विक्रमशिला के रास्ते से पटना बिहार यात्रा 21
नीलम भागी
अब एक ही मकसद था कि पटना से राजधानी गाड़ी न छूटे। यहाँ कच्ची धूल भरी पगडंडियां नीचे और ऊंचाई पर कच्चे मकान थे। उसके बाहर ढेरो बच्चे और एक दूसरे की जुएं निकालती महिलाएं थीं। या हरे भरे लहलहाते खेत दिखते थे। हाइवे पर हाई स्पीड में चलते, कच्चे रास्ते पर स्पीड घटाने की मजबूरी थी। सिंहौली पर फिर जाम लग रहा था अब लगा कि अब तो गाड़ी निश्चय ही छूट जायेगी पर जाम जल्दी ही खुल गया। यहाँ ये शब्द सुनने को बहुत मिला, बढ़का लोग, छुटका लोग।
कहीं कहीं छोटे छोटे लड़के साँड की पूंछ पकड़़ कर, मरोड़ कर उसको तंग करते दिखे तो मैं चिल्ला कर बोली,’’देखो रमेश, साँड बच्चों को मारेगा।’’ रमेश ने जवाब में मुझे चार लाइने सुनाई
बच्चे ने मारा, सांड को,
सांड ने मारा लताड़।
खाकर सांड का लताड़,
बच्चा हो गया जवान।
तब तक मुझे नहीं पता था कि लड़का सांड की लात और सींग की मार खाने से जवान हो जाता है। हमारे यहाँ के बच्चे तो सांड देखते ही डर जाते है। रास्ते में जगह जगह बच्चे बत्तखों को पंखों से पकड़ कर खड़े थे। ऐसा क्यूं ?रमेश ने बताया कि ये पोखर से पकड़ कर लाते हैं। आप खरीद लीजिए न। दिल्ली जाकर इसे पका कर खा लीजिएगा। मैं बोली कि मैं ब्राह्मणी और शाकाहारी हूँ। वो बोला,’’ मछली तो खाती होंगी न। यहाँ तो मैंने ब्राह्मणों को मछली खाते देखा है। ये भी तो पानी में तैरती है।’’ मेरे न करने पर उसका जवाब था, चलो कोई बात नहीं, पानी में छोड़ दीजिएगा फिर ये अण्डा देगी। अण्डा चाहे खाना, चाहे उससे बच्चे बनाना। वो तो पूरे बत्तख उद्योग के सपने दिखाने लगा। पर इस वक्त हमें सिर्फ समय और पटना की दूरी ही समझ में आ रही थी। बीच सड़क पर कुछ लड़के लंबे से बांस पर पुतला लगा कर सड़क रोककर खड़े थे। उसने गाड़ी नहीं रोकी। मैं सम्भावित दुर्घटना से डर गई। लड़के छिटक कर साइड में हो गए। मैंने पूछा,’’ये क्या तमाशा था?’’वह बोला कि ये तमाशा नहीं था। दुर्गापूजा ,दशहर और छठ आने से पहले ये सड़क से गुजरने वालों से चंदा मांगते हैं। छुटपन में हम भी यही करते थे। हम जानते हैं कि गाड़ी पास आते ही ये भाग जायेंगे। नहीं भागते तो हम ब्रेक मार देंते। गाड़ी छूटना तो तय था। फ्लाइट और अगली गाड़ी की कोशिश शुरू कर दी। मुझे रमेश की चिंता थी कि कल से इसे आराम बहुत कम मिला है। मैंने उससे पूछा कि वह इतनी ड्राइविंग कर लेगा। बदले में उसने अपनी कलकत्ते में की गई, लांग ड्राइव की कहानी शुरू कर दी। हमारी एक गाड़ी चाय पीने के लिए रूक गई। जल्दी से उतर कर उन्हें रोका, वे नहीं रूके। हमने तय कर लिया था कि स्टेशन पर कोई किसी का इंतजार नहीं करेगा, बस गाड़ी पकड़नी है ताकि कम से कम लोगों की समस्या रह जाये। दो लोगो को रात साढ़े नौ की राजधानी से आना था। वे ही ड्राइवरों का हिसाब करेंगे। पटना स्टेशन पर गाड़ी रूकते ही रमेश ने मेरा दरवाजा खोला, मैं उतरी, उसने बैग पकड़ाया। प्लेटर्फाम नम्बर एक आखिर में था। सीढ़ियों के स्थान पर स्लाइड था, मैं बैग लेकर चढ़ी उतरी। जैसे ही गाड़ी पर पैर रक्खा। वह हिलने लगी। अपनी सीट पर बैठी। कुछ समय बाद सब को फोन किया। जिस