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Saturday, 29 February 2020

ऑरगेनिक पालक रसोई के कचरे से उगी नीलम भागी Organic Palak Rasoi ke Kacherey se Neelam Bhagi


चुम्मू बड़ा हो गया है। उसके बाथ टब में जहां से पानी निकलता है, उस पर मैंने एक ठिकरा रखा। उसमें मैंने रसोई का कचरा भरना शुरु किया बीच-बीच में थोड़ी सी छाछ पानी मिलाकर छिड़क देती। फल सब्जियों के छिलके, पत्ते सब उसी में मैंने डाले। जब वह भर गया तो मैंने 60% मिट्टी में गोबर की खाद या वर्मी कम्पोस्ट भी डाल सकते हैं, दो मुट्ठी नीम की खली(इससे कीड़ा नही लगता) डाल कर मिट्टी तैयार की। ये तैयार मिट्टी की मैंने चार इंच मोटा, कचरे पर  बाथ टब में फैला दी। हाथों से दबा कर उसे समतल कर लिया। अब उस पर पालक के बीज छिड़क दिये। दूर दूर छिड़केगे तो मोटे पत्ते मिलेंगे। पास छिड़कने पर छोटे मिलेंगे। अब इन बीजों को इसी मिट्टी से आधा या एक इंच मिट्टी से ढक दिया। पानी का छिड़काव इस प्रकार  किया कि बीज ढके रहें। नहीं तो उन्हें चिड़िया खा जायेगी। ये बुआई मैंने अगस्त के अंत में की थी। 5 से 20 डिग्री तापमान पर ये बहुत अच्छी उगती है। मैंने पालक को जड़ से नहीं उखाड़ा। जरुरत के अनुसार पत्तों को कैंची से काटा। अब उनमें बीज आ गये हैं। अब तक मैने कोई खाद नहीे डाली थी। पानी भी इतना डाला कि मिट्टी गीली रहे। इसे बोने के लिये गहरे बर्तन की जरुरत नहीं होती है। ये पालक बहुत ही लाजवाब बनती है।
 अब मैंने चार मिट्टी के गमले कचरे के तैयार करके इसी विधी से और पालक बोई है। गर्मी में मैं इसे   सीधी सूरज की रोशनी में नहीें रखती।

रसोई के कचरे का उपयोग
 किसी भी कंटेनर या गमले में ड्रेनेज होल पर ठीक  रखकर सूखे पत्ते टहनी पर किचन वेस्ट, फल, सब्जियों के छिलके, चाय की पत्ती बनाने के बाद धो कर आदि सब भरते जाओ बीच-बीच में थोड़ा सा वर्मी कंपोस्ट से हल्का सा ढक दो और जब वह आधी से अधिक हो जाए तो एक मिट्टी तैयार करो जिसमें 60% मिट्टी हो और 30% में वर्मी कंपोस्ट, या गोबर की खाद, दो मुट्ठी नीम की खली और थोड़ा सा बाकी रेत मिलाकर उसे  मिक्स कर दो। इस मिट्टी को किचन वेस्ट के ऊपर भर दो और दबा दबा कर, इस तैयार मिट्टी को 6 इंच, किचन वेस्ट के ऊपर यह मिट्टी रहनी चाहिए। बीच में गड्ढा करिए छोटा सा 1 इंच का, अगर बीज डालना है तो डालके उसको ढक दो।और यदि पौधे लगानी है तो थोड़ा गहरा गड्ढा करके शाम के समय लगा दो और पानी दे दो।





Monday, 24 February 2020

शहीद स्मारक स्थल इण्डिया गेट नीलम भागी Shaheed Smarak Sthal, IndiaGate Neelam Bhagi


शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले,
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा।

मनोज शर्मा जी महामंत्री का मैसेज आया कि पुलवामा में शहीद हुए जवानों की बरसी पर इन्द्रप्रस्थ साहित्य भारती दिल्ली, प्रान्त (सम्बद्ध अखिल भारतीय साहित्य परिषद्) द्वारा शहीद स्मारक स्थल इण्डिया गेट पर एक कार्यक्रम विनोद बब्बर जी की अध्यक्षता में आयोजित किया गया है। साहित्यकार समय पर पहुंचे। राष्ट्रीय कवि डॉ. जयसिंह आर्य, पूनम माटिया, साहित्यकार प्रवीण आर्य, पंजाबी साहित्यकार जगदीश, संजीव सिन्हा, सुनीता बुग्गा, जितेन्द्र कुमारा सिंह, विवेक आर्य, विवेक कुमार आदि साहित्यकारों ने और सुन्दर लाल एडवोकेट ने अपनी रचनाओं द्वारा वीर शहीदों को श्रद्धा सुमन अर्पित किए। विनोद बब्बर जी ने अपने मन के उदगार व्यक्त किए।
कार्यक्रम का संचालन मनोज शर्मा ने किया।
साहित्यकारों ने फिर अमर जवान ज्योति पर अपनी श्रद्धाजंली अर्पित की। भारत सरकार द्वारा जो शहीद स्मारक स्थल इंडिया गेट पर बना है, उसका भ्रमण किया और महत्वपूर्ण जानकारियां प्राप्त कीं।
शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले,
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा।
  मैं सुनहरे अक्षरों में लिखे अपने वीर शहीदों के नाम देख रहीं हूं और जगदंबा प्रसाद मिश्र’हितैषी’ की ये रचना मेरे ज़हन में चल रहीं हैं। अपने शहीद वीरों के लिए देश के कोने कोने से लोग आकर नमन करते हैं। यहां तो प्रतिदिन मेले जैसा ही लगता है। 
अंत में प्रवीण आर्य जी ने सबको धन्यवाद दिया। 

















