसलिये मुझे तो कुछ पता ही नहीं था, जो घट रहा था, उसका आनन्द उठा रही थी। एक कर्मचारी छाता खोले आया उसने आकर गाड़ी का दरवाजा खोला और दूसरा हाथ में पकड़ा छाता मुझे खोल कर दिया। मैंने अपने बायीं ओर ये कहाँ आ गई मैं? के मनोभाव से नज़र दौड़ाई, वहाँ लिखा था विवंता बाई ताज। लाॅबी में प्रवेश करते ही मैंने शाॅल ओढ़ ली, न भी ओढ़ती तो चल रहा था। सामने कोडवा प्रदर्शक अपनी पारंपरिक वेशभूषा, वाद्ययंत्रों और अस्त्रों के साथ प्रदर्शन के लिये तैयार थे। किसी भी जगह की अपनी लोक संस्कृति और खानपान उसकी पहचान होता है। बैठते ही मेरे हाथ में काॅफी के लिये मशहूर, कूर्ग की गर्म काॅफी थी। जिसे पीते हुए मैंने कोडवा प्रदर्शन देखा। कूर्गी लोग मूल रुप से क्षत्रिय होते हैं। माना माना जाता है कि कूर्गी यूनान के महान राजा सिकन्दर की सेना के वंशज हैं। सेना में जाना इन्हें बहुत भाता है। कुछ समय पहले तक कूर्ग के हर घर से एक सदस्य भारतीय सेना में जरुर भर्ती होता था। इस लोक नृत्य में भी खुकरी हाथ में थी। शायद यहाँ कूर्गी लोगों को बंदूक रखने के लिये लाइसेंस आवश्यक नहीं होता। इस प्रदर्शन की सबसे बड़ी विशेषता ये थी कि उसे दो साल की गीता ने भी मंत्र मुग्ध देखा और उसने कार्यक्रम समापन पर सबके साथ तालियाँ बजा कर सराहना भी की। फिर रोई, शायद उसे लगा कि जैसे टी.वी. मैं रिमोट से बंद कर देती हूँ, ये कार्यक्रम भी मेरे द्वारा ही बंद हुआ है। मैं उसे कलाकारों से मिलवाने के लिये ले गई। दर्शकों को जाते देख वो चुप हो गई और समझ गई कि कार्यक्रम संपन्न हो गया। हम बग्गी में बैठे और पेड़ों से घिरे एक विला में आ गये। दरवाजा खुलते ही खूबसूरत विला रोशनी से भर गया। सामने स्वीमिंग पूल, जिसे देखते ही मैं गीता के लिये डर गई, उसे स्वीमिंग का शौक बहुत है और सर्दी भी बहुत जल्दी पकड़ती है। घर पर तो राजीव वीकएंड पर उसे धूप निकलने पर स्वीमिंग करवाते हैं। लेकिन यहाँ तो जब चाहो स्वीमिंग और न करने देने पर!!! बच्चे के पास तो एक ही अस्त्र होता है, वो है रोना, जिसे वह शस्त्र की तरह इस्तेमाल करता है। साथ में आया स्टाॅफ नियम कायदे समझा रहा था। हमारे मोबाइल पर वाई फाई चालू कर रहा था। गीता सबसे बेख़बर, स्वीमिंग स्वीमिंग करके पूल में कूदने को हो रही थी। टी. वी. पर उसे र्काटून लगा दिया पर स्वीमिंग का जाप, नहीं बंद हुआ। उन्होंने बताया कि पानी का तापमान मेनटेन किया हुआ है और पारदर्शी कर्वड छत है। एक नम्बर देकर वो चले गये कि जब भी कहीं जाना हो, तो इस नम्बर पर काॅल करना, बग्गी आपको ले जायेगी। अब उनके जाते ही गीता और राजीव पूल में उतर गये। गीता कि किलकारियों से विला गूंज रहा था। खूब शोर मचा- मचा कर वह स्वीमिंग कर रही थी।    
    बुरी तरह थकने पर गीता पानी से बाहर आई। गीता मेरे पास लेटते ही सो गई। इसलिये हमने डिनर वहीं आॅडर कर दिया। मैं वेजीटेरियन हूँ और उत्कर्षिणी राजीव मांसाहार के शौकीन है। यहाँ लोग ज्यादातर मांसाहारी हैं। चिकन, मटन और ज्यादातर पोर्क बहुत शौक से खाते हैं। बाॅयल राइस, राइस रोटी और कोरी रोटी खाई जाती है। ये ड्राई फिश खाते हैं। साउथ है तो साउथ इंडियन खाना तो होगा ही।  क्रमशः 

