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Thursday, 14 February 2019

विक्रमशिला के रास्ते से पटना Vikramashila ke raste se Patna Bihar बिहार यात्रा 21 नीलम भागी

विक्रमशिला के रास्ते से पटना बिहार यात्रा 21
   नीलम भागी
     अब एक ही मकसद था कि पटना से राजधानी गाड़ी न छूटे। यहाँ कच्ची धूल भरी पगडंडियां नीचे और ऊंचाई पर कच्चे मकान थे। उसके बाहर ढेरो बच्चे और एक दूसरे की जुएं निकालती महिलाएं थीं। या हरे भरे लहलहाते खेत दिखते थे। हाइवे पर हाई स्पीड में चलते, कच्चे रास्ते पर स्पीड घटाने की मजबूरी थी। सिंहौली पर फिर जाम लग रहा था अब लगा कि अब तो गाड़ी निश्चय ही छूट जायेगी पर जाम जल्दी ही खुल गया। यहाँ ये शब्द सुनने को बहुत मिला, बढ़का लोग, छुटका लोग।
       कहीं कहीं छोटे छोटे लड़के साँड की पूंछ पकड़़ कर, मरोड़ कर उसको तंग करते दिखे तो मैं चिल्ला कर बोली,’’देखो रमेश, साँड बच्चों को मारेगा।’’ रमेश ने जवाब में मुझे चार लाइने सुनाई
     बच्चे ने मारा, सांड को,
      सांड ने मारा लताड़।
      खाकर सांड का लताड़,
      बच्चा हो गया जवान।
तब तक मुझे नहीं पता था कि लड़का सांड की लात और सींग की मार खाने से जवान हो जाता है। हमारे यहाँ के बच्चे तो सांड देखते ही डर जाते है। रास्ते में जगह जगह बच्चे बत्तखों को पंखों से पकड़ कर खड़े थे। ऐसा क्यूं ?रमेश ने बताया कि ये पोखर से पकड़ कर लाते हैं। आप खरीद लीजिए न। दिल्ली जाकर इसे पका कर खा लीजिएगा। मैं बोली कि मैं ब्राह्मणी और शाकाहारी हूँ। वो बोला,’’ मछली तो खाती होंगी न। यहाँ तो मैंने ब्राह्मणों को मछली खाते देखा है। ये भी तो पानी में तैरती है।’’ मेरे न करने पर उसका जवाब था, चलो कोई बात नहीं, पानी में छोड़ दीजिएगा फिर ये अण्डा देगी। अण्डा चाहे खाना, चाहे उससे बच्चे बनाना। वो तो पूरे बत्तख उद्योग के सपने दिखाने लगा। पर इस वक्त  हमें सिर्फ समय और पटना की दूरी ही समझ में आ रही थी। बीच सड़क पर कुछ लड़के लंबे से बांस पर पुतला लगा कर सड़क रोककर खड़े थे। उसने गाड़ी नहीं रोकी। मैं सम्भावित दुर्घटना से डर गई। लड़के छिटक कर साइड में हो गए। मैंने पूछा,’’ये क्या तमाशा था?’’वह बोला कि ये तमाशा नहीं था। दुर्गापूजा ,दशहर और छठ आने से पहले ये सड़क से गुजरने वालों से चंदा मांगते हैं। छुटपन में हम भी यही करते थे। हम जानते हैं कि गाड़ी पास आते ही ये भाग जायेंगे। नहीं भागते तो हम ब्रेक मार देंते। गाड़ी छूटना तो तय था। फ्लाइट और अगली गाड़ी की कोशिश शुरू कर दी। मुझे रमेश की चिंता थी कि कल से इसे आराम बहुत कम मिला है। मैंने उससे पूछा कि वह इतनी ड्राइविंग कर लेगा। बदले में उसने अपनी कलकत्ते में की गई, लांग ड्राइव की कहानी शुरू कर दी। हमारी एक गाड़ी चाय पीने के लिए रूक गई। जल्दी से उतर कर उन्हें रोका, वे नहीं रूके। हमने तय कर लिया था कि स्टेशन पर कोई किसी का इंतजार नहीं करेगा, बस गाड़ी पकड़नी है ताकि कम से कम लोगों की समस्या रह जाये। दो लोगो को रात साढ़े नौ की राजधानी से आना था। वे ही ड्राइवरों का हिसाब करेंगे। पटना स्टेशन पर गाड़ी रूकते ही  रमेश ने मेरा दरवाजा खोला, मैं उतरी, उसने बैग पकड़ाया। प्लेटर्फाम नम्बर एक आखिर में था। सीढ़ियों के स्थान पर स्लाइड था, मैं बैग लेकर चढ़ी उतरी। जैसे ही गाड़ी पर पैर रक्खा। वह हिलने लगी। अपनी सीट पर बैठी। कुछ समय बाद सब को फोन किया। जिस गाड़ी के लोग चाय पीने रूके थे। उसे छोड़ कर सब गाड़ी में चढ़ गये थे। फोन चार्जिंग पर लगाया। खाना खाया, कम्बल, तकिया चादर सब सिर के नीचे रख और चादर ओढ़ कर सो गई। सुबह नींद खुली, अपने आस पास देखा। टू एसी था। दो सहयात्री बिहार के थे। चाय के लिए बैठे। जाते समय जो लोक गीत दिमाग में था। वही फिर आ गया ’रेलिया बैरन पिया को लिए जाये रे’। उनसे पूछा कि इतना हरा भर उपजाऊ बिहार है फिर भी यहाँ के लोग बड़ी संख्या में प्रवासी क्यों है? वे कोरस में बोले’ बाढ़’। और जिनके पास जमीन है। वह बुआई कटाई के समय इन्हें दो सौ रूपये रोज पर रख लेते हैं। बाकि समय ये क्या करें? घर परिवार तो सब को चलाना है न इसलिये  दिल्ली, कलकत्ता पंजाब चल देते हैं। मुझे याद आया रमेश से मैंने उसके लगातार गाड़ी चलाने के कारण पूछा था कि तुम्हारे काम के घण्टे क्या हैं? उसने कहा कि मुझे मालिक पाँच हजार रूपये महीना देते हैं। मैं घर और खेती देखता हूँ। जब मालिक बुलाते हैं तो जितना वे कहते हैं उतना गाड़ी चलाता रहता हूँ। मेरे भाई कलकत्ता में पंद्रह हजार रू महीने का कमाते हैं। पर घर का सुख तो नहीं है न। इस यात्रा से समझ गई, लोकगीत ’रेलिया बैरन पिया को लिए जाए रे’ की लोकप्रियता का कारण।                 