Monday, 17 February 2020

किताबों की दुनिया, भारतीय दृष्टिकोण और ज्ञान परंपरा भाग 7 नीलम भागी Bhartiye Drishtikon Aur Gyan ke Parampera part 7 Neelam Bhagi

  उत्कर्षिनी के चालीस दिन की होने पर उसे अपने मंदिर में माथा टिकाया, उसके  बाद मैं उसे बड़ेे मामा के कमरे में लेकर गई। उसे किताबे दिखाईं, वो टुकर टुकर किताबों को देख रही थी और मुझे लग रहा था कि वह उस  जगह से परिचित है। उसके जन्म से पहले मेरा सारा दिन उन किताबों में ही व्यतीत होता था। मुझे पंजाब मे टीचर की नौकरी के लिए दसवीं का पंजाबी का इम्तहान देना था। अब मैं पंजाबी पढ़ने लगी और परीक्षा की तैयारी करने लगी। मैं पढ़ती, ये उसी कमरे में शांति से सोती रहती। आठ महीने की बेटी लेकर मैं दिल्ली आ गई। बच्चों को पढ़ाती, उनके साथ ये पता नहीं कब पढ़ना सीख गई। मेरी मजबूरी समझकर, ये किताबों की दुनिया में मस्त हो गई। पहले बी.सी.रॉय. फिर ब्रिटिश और अमेरिकन लाइब्रेरी की मेम्बरशिप ली हुई थी। मैं साहित्य एकाडमी से दो किताबें लाती। दिन भर मैं व्यस्त रहती ,उन्हें अम्मा पढ़ती। रात को उत्कर्षिनी पढ़ते हुए सो न जाये, उन किताबों को मैं पढ़ती। दिन भर की थकी, मैं ही पढ़ते हुए सो जाती। अब हंसते हुए  उत्कर्शिनी बताती है कि आपके सोने के बाद वह उनको भी पढ़ जाती थी। मेरी बेटी क्या पढेगी? ये निश्चित मैंने किया, बेटी की रूचि नहीं देखी। बारहवीं तक उसे मैथ और बायोलॉजी दोनों सब्जेक्ट लेकर दिए, ये सोच कर कि मेडिकल में आ गई तो डॉक्टर बन जायेगी। इंजीनियरिंग के एंट्रेंस में आ गई तो इंजिनियर बन जायेगी। मैं इन प्रतियोगिता परीक्षाओं के आसपास से गुजरीं होती तो मुझे पता होता कि दो जगह तैेयारी करना कितना मुश्किल था!!  बेटी है न, आज्ञा दे दी। पढ़ने की उसे आदत थी, वो मेहनत करने लगी। आज लगता है कि मैं कितनी गलत थी!!  उसने मेरी इच्छानुसार इंजीनियरिंग की, एमबीए  किया। वहाँ जी़ नेट वर्क मीडिल ईस्ट में उसका कैंपस सलैक्शन हो गया था। सारे गामा पा मीडिल ईस्ट और पाकिस्तान सीजन टू में सीनियर मैनेज़र प्रोग्रामिंग, नॉर्थ अफ्रीका एंड पाकिस्तान , बीबीसी का माई बिग डीसीजन की स्क्रिप्ट राइटरं, पाँच साल में चार नामी शो दिए। फिर सब छोड़ कर फिल्म मेकिंग का र्कोस करने एन.वाई. एफ..ए. लॉस एजिंल्स अमेरिका चली गई। जो अब तक कमाया था, सब लगा दिया। वापिस आने पर जी़ ने जॉब कन्टीन्यू करने को कहा। पर ये मुंबई आ गई। संजय लीला भंसाली 2010 में फ्रीमैंटल इण्डिया के शो एक्सफैक्ट में दस महीने तक जज बने थे। वहाँ पर  उत्तकर्षिणी एसोसिएट क्रियेटिव डायरेक्टर थी।संजय लीला भंसाली ने प्रतिभागियों को जज करने के साथ उत्तकर्षिणी को भी जज कर लिया और उससे कहा कि इस शो के समापन के बाद तुम मुझसे मिलोगी। उत्तकर्षिणी का इण्डिया गौट टेलैंट के साथ कांट्रैक्ट था। उस शो के खत्म होते ही उसने संजय लीला भंसाली को फोन किया। उन्होंने उसे तुरंत बुलाया, भंसाली प्रोडक्शन में नियुक्त किया। संजय लीला भंसाली को वह अपना गुरु मानती है क्योंकि उन्होंने  उसे समझाया कि तुम अपने विचारों और शब्दों को लेखन में उतारो। लिखते समय ये मत सोचो कि तुम्हारा लेखन कैसा बिजनैस करता है। और ’गोलियों की रासलीला रामलीला में उत्तकर्षिणी इस फिल्म की एसोसियेट डायरेक्टर थी। अत्यंत सफल, बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न फिल्म निर्माता सुभाष घई की मुक्ता आट्स प्राइवेट लिमिटेड में उत्तकर्षिणी हैड स्टोरी डवलपमैंट के पद पर रही। नामी प्रॉडक्शन के शो में स्क्रिप्ट राइटिंग, स्क्रिप्ट कंसल्टैंट रही। फिर ये अमेरिका चली गई। अब हॉलीवुड में बहुत व्यस्त लेखिका है।
     उत्कर्षिनी की बेटी के जन्म पर मैं बहुत खुश थी और उस साल गीता की 5151वीं जयंती भी थी। हमने उसका नाम गीता रख दिया। क्योंकि हमारी भावना है कि  भारतीय दृष्टिकोण और ज्ञान की परंपरा को हमारी बेटियां आगे बढायेंगी। निरंतर संघर्ष से जीवन को उचाइयों पर ले जाना, यही धर्म है। यही सच्चा कर्म है। हमें हमारे पूर्वजों ने बेटी बेटे में फर्क करना नहीं सिखाया। समाप्त   

