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Sunday 16 December 2018

लाइन में लगना तो मेरी इगो के रिवर्स है Line mein lagna meri ego k reverse hai Neelam Bhagi नीलम भागी

 लाइन में लगना तो मेरी इगो के रिवर्स है Line mein lagna to meri ego k Reverse hai
                                                 नीलम भागी                आप अगर मेरे चेहरे को ध्यान से देखेंगे, तो उस पर ये फिल्मी डॉयलाग कहीं भी फिट नहीं होता कि ’हम जहाँ पर खड़े होते हैं, लाइन वहीं से शुरू होती है।़’ क्योंकि मुझे लगता है कि मैं एक बहुत समझदार महिला हूँ और मेरी सारी समझदारी इसमें लगी रहती है कि मैं कैसी तरकीब लगाऊँगी कि मेरा काम भी बन जाये और मुझे लाइन में भी न लगना पड़े। मसलन जैसे मैं किसी काम से गई, वहाँ लंबी छोटी जैसी भी लाइन हो सबसे पहले मैं लाइन में लगती हूँ जब मेरे पीछे लाइन में कोई लग जाता है तो मैं अपने आगे वाले से कहती हूँ कि ’एक्सक्यूज मी, आपके पीछे मेरा नंबर है, और पीछे वाले से कहती हूँ कि आपसे पहले मेरा नंबर है, मैं अभी आती हूँ। सुनते ही दोनों कोरस में बोलते हैं कोई बात नहीं। अब मैं चल देती हूँ, अपने आगे लगे लोगो का मुआइना करने और बेमतलब बोलने कि लाइन तो लम्बी है पर नंबर सब का आ जायेगा। आगे अगर कोई पहचान का दिख जाये तो उससे बातें करते, चलने लगती हूँ। खड़ी मैं ऐसे होती हूँ कि काउंटर पर काम करने वाला, काम से जब भी नज़र उठाये, उसे मैं दिखूँ। इसका एक फायदा है कि वो मुझे लाइन में लगा समझेगा। अब मैं खिड़की के पास खड़ी होकर दिशा निर्देश देने लगती हूँ।’लाइन सीधी रखिए, बीच में मत लगिये, सबका नम्बर आयेगा आदि आदि।’ और पता नहीं कब मेरा हाथ खिड़की में चला जाता है और मेरा काम हो जाता है। जब मैं अपनी इस कोशिश में कामयाब होती हूँ ,तो उस समय मेरे चेहरे पर जो चमक आती है, वो देखने लायक होती है मुझे ऐसा लगता है। ऐसा मैं इसलिये महसूस करती हूँ क्योंकि अपनी इस फतह से मेरे अंदर जितनी खुशी होती है, उसी अनुपात में Utkarshini उत्कर्षिनी के चेहरे पर क्रोध होता है, वह मुझे घूर रही होती है और सभ्य लोगों की तरह लाइन में लगी रहती है। लगी रहे मेरी बला से।
  आज मेरा हृदय परिवर्तन हो गया है। हुआ यूं कि हांग कांग में बिग बुद्धा के दर्शन के लिये केबल कार में जाने के लिये 3 घण्टे लाइन में लगी। दुनिया भर से सैलानी आये थे। हर उम्र के लोग चुपचाप लाइन में लगे थे। गीता को हमने प्रैम में बिठा रक्खा था। जब बूढ़े भी खूबसूरत स्टिक के सहारे खड़े देखे, तो मैं भी खड़ी रही। लौटते समय ढाई घण्टे में नंबर आ रहा था रात हो गई थी केबल कार खाली आ रही थी शायद इसलिये। कोई भी लाइन से निकलता कॉफी पी आता और आकर अपनी जगह लग जाता। ठण्ड से हॉल में डोरियाँ बंध गई सब उसमें चल रहे थे दूर से देखने में भीड़ थी पर थी, अनुशाषित लाइन। कहते हैं कि आदत तो चिता के साथ ही जाती है पर मेरी ये आदत पहले ही चली गई। पता नहीं परदेश के कारण या आने जाने के कुल साढ़े पाँच घण्टे लाइन में लगने से और जहाँ भी गई लाइन में लगी। यहाँ तक कि टैक्सी स्टैण्ड में भी टैक्सी के लिए भी लाइन में लगी। वहाँ कोई भी लाइन तोड़ने की गलती नहीं करता। वहाँ मैं अपनी बुरी आदत को अब छोड़ आई हूँ।     

5 comments:

ओम कुमार जी said...

बहुत अच्छी लाइनें लिखी माताजी आपने !!मां अगर हर किसी इंसान के अंदर यही प्रेरणा आ जाए तो शायद ना कोई आगे और न कोई पीछे होगा सब समान दिखने लगेंगे

ओम कुमार जी said...

बहुत अच्छी लाइनें लिखी माताजी आपने !!मां अगर हर किसी इंसान के अंदर यही प्रेरणा आ जाए तो शायद ना कोई आगे और न कोई पीछे होगा सब समान दिखने लगेंगे

Unknown said...

Very well 😊 written.and great teaching for all of us

Neelam Bhagi said...

धन्यवाद ओम जी

Neelam Bhagi said...

हार्दिक आभार unknown ji