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Sunday, 29 October 2017

साफ स्टेशन,आंचल कक्ष, स्वादिष्ट भोजन जबलपुर Jabalpur Yatra 2 यात्रा भाग 2 नीलम भागी



                                                                                               नींद तो मेरी उखड़ ही चुकी थी। सब खर्राटे भर रहे थे। साइड सीट का सिख छात्र मोबाइल पर लगा था और मैं बर्थ पर लेटे लेटे गंदगी फैलाने वालों और सफाई करने वालों दोनों को मन ही मन कोस रही थी। चादरों के सैट पेपर बैग में देने की क्या जरूरत! कुछ यात्रियों ने चादरें बड़ी तमीज से बिछाई और उनके कागज के कवर फर्श पर फैंक दिये। कुछ देर सो भी ली। कटनी आने पर हमारे सहयात्रियों ने उतरने से पहले मीडिल बर्थ को भी ऊपर कर दिया ताकि हमें बैठने में तकलीफ न हो। जाते जाते भी गुप्ता जी 10रू वाली चाय को 20 रू की तीन करवा कर गए। चाय पीकर मैं बाहर की हरियाली देखती रही। कोई चिंता तो थी नहीं ,स्टेशन पर हमें प्लेटफार्म न0 6 पर जाना था। सीढ़ी चढ़ने का चक्कर ही नहीं था स्लाइड था। दुर्गंध रहित साफ स्टेशन। वहाँ बोर्ड लगा था। जहाँ सब बैठे थे। मध्य प्रदेश में मुझे साँची मिल्क पार्लर का मीठा दहीं और नमकीन मट्ठा बहुत अच्छा लगता है। डॉ. शोभा सबके साथ बैठ गई। मैं साँची की खोज में निकल गई। पार्लर मिला पर बंद था। महिला वेटिंग रूम और उसके आंचल कक्ष ने तो मेरा मन मोह लिया। सब स्टेशन से बाहर आये। एक बस भर गई। दूसरी में हम बैठे। मैं तो खिड़की के बाहर आँखे गड़ाये देखती रही। हमारी बस एक बहुत बड़े नये बने हाउसिंग कॉम्पलैक्स के आगे रूकी। सामने ठंडा पानी और गर्म चाय थी। कुर्सियाँ रक्खी थीं। हमें अर्पाटमेंट का न0 दिया। वहाँ हम  पहुँचे। दो कमरों और हॉल में फर्श पर गद्दे और उन पर साफ सुथरी चादरें बिछी हुई थीं। इण्डियन और वैस्टर्न साफ दो बाथरूम थे। प्रत्येक कमरे की बालकोनी थी। 15 सितम्बर तक ऑन लाइन होटल में कमरे के लिये बुकिंग थी। एक बार मनु से करवाने की कोशिश की, उसने कहा कि सरवरडाउन है। दोनों कमरों में एक ही जगह की, चार चार महिलाएं तैयार हो रहीं थीं। किचन में सामान रख हम हॉल में आ कर कुर्सी पर बैठ गये। मुझे डॉक्टर ने पालथी मार कर बैठने और नीचे बैठने को मना किया है। मैं नीचे व्यवस्था वालों के पास आई, उनसे होटल में रूम के लिये कहा, उन्होंने फोन किये सब फुल। लेकिन कोशिश करेंगे, ऐसा कहा। काफी देर मैं वहाँ वैसे ही बैठी, देखती रही कि पूरे भारत से आये प्रतिनिधियों को कितनी शांति से सैटल कर रहे थे। जब मैं गई तो व्यवस्था वालों के लिये मेरे मन में साधूवाद था। सब महिलायें तैयार होकर जा चुकी थीं। एक बाथरूम में डॉ. शोभा थी, दूसरे में जो थी उनका पति फ्लैट से बाहर बैठा था। मेरे अंदर जाते ही उसने कहा कि मेरी वाइफ से कहना मैं तैयार होने जा रहा हूँ। मैंने दरवाजा बंद किया और बैग से कपड़े निकालने लगी। इतने में वह महिला बाथरूम से निकली, जूते पहने और मेकअप किट ली। जूतों समेत गद्दों पर चलती, खिड़की पर शीशा टिका मेकअप करने लगी। मैं बोली,’’अरे! आप ने जूते नहीं उतारे।’’