Sunday, 16 February 2020

बेटी के जन्म पर मेरा दिल क्यों बैठ गया था!!.भारतीय दृष्टिकोण और ज्ञान परंपरा भाग 6 नीलम भागी Bhartiye Drishtikon Aur Gyan ke Parampera part 6 Neelam Bhagi



 मैं बड़ी मामी के घर गई। मामी छत पर थीं। वहां मैं मामा के कमरे में गई। कमरा देख कर दंग रह गई। बहुत बड़ा कमरा, लाइब्रेरी की तरह उसमें करीने से किताबें लगी हुई। उसमें चौड़ा निवाड़ का पलंग, दो कुर्सियां और एक मेज रक्खा हुआ था। दादी की लाडली थी, वे मुझे हमेशा अपने साथ रखतीं थीं। ननिहाल में सातवीं कक्षा के बाद अब आई थीं। बड़े मामा को स्वर्ग गये एक साल हुआ था। अब मामी उस कमरे में रहतीं थीं। छोटी सी खिलौने जैसी अंगीठी और चाय बनाने का सामान भी रक्खा था। मुझे अर्जुन के चक्रव्यूह भेदने की कहानी याद आई जो उसने मां के गर्भ में सीखा था। मैं किताबें देखने लगी कि इन दिनों खूब पढ़ूंगी ताकि मेरा होने वाला बच्चा खूब पढ़े। थक गई थी, लेट कर एक किताब पढ़ने लगी। अचानक क्या देखती हूं! मामी ने अंगीठी पर चाय चढ़ा रक्खी है और किसी किताब का एक एक पेज उसमें डालती जा रही है। चाय अच्छे से पीतल की पतीली में खौल रही थी। उसे दो पीतल के गिलासों में छान कर, कांसे की थाली में अलसी की पिन्नी, भूने चने घर के घी में गर्म करके नमक लगा कर दिए। दोनो चाय पी रहे थे। और मैं मन में सोच रही थी कि मामी को किताब जलाने के लिए कैसे मना करुं? इतने में  नीचे से भाभी चाय नाश्ता ले आई। मामी ने उन्हें प्यार से कहा,’’बेटी तूं शाम की चाय मत लाया कर। मेरा जब मन करता है, मैं बना लेती हूं। छोटे बच्चों के साथ दिन भर काम में लगी रहती है। इतना तो मुझे करने दिया कर।’’भाभी के जाने के बाद मामी ने कहा,’’सुबह मैं दूध भी यहीं उबाल कर पी लेती हूं और जब दिल करता है शाम की चाय बना लेती हूं।’’इससे कुछ तो किताबें कम होंगी। मैंने कहा,’’मामी जी आप किताबें मत जलाया करो। किसी लाइब्रेरी को दे दो।’’मेरी बात बीच में काट कर वे बोलीं,’’क्यों दे दूं? पता है तुझे, तेरे मामा ने कितना पैसा इन किताबों पर खर्च किया है!! कोई उनसे बात करो तो हां हूं में जबाब, बस ये किताबें जैसे उनसे बातें करतीं हों। वो तो कबाड़ी से भी किताब खरीद लाते थे। लेई से जोड़ कर उसे पढ़ते।’’ अब समझ आ गया। नाना ने बेटियों को क्यों पढ़ाया! अम्मा का जन्म दोनो मामियों की शादी के बाद हुआ था। बी.एच.यू. में पढ़े मामा और पढ़ने के शौकीन मामा! ख़ैर मैं उस समय इस पोजीशन में नहीं थी कि उन्हें रोकूं। अब मेरी मनपसंद जगह मामा का कमरा थी। बड़े मामा न होते हुए भी उस घर में अपने होने का एहसास दिलाते। पहले आंगन में उनके लगाये दो बढ़िया अमरुद के पेड़। अंदर दूसरे आंगन में कोने में दो कच्चे स्क्वायर छोड़े हुए थे। उनमें  अंगूर की बेले थीं। सर्दियों में आंगन में खूब धूप आती। गर्मियों में अंगूर की बेल फैल कर आंगन में छत बना देती। हरी छत से लटके अंगूर के गुच्छे बहुत अच्छे लगते। जी जान से मुझे प्यार करने वाली दो मामियों और चार भाभियों के होते हुए भी बेटी के जन्म से पहले अम्मा आई। मेरी कोख से बाहर आते ही उसका रोना। और  दाई से ’कुड़ी जम्मी ए’(बेटी पैदा हुई है) सुन कर अपने न रुकने वाले आंसू!! आज जिस बेटी पर गर्व करती हूं, उसके  जन्म पर मेरा दिल क्यों बैठ गया था!!. अम्मा बेटी का नाम उत्कर्षिनी रख कर बोली,’’ अपर्णा, उर्त्किर्षनी मां दुर्गा के ही नाम हैं। क्रमशः

Saturday, 15 February 2020

बिटिया की लोहड़ी!!!! भारतीय दृष्टिकोण और ज्ञान परंपरा भाग 5 नीलम भागी Betiya ke Lohari Bhartiye Drishtikon Aur Gyan ke Parampera part 5 Neelam Bhagi






     दीदी बी.एड. के बाद गर्ल्स इंटरकॉलिज में लेक्चरर बन गई और दादी स्वर्ग सिधार गई। अम्मा अब घर से बाहर बिना घूंघट के सिर पर पल्लू रख कर जाने लगीं। सिर का पल्लू उनका आज 92 साल की उम्र में भी कायम है।आज 92 साल की उम्र में भी अम्मा सिर पर पल्लू रखकर  ही गेट से बाहर खड़ी होती है।