Tuesday 16 August 2016

मैंगलौर से कूर्ग यानि दक्षिण के कश्मीर, भारत के स्कॉटलैंड जा रही हूँ Coorg Yatra Part 3 कूर्ग यात्रा Neelam Bhagi





 मैंगलौर से कूर्ग के रास्ते ने तो विस्मय विमुग्ध कर दिया!!!    कूर्ग यात्रा भाग 3
                                                                                                                  नीलम भागी
 आगे की सीट पर बैठने से ये सुविधा रहती है कि मैं अपने सामने और अपने बाँयीं ओर बिना गर्दन दुखाये देख सकती हूँ। इसलिये मैं तो दिनेश के बराबर की सीट पर बैठ गई। दिनेश ने भी सीट बैल्ट नहीं बांधी थी, इसलिये मैंने भी नहीं बांधी। पर मुझे तो आदत है बांधने की, फिर मैंने बैल्ट बांधते हुए दिनेश से पूछा,’’यहाँ सीट बैल्ट बांधना जरुरी नहीं है?’’वह बोला,’’मर्जी’’ पर उसने भी बांध ली। गाड़ी साफ सुथरे मंगलौर शहर से गुजरने लगी। सड़क का रास्ता मुझे हमेशा से प्रिय है, कारण इससे उस शहर का परिचय हो जाता है। मैं इश्तहारों और दुकानों के र्बोड देख रही थी। पर ये क्या! उस पर तो केवल कन्नड़ या कहीं कहीं पर अंग्रेजी लिखी हुई थी। बाॅलीवुड के सितारे प्रचार के बड़े बड़े पोस्टर पर चिपके हुए थे पर किसलिये? ये तो पढ़ने से ही पता चलेगा न। लेकिन पढ़ेंगे आप तब न, जब आप को इंग्लिश या कन्नड़ आती होगी। मैंने दिनेश से हिन्दी में पूछा,’’यहाँ लोग हिन्दी सिनेमा देखते हैं?’’ उसका जवाब था,’’हाँ, बरोबर।’’अब मुझे अपना प्रश्न बेवकूफी भरा लगा क्योंकि बाॅलीवुड के सितारों की पहचान तो हिन्दी सिनेमा के कारण है। अब मुझे बाॅलीवुड के सितारों से मोह हो गया क्योंकि वे सिनेमा द्वारा हिन्दी के प्रचार में बिना किसी सरकारी अनुदान के वे लगे हुए हैं। मैं नेत्रावती नदी, हस्सन, सूलिया और मेडिकरी ये चार नाम पढ़ पाई क्योंकि इनके  कन्नड के साथ अंग्रेजी में भी लिखा था। रास्ते में आने वाले बाजार सामान से अटे पड़े थे। जिस पर फूल, ताजे फल सब्जियों की दुकाने बाजारों की सुन्दरता और संपन्नता को चार चाँद लगा रहीं थी। महिलायें सलवार कमीज या साड़ी में नज़र आई। मैनुअल रिक्शा और भिखारी तो कहीं देखने को भी नहीं मिला। रास्ते की खूबसूरती तो बढ़ती ही जा रही थी। मैंने दिनेश से पूछा,’’अब और कितनी दूर जाना है?’’ वो बोला,’’एयरर्पोट से तो कूर्ग 135 किमी. दूर है। लेकिन आपने जहाँ जाना है वो 170 किमी. दूर है।’’ कूर्ग सुनते ही मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा क्योंकि मैं दक्षिण भारत के कश्मीर, ब्रह्मगिरी की पहाड़ियों में लिपटे भारत के स्काॅटलैण्ड की यात्रा पर हूँ। यहाँ आने के लिये उत्तर भारत से रेल द्वारा मैसूर और मंगलौर स्टेशन करीब हैं। जहाँ से मडिकेरी के लिये बसे मिलती हैं चार या लगभग चार साढ़े  घण्टे में मडिकेरी पहुँचा जा सकता है। साफ सुथरी बढ़िया सड़क पर गाड़ी दौड़ रही थी। फुटपाथ पर कहीं अतिक्रमण नहीं था। सेंटर वर्जेज भी पौधों से भरी हुई थी। जहाँ जरुरत थी वहाँ पैदल चलने वालों के लिये सड़क पार करने के लिये पुल था यानि कहीं भी ट्रैफिक बाधित नहीं हो रहा था। रास्ते की सुन्दरता देख कर अभी से लगने लगा था कि कूर्ग के बारे में जो सुना पढ़ा है, वैसा ही देखने को मिलेगा। रास्ते में  जहां भी गाँव या कस्बा आता तो हरियाली से घिरे हुए, चटक रंगो वाले, ढलवा लाल छतों वाले घर दिखते। अब ट्रैफिक वन वे हो गया। इन घरों को देख कर दो बातों ने मुझे बहुत प्रभावित किया। पहली इतनी हरियाली होने के बावजूद भी उन्होंने अपने घर के आसपास अपनी पसंद के पेड़ पौधे लगा रक्खे थे, दूसरा घरों पर सोलर पैनल लगे हुए थे। लाल लाल बहुत बड़े साइज़ की ईंटे थी। सड़क के दोनों ओर जहाँ भी नज़र जाती, नारियल सुपारी कत्था के पेड़ दिखते। कहीं कहीं कई पेड़ो पर कट के निशान और तने पर पाॅलिथिन बंधी देख कर मुझे बढ़ी हैरानी हुईं। दिनेश ने बताया कि ये रबर के पेड़ है। फुटपाथ पर जहाँ भी मिट्टी दिखी लाल ही दिखी। बीच बीच में बारिश भी हो जाती जो रास्ते की खूबसूरती को और भी बढ़ा देती। कोई भी हरे रंग का शेड नहीं बचा था, जो हमारे रास्ते की वनस्पतियों में न आया हो। जहाँ धूप पड़ती थी वो शेड और भी सुन्दर लगता था। अचानक हम क्या देखते हैं दूर पेड़ों से ढकी पहाड़ियों में से धुंध ऊपर की ओर जा रही है। तब कहीं पढ़ा याद आया कि मडिकेरी मिस्टी हिल्स यानि धुंधली पहाड़ियों के लिये मशहूर है। गाड़ी का ए.सी. तो हमने कब से बंद करके, खिड़कियाँ खोल रक्खी थीं। हवा ऐसी कि तारीफ़ के लिये मेरे पास शब्द नहीं हैं। शाम होते ही एक अजीब सी आवाज़ हमारे साथ चली। मडिकेरी आबादी में आते ही ये आवाज गायब हो गई। कूर्ग के लिये आगे बढ़ते ही आवाज फिर शुरु हो गई। शायद वो आवाज जंगल में पाये जाने वाले कीट पतंगों की थी। 
क्रमशः               


