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Monday, 11 February 2019

विदुषि भारती मिश्र, मंडन मिश्र और आदि शंकराचार्य महिषी सहरसा में बिहार यात्रा 19 नीलम भागी

 विदुषि भारती मिश्र, मंडन मिश्र और आदि शंकराचार्य महिषी सहरसा में  बिहार यात्रा 19
               नीलम भागी
 कुछ ही दूरी पर वह स्थान था जहाँ मंडन मिश्र और शंकराचार्य के बीच शास्त्रार्थ हुआ था। हम पहँचे तो रात हो गई थी। वहाँ धुंआ सा फैला था। मैंने देखा कुछ दूरी पर मवेशी बंधे थे। उनके पास धुंआ किया गया था। मैं उनको वायु प्रदूषण पर भाषण पिलाने की सोच कर गई। मैं कुछ बोलती, उससे पहले एक महिला बोली कि आपको धुंआ लग रहा होगा न। यहाँ एक मच्छर जैसा कीट है जो पशुओं को परेशान करता है। इसलिए हम अंधेरा होते ही धुआं कर देते हैं। कीट उड़ जाते हैं। मैं उनका पशु प्रेम देख कर लौट आई। धुएं से बस तस्वीरें अच्छी नहीं आ रहीं थीं। सामने मण्डन मिश्र की पर्ण कुटी, उसके बराबर में मूर्तियों द्वारा शास्त्रार्थ का दृश्य बनाया गया था। मंडन मिश्र गृहस्थ आश्रम  का पालन करने वाले मिथिला के प्रकाण्ड विद्वान, सहरसा के महेशी के रहने वाले थे। सातवीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य कलाडी(केरल) से हिन्दूर्धम की पुर्नस्थापना के लिए देश भ्रमण के लिए निकले थे। उन्होंने चारों कोनो पर चार मठों की स्थापना की। वे जहाँ भी जाते, वहाँ स्थानीय विद्वानों से शास्त्रार्थ करते। ये शास्त्रार्थ दार्शनिक एवं धार्मिंक वाद विवाद, गूढ़ विषयों पर परिर्चचा और उन पर प्रश्नोत्तर किये जाते। जिसका उद्देश्य परोपकार और समाज कल्याण होता था। शंकराचार्य साथ ही अद्वैतवाद का प्रचार प्रसार भी करते थे। राजा जनक के पूर्वज मिथि के नाम से बना मिथिला क्षेत्र सांस्कृतिक ज्ञान के लिए दूर दूर तक प्रसिद्ध था। जगह जगह से पंडित आते, उनमें शास्त्रार्थ चलते। विजयी पंडित का सम्मान किया जाता। यहाँ से सम्मानित होना बहुत गौरव की बात थी। आदि शंकराचार्य के समकालीन मंडन मिश्र ने मीमांसा और वेदांत दोनों दर्शनों पर मौलिक ग्रंथ लिखे थे। इनके लिखे शांकर भाष्य की टीका भामती तो सुप्रसिद्ध वाचस्पति मिश्र ने की थी। इनके नाम और ज्ञान की ख्याति चारों ओर फैली हुई थी। शंकराचार्य इस क्षेत्र में आये। पहले तो वे इस क्षेत्र के प्राकृतिक सौन्दर्य से मुग्ध हो गये। हरे हरे धान के लहलहाते खेत और बाँस के झुरमुट। गाँव से बाहर जो महिलाएं कुएं से जल भर रहीं थीं, वे आपस में संस्कृत में बात कर रहीं थी। यह देख शंकराचार्य बहुत प्रभावित हुए। वैसे ही उन्होंने उन महिलाओं से बातचीत की। जिससे महिला समझ गईं कि ये पंडित मिश्र से शास्त्रार्थ करने आए है। एक पनिहारिन ने उन्हें एक तालाब दिखा कर, उनसे उस तालाब का वर्णन करने को कहा। शंकराचार्य ने किया, जिसे सुन कर पनिहारिन ने कहा कि आप लट लकार पर अधिक बल देते