अम्मा की पढ़ाई छूटी थी, शायद इसलिए वो बेटियों को पढ़ाने में जी जान से लगी रहतीं थीं। दीदी की शादी दिल्ली में हो गई और उन्होंने नौकरी छोड़ दी और पी.एच.डी की। दीदी को रिवाज के अनुसार पहली डिलीवरी के लिए मैके बुलाया गया। उनकी बेटी का जन्म हुआ और लोहड़ी का त्यौहार उन्हीं दिनो आया था। लोहड़ी का त्यौहार बेटे के जन्म पर या बहू आने पर मनाया जाता है। वैसे हर बार धूनी जला कर, तिलचौली अग्नि को अर्पित करते हैं। अम्मा ने उसकी पहली लोहड़ी मनाई और उसको अर्पणा कहा। पड़ोसने आईं और उन्होंने दबी जबान से अम्मा से कहा,’’ बहन जी बेटी की लोहड़ी कौन डालता है!!’जवाब में अम्मा ने सबको पार्वती की शंकर जी के लिए तपस्या की कहानी सुना दी कि कैसे उनका नाम अर्पणा पढ़ा! नैना से उत्पन्न हिमालय की ज्येष्ठ पुत्री उमा ने शिव को वर के रुप में प्राप्त करने के लिए दुसाध्य तप किया था। पहले फल शाक पर रहीं, और खुले आकाश में वर्षा आदि ऋतुओं की परवाह नहीं की। फिर पेड़ से गिरे बेलपत्रों को आहार बनाया। विकट कष्ट सहे और पत्तों को भी खाना बंद कर दिया यानि निराहार रहीं।
पुनि परिहरेउ सुखानेउ परना। उमा नाम तब भयउ अपरना।।
उमहि नाम तब भयउ अर्पणा।
 और अर्पणा को गोद में लेकर बोलीं,’’ आर्शीवाद दो। ये ज्ञान के लिए तप करे।’’अर्पणा हार्वड पढ़ने गई तो अम्मा बहुत खुश। वहां ऑनर मिला तो अम्मा ने दादी को याद किया। अर्पणा की बेटी रेया को सिंगापुर में हिंदी पढ़ाने ट्यूटर आती है। हम जाते हैं या वो जब भारत आती है तो अर्पणा ने कह रक्खा है कि सब रेया से हिंदी में बात करेंगें और नानी दादी की सुनी हुई कहानियां ही सुनायेंगे। हम वैसा ही करते हैं। मेरी शादी बी.एड की परीक्षा से पहले हुई। बाद में मैंने कैमिस्ट्री एम.एससी में एडमिशन लिया। बेटे के जन्म से दो दिन पहले तक मैंने क्लास अटैण्ड की, छ घण्टे प्रैक्टिकल किया। पर मेरी एम.एससी पूरी नहीं हुई। बेटी के जन्म से पहले मैं कपूरथला मामा के घर रहने गई। चारो मामा में छोेटे मामा श्री निरंजन दास जोशी ही बचे थे जो विधुर थे। मंदिर वाले मुख्य नाना के घर में बेटे बहुओं के साथ रहते थे। बैंक मैनेजर पद से रिटायर थे और घर के प्राचीन राधा कृष्ण के मंदिर की सेवा में थे। और गऊशाला का काम देखते थे। सामने दूसरे घर में सबसे बड़ी मामी  परिवार के साथ रहती थी। दूसरी मामी थोड़ी दूरी पर पास ही रहती थीं। मेरे मामा तीनो समय खाने से पहले और दूध पीने से पहले पूछते,’’नीलम ने खाना खा लिया।’’भाभी के हां कहने पर वे मुंह में कौर डालतें और दूध पीते थे। इसलिए मैं दिन भर जिस मर्जी मामा परिवार में जाउं, खाना सोना छोटे मामा के घर ही करती थी। अगर मैंने कहीं और खाना खा लिया तो मुझे मामा को रिर्पोटिंग करनी पड़ती थी। नही तो वे खाना नहीं खाते थे। चाय वो पीते नहीं थे इसलिये चाय मैं कहीं भी पी लेती थी। क्रमशः



Friday, 14 February 2020

दबंग दादी !! भारतीय दृष्टिकोण और ज्ञान परंपरा भाग 4 नीलम भागी Dabang Dadi Bhartiye Drishtikon Aur Gyan ke Parampera part 4 Neelam Bhagi