Friday 12 August 2016

मुंबई से मैंगलौर Coorg Yatra Part 2 कूर्ग यात्रा Neelam Bhagi नीलम भागी


                                      
                                                   प्लेन में जाते ही देखा कि गीता ने उधम मचा रखा है। कारण, मैं बाहर थी तो उसे लग रहा था कि मुझे छोड़कर जा रहे हैं। मुझे देखते ही चहकी और अपने बराबर खाली विंडो सीट पर हाथ मार मार बोलने लगी बैथो बैथोे, मैंने बैठ कर बेल्ट बाँधी। उसकी बांधी। एक घण्टा पाँच मिनट की उड़ान थी। इतने में एयरहोस्टेज़ आकर सावधानियों की रिकार्डिंग पर इशारों से समझाने लगी। गीता समझी कि शायद डांस हो रहा है। वो बहुत ध्यान से हंस हंस कर देखने लगी और उनकी तरह हाथ चलाने लगी। प्लेन के उड़ान भरते ही, मैं उसे विंडो से बाहर दिखाने लगी, उसे कोई मतलब नहीं....। जैसे ही समुद्र दिखा, खुश, उसे तैरने का बहुत शौक है। यहाँ तो इतना बड़ा समुद्र उसके लिए तो  स्वीमिंगपूल था, जिसे देख वह कपड़े उतारने लगी और स्वीमिंग स्वीमिंग का जाप करने लगी। प्लेन जैसे ही बादलों से ऊपर हुआ तो पानी गायब तो वो भी, इस एक्टिविटी को भूल गई। अब ट्रेन होती तो इतनी देर में सामने, दाएँ, बाएँ वालों से अब तक दोस्ती हो गई होती। ज्यादा समय की प्लाइट में तो हम इसे घर में सोने नहीं देते फिर सफर में यह सो जाती है। यहाँ तो सुबह नौ बजे तक सो कर उठी थी इसलिये पूरी तरह एक्टिव थी। अब उसे बायीं ओर मैं दिख रही थी, दायीं ओर मम्मी पापा और सामने की सीट की पीठ। अब गीता क्या करे! मैंने उसे कूंगफू पाण्डा दिया। जिसे लेकर वह सीट पर खड़ी होकर, उसने चारों ओर नज़रें दौड़ाई। हमारी पिछली सीट पर जो बैठे थे वे इससे बातें करने लगे, ये खुश हो गई। इतने में नाश्ता लगने लगा। पीछे वालों को परेशानी न हो,मैंने गीता को बिठा कर, उसके आगे ट्रे लगा दी। उसमें टी किट थी, चीनी का पैकेट फाड़ कर खुश हो गई। चीनी को वह जाॅनी( जाॅनी जाॅनी यस पापा.....) बोलती है। जाॅनी  चाटने लगी और जाॅनी से मन भरने पर, मम पीना, मम पीना करने लगी,  मैंने पानी की बोतल खोल दी। थोड़ा पानी पी कर, अब उसने बाकि पानी को कप में पलटा फिर कप से बोतल में फिर बोतल से कप में इस प्रोसेस को वो लगातार करती रही। बीच बीच में पी भी लेती। कुल दो सौ मिली. की बोतल थी इसलिये हमें उसके स्नान का भी डर नहीं था। अलट पलट का खेल करते सारा पानी खत्म, कुछ उसके कपड़ों ने पिया कुछ उसने। अब वो मेरा और अपना कप लेकर बजाने और कुछ गाने लगी। ट्रेन होती तो आसपास के लोग उसकी हरकते देखते फिर वह नया कुछ करती। अब हमने उसके गीले कपड़े बदलने शुरु कर दिये। प्लेन लैंड होने का भी समय हो गया। मैंने तो अपनी आँखे बाहर गड़ा दी। अब तक मैंने जितनी भी हवाईयात्राएँ की हैं, विंडो से ऐसा प्राकृतिक सौन्दर्य!! अब से पहले मैंने कभी नहीं देखा था। बाहर बारिश हो रही थी। ऊपर से दिखने वाला गहरे हरे रंग का कालीन, धीरे धीरे आकृतियों में बदलने लगा यानि नारियल के पेड़ों के जंगल में। ऐसे मनमोहने दृश्य को कोई चित्रकार नहीं बना सकता। जी भर कर देख भी नहीं पाई थी कि प्लेन लैण्ड कर गया। हल्की बरसात चालू थी। बाहर आते ही गीता ने ऐयरर्पोट पर इधर उधर भागना शुरु कर दिया। प्रैम उसकी लगे़ज के साथ आनी थी। एक ट्राॅली में उसे बिठा कर, हम दो नम्बर बैल्ट के पास लगेज़ के इंतजार में खड़े हो गये। गीता को समझा दिया कि जब प्रैम आयेगी तो बता देना। अब वह घूमती हुई बैल्ट को घूरती रही। सारा सामान आ गया, वह चुपचाप रही, जैसे ही उसे अपनी प्रैम आती दिखी, उसने खुशी से शोर मचा दिया। ट्राॅली पर सामान रख, उस पर  गीता को बिठा कर, एयरर्पोट से बाहर आये। सामने खड़े दिनेश ने हमसे ट्राॅली लेकर सामान को गाड़ी में रक्खा, हम बैठे और गाड़ी चल पड़ी। क्रमशः 

Tuesday 9 August 2016

शर्म, मगर आती नहीं, विश्व बेटी दिवस World Daughter Day Neelam Bhagi राष्टर्ीय बेटी दिवस नीलम भागी