भागलपुर से विक्रमशिला विश्वविद्यालय बिहार यात्रा भाग 20 नीलम भागी

भागलपुर से विक्रमशिला विश्वविद्यालय Bhagalpur, Vikramashila Bihar Yatra 
बिहार यात्रा भाग 20 
    नीलम भागी
सहरसा से हम भागलपुर चल पड़े। इस समय साढ़े सात बजे थे। 133 किमी की दूरी थी। रात में प्राकृतिक सौन्दर्य तो दिखता नहीं था। स्ट्रीट लाइट  शहर कस्बा आने पर ही दिखती थी। साथी महिलाओं का करवाचौथ का व्रत था। मैं आसमान को चाँद के लिये घूरती जा रही थी। अचानक मुझे चाँद दिखा। मैंने दोनो गाड़ियों में भी चाँद निकलने की सूचना दे दी। चाँद भी पेट्रोल पंप के पास दिखा था। फटाफट तीनों गाड़ियाँ रूकवाई गईं। छलनी तो थी नहीं इसलिये बिना फिल्टर चाँद को डायरेक्ट देख अर्घ दिया गया। कथा पूजा का सामान वे लाईं थीं और ये तय किया कि होटल में जाकर कथा कर लेंगीं। चाय पी। वहाँ बैठे लोगों से शार्टकट भागलपुर का रास्ता भी समझा। वहाँ से चले। हम आगे वाली गाड़ी को फॉलो कर रहे थे और तीसरी गाड़ी हमें। मेरी सीट से मैं आगे और पीछे दोनों गाड़ियों को देख सकती थी। कुछ समय बाद न जाने कौन से रास्ते पर आ गये थे बिल्कुल कच्ची सड़क अंधेरा, कहीं कहीं कोई बाइक कभी पास से गुजरती। अचानक रमेश बोला कि हम लोग गलत रास्ते से आ गये हैं। एक मोड़ पर सामने से एक ट्रक दिखा। उससे भागलपुर का रास्ता पूछा तो उसने बताया कि नौगछिया से हाइवे मिलेगा। अब हम जिस रास्ते से जा रहे थे, वह ऊँची बहुत ही उबड़ खाबड़ सड़क थी। कभी कभी गाड़ी की लाइट का रिफलैक्शन साइड में पड़ता यानि पानी होता। कोई कोई गाँव ऐसा आता जहाँ कोई भी इनसान बाहर नजर नहीं आता था। यह देख बड़ी हैरानी होती फिर वैसा ही रास्ता आ जाता। मैंने रमेश से इसका कारण पूछा, उसने बताया कि ये नक्सलाइट ऐरिया है। यहाँ बरसात में कोसी, बागमती, आइसालोटा और नेपाल से पानी आ जाता है। जो बरसात के दो महीने बाद तक रहता है। यहाँ के लोग पेड़ों पर और छतों पर रहते हैं। हैलीकॉपटर से सत्तू और पानी के पैकेट गिराये जाते हैं। मैंने पूछा कि यहाँ नक्सलाइट से खतरा तो नहीं है। वो बोला,’’नहीं नहीं, उनकी तो सरकार से लड़ाई रहती है। अगर जरूरत पड़े तो यहाँ से जाने वालों को लूट लेते हैं।’’ मैं बोली,’’उनको कैसे पता चलता है कि किनको लूटना है?’’रमेश ने जवाब,’’जैसे आप लोगों ने चाय वाले से रास्ता पूछा था न, वहीं कोई उनका आदमी बैठा होगा तो वो बता देगा। पर हमें समझ है कि किससे रास्ता पूछना है।’’अब मुझे तो डर लगने लगा। फिर मैं सोचने लगी कि अगर नक्सलाइट हमें ले गए। तो वो कहेंगे चटाई पर बैठो। मुझे तो डॉक्टर ने नीचे बैठने और पालथी मार कर बैठने को मना किया है। मैं कैसे बैठूंगी? मैंने अपने आप को किसी तरह से समझाया कि जो होगा देखा जायेगा। ध्यान बटाने के लिये मैंने रमेश से पूछा कि तुम भामती आश्रम के रास्ते में बता रहे थे कि तुम पाँचवीं के आगे पढ़ाई़ क्यों नहीं कर पाये? अब उसने अपनी जीवन यात्रा यानि ऑटोबायोग्राफी शुरू की। वह बहुत अच्छे से सुना रहा था। उसमें प्यार और कॉमेडी को छोड़ सब कुछ था। मेरी आँखे नौगछिया को ढूंढ रहीं थी पर चौथम, महेशखूंट, गोगारी जमालपुर, बीहपुर, खारिक सब आये पर नौगछिया नहीं। मोबाइल की चार्जिंग खत्म। कहीं रमेश उतर कर रास्ता पूछने जाता तो मैं उससे पूछती कि तुम्हें कैसे पता कि यह नक्सलाइट का आदमी नहीं है? वह बताता देखिए यहाँ रात में दुकान खुली है। लोग बाहर सो रहें हैं यानि ये इलाका ठीक है। एक जगह डीजल भरवाने लगे। पैट्रोल पंप मालिक ही होगा, वह अंदर से लॉक लगा कर बैठा था। पैट्रोल भरने वाले खुले में थे। वहाँ ट्रक वालों ने रास्ता अच्छे से समझाया कि दस किमी पर नौगछिया है। वहाँ से हाइवे मिलेगा। रमेश की पाँचवी कक्षा से शुरू स्टोरी में, उसके पाँचवे बच्चे के जन्म होते ही नौगछिया आ गया। भागलपुर से पहले डेढ़ बजे रोड साइड ढाबे पर रूके। खाने और चाय के लिए आर्डर किया। धुंआ रहित चूल्हा देख मैं वैसे ही उबलती चाय के पास जाकर खड़ी हो गई, यह देखने की ईंधन क्या है और चूल्हे की बनावट कैसी है? चीनी के डिब्बे पर नजर पड़ी, उसमें काले चींटे ही चींटे। ये देख, मैं तो आकर गाड़ी में ही बैठ गई। थोड़ा सा नमकीन खाकर पानी पी लिया। रात दो बजे कहीं खाना तो मिलना नहीं था। सर ने कहाकि सुबह 5 बजे विक्रमशिला जाना है। जिसने जाना है बताओ। मुझे तो जाना ही था। सब थके थे शायद इसलिये एक गाड़ी जायेगी। सब तैयार रहेंगे। लौटते ही पटना जाना है, वहाँ से सवा सात बजे की राजधानी है। देश का पाँचवा 4.7 किमी गंगाजी का पुल पार कर रात ढाई बजे हम होटल पहुंचे। थोड़ा सोई विक्रम शिला न छूट जाये इसलिये समय पर अपने आप नींद खुल गई। मैं तैयार होकर, लगेज के साथ अपनी सीट पर बैठ गई। महाभारत के समय के अंगप्रदेश कर्ण की राजधानी के बाजार को देखने लगी। सुबह सुबह हलवाइयों की दुकाने सबसे पहलें खुलीं थीं। टसर सिल्क के लिये मशहूर, देश के किसी भी प्राचीन शहर की तरह लगने वाले भागलपुर ने अपना नाम स्मार्ट सीटी में दर्ज करवा लिया है। 800 फीट ऊँचे मंदार पर्वत पर बनी झील को देखना था। हलवाई से पूरी, सब्जी और जलेबी की पैंकिंग करवा ली गई। समय बचाने के लिये खाना हमें गाड़ी में ही था। अब सब जाने को तैयार हो गये। मै बैठी शहर का जगना देखती रहीं। सात बजे हम वहाँ से 38 किमी दूर विक्रमशिला को चले और अमापुर में 3 किमी के जाम में फंस गये। रमेश ने बताया कि एक बजे तक ये जाम खुल जायेगा। विक्रमशिला यहाँ से बस 20 किमी दूर है। न वापिस जाने का रास्ता न आगे जाने का। राजधानी छूटने के आसार देख, तीनों ड्राइवरों ने दूसरों को अपनी समस्या बताई। सबने थोड़ी थोड़ी गाड़ी खिसका कर, हमारी गाड़ी के दायीं ओर कच्चा रास्ता जाता था। उसमें मोड़ने लायक जगह बनाई। दाएं रमेश ने गाड़ी उतारी, पीछे दोनो गाड़ियां उतरी। एकविचारी से मुड़े। क्रमशः 