दादी के उपदेश साथ साथ चलते थे, जो रामायण की चौपाई के अनुसार कभी नहीं होते थे। अम्मा बोलीं,’’माता जी कहतीं है कि भगवान राम साधारण इनसान बन कर, हमें रास्ता दिखाने आये थे। जितनी मरजी परेशानी आये, हमें जीवन से हार नहीं माननी है। जब आयोध्या से परिवार उन्हें वन में मिलने आया था तो लक्ष्मण केकई को देख कर भला बुरा कहने लगे। उनका साथ भरत और शत्रुघ्न देने लगे पर श्रीराम ने उन्हे ऐसा करने से रोका क्योंकि वे परिवार में समरसता चाहते थे। निशादराज को गले लगा कर सामाजिक समरसता चाहते थे। शबरी के झूठे बेर खाकर, उन्होंने संसार को ये संदेश दिया कि सब मनुष्य मेरे बनाये हुए हैं, कोई छोटा बड़ा नहीं है। केवट की नाव से पार हुए तो उसे मेहनताना दिया, मतलब किसी की मेहनत का हक न मारो ताकि समाज में समरसता बनी रहे। बालि का वध सामाजिक समरसता के लिये किया और इस पर कहा कि बालि वध न्याय संगत है क्योंकि छोटे भाई की पत्नी पुत्रवधु के सामान होती है। शरणागत विभीषण को भी अपनाया। राजधर्म, मित्रधर्म और प्रतिज्ञा सबके बारे में साधारण बोलचाल की भाषा में महिलाओं को उनकी जरुरत के अनुसार समझाती हैं। रामराज्य की कामना करतीं हैं। मौहल्लेदारी करतीं हैं। बहुएं इनसे अपना दुख बांटती हेैं। जब ये संस्कृत का श्लोक बोल कर वेदो या गीता का हवाला देती हैं तो मैं समझ जाती हूं कि आज ये किसी को लक्ष्य करके अपनी मर्जी की कहानी कहेंगी। जिसका श्लोक से कोई लेना देना नहीं होगा। दादी के श्लोकों का अर्थ उनकी जरुरत के अनुसार होता है। जो सबके हित में होता है। ये साधारण महिला नहीं हैं।’’
   हमारी त़ख्ती पोतना, स्याही बनाना, कलम की नोक बनाना, दादी ने अपने हाथ में ले रक्खा था। अम्मा को आदेश था कि जो भी किताब पढ़नी है, रात को बच्चों के पढ़ते समय पढ़ो और इनका ध्यान रखो कि ये समय र्बबाद न करें। किताब में रख कर कहानियों की किताब न पढ़ें। इसलिए बहू, शादी के समय मैंने तेरी पढ़ाई देखी थी, तेरा काला रंग नजरअंदाज कर दिया था। दादी द्वारा शुरु की गई परिवार में ज्ञान परंपरा के परिणाम दिखने लगे थे। एम.ए. में पढ़ने वाली बड़ी बहन के लिए कोई रिश्ता आता तो दबंग दादी का जवाब होता,’’अभी पढ़ रही है।’’रिश्तेदार अम्मा को समझाते की पिताजी की रिटायरमैंट तक चारों बेटियों की शादी करक,े गंगा नहाओ। पर दादी का तर्क था कि बहु पढ़ती हुई आई थी, मुझे इसे आगे पढ़ाना चाहिए था, तो ये टीचर बनती। दीदी ने बी.एड में प्रवेश लिया साथ ही पालमपुर में कॉलिज में एप्लाई कियां था। पिता जी के साथ जाकर इंटरव्यू दिया था। नौकरी मिल गई पर दादी ने जाने नहीं दिया। उनका तर्क था कि इक्कीस साल की लड़की को अकेले नहीं छोड़ना है। कोई साथ रहेगा तो मेरे बेटे को दो दो घर देखने पड़ेंगे और पोती को बी.एड. पढ़ाई छोड़नी पढ़ेगी। बी.एड. के बाद घर के पास ही नौकरी करेगी। दीदी को डिग्री कॉलिज की नौकरी न ज्वाइन करने का दुख होता था। क्रमशः

Thursday, 13 February 2020

काली दुल्हन!!भारतीय दृष्टिकोण और ज्ञान परंपरा भाग 3 नीलम भागी Kali Dulhan Bhartiye Drishtikon Aur Gyan ke Parampera part 3 Neelam Bhagi


दादी ने लेजियम  चलाने वाली, सांवली बहु अपने गोरे चिट्टे बेटे, पंजाब में कहतें हैं मक्खन और सिंदूर मिली हुई रंगत के मेरे पिता जी के लिए पसंद की। अम्मा हिन्दी रत्न भूषण प्रभाकर करके, साहित्यरत्न की तैयारी कर रहीं थीं। जन्मपत्री और 36 गुण मिलने पर, मेरे नाना ने कहा कि शादी मैं दो साल बाद विमला की पढ़ाई पूरी होने पर ही करुंगा। सगाई कर दी गई। उन दिनों बटवारे की आशंका से अजीब सा माहौल था। बेटी पराया धन है इसलिये उसे हिफाजत से उसके अपने घर पहुंचाना जरुरी है। इसलिये उनकी   शादी जल्दी हो गई। अम्मा की सत्रवें साल में पढ़ाई छूट गई थी। लेकिन पढ़ना आज तक नहीं छूटा। उन दिनों पाकिस्तान बनने का शोर मचा हुआ था। पिताजी लाहोर में पोस्टिड थे। अम्मा होशियार पुर के श्यामचौरासी कस्बे में रहती थी। अम्मा को यहां के बारे में कुछ नहीं पता। कारण था पिता जी  की रंगत की तुलना में सांवली बहू दादी के लिए काली दुल्हन थी| काली होने के कारण अम्मा को दादी  जब तक जिंदा रहीं, घूंघट में ही घर से बाहर ले कर गईं। आगे पिताजी के साथ दादी चलतीं थीं, उनके पीछे घूंघट में अम्मा चलतीं थीं। साथ ही वह एक डॉयलॉग हमेशा बोलती थीं ’लोग कहेंगे इतना सुन्दर मेरा बेटा श्याम सुन्दर, बहु कल्लो। बेटी तेरे मुंह पर तो नहीं लिखा न कि तूं पढ़ी लिखी है।’अम्मा को यह सुनने की आदत हो गई थी। और जहां चार औरतें बैंठी, वहीं दादी अम्मा का गुणगान शुरु करतीं कि ऐसी पढ़़ी लिखी संस्कारी, लम्बे बालों वाली, बड़ी बड़ी आंखों वाली बहू तो किस्मत वालों को मिलती है। दादी कभी कभी महिलाओं में संस्कृत का श्लोक आंखें बंद करके सामवेद की ऋचा की तरह बोलती थीं। फिर उसका अर्थ समझाती थीं। जब मैं संस्कृत समझने लगी, तब मैंने एक दिन अम्मा से कहा कि दादी तो गलत अर्थ बताती है। अम्मा सुन कर मुस्कुराईं और बोलीं,’’मुझे पता है। और कुछ दिन बाद जब यही श्लोक फ़िर सुनायेंगी तो इसका अर्थ दूसरा होगा। तुम्हारी दादी के लिए मेरे मन में बहुत सम्मान है। ये जहां भी रहतीं हैं, महिलाओं को व्यस्त कर देतीं हैं। चरखा कातना, दरी, खेस और नाड़े बुनना सबको सिखा देती हैं। आजादी के बाद तुम्हारे पिताजी का इलाहाबाद तबादला हुआ। श्यामचौरासी के समान ही इनका वहां भी महिलाओं में आदर था। वहां से मेरठ आए, यहां भी ये आदरणीया हैं। माता जी पढ़ना जानती हैं। सिर्फ धार्मिक किताबें ही पढ़ती हैं। तीन ही इनके शस्त्र हैं, संस्कृत, वेद और गीता। दादी की गीता में कर्म  के सिद्धांत का मतलब है। महिलाओें को खाली नहीं बैठना चाहिए और इनके पास  कथा कहानियों का भण्डार है। हर मौके पर इनके पास धार्मिक कहानी है। भारतीय साहित्य में हमेशा सामाजिक समरसता का भाव रहा है। समरसता की प्रतीक रामायण, दादी सुबह नहा कर चौकी पर बैठ कर पढ़ती हैं। आस पास की हम उम्र अनपढ़ महिलाएं सुबह से झांकना शुरु करती हैं कि कब माता जी आसन पर बैंठेंगी। पर वे सुबह मेरे साथ काम में मदद करतीं हैं। जब बच्चे स्कूल चले जाते हैं। तब वे चौंकी पर बैठ कर रामायण पाठ शुरु करतीं हैं। महिलाएं नीचे बैठ कर सुनतीं हैं। क्रमशः