गाड़ी के लोग चाय पीने रूके थे। उसे छोड़ कर सब गाड़ी में चढ़ गये थे। फोन चार्जिंग पर लगाया। खाना खाया, कम्बल, तकिया चादर सब सिर के नीचे रख और चादर ओढ़ कर सो गई। सुबह नींद खुली, अपने आस पास देखा। टू एसी था। दो सहयात्री बिहार के थे। चाय के लिए बैठे। जाते समय जो लोक गीत दिमाग में था। वही फिर आ गया ’रेलिया बैरन पिया को लिए जाये रे’। उनसे पूछा कि इतना हरा भर उपजाऊ बिहार है फिर भी यहाँ के लोग बड़ी संख्या में प्रवासी क्यों है? वे कोरस में बोले’ बाढ़’। और जिनके पास जमीन है। वह बुआई कटाई के समय इन्हें दो सौ रूपये रोज पर रख लेते हैं। बाकि समय ये क्या करें? घर परिवार तो सब को चलाना है न इसलिये दिल्ली, कलकत्ता पंजाब चल देते हैं। मुझे याद आया रमेश से मैंने उसके लगातार गाड़ी चलाने के कारण पूछा था कि तुम्हारे काम के घण्टे क्या हैं? उसने कहा कि मुझे मालिक पाँच हजार रूपये महीना देते हैं। मैं घर और खेती देखता हूँ। जब मालिक बुलाते हैं तो जितना वे कहते हैं उतना गाड़ी चलाता रहता हूँ। मेरे भाई कलकत्ता में पंद्रह हजार रू महीने का कमाते हैं। पर घर का सुख तो नहीं है न। इस यात्रा से समझ गई, लोकगीत ’रेलिया बैरन पिया को लिए जाए रे’ की लोकप्रियता का कारण।
नीलम भागी
अब एक ही मकसद था कि पटना से राजधानी गाड़ी न छूटे। यहाँ कच्ची धूल भरी पगडंडियां नीचे और ऊंचाई पर कच्चे मकान थे। उसके बाहर ढेरो बच्चे और एक दूसरे की जुएं निकालती महिलाएं थीं। या हरे भरे लहलहाते खेत दिखते थे। हाइवे पर हाई स्पीड में चलते, कच्चे रास्ते पर स्पीड घटाने की मजबूरी थी। सिंहौली पर फिर जाम लग रहा था अब लगा कि अब तो गाड़ी निश्चय ही छूट जायेगी पर जाम जल्दी ही खुल गया। यहाँ ये शब्द सुनने को बहुत मिला, बढ़का लोग, छुटका लोग।
कहीं कहीं छोटे छोटे लड़के साँड की पूंछ पकड़़ कर, मरोड़ कर उसको तंग करते दिखे तो मैं चिल्ला कर बोली,’’देखो रमेश, साँड बच्चों को मारेगा।’’ रमेश ने जवाब में मुझे चार लाइने सुनाई
बच्चे ने मारा, सांड को,
सांड ने मारा लताड़।
खाकर सांड का लताड़,
बच्चा हो गया जवान।
तब तक मुझे नहीं पता था कि लड़का सांड की लात और सींग की मार खाने से जवान हो जाता है। हमारे यहाँ के बच्चे तो सांड देखते ही डर जाते है। रास्ते में जगह जगह बच्चे बत्तखों को पंखों से पकड़ कर खड़े थे। ऐसा क्यूं ?रमेश ने बताया कि ये पोखर से पकड़ कर लाते हैं। आप खरीद लीजिए न। दिल्ली जाकर इसे पका कर खा लीजिएगा। मैं बोली कि मैं ब्राह्मणी और शाकाहारी हूँ। वो बोला,’’ मछली तो खाती होंगी न। यहाँ तो मैंने ब्राह्मणों को मछली खाते देखा है। ये भी तो पानी में तैरती है।’’ मेरे न करने पर उसका जवाब था, चलो कोई बात नहीं, पानी में छोड़ दीजिएगा फिर ये अण्डा देगी। अण्डा चाहे खाना, चाहे उससे बच्चे बनाना। वो तो पूरे बत्तख उद्योग के सपने दिखाने लगा। पर इस वक्त हमें सिर्फ समय और पटना की दूरी ही समझ में आ रही थी। बीच सड़क पर कुछ लड़के लंबे से बांस पर पुतला लगा कर सड़क रोककर खड़े थे। उसने गाड़ी नहीं रोकी। मैं सम्भावित दुर्घटना से डर गई। लड़के छिटक कर साइड में हो गए। मैंने पूछा,’’ये क्या तमाशा था?’’