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Friday 8 February 2019

’भामती’सीता जी के बाद मिथिला का लोकप्रिय नाम, वाचस्पति मिश्र अंधराठाढ़ी मधुबनी बिहार यात्रा 17 नीलम भागी

’भामती’सीता जी के बाद मिथिला का लोकप्रिय नाम, वाचस्पति मिश्र अंधराठाढ़ी मधुबनी बिहार यात्रा 17
                            नीलम भागी
अब हम अंधराठाढ़ी गाँव की ओर चल पड़े। हमें रास्ता अच्छा मिल रहा था। अच्छी बनी सड़कें थीं। लगभग डेढ़ घण्टे के बाद हम लोग बिल्कुल खेतों के बीच की पगडंडियों में अंधराठाढ़ी गांव में घूम रहे थे। जिससे भी पूछते वो आगे इशारा कर देता। अब गूगल बाबा ने भी कह दिया कि हमारी मंजिल आ गई है। हमें  कोई साइन र्बोड  नहीं दिख रहा था। हम जिससे भी पूछते कि वाचस्पति मिश्र का आश्रम कहाँ है? किसी को नहीं पता। एक बुर्जुग जा रहे थे। मेरे दिमाग और जुबान पर तो भामती थी। उनसे पूछा,’’भामती वाचस्पति मिश्र का आश्रम यहाँ पर कहाँ है? वो जो रास्ता बता रहा था, वहाँ से तो हम कई बार गुजर चुके थे। हमें तो कहीं कुछ नहीं दिखा। हमने उसे गाड़ी में बिठा लिया। वो उसी में घने पेड़ों और दो पोखरों के पास गाड़ी रूकवा कर बोला,’’उतरो।’’ सब उतर के चल दिए। मुझे रमेश भूल गया था। मैं चिल्लाई उसने  लौट कर माफी मांग कर, ढक्कन खोला, मैं बाहर आई। रमेश बोला कि पूरे बिहार में ऐसे पोखर हैं, आप इतनी दूर से ये ताल देखने आये हो। मैंने पूछा,’’रमेश तुम कितना पढ़े हो?’’ बोला पांचवी तक और क्यों नहीं पढ़ा? अपनी स्टोरी सुनाने लगा। मैंने उसकी कहानी बंद करवाई और बाकि दोनो से पूछा कि भामती का नाम सुना है। वो दोनो कोरस में बोले कि बड़ी देवी थीं। उनके पति मिश्रा पण्डित तो कई साल तक तपस्या में बैठ गये न। वो उनकी सेवा में ही रहीं। सीता जी और भामती को सब बहुत मानते है। अब हम भी सबके साथ हो लिए। वो आगे आगे चलने लगा, हम उसके पीछे। यहाँ पेड़ इतने घने थे कि धूप कहीं कहीं एक रूपये के सिक्के जितनी जमींन पर दिख रही थी। सामने एक सफेद छोटा सा भवन था। सब अंदर चले गए। आस पास के लोग भी आ गए। मैं बाहर खड़ी रहती हूँ जितना उनके बारे में पढ़ा सुना था वह याद आने लगा। इस जगह पर नवीं शताब्दी के र्दाशनिक मैथिल ब्राह्मण वाचस्पति मिश्र (900-980ई) लेखन में ऐसे लीन हुए थे कि साधारण जनसमुदाय ने उसे तपस्या का नाम दिया। पाँच आस्तिक दर्शनों पर टिका , लगभग उस समय की हिन्दुओं के सभी प्रमुख दार्शनिक सम्प्रदायों की प्रमुख कृतियों पर भाष्य लिखे। उस स्थान को नमन करके मैं अंदर जाती हूँ। सामने लाल पेंट से भामती लिखा है। ऊपर किसी की कल्पना में बनाई फ्रेम जड़ी तस्वीर थी। उस जगह की धूल को माथे से लगा कर बाहर आई। एक महिला ने तालाब की ओर इशारा करके कहा कि भामती देवी उस तालाव का प्रयोग करती थीं। आज भी वहाँ महिलायें कपड़े वगैरह धो रहीं थी। दूसरे पोखर के तरफ इशारा करके वह बोली,’’वो पंडित जी का था’’। मैंने देखा, उस समय भी वह पेड़ों से घिरा, छिपा सा था। उसे कोई उपयोग नहीं कर रहा था। वाचस्पति मिश्र तप में लीन स्नान आदि के लिये जाते होंगे तो उन्हें व्यवधान न पड़े शायद इसलिये। मैंने दोनों पोखरों की तस्वीरें लीं।  जितने लोग उतनी उनके बारे में दंतकथाएं थी।