Monday, 11 February 2019

विदुषि भारती मिश्र, मंडन मिश्र और आदि शंकराचार्य महिषी सहरसा में बिहार यात्रा 19 नीलम भागी

 विदुषि भारती मिश्र, मंडन मिश्र और आदि शंकराचार्य महिषी सहरसा में  बिहार यात्रा 19
               नीलम भागी
 कुछ ही दूरी पर वह स्थान था जहाँ मंडन मिश्र और शंकराचार्य के बीच शास्त्रार्थ हुआ था। हम पहँचे तो रात हो गई थी। वहाँ धुंआ सा फैला था। मैंने देखा कुछ दूरी पर मवेशी बंधे थे। उनके पास धुंआ किया गया था। मैं उनको वायु प्रदूषण पर भाषण पिलाने की सोच कर गई। मैं कुछ बोलती, उससे पहले एक महिला बोली कि आपको धुंआ लग रहा होगा न। यहाँ एक मच्छर जैसा कीट है जो पशुओं को परेशान करता है। इसलिए हम अंधेरा होते ही धुआं कर देते हैं। कीट उड़ जाते हैं। मैं उनका पशु प्रेम देख कर लौट आई। धुएं से बस तस्वीरें अच्छी नहीं आ रहीं थीं। सामने मण्डन मिश्र की पर्ण कुटी, उसके बराबर में मूर्तियों द्वारा शास्त्रार्थ का दृश्य बनाया गया था। मंडन मिश्र गृहस्थ आश्रम  का पालन करने वाले मिथिला के प्रकाण्ड विद्वान, सहरसा के महेशी के रहने वाले थे। सातवीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य कलाडी(केरल) से हिन्दूर्धम की पुर्नस्थापना के लिए देश भ्रमण के लिए निकले थे। उन्होंने चारों कोनो पर चार मठों की स्थापना की। वे जहाँ भी जाते, वहाँ स्थानीय विद्वानों से शास्त्रार्थ करते। ये शास्त्रार्थ दार्शनिक एवं धार्मिंक वाद विवाद, गूढ़ विषयों पर परिर्चचा और उन पर प्रश्नोत्तर किये जाते। जिसका उद्देश्य परोपकार और समाज कल्याण होता था। शंकराचार्य साथ ही अद्वैतवाद का प्रचार प्रसार भी करते थे। राजा जनक के पूर्वज मिथि के नाम से बना मिथिला क्षेत्र सांस्कृतिक ज्ञान के लिए दूर दूर तक प्रसिद्ध था। जगह जगह से पंडित आते, उनमें शास्त्रार्थ चलते। विजयी पंडित का सम्मान किया जाता। यहाँ से सम्मानित होना बहुत गौरव की बात थी। आदि शंकराचार्य के समकालीन मंडन मिश्र ने मीमांसा और वेदांत दोनों दर्शनों पर मौलिक ग्रंथ लिखे थे। इनके लिखे शांकर भाष्य की टीका भामती तो सुप्रसिद्ध वाचस्पति मिश्र ने की थी। इनके नाम और ज्ञान की ख्याति चारों ओर फैली हुई थी। शंकराचार्य इस क्षेत्र में आये। पहले तो वे इस क्षेत्र के प्राकृतिक सौन्दर्य से मुग्ध हो गये। हरे हरे धान के लहलहाते खेत और बाँस के झुरमुट। गाँव से बाहर जो महिलाएं कुएं से जल भर रहीं थीं, वे आपस में संस्कृत में बात कर रहीं थी। यह देख शंकराचार्य बहुत प्रभावित हुए। वैसे ही उन्होंने उन महिलाओं से बातचीत की। जिससे महिला समझ गईं कि ये पंडित मिश्र से शास्त्रार्थ करने आए है। एक पनिहारिन ने उन्हें एक तालाब दिखा कर, उनसे उस तालाब का वर्णन करने को कहा। शंकराचार्य ने किया, जिसे सुन कर पनिहारिन ने कहा कि आप लट लकार पर अधिक बल देते हैं। शंकराचार्य ने उनसे मंडन मिश्र के घर का पता पूछा। महिलाओं ने कहा कि गाँव में जिसके घर के आगे पिंजड़े में तोते शास्त्रार्थ कर रहें हों। वो ही पंडित मंडन मिश्र का घर है। वे चल पड़े। उनके घर पर वैसा ही हो रहा था। वे तोतो को शास्त्रार्थ करते देख हैरान । मंडन मिश्र और उनकी विदुषी पत्नी भारती ने उनका खूब आदर सत्कार किया। जब शास्त्रार्थ का समय आया तो विद्वान आ गये। उनमें विमर्श होने लगा कि मंडन मिश्र को शास्त्रार्थ में पराजित किये बिना कोई सर्वश्रेष्ठ विद्वान नहीं हो सकता। इस शार्स्त्राथ का निर्णयाक कोई साधारण विद्वान नहीं कर सकता। शंकराचार्य जान गए थे कि उनकी पत्नी विदुषि है, वही निर्णायक के लिए योग्य है। उनके अनुरोध से पत्नी भारती निर्णायक बनाई गई। मिथिलांचल में कोसी नदी के किनारे महिषि में धर्म दर्शन पर 42 दिन तक शास्त्रार्थ चला। अंतिम दिन जब शास़्त्रार्थ चल रहा था तो भारती ने एक जैसी दो मालाएं दोनो के गले में डाल कर कुछ समय के लिये वहाँ से चली गई। जब वह लौटी तो आते ही उसने शंकराचार्य को विजयी घोषित कर दिया। जिज्ञासू श्रोताओं ने प्रश्न किया कि बयालीस दिन से तुम लगातार इसमें सम्मिलित थीं। अब कुछ समय अनुपस्थित रह कर, आते ही तुमने कैसे परिणाम बता दिया। भारती ने उत्तर दिया कि जब कोई विद्वान शास़्त्रार्थ में पराजित होने लगता है वह अपनी हार महसूस करते ही, वह स्वाभाविक रूप से क्रुद्ध होने लगता है। तो वह क्रोध में तपने लगता है। देखो मेरे पति की माला कैसे सूख गई है और शंकराचार्य जी की वैसी ही है। शर्त यह थी कि हारने वाले को जीतने वाले का शिष्य बन कर सन्यास लेना था।
     भारती निर्णायक के पद से उतर कर बोलीं,’’मिश्र जी विवाहित हैं। पति पत्नी मिलकर एक ईकाई बनते हैं, अर्धनारेव्श्रर की तरह। मिश्र जी नहीं हारे, उनका दायां अंग हारा है। बायां अंग नहीं। अभी मुझसे शास़्त्रार्थ बाकि है।’’शंकराचार्य ने चुनौती स्वीकार कर ली। ज्ञानवाद और कर्मवाद विषय पर 21 दिन तक दोनों में शास्त्रार्थ चला। जीव जगत पर अंतिम प्रश्न भारती ने गृहस्थ में संतान उत्त्पत्ति के संबंध में पूछा। शंकराचार्य ब्रह्मचारी थे। गृहस्थ का अनुभव नहीं था। पढ़ी सुनी बातों पर जवाब नहीं माना जा सकता था। जिसका व्यवहारिक ज्ञान के बिना जवाब अधूरा समझा जाता। शंकराचार्य तुरंत प्रश्न की गहराई को समझ गए। वे समझ गये की व्यवहारिक ज्ञान ही वास्तविक ज्ञान होता है। उन्होंने अपनी हार स्वीकार ली। हमारी परम्परा कितनी गौरवशाली थी। घर परिवार के साथ महिलाएं ज्ञान अर्जित कर, शास्त्रार्थ में निर्णायक का पद प्राप्त करतीं थीं।   क्रमशः         



