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Wednesday, 7 December 2016

हरिद्वार एक बार, अब गंगा जी और वहां का खाना बुलाए बार बार Haridwar Neelam Bhagi नीलम भागी

                                            
रात दस बजे हरिद्वार पहुँचे, हर की पौड़ी की जगमगाहट देखते बनती थी। शैतान बच्चे तो रात ही में नहाने को तैयार थे। किसी तरह उन्हें सुबह के लिये मनाया। हर की पौड़ी के पास ही हम ठहरे। सुबह किसी को जगाना नहीं पड़ा, हमारे जगने से पहले ही बच्चे उठ गये थे। बचपन इलाहाबाद में बीतने से गंगा जी से मोह तो लगा हुआ है। जिस सूट में नहाना था, हम वही सूट पहन कर सोए, ताकि सुबह जरा भी वक्त बरबाद न हो। गंगा माँ को प्रणाम कर जंजीर पकड़ कर ठंडे ठंडे पानी में जी भर के डुबकियाँ लगाई। जून का महीना था। तेज बहाव और ठण्डा ठण्डा पानी। जब खूब ठण्ड लगती तो बाहर निकलते, तीखी धूप लगती तो फिर गंगा मइया में डुबकी लगा लेते। थकान और भूख से बेहाल होने पर हमने हर की पौढ़ी को छोड़ा और खाया पिया। धूप बहुत तेज हो गई थी। गर्मी थी पर लू नहीं चल रही थी। अब हमारी बस हमें हरिद्वार के दर्शनीय स्थल घुमाने ले गई। सबसे पहले खूब लंबी लाइन में लग कर केवल कार द्वारा मनसा देवी और चण्डी देवी के दर्शन करने को चले। केबल कार से हरिद्वार का दर्शन विस्मय विमुग्ध कर रहा था। बच्चे की कल्पना है, अचानक मनु बोला,’’मौसी, अगर केबल कार टूट जाये, तो हम सब नीचे गिर कर मर जायेंगे न।’’सभी कोरस में उसे मनहूस टाइटल देते हुए चिल्लाये,’’अरे शुभ शुभ बोल।’’ बेचारा रूआंसा होकर बोला,’’ मेरे मुहं से ऐसी गंदी बात पता नहीं क्यों निकली।’’बदले में मैंने प्यार से उसकी पीठ पर हाथ फेर दिया। अब मंदिर आ गया। एक दिन पहले गंगा दशहरा था। शायद इस वजह से मंदिर में संगमरमर के फर्श पर कालिख जमी हुई और फिसलन थी। हमारे पैरों के तलवे काले हो गये थे। जिसे मैं अब तक नहीं भूली हूँ। इसीलिये मेरी पहचान का कोई भी अब दर्शन करके आता है तो मैं उस दिन की गंदगी का ज़िक्र करती हूँ, तो जवाब मिलता है, ’’नहीं जी, बिल्कुल साफ सुथरा मंदिर है।’’सुनकर बहुत अच्छा लगता है। गरूकुल कांगड़ी, दक्षप्रजापति मंदिर, सप्तऋषि आश्रम, भीमगोड़ा तालाब, भारत माता मंदिर और अब पतंजलि भी दर्शनीय है। प्रत्येक दर्शनीय स्थल के बाहर लकड़ी की कारीगरी का सामान, बहुत सस्ते दामों में मिलता है। हम जहाँ जाते चप्पल बस में उतार कर जाते। नंगे पैर घूमने में बहुत मजा़ आ रहा था। हरिद्वार पवित्र शहर होने के कारण इसकी सीमा में शराब और मांसाहार मना है। काश! वैसे ही थूकने पर भी जुर्माना हो तो आनन्द आ जाये। तब हम राह चलते किसी भी नल का पानी पी लेते थे पर अब नहीं। शाकाहारी बेहद सस्ता और लाजवाब खाना है। पंजाबी खाना है तो होशियार पुरी ढाबा है। छोले भटूरे तो राह चलते खा सकते हैं। मथुरा की पूरी सब्जी़, कचौड़ी बेड़मी की दुकाने, साथ में रायते का गिलास, कढ़ाइयों में कढ़ता दूध जगह जगह आपको मिलेगा। पंडित जी पूरी वाले तो मशहूर ही हैं। हरा हरा दोना हथेली पर रखकर खाने का मज़ा ही कुछ और है। हम तो जो लड्डू, मठरी बना कर ले गये थे, उसे तो खोला भी नहीं। अब गंगा जी से मिलने जाती हूँ तो वहाँ गुजराती पोहा, मिठास गुजरात में छोड़ कर यहाँ थोड़ा तीखे हो गये हैं। लौटने पर कुछ देर आराम करने आये, तो बेसुध सो गये। आँख खुली तो जून की लंबी शाम थी। फिर हर की पौढ़ी पर चल दिये डुबकियाँ लगाने। मुझे तैरना नहीं आता, इतने तेज बहाव में, न जाने मुझे क्या सूझा कि मैं तैरने की कोशिश करने लगी। अचानक मेरे पैर उखड़ गये और एक हाथ से पकड़ी चेन भी छूट गई। दो आदमियों ने पानी में कूद कर मुझे बचाया। मैं बुरी तरह से डर गई। मैंने उनसे पूछा,’’आपको कैसे पता चला कि मैं बह रहीं हूँ।’’उनका जवाब था कि हम यही देखते हैं। और चल दिये शायद किसी और को बचाने। अब मैं उचित जगह देखकर गंगा जी की आरती देखने के लिये गुमसुम सी बैठ गई। हर की पौढ़ी पर आरती में शामिल होने के लिये श्रद्धालुओं की भीड़ बढ़ती जा रही थी। हम सातों एक दूसरे का हाथ पकड़ कर बैठ गये । अंधेरा घिरने पर अनुराधा पोडवाल की आवाज में गंगा मइया की आरती में श्रद्धालुओ का भाव भी जुड़ गया। अब आरती का ऐसा समा बधां कि उसको तो लिखने की मेरी औकात ही नहीं है। हाथ सबके जुड़े, आँखें दीपों पर टिकी हुई हैं। दिन भर की हर की पौढ़ी अब अलग लग रही थी। आरती संपन्न होते ही तंद्रा टूटी। भीड़ छटने लगी और सब कुछ पहले जैसा हो गया। दस बजे हमारी बस ने लौटना था। खाकर, कुल्हड़ में धुंए की महक वाला दूध पीकर, आबशार में नल का ठंडा पानी भर कर लौटे। मुंह अंधेरे घर में घुसते ही अम्मा को बताया कि हमने नीलकंठ महादेव की पैदल यात्रा की। सुनते ही अम्मा बोली,’’ क्या मांगा भोले से?’’ मैं बोली,"मैंने मांगा,बाबा, मैं अपने घर पहुँच जाऊँ।’’ सुनते ही अम्मा ने अखबार दिखाया, जिसमें लिखा था कि जंगल में आग लगने से जंगली जानवर बेहाल हो गये। हम तो उस समय जंगल में ही थे। डॉ. शोभा उसी समय बोली,’’अरे! मेरे तो नीलकंठ के रास्ते में एक बार भी घुटने में प्राब्लम नहीं हुई, न ही तक़लीफ याद आई। अगर याद आ जाती तो!! मैं बोली,’’चढ़ाई से आपके घुटने के नट बोल्ट कसे गये।’’आजतक उन्हें घुटने की परेशानी नहीं हुई है। आबशार में ठंडा ठंडा हरिद्वार का पानी था। जिसे सबने गंगा मइया की जै बोल कर तुरंत पी लिया। अब तो याद भी नहीं कि कितनी बार गंगा स्नान कर आई हूँं।       