   पास के गाँव के गुरू त्रिलोचन की कन्या भामती से जब वाचस्पति मिश्र का विवाह परिवार ने तय किया तो  वे अपने होने वाले ससुर से जाकर बोले कि वे लोक कल्याण के लिए काम करना चाहते हैं और विवाह उनके कार्य में बाधा बनेगा। आप ये संबंध न करें। भामती ने ये सुना तो उसने वाचस्पति मिश्र से ही विवाह की इच्छा जताई। गुरू पूर्णिमा पर विवाह पश्चात जैसे ही नवविवाहित जोड़ी ने गृहप्रवेश किया। तत्कालीन शंकराचार्य आए। उन्होंने वाचस्पति मिश्र को ब्रह्मसूत्र जो मंडन मिश्र का लिखा,शांकर भाष्य देकर आग्रह किया कि इसका टीका कर देंं ताकि ये लोगों तक पहुंचे। वाचस्पति मिश्र ने स्वीकार कर लिया। वे उसकी टीक करने और अपनी ओर से स्थापनाएं करने में इस कदर डूब गए कि उन्हें अपने आस पास का कोई होश ही नहीं था। भामती ने इन दिनों उनके कार्य में व्यवधान न हो, इस बात का पूरा ध्यान रक्खा। कभी दीपक की लौ नहीं मद्धिम होने दी। उनके सोने के बाद ही वह दीपक बंद करतीं। कितने वर्ष इसे पूरा करने में लगे, सबका कथन अलग है। कुछ वर्षों के पश्चात एक रात दीपक फफक कर बुझने लगा। भामती ने दौड़ कर दिए की बाती ऊँची की। दिया उसी लौ से जलने लगा। उसी समय वाचस्पति मिश्र का ग्रंथ पुरा हुआ था। वह तो जैसे सघन निद्रा से जागे। सामने देखते हैं एक नारी को, जो उन्हें अपनी माँ नहीं लगी। और  भामती अपराध बोध से खड़ी है कि उसके कारण पति के लिखने में व्यवधान आया है। वाचस्पति मिश्र बोले,’’देवी, तुम कौन हो? यहाँ क्या कर रही हो। भामती ने कहा,’’मैं आपकी पत्नी भामती हूं। आप देश, धर्म,जाति और संस्कृति के लिए ब्रह्मसूत्र भाष्य जैसा कठिन तप कर रहे थे। मैं आपकी सहधर्मिणी उस तप में आपकी सेवा कर योगदान कर रही थी।’’ उन्होंने भामती के हाथ देखे, ये वही हाथ थे जो उन्हे भोजन की थाली, लेखन सामग्री पहुँचाते थे। उन्हे अपना विवाह याद आया। वे बोले,’’मैं तो संसार त्याग कर सन्यास लेना चाहता हूं। तुम्हार निर्वाह कैसे होगा?’’ भामती ने जवाब दिया,’’जंगल से, जैसा अब तक होता था। जंगल की मूंज काट कर रस्सी बनाती थी। उस रस्सी के बदले, हम दोनो के जीवन निर्वाह के लिए पूरा पड़ जाता था।’’ यह कहते हुए भामती आंसूओं को पीकर बोली,’’बस एक ही दुख है, मैं गत आयु हो गई हूं। आपका वंश नहीं चला पाऊंगी।’’ वाचस्पति मिश्र अभूतर्पूव र्कत्तव्यपरायण भामती के स्नेह से विभोर होकर बोले,’’पुत्र से चली हुई वंशावली कभी न कभी खंडित होती है।’’ उन्होंने ग्रंथ पर ’भामती’ लिख दिया। संसार में जब तक वेदांत की चर्चा रहेगी भामती का नाम रहेगा।