Saturday, 9 February 2019

ऊग्रतारा मंदिर महिषी सहरसा बिहार यात्रा 18 Ugratara Mandir Seharsa Bihar Yatra 18 नीलम भागी

उग्रतारा मंदिर महिषी सहरसा बिहार यात्रा 18
       नीलम भागी
अब हम सहरसा की ओर चल पड़े। सहरसा के रास्ते में जहाँ भी गाँव, कस्बे पड़ते, वे देश के लगभग अन्य गाँवो जैसे ही लगे। रास्ते में बस एक ही अंतर था, यहाँ सड़के ऊँची थीं। घर अधिकतर कच्चे थे। उसका भी कारण था, भूकंप और नेपाल से आने वाली नदियों कोसी और धर्ममूला द्वारा बाढ़। ज्यादातर हाइवे मिला जिसके दोनो ओर सुखद हरियाली देखने को मिल रही थी। एक रोड साइड ढाबे पर हम खाने के लिये रूके। लाइन से कई चारपाईयाँ बिछी थीं। हमने लंच किया। साथी महिलाओं का करवा चौथ का व्रत था। सीनियर सीटीजन और सफर में हैं तो उन्होंने दहीं ले लिया। जब तक मैं वहाँ रही, मैंने चारपाई पर बैठने का सुखद मौका नहीं छोड़ा। आदत के अनुसार मैंने आसपास मुआयना किया। ढाबे वाले ने पीछे पाँच जर्सी गाय पाली हुईं थीं। मुझे मेरठ में पाली अपनी गंगा यमुना याद आ गई। लंच कर चुकी थी, वर्ना बिना प्रिर्जवेटिव का दूध पीती। रोटियाँ भी उसकी चक्की के आटे की चोकर सहित थीं। क्योंकि वहाँ गेहूँ स्टोर करने का ड्रम रक्खा था। ड्राइवरों के रैस्ट के बाद हम चल पड़े। ज्यादा खराब सड़कों से वास्ता नहीं पड़ा। इसलिये  दिन डूबने तक हम सहरसा पहुँच गये।  सहरसा से 18 किलोमीटर दूर पश्चिम में धर्ममूला नदी के तट पर महिष्मती, वर्तमान का महिषी गाँव है। तीन ओर से तटबंध होने के कारण यहाँ पहुँचना आसान था। यहाँ स्थित उग्रतारा मंदिर है जो तंत्र सिद्धि के लिये विख्यात है। हम जब गये तब न तो शारदीय नवरात्र थे, न ही मंगलवार था, तब भी श्रद्धालुओं का वहाँ पर ताँता लगा हुआ था। यह शक्ति पीठ है। शक्ति पुराण के अनुसार महामाया सति का शरीर लेकर जब शिव क्रोध से ब्रह्मांड में घूम रहे थे, तब प्रलय की आशंका से विष्णु जी ने सुर्दशन से सति के शरीर को 52 भागों में विभक्त कर दिया था। इस स्थान पर सति का बायां नेत्र गिरा था। यह उग्रतारा शक्ति सिद्ध पीठ बन गया। दूसरी मान्यता हैं कि ऋषि वशिष्ठ ने उग्र तप से भगवती को प्रसन्न किया था। तो देवी सदेह यहाँ आईं। कालांतर में शर्त भंग होने से देवी पाषाण में बदल गई। देवी उग्रतारा उग्र से उग्र व्याधियों को नाश करने वाली है। महिषी में देवी तीनों रूपों में विद्यमान है। उग्रतारा नील सरस्वती एवं एकजटा रूप में विद्यमान है। कहते हैं कि कोई भी तंत्र सिद्धि देवी के आदेश के बिना पूरी नहीं होती। वशिष्ठ अराधिता उग्रतारा की प्रतिमा, महिषी में अपने भाव बदलती रहती है। सुबह में अलसाई, दोपहर में रौद्र रूप और शाम को सौम्य रूप में। श्रद्धालु तीनों रूपों में दर्शन करते हैं। मैं तो सौम्यरूप का दर्शन कर पाई। इस प्राचीन मंदिर की स्थापना दरभंगा राजघराने से संबंधित महारानी पद्यमावती ने 16 वीं शताब्दी में करवाया था।
बिहार के मुख्यमंत्री माननीय नीतीश कुमार ने 2011 में सेवायात्रा में 3.26 करोड़ रू, उग्रतारा महोत्सव एवं विकास कार्य के लिए दिए। पर्यटन विभाग ने यहाँ विवाह भवन, शौचालय, पुस्तकालय, यात्री शेड का नवीनी करण, दो बाहरी मुख्यद्वार और फर्श पर टाइल्स लगवा कर मंदिर की शोभा बढ़ाई है। यहाँ निशुल्क भण्डारा चलता है। नेपाल, बिहार  और दूर दूर से लोग शारदीय नवरात्र को आते हैं। शारदीय नवरात्र की अष्टमी को लोग यहाँ आना अपना सौभाग्य समझते हैं।    क्रमशः          





मैं जहाँ भी रहूँगी, बसंत न आने दूँगी ! नीलम भागी Autum will never set foot in my garden! Greens will Spring always Neelam Bhagi