उसने जवाब दिया,’’मेरे जूते बिल्कुल साफ हैं।’’ मैंने कहा,’’आप मेरे सामने से नीचे से यही जूते पहने चलती हुई आईं हैं। यहाँ महिलायें सोयेंगी।’’ उन्होंने जूते तो उतार दिये। पर क्रोधित होने से मेकअप करने पर भी अच्छी नहीं लग रहीं थीं। मैं बाथरूम चली गई। बाहर आई तो शोभा ने बताया कि वो महिला पता नहीं क्यों बैग लेकर चली गई है। तैयार होकर हमने लॉक लगाया, चाबी नीचे देकर, जल्दी जल्दी हम बाहर खडी गाड़ी से कार्यक्रम स्थल पर 11 बज कर आठ मिनट पर पहुँचे। वहाँ नाश्ते का समय खत्म हो गया था। लेकिन हमें सेब और अमूल दूध की बोतल देदी। कानों में हमारे व्याख्यान पड़ रहा था और हम पंजीकरण करवा रहे थे। उसके बाद उन्होंने हमें किट दी। उस दिन उस समय बहुत गंदी गरमी थी। उस गरमी में भी खचाखच भरा पण्डाल था। व्याख्यान थोड़ा लंबा खिच गया। लेकिन खाना एक बजे लग गया था। परिपत्र में तो साधारण भोजन लिखा था पर मैं तो उसे असाधारण कहूंगी क्योंकि उसमें कच्चा, पक्का प्रांतीय मीठा सलाद पापड़ आचार सबकुछ और बहुत स्वादिष्ट था। पढे़ लिखों से मुझे उम्मीद थी कि यहाँ जूठा नहीं छोड़ा जायेगा, पर छोड़ा गया। प्लेट में खाना लेकर जो पंखों के आगे कुर्सी लेकर बैठ कर खा रहे थे, अगर उनके और पंखे के बीच में कोई खड़ा होकर खाता तो बैठ कर खाने वालों को बहुत बुरा लगता। बैठे लोग आपस में कहते, लोगों को तमीज़ नहीं है। और  खाना लेने जब कोई जाता, तो खाली कुर्सी पर कोई बैठने लगता तो साथ बैठी महिला झट से पर्स रख देती और बोलती,’’इस पर कोई बैठा है।’’पेट भरने पर चल देते जगह जगह कुर्सियां ही कुर्सियां थी, कहीं भी बैठते बतियाते। खाते ही हम भवन के दो गेटों में से एक के  बाहर आकर, ऑटो के लिये बैठ गये। ये पॉश इलाका था। इसलिये कोई ऑटो आ नहीं रहा था। आता तो किसी को छोड़ने। सवारी उतरते ही जब तक हम उसके पास पहुँचते कोई और बैठ चुका होता। इतने में दूसरे गेट की ओर से एक बस साहित्य सम्मेलन का स्टिकर लगी आ रही थी। उसमें हमारे डेरे के साथी थे। हम भी बैठ गये ये सोच कर कि जहाँ हमें लगेगा कि पब्लिक ट्रॉस्पोर्ट मिल सकता है उतर जायेंगे। पर बस में ही उसी बस को भेड़ाघाट ले जाने का कार्यक्रम बन गया जबकि रेल में बनी हमारी पर्यटन सूची में भेड़ाघाट 8 अक्टूबर समापन के बाद था। हम भला कैसे इस मौके को छोड़ सकते थे!  क्रमशः  






2 comments:

maheshshrivastava said...

रेस. नीलम जी अगर दोबारा जबलपुर आने अवसर हो तो कृपया सूचित कीजियेगा मैं यहाँ कृषि विस्वविद्यालय में साइंटिस्ट हूँ मेरा नंबर 094258 64454 है
महेश श्रीवास्तव

Neelam Bhagi said...

हार्दिक आभार आपका,