Wednesday, 12 February 2020

बेटी पढ़ाओ ,भारतीय दृष्टिकोण और ज्ञान परंपरा भाग 2 नीलम भागी Bhartiye Drishtikon Aur Gyan ke Parampera part 2 Neelam Bhagi


राज पुरोहित विद्वानों की बैठक में गये। वहां कोई बाहर से पण्डित आया था। सब उसे सुनने आये थे। उसने बताया कि बाल गंगाधर तिलक ने कहा था ’ज्ञान की साधना करना ब्राह्मण का कर्त्तव्य है।’ विद्वानों के सत्संग में राज पुरोहित ने ये सुनकर विचार किया कि क्या मैं ऐसा कर रहा हूं? उनकी अर्न्तात्मा ने जवाब दिया कि नहीं। क्योंकि बेटे पढ़ रहे थे यानि ज्ञान की परंपरा कायम थीं लेकिन बेटी! वह तो अपनी मां की देख रेख में घर के काम में निपुण और कुशल गृहणी बनने की योग्यता प्राप्त कर रही है। उन्होंने ठान लिया कि मैं अपनी बेटी को पढ़ाउंगा। बैठक समाप्त होने पर घर आये। आंगन में बेटी रुक्मणी चारपाई पर अपने हाथ से काते , बुने सूत के सफेद खेस पर बढ़ियां तोडते हुए, संस्कृत के श्लोकों का मधुर सुर में गायन कर रही है। राजपुरोहित चौंकी पर बैठ कर सुनने लगे। बेटी का स्वर थमा तो पिता ने कहा,’’रुक्मणी पीढ़ी लेकर मेरे पास बैठ।’’रुक्मणी काम छोड़ कर, हाथ धो कर पिता के पास बैठ गई। पिता ने पूछा,’’बेटी तुझे संस्कृत किसने सिखाई?’’रुक्मनी नहीं जानती थी कि संस्कृत क्या होती है? वो हैरानी से पिता का मुंह ताकने लगी। पिता ने पूछा,’’ जो तूं अभी पाठ कर रही थी।’’ वो तुझे किसने सिखाया?  उसने डरते हुए कहा कि जो आप भाइयों को याद कराते हो, वो सुन सुन कर मुझे याद हो गये। पिता ने उसी समय उसकी मां से कहा कि खीर बनाओ। सफेद फूल तो वो लेकर ही आये थे। उन्होंने बेटी रुक्मणी का यानि मेरी दादी का विद्यारम्भ संस्कार किया और दादी का अक्षर ज्ञान शुरु हुआ। दादी से बेटियो के लिए ज्ञान की परंपरा मेरे परिवार में शुरु हुई। बेटियों के लिए दूर दूर तक पाठशाला नहीं थी। पिता ने पढ़ना सिखाया। पढ़ना अभी सीखी ही थी कि अध्यापक परिवार से उसके लिए रिश्ता आ गया। पिता ने  ये सोच कर अध्यापक से शादी कर दी थी कि दामाद उसे लिखना सिखा देगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। दादी पुरी जिंदगी पढ़ी हुई महिला रही। पढ़ी लिखी नहीं। यहाँ भी बेटियों के लिए स्कूल नहीं था। लेकिन बिना किसी स्कूल गये, मेरी बुआ भी पढ़ी। क्योंकि बुआ का तख्ती पूजन दादी ने बचपन में ही  कर दिया था। मेरी बुआ को दादी ने हिन्दी सिखाई। किसी ग्रन्थी से गुरुमुखी सिखवाई और दादा से अंग्रेजी, उर्दू घर पर ही सीखी। बिना कोई कक्षा पास मेरी बुआ राजरानी चार भाषाओं को लिखती, और अखबारें पढ़ती थी। इसलिये हम बच्चों को बुआ बहुत पढ़ी लिखी लगती थी। उसने दादी की ज्ञान परंपरा को आगे खिसकाया। दादी ने ठान रक्खा था कि बहू पढ़ी लिखी लेगी। नाई जब पिताजी के लिए रिश्ता लाया तो उसने बताया कि कपूरथला के गणितज्ञ जोशी परिवार की दो बेटियां हैं। पुत्री पाठशाला नाम के स्कूल में पढ़ती हैं वहां की प्रधानाचार्या गुरुकुल की पढ़ी, सुमित्रा बहन जी हैं। वहां लड़कियों को आत्मरक्षा की ट्रेनिंग भी दी जाती है। बड़ी का नाम कमला है वह गोरी है, वो तो दोनों हाथों से लाठी चलाती है। छोटी बिमला है, सांवली है, वो लेजियम चलाती है। क्रमशः