ये जो मेरे चेहरे पर कोमलता है, वह किसी फेस क्रीम की वजह से नहीं है। वह है मेरे फूलों के प्रति प्रेम के कारण, मुझेे ऐसा लगता है। अब देखिए न, वर्षों से मेरी आदत थी, मैं सुबह सैर करने जाती और पार्कां से फूल तोड़ लाती। इन फूलों को घर सजाने या बालों में लगाने के लिए नहीं, बल्कि उनका उपयोग पूजा में करने के लिए लाती। कुछ और लोगों में भी मेरे जैसी आदत है वे लोग मुझसे पहले फूल न तोड़ लें, इसलिए मैं सुबह बहुत जल्दी जाती, रास्ते में कहीं भी फूल देखते ही मैं उन्हें तोड़ लेती। मैं 101 ताजे फूलों से पूजा करती हूँ। जैसे मुझे 101 बार राम-राम या ओइम् नमो शिवायः बोलना है तो, गिनती गलत न हो जाए; मैं एक-एक फूल भगवान को चढ़ाती जाती हूँ और जाप करती रहती हूँ। इसलिए मुझे दूर-दूर तक के पार्कों से फूल तोड़ने पड़ते हैं। आप यकीन मानिये मैं जिधर से गुजर जाती हूँ, उस रास्ते पर आपको फूल नहीं दिखाई दे सकता। ये सिलसला अब टूट गया है। हुआ यूं कि
मेरे घर में कुक और ट्रेडमिल दोनों एक साथ आए। अब घर पर ही ट्रेडमिल पर चल लेती हूँ। फूलवाला ही फूल दे जाता है। पता नहीं मुझे क्यों, वे फूल बासी लगते हैं। मेरे घर की बगिया और गमलों में लगे फूल तो मेरे घर की शोभा बढ़ाते हैं। उन्हें तोड़ना तो ठीक नहीं न। मेहमान हमारे फूल पौधों को देखकर, हमारे प्रकृति प्रेम की सराहना किए बिना नहीं रहते हैं।
मेरा कुक भी बहुत हैल्थ कांशियस है। वह मोटा न हो जाए, रोज़ इसलिए सैर को जाता है। अब मैं उसे ही थैली थमा देती हूँ ,फूल लाने के लिए। वह तो बहुत वैराइटी के फूल लाता है। वह लंबा है न वह ऊपर के फूल भी ले आता है।
मेरी  गीता सहेली  आई। आते ही उसने मेरे लॉन, फूल-पौधों की खूब प्रशंसा की। काफी दिनों बाद आई थी। इसलिए मैंने उसे रात को रोक लिया। सुबह कुक ढेर सारे फूल लाया। गीता ने पूछा, “इतने फूल कहाँ से लाए हो?” उसके मुहं खोलने से पहले ही मैंने बताया, “पार्कों से, फूटपाथ पर बनी लोगों की बगिया से, हॉटीकल्चर द्वारा लगाए सड़कों के किनारे  के पेड़ों से, किसी के घर के अंदर से नहीं लाया है।”
   गीता मुझे घूरने लगी, फिर घूरना स्थगित कर उपदेश देने लगी, “ तुम तो जहाँ रहोगी, सिवाय तुम्हारे घर के बसंत आस पास फटक भी नहीं सकता। फूल पार्कों, रास्ते की शोभा बढ़ाते हैं। जिन्हें देखकर सबका मन खुश होता है। पौधे पर लगे रहने से इनकी उम्र बढ़ जाती है। तरह-तरह के कीड़े, तितलियाँ मंडराती हैं। जैसे तुम्हारे घर में लगे, फूलों को देख कर तुम्हारा परिवार कितना खुश होता है, उसी तरह दूसरे लोगो का भी मन खिले फूलों को देखकर खिल उठता हैं। पर तुम जैसे लोगो की वजह से उन्हें ये खुशी नहीं मिलती।” उसके उपदेश सुनकर मैं कनविंस भी होने लगी और बोर भी। पर मैं कहाँ मानने वाली? मैंने जवाब दिया,’’ मैं नहीं तोड़ूंगी तो कोई और तोड़ लेगा।’’ “वह बोली,” तुम अपनी बुरी आदत छोड़ो। पूजा के लिए फूल खरीदो। जो लोग इसकी खेती करते हैं। वहाँ उनके खेत में फूलों की शोभा देखने के लिए जनता नहीं घूमती। पार्क सार्वजनिक हैं। तुम्हारे खरीदे, घर में उगे फूल तुम्हारे हैं। बाकि धरती भगवान की, वहाँ के फूलों से तुम पूजा करोगी।” ना गीता के जाते ही मैंने भी कुक को फूल लाने से मना कर दिया।



Friday, 8 February 2019

’भामती’सीता जी के बाद मिथिला का लोकप्रिय नाम, वाचस्पति मिश्र अंधराठाढ़ी मधुबनी बिहार यात्रा 17 नीलम भागी