                            
उत्कर्षिनी और उसकी बेटियां गीता और दित्या 
         अपने नवजात पुत्र लल्ला को गोद में लेते ही, मैं अपनी होने वाली सुशील बहू और उसके साथ मिलने वाले दहेज की सुन्दर कल्पना में खो जाती थी। मुझे दूसरी प्रैगनेंसी हुई, तो भी सभी महिलाओं ने कहा कि आपके तो इस बार भी, बेटा ही होगा। सिर्फ मेरी सासू माँ मेरे आराम करने पर, यह न कहे कि,’’बहू के लच्छन तो यही बताते हैं कि इस बार लड़की ही होगी। सारा दिन लेटी रहती है। बड़ी आलसी हो गई है। अगर लड़का होना हो, तो औरतें भागती फिरती हैं।’’ इसलिए मैं दिन भर अपने लाडले लल्ला के पीछे भागती फिरती रहती थी।
 पर..... पैदा हो गई लल्ली। इसलिए अब मुझे महिलायें मानसिक रोगी लगती हैं। क्योंकि वे अपनी जानकार प्रैगनेंट औरत को अल्ट्रासाउण्ड मशीन की तरह, रिजल्ट बताती हैं कि तुम्हारे तो बेटा ही होगा। मुझे भी तो यही कहा था कि लल्ला का भइया होगा। ख़ैर.......
   लल्ला के पैदा होने पर जोर-जोर से थाली पीटी गई थी। लल्ली के पैदा होने पर, मेरा जी कर रहा था कि अपना माथा पीट लूँ, पर पति ने कहा कि घर में लक्ष्मी आई है और प्यार से लल्ली का नाम गुड़िया रक्खा और मैंने भी अपनी भावनाओं पर कंट्रोल रक्खा।
     लल्ला की बोतल का बचा दूध पीकर, उसके छोटे कपड़े पहन कर, उसके रिजेक्ट किये खिलौनों से खेलते हुए मेरी गुड़िया बड़ी हुई। भइया पंचमी का त्यौहार मनाते मनाते मेरी गुड़िया अपने  आप समझ गई कि हमारे घर में भइया का दर्जा विेशेष है। जैसे दोनों बच्चे खेलने जाते, अगर लल्ला हार जाते या आउट हो जाते तो गुड़िया अपना चांस उसे दे देती। लल्ला से किसी बच्चे को चोट लग जाती, तो गुड़िया अपने कान पकड़ कर साॅरी करती रहती, फिर उठक बैठक लगाने लगती, जब तक दूसरे लल्ला को माफ नहीं कर देते। लेकिन उसके पापा ने उसका लल्ला के स्कूल में ही एडमीशन करवाया।
  भला गुड़िया को इतने मंहगे स्कूल में एडमिशन दिलवाने की क्या जरुरत थी? मेरे मम्मी पापा ने मुझे ख़रैती स्कूल और काॅलिज में एम.ए तक पढ़ा कर पैसा बचाया और मेरे लिए अधिकारी पति जुटाया। अगर मेरे पिता जी पैसा न बचाते, तो अपने लिये अधिकारी दामाद खोज पाते भला ? नहीं,..... बिल्कुल नहीं। मैंने अपने पति को समझाया कि गुड़िया की शादी के लिए भी तो पैसा जोड़ना है। शिक्षा पर इतना मत खर्च करो। पर मेरी कोई सुने तब न।
 मेरा ऐसा मानना है कि लड़कियों के लिए काम ही व्यायाम है। इसलिये काम मैं गुड़िया से ही करवाती हूँ। ऐसा नहीं है कि मैं गुड़िया से प्यार नहीं करती। जब वह अपनी कज़न के साथ बैठी बतिया रही होती है, उस समय मुझे कोई काम कहना हो तो, काम मैं गुड़िया की बजाय उसकी कज़न को ही कहती हूँ। ये मेरा गुड़िया के प्रति प्यार ही तो है। कोई यदि कहता है कि आपकी गुड़िया बड़ी दुबली दिखती है तो मैं उन्हें समझाती हूँ कि इसकी न, जीरो फ़िगर है। कद छोटा है, नहीं तो माॅडल की जैसी दिखती।