Tuesday, 11 February 2020

भारतीय दृष्टिकोण और ज्ञान परंपरा भाग 1 नीलम भागी Bhartiye Drishtikon Aur Gyan ke Parampera part 1 Neelam Bhagi








  शाम को उत्कर्षिनी की फिल्म सरबजीत का प्रीमियर था। बेटी ने मेरे लिये मूंगा सिल्क की साड़ी खरीदी। इयरिंग के अलावा, मैं कोई जेवर नहीं पहनती, वो डायमण्ड के खरीदे गये। बेटी ने अपने पति से पूछा,’’माँ के चेहरे पर क्या करवाऊँ?’’उन्होंने कहा कि सिर्फ क्लीनिंग, नो पार्लर मेकअप, जैसे रहती हैं, वैसे ही रहने देना। बेटी ने मशहूर ब्यूटीपार्लर में मेरा फेस क्लीनिंग करवाया और मेरी इच्छा के खिलाफ बालों की सेटिंग करवाई। अपनी डेढ़ साल की बेटी गीता को उसकी बेबीसिटर के साथ पहली बार अपनी सहेली के घर छोड़ा क्योंकि सहेली की बेटी उसकी हम उम्र थी। मैंने बहुत समझाया कि मैं गीता के पास रुक जाती हूं। बेटी ने फैसला सुनाया कि आप जरुर जाओगी। अंधेरी मुम्बई का पी. वी. आर प्रीमियर के लिये  बुक था। सितारों और कलाकारों की एक झलक पाने के लिए और उनको अपने मोबाइल कैमरे में कैद  करने के लिए, सड़क के दोनो ओर उनके प्रशंसकों की भीड़़ को पुलिस ने नियंंित्रत कर रक्खा था। र्काड दिखाने पर हमारी गाड़ी गेट तक गई। रेड कार्पेट पर हमारे कदम पड़े। बेटी ने मेरी बांह में अपनी बांह डाली हम धीरे धीरे चलने लगे। दोनो ओर से हम पर कैमरों की लाइटें पड़ रहीं थीं। माइक में बेटी का परिचय बोला जा रहा था,’’इस फिल्म की लेखिका, डायलॉग लेखिका... उत्कर्षिनी वशिष्ठ, लोग ध्यान से उसका परिचय सुन रहे थे। और मैं!.... इसका जन्म याद कर रही थी, मेरी कोख से बाहर आते ही उसका रोना। दाई से ’कुड़ी जम्मी ए’(बेटी पैदा हुई है) सुन कर अपने न रुकने वाले आंसू। इसके जन्म पर मेरा दिल क्यों बैठ गया था!!... बेटी मेरा हाथ पकड़ कर शो देख रही थी। सरबजीत के मरने के सीन से पहले एक दुबली, पतली , सफेद, चुन्नी से सिर ढके महिला, अपनी सीट से उठ कर बेटी के पास आई। उसे गले लगा कर बेआवाज रोती हुई बाहर चली गई। बेटी मेरे कान में बोली,’’माँ, ये सरबजीत की पत्नी थी। सुनकर मैं बोली,’’बेटी ये तेरे लेखन को पुरस्कृत कर गई है।’’ शो के बाद वह सबसे बधाई ले रही थी। उसके लिखे डायलॉग की प्रशंसा हो रही थी और मैं अपने से पूछ रही थी कि मैं बेटी के जन्म पर क्यों रोई थी!!... और चार पीढ़ियों की महिलाओं की ज्ञान परंपरा मेरे दिल में चल रहीं थी।
  सौभाग्य से मैं ऐसी विरासत से सम्बन्धित हूँ, जिनका इतिहास अपने में महिला सशक्तिकरण की मिसाल रहा है। ज्ञान की परम्परा हमें विरासत में मिली है। जिसे हमने आगे बढ़ाया है। उत्त्कर्षिणी जब विदेश पढ़ने गई तो मैं इस भय से बीमार पड़ गई कि मैं इसकी पढ़ाई पूरी करवा पाउंगी! अचानक मुझे याद आया कि मेरे नाना रला राम जोशी सवाल सुनते ही उत्तर बोल देते थे। मैं छुट्टियों में ननिहाल कपूरथला गई। उस समय वो तिरानवे साल के थे ,मैं सातवीं में पढ़ती थी। मैंने पूछा,’’नाना आपने गणित की किताबे लिखी, दिन भर आपको छात्र घेरे रहते हैं। आपको मैथ किसने सिखाया?’’ वे बोले,’’ मेरी अनपढ़ विधवा मां ने, उसे जितना हिसाब आता था, उसने कौढ़ियों से गिनना, जोड़ना, घटाना मुझे सिखाया। मुझ में रुचि पैदा की। ’’अकेली अनपढ़ औरत ने उस जमाने में बेटा गणितज्ञ बनाया। मैं भी तो उनकी वंशज हूं। मेरे अंदर उत्साह आ गया। मुझे तो  संघर्ष की प्रेरणा भी, उनसे विरासत में मिली। क्रमशः
केशव संवाद में प्रकाशित ये रचना, प्रेरणा विमर्श 2020 विमोचन