’भामती’सीता जी के बाद मिथिला का लोकप्रिय नाम, वाचस्पति मिश्र अंधराठाढ़ी मधुबनी बिहार यात्रा 17
                            नीलम भागी
अब हम अंधराठाढ़ी गाँव की ओर चल पड़े। हमें रास्ता अच्छा मिल रहा था। अच्छी बनी सड़कें थीं। लगभग डेढ़ घण्टे के बाद हम लोग बिल्कुल खेतों के बीच की पगडंडियों में अंधराठाढ़ी गांव में घूम रहे थे। जिससे भी पूछते वो आगे इशारा कर देता। अब गूगल बाबा ने भी कह दिया कि हमारी मंजिल आ गई है। हमें  कोई साइन र्बोड  नहीं दिख रहा था। हम जिससे भी पूछते कि वाचस्पति मिश्र का आश्रम कहाँ है? किसी को नहीं पता। एक बुर्जुग जा रहे थे। मेरे दिमाग और जुबान पर तो भामती थी। उनसे पूछा,’’भामती वाचस्पति मिश्र का आश्रम यहाँ पर कहाँ है? वो जो रास्ता बता रहा था, वहाँ से तो हम कई बार गुजर चुके थे। हमें तो कहीं कुछ नहीं दिखा। हमने उसे गाड़ी में बिठा लिया। वो उसी में घने पेड़ों और दो पोखरों के पास गाड़ी रूकवा कर बोला,’’उतरो।’’ सब उतर के चल दिए। मुझे रमेश भूल गया था। मैं चिल्लाई उसने  लौट कर माफी मांग कर, ढक्कन खोला, मैं बाहर आई। रमेश बोला कि पूरे बिहार में ऐसे पोखर हैं, आप इतनी दूर से ये ताल देखने आये हो। मैंने पूछा,’’रमेश तुम कितना पढ़े हो?’’ बोला पांचवी तक और क्यों नहीं पढ़ा? अपनी स्टोरी सुनाने लगा। मैंने उसकी कहानी बंद करवाई और बाकि दोनो से पूछा कि भामती का नाम सुना है। वो दोनो कोरस में बोले कि बड़ी देवी थीं। उनके पति मिश्रा पण्डित तो कई साल तक तपस्या में बैठ गये न। वो उनकी सेवा में ही रहीं। सीता जी और भामती को सब बहुत मानते है। अब हम भी सबके साथ हो लिए। वो आगे आगे चलने लगा, हम उसके पीछे। यहाँ पेड़ इतने घने थे कि धूप कहीं कहीं एक रूपये के सिक्के जितनी जमींन पर दिख रही थी। सामने एक सफेद छोटा सा भवन था। सब अंदर चले गए। आस पास के लोग भी आ गए। मैं बाहर खड़ी रहती हूँ जितना उनके बारे में पढ़ा सुना था वह याद आने लगा। इस जगह पर नवीं शताब्दी के र्दाशनिक मैथिल ब्राह्मण वाचस्पति मिश्र (900-980ई) लेखन में ऐसे लीन हुए थे कि साधारण जनसमुदाय ने उसे तपस्या का नाम दिया। पाँच आस्तिक दर्शनों पर टिका , लगभग उस समय की हिन्दुओं के सभी प्रमुख दार्शनिक सम्प्रदायों की प्रमुख कृतियों पर भाष्य लिखे। उस स्थान को नमन करके मैं अंदर जाती हूँ। सामने लाल पेंट से भामती लिखा है। ऊपर किसी की कल्पना में बनाई फ्रेम जड़ी तस्वीर थी। उस जगह की धूल को माथे से लगा कर बाहर आई। एक महिला ने तालाब की ओर इशारा करके कहा कि भामती देवी उस तालाव का प्रयोग करती थीं। आज भी वहाँ महिलायें कपड़े वगैरह धो रहीं थी। दूसरे पोखर के तरफ इशारा करके वह बोली,’’वो पंडित जी का था’’। मैंने देखा, उस समय भी वह पेड़ों से घिरा, छिपा सा था। उसे कोई उपयोग नहीं कर रहा था। वाचस्पति मिश्र तप में लीन स्नान आदि के लिये जाते होंगे तो उन्हें व्यवधान न पड़े शायद इसलिये। मैंने दोनों पोखरों की तस्वीरें लीं।  जितने लोग उतनी उनके बारे में दंतकथाएं थी।
   पास के गाँव के गुरू त्रिलोचन की कन्या भामती से जब वाचस्पति मिश्र का विवाह परिवार ने तय किया तो  वे अपने होने वाले ससुर से जाकर बोले कि वे लोक कल्याण के लिए काम करना चाहते हैं और विवाह उनके कार्य में बाधा बनेगा। आप ये संबंध न करें। भामती ने ये सुना तो उसने वाचस्पति मिश्र से ही विवाह की इच्छा जताई। गुरू पूर्णिमा पर विवाह पश्चात जैसे ही नवविवाहित जोड़ी ने गृहप्रवेश किया। तत्कालीन शंकराचार्य आए। उन्होंने वाचस्पति मिश्र को ब्रह्मसूत्र जो मंडन मिश्र का लिखा,शांकर भाष्य देकर आग्रह किया कि इसका टीका कर देंं ताकि ये लोगों तक पहुंचे। वाचस्पति मिश्र ने स्वीकार कर लिया। वे उसकी टीक करने और अपनी ओर से स्थापनाएं करने में इस कदर डूब गए कि उन्हें अपने आस पास का कोई होश ही नहीं था। भामती ने इन दिनों उनके कार्य में व्यवधान न हो, इस बात का पूरा ध्यान रक्खा। कभी दीपक की लौ नहीं मद्धिम होने दी। उनके सोने के बाद ही वह दीपक बंद करतीं। कितने वर्ष इसे पूरा करने में लगे, सबका कथन अलग है। कुछ वर्षों के पश्चात एक रात दीपक फफक कर बुझने लगा। भामती ने दौड़ कर दिए की बाती ऊँची की। दिया उसी लौ से जलने लगा। उसी समय वाचस्पति मिश्र का ग्रंथ पुरा हुआ था। वह तो जैसे सघन निद्रा से जागे। सामने देखते हैं एक नारी को, जो उन्हें अपनी माँ नहीं लगी। और  भामती अपराध बोध से खड़ी है कि उसके कारण पति के लिखने में व्यवधान आया है। वाचस्पति मिश्र बोले,’’देवी, तुम कौन हो? यहाँ क्या कर रही हो। भामती ने कहा,’’मैं आपकी पत्नी भामती हूं। आप देश, धर्म,जाति और संस्कृति के लिए ब्रह्मसूत्र भाष्य जैसा कठिन तप कर रहे थे। मैं आपकी सहधर्मिणी उस तप में आपकी सेवा कर योगदान कर रही थी।’’ उन्होंने भामती के हाथ देखे, ये वही हाथ थे जो उन्हे भोजन की थाली, लेखन सामग्री पहुँचाते थे। उन्हे अपना विवाह याद आया। वे बोले,’’मैं तो संसार त्याग कर सन्यास लेना चाहता हूं। तुम्हार निर्वाह कैसे होगा?’’ भामती ने जवाब दिया,’’जंगल से, जैसा अब तक होता था। जंगल की मूंज काट कर रस्सी बनाती थी। उस रस्सी के बदले, हम दोनो के जीवन निर्वाह के लिए पूरा पड़ जाता था।’’ यह कहते हुए भामती आंसूओं को पीकर बोली,’’बस एक ही दुख है, मैं गत आयु हो गई हूं। आपका वंश नहीं चला पाऊंगी।’’ वाचस्पति मिश्र अभूतर्पूव र्कत्तव्यपरायण भामती के स्नेह से विभोर होकर बोले,’’पुत्र से चली हुई वंशावली कभी न कभी खंडित होती है।’’ उन्होंने ग्रंथ पर ’भामती’ लिख दिया। संसार में जब तक वेदांत की चर्चा रहेगी भामती का नाम रहेगा।           





Monday, 4 February 2019

विद्यापति जन्मस्थली विस्पी जिला मधुबनी बिहार यात्रा 16 Vidhyapati Janmsthali Vispi Madhubani Bihar Part 16 Neelam Bhagi नीलम भागी


 इनके अंत समय की एक जनश्रुति है कि जब इनका अंत समय आया तो इन्होंने अपने परिवार से कहा कि अब वे इस शरीर को त्याग करना चाहते हैं और गंगालाभ के लिये सिमरिया गंगाघाट जाना चाहते हैं। अपनी अंतिम सांसे वहीं गंगा माँ को स्पर्श कर छोड़ना चाहते हैं। उनके प्राण पखेरू कभी भी उड़ सकते हैं तो परिवार को दुख होगा कि वे उनकी अंतिम इच्छा पूरी नहीं कर पाये। तुरंत चार कहारों का इंतजाम किया गया और पालकी में उन्हें लिटा कर सब चल दिए। आगे आगे कहार, पीछे पीछे परिवार और सगे संबंधी चल रहे थे। पूरी रात चलते बीत गई। सूर्योदय पर अचानक महाकवि ने पूछा,’’गंगा जी कितनी दूर हैं?’’ कहारों ने कहा कि दो कोस। वे बोले,’’ रूक जाओ। हम आगे नहीं जायेंगे। गंगा जी को यहाँ आना होगा। कहारों ने कहा ,’’ठाकुर जी ऐसा सम्भव नहीं है। गंगा जी यहाँ से पौने दो कोस से भला कैसे आ सकतीं हैं। थोड़ा सब्र करें एक घंटे के अंदर हम सिमरिया घाट पहुँच जायेंगे।’’