वह बोला कि ये तमाशा नहीं था। दुर्गापूजा ,दशहर और छठ आने से पहले ये सड़क से गुजरने वालों से चंदा मांगते हैं। छुटपन में हम भी यही करते थे। हम जानते हैं कि गाड़ी पास आते ही ये भाग जायेंगे। नहीं भागते तो हम ब्रेक मार देंते। गाड़ी छूटना तो तय था। फ्लाइट और अगली गाड़ी की कोशिश शुरू कर दी। मुझे रमेश की चिंता थी कि कल से इसे आराम बहुत कम मिला है। मैंने उससे पूछा कि वह इतनी ड्राइविंग कर लेगा। बदले में उसने अपनी कलकत्ते में की गई, लांग ड्राइव की कहानी शुरू कर दी। हमारी एक गाड़ी चाय पीने के लिए रूक गई। जल्दी से उतर कर उन्हें रोका, वे नहीं रूके। हमने तय कर लिया था कि स्टेशन पर कोई किसी का इंतजार नहीं करेगा, बस गाड़ी पकड़नी है ताकि कम से कम लोगों की समस्या रह जाये। दो लोगो को रात साढ़े नौ की राजधानी से आना था। वे ही ड्राइवरों का हिसाब करेंगे। पटना स्टेशन पर गाड़ी रूकते ही रमेश ने मेरा दरवाजा खोला, मैं उतरी, उसने बैग पकड़ाया। प्लेटर्फाम नम्बर एक आखिर में था। सीढ़ियों के स्थान पर स्लाइड था, मैं बैग लेकर चढ़ी उतरी। जैसे ही गाड़ी पर पैर रक्खा। वह हिलने लगी। अपनी सीट पर बैठी। कुछ समय बाद सब को फोन किया। जिस गाड़ी के लोग चाय पीने रूके थे। उसे छोड़ कर सब गाड़ी में चढ़ गये थे। फोन चार्जिंग पर लगाया। खाना खाया, कम्बल, तकिया चादर सब सिर के नीचे रख और चादर ओढ़ कर सो गई। सुबह नींद खुली, अपने आस पास देखा। टू एसी था। दो सहयात्री बिहार के थे। चाय के लिए बैठे। जाते समय जो लोक गीत दिमाग में था। वही फिर आ गया ’रेलिया बैरन पिया को लिए जाये रे’। उनसे पूछा कि इतना हरा भर उपजाऊ बिहार है फिर भी यहाँ के लोग बड़ी संख्या में प्रवासी क्यों है? वे कोरस में बोले’ बाढ़’। और जिनके पास जमीन है। वह बुआई कटाई के समय इन्हें दो सौ रूपये रोज पर रख लेते हैं। बाकि समय ये क्या करें? घर परिवार तो सब को चलाना है न इसलिये दिल्ली, कलकत्ता पंजाब चल देते हैं। मुझे याद आया रमेश से मैंने उसके लगातार गाड़ी चलाने के कारण पूछा था कि तुम्हारे काम के घण्टे क्या हैं? उसने कहा कि मुझे मालिक पाँच हजार रूपये महीना देते हैं। मैं घर और खेती देखता हूँ। जब मालिक बुलाते हैं तो जितना वे कहते हैं उतना गाड़ी चलाता रहता हूँ। मेरे भाई कलकत्ता में पंद्रह हजार रू महीने का कमाते हैं। पर घर का सुख तो नहीं है न। इस यात्रा से समझ गई, लोकगीत ’रेलिया बैरन पिया को लिए जाए रे’ की लोकप्रियता का कारण।
































पर.... गेट के आगे तो धान सूख रहा था और गेट के बराबर में र्बोड लगा था। जिस पर लिखा था ’विद्यापति जन्मस्थली सेवा समिति बिस्पी आपका अभिनन्दन करती है।' पर गेट पर तो लटका ताला स्वागत कर रहा था।
सूर, कबीर, तुलसी और मीरा से भी पहले के महाकवि की पवित्र जन्मस्थली को नमन किए बिना तो हमने लौटना नहीं था। गेट से भवन, विशाल हराभरा परिसर दिख रहा था। यहाँ का नेटवर्क बड़ा मजबूत है। ब्यटीपार्लर वाले अमुक जी भी तुरंत आ गये थे और यहाँ भी र्कमचारी जल्दी हाजिर हो गए |सामने ब्राह्मण परिवार में 1350 में जन्में विद्यापति ठाकुर की मूर्ति है।