    गुड़िया को नैशनल स्वीमिंग कम्पटीशन से अण्डर वेट होने के कारण निकाल दिया गया। तब......
    हमेशा व्यस्त रहने वाले उसके पापा ने पूछा,’’क्या गुड़िया ठीक से खाना नहीं खाती है।’’ मैंने उन्हें बताया,’’ ये न,... कुढ़ती बहुत है।’’  अब देखिये न, लल्ला जिम में पसीना बहाते हैं। आई. आई. टी. के लिए कोचिंग लेते हैं। कितनी मेहनत करते हैं! मैं उन्हें दुलार से ठूस-ठूस कर पौष्टिक आहार खिलाती हूँ। जिसका नतीज़ा, लल्ला का ऊँचा लम्बा कद और दर्शनीय बाॅडी है।
  गुड़िया चाहती है, मैं उसे भी मनुहार करके भइया की तरह खिलाऊँ। मसलन लल्ला खाना खाते हैं, तो मैं उनकी दाल में घी डालती हूँ। सब्जी मैं उनसे पूछ कर ही बनाती हूँ। फिर भी उन्हें अगर सब्जी पसन्द नहीं आती है, तो मैं तुरन्त आर्डर करके रेस्टोरेंट से मंगवाती हूँ क्योंकि देर होने से लल्ला रुठ जाते हैं। लल्ला का यदि दूध पीने का मूड न हो तो मैं उनकी पसन्द का मिल्कशेक बना देती हूँ। यह सब देखकर गुड़िया चिढ़ी रहती है। इसमें चिढ़ने की भला कौन सी बात है ? पर हम तो अपने भइया से कभी नहीं चिड़े थे। ये सब भइया के स्कूल में पढ़ाने का नतीज़ा है। जो ये भइया से बराबरी करना चाहती हैं। पर ........
   मैं तो इसकी माँ हूँ न।  इसने पराये घर जाना है।  मैं तो इसकी आदत नहीं बिगाड़ सकती न।
  इतना ध्यान देने पर भी लल्ला पेमंट सीट पर इंजीनियर बने। अब जाॅब सर्च कर रहे हैं।
  गुड़िया को हमारी तरफ से पूरी छूट थी ,जो मरजी पढ़े। न्यूज़ पेपर पढ़ कर, और कम्प्यूटर पर बैठ कर जो पढ़ाई कभी सुनी न थी, वह करके गुड़िया तो बढ़िया नौकरी भी पा गई है।
मेरे सामने के घर में "शर्मा परिवार अपनी तीन बेटियों के साथ रहने आया हैं। बेटियों को बेटों की तरह पाल रहें हैं और उनका चाव से जन्मदिन भी मनाते हैं। पर बेटों की माँ द्वारा किया जाने वाला अहोई अष्टमी का व्रत भी मिसेज शर्मा रखती हैं। मेरे अगर लल्ला से पहले, गुड़िया पैदा होती, तो मैं व्रत लल्ला के पैदा होने पर ही शुरु करती और लोगों के आगे आदर्श बघारती कि मैं तो दोनों के लिए व्रत करती हूँ। मेरे लिए तो बेटा बेटी दोनो बराबर हैं।
    मिसेज शर्मा की हरकतों के कारण, मुझे उपदेश देने का दौरा पड़ गया। मैंने उनसे कहा,’’आपके पति तो मैडिकल लाइन में हैं। तब भी आपने तीन-तीन बेटियाँ पैदा की हैं। ऊपर से बेटों की लम्बी आयु की कामना के लिये रखने वाला व्रत भी, बेटियों के लिए रखती हो।’’उन्होंने उत्तर दिया,’’ न बेटी ने पास रहना है न बेटे ने, इन्हें प्यार से पालना, अच्छा स्वास्थ्य, अच्छी शिक्षा देकर, आत्मनिर्भर बनाना, हमारा कर्तव्य है। जो हम पूरा कर रहें हैं।  उसने मेरे साँड की तरह पले बेरोज़गार लल्ला, और सूखी नाटी गुड़िया की ओर देख कर कहा,’’ क्या फर्क है बेटा बेटी में ?’’
  फर्क तो सबको दिखता है सिवाय मेरे। उसका जवाब सुनकर मुझे शर्म आनी चाहिये। पर .....शर्म, मगर आती नहीं।            





Monday 8 August 2016

सरप्राइज यात्रा वस्त्र से समाचार पत्र तक सब हिंदी हिंदी Coorg Yatra Part 1 Kernatak कूर्ग यात्रा नीलम भागी