हैं। शंकराचार्य ने उनसे मंडन मिश्र के घर का पता पूछा। महिलाओं ने कहा कि गाँव में जिसके घर के आगे पिंजड़े में तोते शास्त्रार्थ कर रहें हों। वो ही पंडित मंडन मिश्र का घर है। वे चल पड़े। उनके घर पर वैसा ही हो रहा था। वे तोतो को शास्त्रार्थ करते देख हैरान । मंडन मिश्र और उनकी विदुषी पत्नी भारती ने उनका खूब आदर सत्कार किया। जब शास्त्रार्थ का समय आया तो विद्वान आ गये। उनमें विमर्श होने लगा कि मंडन मिश्र को शास्त्रार्थ में पराजित किये बिना कोई सर्वश्रेष्ठ विद्वान नहीं हो सकता। इस शार्स्त्राथ का निर्णयाक कोई साधारण विद्वान नहीं कर सकता। शंकराचार्य जान गए थे कि उनकी पत्नी विदुषि है, वही निर्णायक के लिए योग्य है। उनके अनुरोध से पत्नी भारती निर्णायक बनाई गई। मिथिलांचल में कोसी नदी के किनारे महिषि में धर्म दर्शन पर 42 दिन तक शास्त्रार्थ चला। अंतिम दिन जब शास़्त्रार्थ चल रहा था तो भारती ने एक जैसी दो मालाएं दोनो के गले में डाल कर कुछ समय के लिये वहाँ से चली गई। जब वह लौटी तो आते ही उसने शंकराचार्य को विजयी घोषित कर दिया। जिज्ञासू श्रोताओं ने प्रश्न किया कि बयालीस दिन से तुम लगातार इसमें सम्मिलित थीं। अब कुछ समय अनुपस्थित रह कर, आते ही तुमने कैसे परिणाम बता दिया। भारती ने उत्तर दिया कि जब कोई विद्वान शास़्त्रार्थ में पराजित होने लगता है वह अपनी हार महसूस करते ही, वह स्वाभाविक रूप से क्रुद्ध होने लगता है। तो वह क्रोध में तपने लगता है। देखो मेरे पति की माला कैसे सूख गई है और शंकराचार्य जी की वैसी ही है। शर्त यह थी कि हारने वाले को जीतने वाले का शिष्य बन कर सन्यास लेना था।
     भारती निर्णायक के पद से उतर कर बोलीं,’’मिश्र जी विवाहित हैं। पति पत्नी मिलकर एक ईकाई बनते हैं, अर्धनारेव्श्रर की तरह। मिश्र जी नहीं हारे, उनका दायां अंग हारा है। बायां अंग नहीं। अभी मुझसे शास़्त्रार्थ बाकि है।’’शंकराचार्य ने चुनौती स्वीकार कर ली। ज्ञानवाद और कर्मवाद विषय पर 21 दिन तक दोनों में शास्त्रार्थ चला। जीव जगत पर अंतिम प्रश्न भारती ने गृहस्थ में संतान उत्त्पत्ति के संबंध में पूछा। शंकराचार्य ब्रह्मचारी थे। गृहस्थ का अनुभव नहीं था। पढ़ी सुनी बातों पर जवाब नहीं माना जा सकता था। जिसका व्यवहारिक ज्ञान के बिना जवाब अधूरा समझा जाता। शंकराचार्य तुरंत प्रश्न की गहराई को समझ गए। वे समझ गये की व्यवहारिक ज्ञान ही वास्तविक ज्ञान होता है। उन्होंने अपनी हार स्वीकार ली। हमारी परम्परा कितनी गौरवशाली थी। घर परिवार के साथ महिलाएं ज्ञान अर्जित कर, शास्त्रार्थ में निर्णायक का पद प्राप्त करतीं थीं।   क्रमशः         



4 comments:

डॉ शोभा भारद्वाज said...

लेख पढने के बाद गर्वित हुई आगे की कथा जानने की उत्सुक

Unknown said...

Neelam ji,Great, keep it up. Regards��������

Neelam Bhagi said...

धन्यवाद

Neelam Bhagi said...

धन्यवाद