इन्हें महाकवि कोकिल की उपाधि से सम्मानित किया गया था। मैथिल साहित्य के आदि कवि श्रंगार परम्परा के साथ भक्ति परंपरा के भी प्रमुख स्तम्भों में से एक हैं। इनकी रचनाएं संस्कृत, अवहट्ट एवं मैथली में हैं। इन्होंने ग्यारह ग्रंथों की रचना की है। लेकिन इनकी पदावली गीत संगीत में गाई जाती है। इन्होंने अनगिनत पदों की रचना की। समकालीन आठ राजाओं का इन्हें प्रश्रय प्राप्त था और तीन रानियों के सलाहकार थे| शिव और शक्ति के प्रबल भक्त थे। इन्हें श्रृंगारी और दरबारी कवि भी कहते हैं। इन्होंने नीति कथाओं की भी रचना की है। र्कीतिलता गाथा छंद में हैं। जिस शैली में चंद्रबरजाई ने पृथ्वी दास रासो लिखा है। शहर की भीड़ शोर शराबे से दूर यह परिसर बहुत अच्छा लग रहा था। धीरे धीरे आस पास के लोग जुटने लगे। किसी अखबार का रिर्पोटर भी आ गया। इनकी मृत्यु 1448 में हुई थी। क्रमशः 

घरेलू मधुबनी चित्रकला आज इस शहर के स्टेशन पर यहाँ के कलाप्रेमियों द्वारा 10,000 स्क्वायर फीट में श्रमदान के फलस्वरूप यहाँ की शोभा बड़ा रही है। मखानों के उत्पादन में तो यह प्रसिद्ध है ही। स्वतंत्रता संग्राम में गांधी जी के खादी यज्ञ में भी यहाँ के लोगों ने बढ़ चढ़ कर भाग लिया था । 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में यहाँ के निवासी बड़ी संख्या में स्वतंत्रता सेनानी बन गये थे। आजादी के बाद 1972 में यह दरभंगा से अलग जिला बना। इसलिये दोनों की संस्कृति में समानता है। अब तक तो विकास कार्य दिखाई दे रहा था लेकिन जैसे ही गाड़ी डिहटोल गाँव की ओर मुड़ी, वैसे ही टूटी पगडंडियां दिखी। उस पर गाड़ी कूद कूद कर चल रही थी। जिसके किनारे कहीं कहीं कोई छोटी सी दुकान दिखती, जिसपर दुकानदार के अलावा चार पाँच लोग बतिया कर वक्तकटी कर रहे होते थे। उनसे हम विद्यापति की जन्मस्थली पूछते। पहले वे हमसे मधुर वाणी में हमारा आने का मकसद पूछते, मसलन हम कहाँ से आयें हैं? क्यूं आएं हैं? आदि, फिर कहते कि देखिए, सीधे जाइयेगा, कहीं नहीं मुड़ियेगा, कुछ समय बाद आप देखियेगा कि आपके दाएं हाथ पर ही आप जन्मस्थली पाइएगा। यहाँ मुझे अपनी नई रिर्जव सीट का फायदा मिला। सामने एक साधना ब्यूटीपार्लर का र्बोड लगा हुआ उसके पीछे एक दूसरे र्बोड का कोना दिख रहा था।
जैसे ही गाड़ी ने उस जगह को पार किया। मेरा तो मुहं ही उस तरफ था। वो तो जन्मस्थली का र्बोड था। मैंने गाड़ी रूकवाई। सब फटाफट उतरे मैं तो रमेश की दया पर थी। उसके दरवाजा खोलने पर मैं भी उतरी। कुछ देर मैंने ब्यूटीपार्लर के र्बोड को घूरा, फिर घूरना स्थगित कर आसपास नज़रें दौड़ाई।
’माँ शारदा जीविका ग्राम संगठन आपका हार्दिक स्वागत करता है। गरीबी निवारण के लिए बिहार सरकार की पहल।’ ये बोर्ड ऐसे छप्परों पर लटके थे , जो धूप तो रोक रहे थे लेकिन मुझे नहीं लगता कि वे बरसात रोकने में सर्मथ होंगे।
आस पास हमें देख कर महिलाएं और लड़के जमा हो गये। विवाहित महिलाएं सौभाग्य चिन्हों के साथ थीं लेकिन दिन के बारह बजे बालों में न तेल न कंघी, उलझे बाल हुए। पैरों में चप्पल तो किसी के भी नहीं थी। कोई कोई तो उस समय दातुन मुंह में लेकर खड़ी थी।