 सरप्राइज यात्रा                
                     
                                                 
अनोखा मध्य प्रदेश की यात्रा को समाप्त कर, अभी मन में अगली यात्रा का मैं प्लान बना ही रही थी कि उत्कर्षिणी आई और बोली,’’माँ तैयारी कर लो, अगली यात्रा की।’’मैंने पूछा,’’कहाँ की?’’वो बोली,’’ये तो राजीव जी का सरप्राइज है। कोई हिंट भी नहीं दिया। मैंने भी ज्यादा दिमाग नहीं खपाया, ये सोच कर कि एयरपोर्ट पर पता चल ही जायेगा कहाँ की यात्रा है। ये अत्यंत व्यस्त हैं, इसलिये ट्रेन के लिये समय अफोर्ड नहीं करते। मैं मन ही मन बहुत खुश थी कि जब तक इस सरप्राइज़ यात्रा को नहीं लिख लेती, तब तक अगली यात्रा का प्लान कर सकती हूँ। अब तो मुझे साथ ही चलना था। मैं बैग लगा ही रही थी। उत्कर्षिणी बोली,’’माँ, हल्का सा शाॅल भी रख लेना।‘‘मैंने अंदाज लगाया कि इतनी गर्मी में शाॅल! इसका मतलब कि पहाड़ी जगह होगी। जो भी होगी हो, मुझे तो यात्रा का आनन्द ही उठाना है। सबके बैग लगे देख, दो साल की गीता, एयरपोत एयरपोत का जाप करने लगी। कभी शूज़ निकाल कर देती कि उसे पहना दो, कभी आफ मोबाइल कानों पर रक्ख कर बोलती,’’सैयद भाई, गाड़ी एक्जिट पर लगा दो।’’उसे हमारी तैयारी से कोई मतलब नहीं था। उसे तो बैग दिख रहे थे और बेचैनी थी कि हम चल क्यों नहीं रहे हैं। बारिश हो रही थी, मैं उसे लेकर नीचे आ गई कि हम गाड़ी में बैठ जायेंगे और उसके मम्मी पापा घर ठीक से बंद कर देंगे। लाॅबी से गाड़ी तक जाने में गीता ने छाता खुद ही लिया। मुम्बई की मोटी मोटी बूंदो वाली बारिश में गीता छाता लेकर चल रही थी। ऐसा लग रहा था, मानो छाता चल रहा है। जहाँ जरा सा भी पानी इक्ट्ठा देखती उसमें जाकर छपाक छपाक कूदती, बड़ी मुश्किल से उसे गाड़ी तक लेकर आई। अंदर बैठी, तो चलो। तब तक सब आ गये। गाड़ी चलते ही मैं खुश हो गई कि आधे घण्टे में मुझे पता चल जायेगा कि कहाँ जाना है। डाॅमैस्टिक एयरर्पोट से पहले सैयद भाई ने पूछा,’’डाॅमैस्टिक या इंटरनैशनल।’’राजीव बोले,’’इंटरनैशनल।’’सुनते ही तपाक से मेरे मुँह से निकला कि पासपोर्ट तो मैं लाई नहीं। वे बोले,’’जेट एयरवेज़ की फ्लाइट इंटरनैशनल एयरपोर्ट से जाती है।’’ सुनते ही चैन आया, सस्पैंस और थोड़ा लंबा हो गया। खै़र एयरपोर्ट पहुँचते ही सामान ट्राॅली में रख कर, सबसे मुश्किल काम गीता को प्रैम में बिठाना था। गीता दो साल की हो गई है, न उसे प्रैम में बैठना पंसद है और न ही अंगुली पकड़ कर चलना। वो चाहती है उसे छोड़ दिया जाये, वो जहाँ चाहे दौड़े और हम सब उसके पीछे दौड़े। ये तो घर या पार्क के सिवाय सम्भव नहीं है न। गीता को प्रैम में बिठा, मैंने प्रैम ले ली। एयरपोर्ट में प्रवेश करते ही मेरा पूरा ध्यान राजीव उत्कर्षिणी पर लगा था कि ये किस फ्लाइट के लिये चैक इन करवाते हैं। जैसे ही ये जेट एयरवेज़ के मुम्बई से मैंगलौर काउण्टर पर खड़े हुए। मेरा सस्पैंस खत्म। लगेज़ चैक इन में डाला, गीता की प्रैम को उसके पापा चलाने लगे। सिक्योरिटी जाँच के बाद हम लाउंज में चले गये। वहाँ लंच किया। यहाँ गीता को हमने दूध की बोतल पिला कर, खोल दिया। गीता वहाँ से यहाँ और यहाँ से वहाँ भागती रही। फ्लाइट का समय होते ही फिर गीता को बड़ी मुश्किल से प्रैम में बिठाया और रोती हुई गीता को ले हम गेट पास पर लिखे गेट नम्बर की ओर चल पड़े। लाउंज में मैं नवभारत टाइम्स पढ़ रही थी, पूरा पढ़े बिना तो छोड़ नहीं सकती थी न इसलिये हाथ में पकड़े आ गई कि प्लेन में पढ़ूँगी। अचानक प्लेन के अन्दर जाने से पहले याद आया कि सीट पर जैसे ही पेपर खोलूँगी, शैतान गीता फाड़ देगी। थोड़ा सा समय था, मैं बाहर जल्दी जल्दी बची हुई हैडलाइन देख रही थी। आखिरी सवारी तो मैं थी, मुझसे पहले की सवारी जो लड़का था, मेरे पास से गुजरा और वो जाते जाते बोल गया,’’वस्त्र से समाचार पत्र तक सब हिंदी हिंदी।’’ क्योंकि मेरे कुर्ते पर हिन्दी वर्णन माला छपी हुई थी। क्रमशः      
     


Wednesday 3 August 2016

शहडोल, विराटेश्वर मंदिर सोहागपुर और स्लीपर Madhya Pradesh Part 19 Neelam Bhagi नीलम भागी