13 comments:

डॉ शोभा भारद्वाज said...

मन मोहने वाला वर्णन नीलम जी

Unknown said...

सम्यक व सम्मोहक चित्रण

Dr. Amit Sinha said...

हरिद्वार की यात्रा का अपना ही मजा है.. ऋषिकेश से ऊपर कोडियाला में गंगा के पानी में लेटने का और पत्थरों के नीचे कोल्ड-ड्रिंक दबाकर रख कर पीने का आंनद ही और है... आपने वहां की याद ताजा कर दी है... आपको रसमय वर्णन करने के लिए साधुवाद.. 💐🙏

Astrologer Krishna Sharma said...

सच में ऐसा लग रहा था पढ़कर की हम हरिद्धार में घूम रहे है।

Neelam Bhagi said...

हार्दिक धन्यवाद

Neelam Bhagi said...

हार्दिक धन्यवाद

Neelam Bhagi said...

धन्यवाद

Prabhakar Rao said...

बहुत अच्छा और सजीव वर्णन

Unknown said...

कुछ देर के लिए हम भी हरिद्वार में ही खो गए थे हां के एक-एक लाइन से ऐसे प्रतीत हो रहा था कि जैसे आप नहीं हम स्वयं भी हरिद्वार में घूम रहे हो और खासतौर से वह वाक्य जब आपने तैरने की कोशिश की क्योंकि कुछ कुछ अमूमन हरिद्वार जाने वाला हर भक्तगण ऐसा सोच ही लेता है

Neelam Bhagi said...

हार्दिक धन्यवाद

Neelam Bhagi said...

हार्दिक आभार

Raj Sharma said...

उत्तम । याद आया कि मैं जब प्रथम बार हरिद्वार गया था तो लगभग 7 वर्ष का था । भारत विभाजन हुआ न था । पेशावर से आए कुला धारी गंगा भक्तों को देख कर बहुत प्रभावित हुआ था ।

Neelam Bhagi said...

हार्दिक धन्यवाद