वे बोले,’’ रूक जाओ। कह दिया, हम आगे नहीं जायेंगे। गंगा जी को यहाँ आना ही होगा। बेटा इतनी दूर से माँ को मिलने आया है। थोड़ा माँ को भी पु़त्र के लिये आगे आना चाहिये। बीमार और कमजोर शरीर लेकर, अंत समय में इतनी दूर माँ से मिलने आया हूं ,तो क्या माँ पौने दो कोस दूर बेटे से मिलने नहीं आ सकती। गंगा माँ तो यहीं आयेंगी। बड़े आत्मविश्वास से उन्होंने कहा। नहीं नहीं पालकी यहीं रोको।’’ कहारों ने आज्ञा पालन किया। सबने वहीं डेरा डाल लिया। अब यहाँ वे ध्यान मुद्रा में बैठ गये। कहते हैं कि कुछ ही समय बाद गंगा की धारा उछलती हुई तेज प्रवाह से अपने यशस्वी पुत्र से मिलने आई। महाकवि ने गंगा जी को प्रणाम किया और उसके जल में बैठ कर एक पद की रचना की। और दूसरा पद अपनी पुत्री दुल्लहि के लिये गाया। इनके विश्वविख्यात पदों को गाना गायकों को बहुत पसंद है। मैं यहाँ आना तीर्थयात्रा से कम नहीं समझ रहीं हूं। पर....                 गेट के आगे तो धान सूख रहा था और गेट के बराबर में र्बोड लगा था। जिस पर लिखा था ’विद्यापति जन्मस्थली सेवा समिति बिस्पी आपका अभिनन्दन करती है।' पर गेट पर तो लटका ताला स्वागत कर रहा था। सूर, कबीर, तुलसी और मीरा से भी पहले के महाकवि की पवित्र जन्मस्थली को नमन किए बिना तो हमने लौटना नहीं था। गेट से भवन, विशाल हराभरा परिसर दिख रहा था। यहाँ का नेटवर्क बड़ा मजबूत है। ब्यटीपार्लर वाले अमुक जी भी तुरंत आ गये थे और यहाँ भी र्कमचारी जल्दी हाजिर हो गए  |सामने ब्राह्मण परिवार में 1350 में जन्में विद्यापति ठाकुर की मूर्ति है। इन्हें महाकवि कोकिल की उपाधि से सम्मानित किया गया था। मैथिल साहित्य के आदि कवि श्रंगार परम्परा के साथ भक्ति परंपरा के भी प्रमुख स्तम्भों में से एक हैं। इनकी रचनाएं संस्कृत, अवहट्ट एवं मैथली में हैं। इन्होंने ग्यारह ग्रंथों की रचना की है। लेकिन इनकी पदावली गीत संगीत में गाई जाती है। इन्होंने अनगिनत पदों की रचना की। समकालीन आठ राजाओं का इन्हें प्रश्रय प्राप्त था और तीन रानियों के सलाहकार थे| शिव और शक्ति के प्रबल भक्त थे। इन्हें श्रृंगारी और दरबारी कवि भी कहते हैं। इन्होंने नीति कथाओं की भी रचना की है। र्कीतिलता गाथा छंद में हैं। जिस शैली में चंद्रबरजाई ने पृथ्वी दास रासो लिखा है। शहर की भीड़ शोर शराबे से दूर यह परिसर बहुत अच्छा लग रहा था। धीरे धीरे आस पास के लोग जुटने लगे। किसी अखबार का रिर्पोटर भी आ गया। इनकी मृत्यु 1448 में हुई थी। क्रमशः 
   


Sunday, 3 February 2019

दरभंगा से विद्यापति की जन्मस्थली विस्पी मधुबनी बिहार यात्रा 15 Birthplace of vidyapati in Bispi Madhubani Bihar नीलम भागी

 दरभंगा से विद्यापति की जन्मस्थली विस्पी मधुबनी बिहार यात्रा 15
                                     नीलम भागी
  मधुबनी शब्द सुनने में बोलने में बहुत मधुर लगता है और वैसा ही हरियाली से भरा रास्ता मन मोह रहा था। कहते हैं यहाँ के वनों में शहद यानि मधु बहुत मिलता है। इसलिये इसका नाम मधुवनी पड़ा। महिलाएं घर सजाने के लिये जो रंगोली फर्श पर बनाती थीं, वह दीवार, कागज और कपड़े पर आ गई और दरभंगा, नेपाल तक पहुंची। यहाँ की मधुबनी कला आज विश्वविख्यात हो गई है। घरेलू मधुबनी चित्रकला आज इस शहर के स्टेशन पर यहाँ के कलाप्रेमियों द्वारा 10,000 स्क्वायर फीट में श्रमदान के फलस्वरूप यहाँ की शोभा बड़ा रही है। मखानों के उत्पादन में तो यह प्रसिद्ध है ही। स्वतंत्रता संग्राम में गांधी जी के खादी यज्ञ में भी यहाँ के लोगों ने बढ़ चढ़ कर भाग लिया था । 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में यहाँ के निवासी बड़ी संख्या में स्वतंत्रता सेनानी बन गये थे। आजादी के बाद 1972 में यह दरभंगा से अलग जिला बना। इसलिये दोनों की संस्कृति में समानता है। अब तक तो विकास कार्य दिखाई दे रहा था लेकिन जैसे ही गाड़ी डिहटोल गाँव की ओर मुड़ी, वैसे ही टूटी पगडंडियां दिखी। उस पर गाड़ी कूद कूद कर चल रही थी। जिसके किनारे कहीं कहीं कोई छोटी सी दुकान दिखती, जिसपर दुकानदार के अलावा चार पाँच लोग बतिया कर वक्तकटी कर रहे होते थे। उनसे हम विद्यापति की जन्मस्थली पूछते। पहले वे हमसे मधुर वाणी में हमारा आने का मकसद पूछते, मसलन हम कहाँ से आयें हैं? क्यूं आएं हैं? आदि, फिर कहते कि देखिए, सीधे जाइयेगा, कहीं नहीं मुड़ियेगा, कुछ समय बाद आप देखियेगा कि आपके दाएं हाथ पर ही आप जन्मस्थली पाइएगा। यहाँ मुझे अपनी नई रिर्जव सीट का फायदा मिला। सामने एक साधना ब्यूटीपार्लर का र्बोड लगा हुआ उसके पीछे एक दूसरे र्बोड का कोना दिख रहा था। जैसे ही गाड़ी ने उस जगह को पार किया। मेरा तो मुहं ही उस तरफ था। वो तो जन्मस्थली का र्बोड था। मैंने गाड़ी रूकवाई। सब फटाफट उतरे मैं तो रमेश की दया पर थी। उसके दरवाजा खोलने पर मैं भी उतरी। कुछ देर मैंने ब्यूटीपार्लर के र्बोड को घूरा, फिर घूरना स्थगित कर आसपास नज़रें दौड़ाई। ’माँ शारदा जीविका ग्राम संगठन आपका हार्दिक स्वागत करता है। गरीबी निवारण के लिए बिहार सरकार की पहल।’ ये बोर्ड ऐसे छप्परों पर लटके थे , जो धूप तो रोक रहे थे लेकिन मुझे नहीं लगता कि वे बरसात रोकने में सर्मथ होंगे।  आस पास हमें देख कर महिलाएं और लड़के जमा हो गये। विवाहित महिलाएं सौभाग्य चिन्हों के साथ थीं लेकिन दिन के बारह बजे बालों में न तेल न कंघी, उलझे बाल हुए। पैरों में चप्पल तो किसी के भी नहीं थी। कोई कोई तो उस समय दातुन मुंह में लेकर खड़ी थी। ये देखकर ब्यूटीपार्लर का र्बोड तो मुझे मुंह चिढ़ाता लग रहा था। मैं महिलाओं की फोटो लेने लगी। वे भाग गईं। मैंने मोबाइल जेब में रख लिया तो कुछ महिलाएं धीरे धीरे आ गईं। मैंने गरीबी निवारण बोर्ड पर हाथ रख कर उनसे पूछा कि ये बोर्ड  किसका है? जवाब मिला,अमुक जी का। मैंने फिर पूछा अमुक जी ने तुम्हारी कभी कोई मदद की है। जवाब चुप्पी। अब समझाने के तरीके से पूछा कभी अमुक जी ने तुम्हें रूपया पैसा दिया है। आदमी चुप, महिला बोली,’’कभी नहीं।’’इतने में अमुक जी प्रकट हो गए। उनसे मैंने पूछाकि ये साधना ब्यूटीपार्लर किसका है? वो बोले,’’हमारा ’’। मैं बोली,’’ इसे पर्यटन मत्रालय के बोर्ड के आगे से हटा कर कहीं और लगाओ। न जाने कितने लोग परेशान होकर लौटे होंगे।’’ उसने पास से एक लकड़ी उठाई और अपना र्बोड टेढ़ा कर दिया ताकि विद्यापति जन्मस्थली का र्बोड पढ़ा जा सके। अब वह मदद वाले प्रश्न पर आया उस महिला से मैथली में मधुर वाणी में कुछ बोला, सुनकर महिला मुस्कुरा दी। अब वह मुझसे बोला कि हम महिलाओं को ब्यूटीपार्लर का प्रशिक्षण दिलवाते हैं ताकि ये अपना रोजगार करके अपनी गरीबी दूर कर लें। जो महिलाएं वहां रह गईं थीं। मैंने उनसे कहा कि मेरे साथ फोटो खिचवाओगी। वे मेरे पास आकर खड़ी हों गईं। पता नहीं सरकार द्वारा दी गई सहायता, कैसे जरूरतमंद के पास पहुंचती है। जितना भी वार्तालाप उन लोगों से हुआ, मेरा गुस्से से था, उनका मधुरवाणी से शायद इस लिये इस शहर का नाम मधुबनी है। जैसे ही मुड़ती हूं सामने विद्यापति की जन्मस्थली जिसके गेट पर ताला जड़ा था। उस जगह पर धान सूख रहा था। धान के ऊपर से कूद फांद कर मैं गेट पर पहुँची। अब हम ताला खुलने का इंतजार करने लगे।  क्रमशः
               