ये देखकर ब्यूटीपार्लर का र्बोड तो मुझे मुंह चिढ़ाता लग रहा था। मैं महिलाओं की फोटो लेने लगी। वे भाग गईं। मैंने मोबाइल जेब में रख लिया तो कुछ महिलाएं धीरे धीरे आ गईं। मैंने गरीबी निवारण बोर्ड पर हाथ रख कर उनसे पूछा कि ये बोर्ड किसका है? जवाब मिला,अमुक जी का। मैंने फिर पूछा अमुक जी ने तुम्हारी कभी कोई मदद की है। जवाब चुप्पी। अब समझाने के तरीके से पूछा कभी अमुक जी ने तुम्हें रूपया पैसा दिया है। आदमी चुप, महिला बोली,’’कभी नहीं।’’इतने में अमुक जी प्रकट हो गए। उनसे मैंने पूछाकि ये साधना ब्यूटीपार्लर किसका है? वो बोले,’’हमारा ’’। मैं बोली,’’ इसे पर्यटन मत्रालय के बोर्ड के आगे से हटा कर कहीं और लगाओ। न जाने कितने लोग परेशान होकर लौटे होंगे।’’ उसने पास से एक लकड़ी उठाई और अपना र्बोड टेढ़ा कर दिया ताकि विद्यापति जन्मस्थली का र्बोड पढ़ा जा सके।
अब वह मदद वाले प्रश्न पर आया उस महिला से मैथली में मधुर वाणी में कुछ बोला, सुनकर महिला मुस्कुरा दी। अब वह मुझसे बोला कि हम महिलाओं को ब्यूटीपार्लर का प्रशिक्षण दिलवाते हैं ताकि ये अपना रोजगार करके अपनी गरीबी दूर कर लें।
जो महिलाएं वहां रह गईं थीं। मैंने उनसे कहा कि मेरे साथ फोटो खिचवाओगी। वे मेरे पास आकर खड़ी हों गईं। पता नहीं सरकार द्वारा दी गई सहायता, कैसे जरूरतमंद के पास पहुंचती है। जितना भी वार्तालाप उन लोगों से हुआ, मेरा गुस्से से था, उनका मधुरवाणी से शायद इस लिये इस शहर का नाम मधुबनी है। जैसे ही मुड़ती हूं सामने विद्यापति की जन्मस्थली जिसके गेट पर ताला जड़ा था।
उस जगह पर धान सूख रहा था। धान के ऊपर से कूद फांद कर मैं गेट पर पहुँची। अब हम ताला खुलने का इंतजार करने लगे। क्रमशः



बाजारों में सामान भी था और खरीदार भी थे। भीड़ भाड़ वाली सड़कें। गाड़ी साइड लगा कर, सब लोग होटल देखने चल देते। महिलायें गाड़ी में या उसके आस पास रहतीं। कोई होटल किसी को पसंद आता तो किसी को दूसरा। जो सबकी पसंद बना। तब मैं गाड़ी से उतरी। डिनर किया। हमें सुबह सात बजे यहाँ से निकलना था। सबसे पहले मैं सात बजे सामान के साथ रिसेप्शन में आ गई। सबके आते ही हम निकले। 6200 किमी में बसे इस शहर की शुरूआत 16वीं सदी में मैथिल ब्राह्मण जमींदारों ने की थी। यहाँ के राजाओं को कला, संस्कृति और साहित्य को बढ़ावा देने के लिए जाना जाता है। कुमारिल भट्ट, मंडन मिश्र, नार्गाजुन, चंद्र मोहन पोद्दार के लेखन से इस क्षेत्र ने प्रसिद्धि पाई है। परंपरा से यह शहर मिथिला के ब्राह्मण के लिये संस्कृत में उच्च शिक्षा केन्द्र के लिए प्रसिद्ध है। स्वर्गीय महेश ठाकुर द्वारा स्थापित दरभंगा राज किला परिसर शिक्षा केन्द्र बन चुका है।
26 जनवरी 1961 को स्व. महाराजाधिराज डॉ. सर कामेश्वर सिंह की महान दानशीलता के फलस्वरूप बिहार के राज्यपाल डॉ. जाकिर हुसैन, मुख्यमंत्री डॉ. श्री कृष्ण के सौजन्य से कामेश्रवर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय की स्थापना हुई। अपनी प्राचीन संस्कृति और बौद्धिक परंपरा के लिये यह शहर मशहूर है। मिथिला पेंटिंग, ध्रुपद गायन की गया शैली और संस्कृत के विद्वानों ने इस शहर को दुनिया भर में पहचान दी है। हम शहर से बाहर आ रहें हैं। क्रमशः 