  होटल से सामान गाड़ी पर रक्खा और शहडोल की ओर चल दिये। माई की गुफा में हमें एक शहडोल से आया परिवार मिला था। मैंने उनसे पूछा था कि शहडोल में घूमने की जगह कौन सी है? उन्होंने बताया कि विराट मंदिर और बाण गंगा दोनो आजू बाजू में है। इन्हें भी देखने का मन बना लिया। गाड़ी चली तो कोई बात नहीं कर रहा था। सभी की निगाहें रास्ते की खूबसूरती के कारण बाहर टिकी  हुई थीं। कहीं कहीं र्बोड पर लिखा था कि गाड़ी धीरे चलायें, बेवज़ह र्हान बजा कर शांति भंग न करें। शरद ने इसका कारण बताया कि जानवर ट्रैफिक नियम नहीं जानते, वे सड़क पार करते समय गाड़ी से दब न जायें, इसलिए धीरे चलाएं। हाॅर्न के शोर से जानवरों के आराम में बाधा न पड़े इसलिये ऐसा लिखा है। रास्ते में जोहिला नदी उसने दिखाई, वो हमें अच्छी नहीं लगी क्योंकि हमारे मन पर माँ नर्मदा की असफल प्रेम कहानी छाई हुई थी। सहेली होकर, देवी नर्मदा के साथ उसने अच्छा नहीं किया था। ऐसी दुष्टा सहेली को भला कोई कैसे पसंद कर सकता है। खै़र सड़क के रास्ते हम अनूपपुर से परिचय करते जा रहे थे। शहडोल प्राचीन खूब भीड़ भाड़ वाला शहर है। ठेलो पर भी साउथ इंडियन खाना बिक रहा था। एक चाट मार्किट भी दिखी। बाण गंगा के दर्शन किये। पास ही विराटेश्वर मंदिर सोहागपुर है। यह मंदिर कलचुरी शासकों द्वारा बनाये गये उत्कृष्ट स्मारकों में है। यह एक चबूतरे पर है। वहाँ लगे एक शिला लेख के अनुसार स्थापथ्य एवं कला शैली से यह लगभग ग्यारहवीं सदी ई. का प्रतीत होता है। अब हम भीड़ वाले शहर से चाट मार्किट के सामने से निकले, बड़ी मुश्किल से टिकट कन्र्फम हुई थी इसलिये कहीं नहीं रूके। रास्ता साफ मिला इसलिये समय से डेढ़ घण्टा पहले ही स्टेशन पहुंच गये। उत्कल एक्सप्रेस एक घण्टा लेट थी। अब स्टेशन पर चाट बहुत याद आ रही थी। गाड़ी के आने का समय हुआ तो फिर एक घण्टा लेट और प्लेटफाॅम भी बदल गयां। फिर सामान उठा कर सीढ़ियाँ चढ़ते, उतरते भीड़ में धक्के खाते और धकियाते, बताये गये प्लेटफाॅर्म पर पहुँचे। साठ सालों से ऐसा कभी कभी होता था। ये परम्परा अब भी कभी कभी कायम हैं। स्लीपर में शाम आठ बजे अपने डिब्बे में चढ़े। हमारी सीटों पर पहले से सवारियाँ बैठी थीं। हमने उन्हें अपनी टिकट दिखाई , तो उन्होंने खिसक कर बैठने की जगह दी, यहाँ आधे से अधिक  सवारियाँ तो बिना रिर्जवेशन की थी बिना टिकट भी थीं। इतने में टी.टी. आता दिखा, तो हमारी सीटे अपने आप खाली हो गई। उस पर बैठी सवारियाँ दाएँ बाँए चली गई। टिकट चैक हुई। हम दिन भर के थके थे। सोना चाहते थे। बर्थ पर लेट गए। टी.टी. के जाते ही सवारियाँ लौटने लगी। लेटने के बाद बर्थ पर जरा भी जगह देखते, कोई न कोई बैठ जाता। यानि आप जिस पोजीशन में लेट गये, उसी में लेटे रहें। पर एक गनीमत थी कि महिला लेटी है, तो उसके साथ महिला ही बैठती थी। पुरुष लेटा है, तो उसकी सीट पर पुरुष ही बैठा। सुबह होते ही स्टुडैण्ट ही चढ़ते और उतरते रहे। मथुरा तक यही सिलसिला चला। मथुरा में आधा डिब्बा खाली हो गया। अब सोच रही थी, उस जरनल डब्बे के अल्प साधन संपन्न लोगों के बारे में, जिसमें  एक घण्टे की यात्रा चार पाँच घण्टों में पूरी हुई थी। उन्हें किसी से शिकयत नहीं, न ही सरकार से। और वो टू ए.सी. में एक रिर्जव सीट पर तीन महिलाओं की यात्रा करना और स्लीपर को बिना टिकट वालों द्वारा जनरल डब्बे में तब्दील करना।  हजरत निजामुद्दीन स्टेशन पर हमारी यात्रा को विराम मिला। अगली यात्रा की पैकिंग कर रहीं हूँं। कहाँ जाना है ? मेरे लिये सरप्राइज़ है। बेटी का जन्मदिन हैै, इस पर परिवार कहाँ जा रहा है? मुझे तो एयरर्पोट जाकर ही पता चलेगा। अपना अगला यात्रा वृतांत्र आपके साथ शेयर जरूर करूँगी।