Saturday, 2 February 2019

मुज्जफरपुर से दरभंगा बिहार यात्रा Muzaffarpur se Darbhanga Bihar Yatra 14 Neelam Bhagi नीलम भागी

मुज्जफरपुर से दरभंगा बिहार यात्रा 14
                                नीलम भागी
राजा और उसके दोनो साथी हमें मुज्जफरपुर छोड़ कर वापिस रात में ही चले गये थे। लंच के बाद हमें दरभंगा के लिये निकलना था। एक गाड़ी आ गई दो का इंतजार करते रहे। अभी आ रही है करते करते चार बज गये, अब तीनों गाड़ियाँ इक्कट्ठी हुई तो सर को गुस्सा आ गया। उन्होंने उनसे कह दिया कि हम अब तुम्हारी गाड़ियों में नहीं जायेंगे। तुमने एक बजे कहा था और चार बजा दिए। हम किसी दूसरे एजेंसी की गाड़ी से जायेंगे। दूसरे से बात की उसने तुरंत दो गाड़ियाँ भेज दीं और कहा कि तीसरी अभी आ रही है। अब तीसरी के इंतजार में शाम के छ बज गये। जैसे ही वह गाड़ी आई, तीनों में सामान रख, फटाफट सब बैठ गये। अब किसी ने क्रोध नहीं किया। न किसी ने प्रश्नोत्तर किये। मैं तो वैसे ही नहीं करती क्योंकि मेरे बस का इंतजाम करना नहीं है इसलिये इंतजाम करने वालों का कहना मानती रहती हूँ। जो जाने का समय दिया जाता है, उस पर हमेशा तैयार रहती हूँ। यहाँ से दरभंगा 72 किमी दूर था। अच्छी सड़के मिलने से हम आठ बजे पहुंच गये। हमारी गाड़ियाँ रूकी। सड़क पार सर कामेश्वरसिंह संस्कृत विश्वविद्यालय का लाल रंग का विशाल भवन था। मैं आगे वाली गाड़ी में ड्राइवर रमेश के बाजूवाली सीट पर बैठी थी। फटाफट उतरी खूब भीड़ वाली सड़क को पार कर संस्कृत विश्वविद्यालय के गेट पर जाकर खड़ी हो गई, मुड़ कर देखा, हमारा कोई साथी मेरे साथ नही र्सिर्फ रमेश आ रहा था। वे गाड़ी से आवाजें लगा रहे थे। अरे नीलम जल्दी आओ, रात हो रही है पहले होटल का इंतजाम कर लें। गेट के आगे रात में ठेले लगे थे। मैं फोटो लेने लगी। रमेश मेरे पास आकर बोला,’’आपका मोबाइल कोई छीन के भाग जायेगे। ऐसे उठ कर अकेले मत भागिये।’’ मैं भागी नहीं थी, तेजी से चल कर गई थी। जिन स्थानों को मैंने पढा़ होता है। उन्हें देख कर मैं बहुत खुश होती हूँ और ऐसी गलती कर देती हूँ। अब मेरी सीट बदल दी गई। स्कॉरपियो की पीछे की दोनों सीटों के बीच में बैग ठूंस कर एक लंबी आरामदायक सीट बना दी। उस पर पैर फैला कर, मैं मजे से बैठ गई और देर तक पीछे से सीन देखती रहती। जब सब गाड़ी से उतरते तो सबसे बाद में रमेश आकर, मेरा दरवाजा खोलता तो मैं उतरती। हम घने बसे भीड़ भाड़ वाले शहर में जा रहे थे। सर और उनके साथी होटल खोज रहे थे और मैं शहर से परिचय कर रही थी। बागमती के किनारे बसा आम और मखाना के लिये प्रसिद्ध दरभंगा के बाजार में ठेले ताजी सब्जियों और फलों से लदे हुए थे। बाजारों में सामान भी था और खरीदार भी थे। भीड़ भाड़ वाली सड़कें। गाड़ी साइड लगा कर, सब लोग होटल देखने चल देते। महिलायें गाड़ी में या उसके आस पास रहतीं। कोई होटल किसी को पसंद आता तो किसी को दूसरा। जो सबकी पसंद बना। तब मैं गाड़ी से उतरी। डिनर किया। हमें सुबह सात बजे यहाँ से निकलना था। सबसे पहले मैं सात बजे सामान के साथ रिसेप्शन में आ गई। सबके आते ही हम निकले। 6200 किमी में बसे इस शहर की शुरूआत 16वीं सदी में मैथिल ब्राह्मण जमींदारों ने की थी। यहाँ के राजाओं को कला, संस्कृति और साहित्य को बढ़ावा देने के लिए जाना जाता है। कुमारिल भट्ट, मंडन मिश्र, नार्गाजुन, चंद्र मोहन पोद्दार के लेखन से इस क्षेत्र ने प्रसिद्धि पाई है। परंपरा से यह शहर मिथिला के ब्राह्मण  के लिये संस्कृत में उच्च शिक्षा केन्द्र के लिए प्रसिद्ध है। स्वर्गीय महेश ठाकुर द्वारा स्थापित दरभंगा राज किला परिसर शिक्षा केन्द्र बन चुका है। 26 जनवरी 1961 को स्व. महाराजाधिराज डॉ. सर कामेश्वर सिंह की महान दानशीलता के फलस्वरूप बिहार के राज्यपाल डॉ. जाकिर हुसैन, मुख्यमंत्री डॉ. श्री कृष्ण के सौजन्य से कामेश्रवर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय की स्थापना हुई। अपनी प्राचीन संस्कृति और बौद्धिक परंपरा के लिये यह शहर मशहूर है। मिथिला पेंटिंग, ध्रुपद गायन की गया शैली और संस्कृत के विद्वानों ने इस शहर को दुनिया भर में पहचान दी है। हम शहर से बाहर आ रहें हैं। क्रमशः