जात पात ने रानो रामसरन को किस्सा बना दिया नीलम भागी Jaat paat ne Rano Ramsarn ko Kissa Bana diya Bhartiye Sahitya mein Samajik Samrasta Neelam Bhagi

बहुमत मध्य प्रदेश एवम छत्तीसगढ़ से एक साथ प्रकाशित समाचार पत्र में यह लेख प्रकाशित है

"तेरी जात क्या है?" ये प्रश्न सुनते ही दादी को दवा देने आई नर्स ने पहले घूर कर मेरी नब्बे साल की दादी को देखा, फिर न जाने क्या सोच कर, मुस्कुराकर बोली,’’ ऊँची जात की मुसलमानी पर माता जी, मैंने दवा को तो छुआ नहीं है।’’ दादी बोली,’’जिस कागज पर गोलियां हैं, उसे तो छुआ है न। मैं नहीं खाती दवा।’’नर्स भली थी, मुझसे बोली,’’चलो मेरे साथ तुम अपने हाथ से दवा ले लेना।’’ बाहर आकर वही दवा नर्स से लेकर, मैंने माफी मांगते हुए, उसे बताया कि ये बहुत छुआछूत ,जात पात मानती हैं। अब अशक्त हो गईं हैं। पहले जब घर से बाहर जाती थीं तो घर आते ही चाहे जितना भी जाड़ा हो, कपड़े समेत खड़ी, अपने ऊपर पानी की बाल्टी डलवाती थीं। जवाब में नर्स बोली कि इनकी ये आदत तो चिता के साथ ही जायेगी। अब जो भी नर्स आती, वह अपने को ऊँची जात की मुसलमानी, दादी के पूछने पर बताती। दादी पढ़ना जानती थी सिर्फ धार्मिक किताबें ही पढ़ती थी। भारतीय साहित्य में हमेशा सामाजिक समरसता का भाव रहा है। समरसता की प्रतीक रामायण, दादी सुबह नहा कर चौकी पर बैठ कर पढ़ती थी। आस पास की हम उम्र महिलाएं नीचे बैठ कर सुनतीं थीं। दादी के उपदेश साथ साथ चलते कि भगवान राम साधारण इनसान बन कर, हमें रास्ता दिखाने आये थे। जितनी मरजी परेशानी आये हमें जीवन से हार नहीं माननी है। जब आयोध्या से परिवार उन्हें वन में मिलने आया था तो लक्ष्मण केकई को देख कर भला बुरा कहने लगे उनका साथ भरत और शत्रुघ्न देने लगे पर श्रीराम ने उन्हे ऐसा करने से रोका क्योंकि वे परिवार में समरसता चाहते थे। निशादराज को गले लगा कर सामाजिक समरसता चाहते थे। शबरी के झूठे बेर खाकर उन्होंने संसार को ये संदेश दिया कि सब मनुष्य मेरे बनाये हुए हैं, कोई छोटा बड़ा नहीं है। केवट की नाव से पार हुए तो उसे मेहनताना दिया, मतलब किसी की मेहनत का हक न मारो ताकि समाज में समरसता बनी रहे। बालि का वध सामाजिक समरसता के लिये किया और इस पर कहा कि बालि वध न्याय संगत है क्योंकि छोटे भाई की पत्नी पुत्रवधु के सामान होती है। शरणागत विभीषण को भी अपनाया। राजधर्म, मित्रधर्म और प्रतिज्ञा सबके बारे में साधारण बोलचाल की भाषा में समझाती थीं। रामराज्य की कामना करतीं थीं। पर छुआछूत और जातिप्रथा की बुरी तरह से पक्षधर थीं। उनकी कथा सुनने वालियां इसे उनकी योग्यता मानते हुए प्रचार करतीं थीं कि माता जी राजपुरोहित की बेटी हैं न। छोटी जात वालों को नहीं छूती और छोटी जात वालियां उनसे दूर रह कर कथा सुनती पर उनसे र्तक नहीं करतीं थीं। जबकि वाल्मिकी रामायण में भी भेदभाव को महत्व न देकर सामाजिक समरसता को महत्व दिया गया है। भारतीय साहित्य में वासुधैव कुटुम्बकम से सामाजिक समरसता की बातें स्पष्ट होतीं हैं। जिसमें बंधुता का भाव स्पष्ट है। बंधुता आने से समता आयेगी और समता से समरसता आयेगी। साहित्य परंपरागत मूल्यों की पुर्नव्याख्या करता है और आधुनिक विमर्शों को स्वीकार करता है। नवीनता को स्वीकारना, आत्मसात करना हमारे समाज के हित में है। समाज में फैली व्याप्त कमियां, जिन्हें दूर करने का प्रयास किया गया है। वह आज भी कहीं न कहीं विद्यमान है।   
 पिताजी के असमय देहान्त पर एक जज साहब सपत्नी अम्मा के पास दुख प्रकट करने आये थे। एक एक करके उन्होंने हम सब बहन भाइयों की शिक्षा के बारे में पूछा। पिता जी की खूब तारीफ़ की और कह गये कि उनके लायक कोई सेवा हो तो बतायें। तेहरवीं तक परिवार, को  बैठना होता है। पड़ोसी मित्र भी आते हैं दुख बांटते हैं। हर वक्त तो रोया नहीं जाता। उसमें किस्से कहानियां भी सुनाये जाते हैं। जज रामचरण के जाते ही उसकी कहानी शुरू हो गई। ये पिताजी के डिर्पाटमेंट में लोअर डिवीजन र्क्लक भर्ती हुआ थे। हमारे पास के मौहल्ले में रहता थे। वहीं चार घर छोड़ कर एक पंजाबी रफ्यूजी परिवार भी रहता था और उनकी जाति वही थी, जो देश के एक नामी उद्योगपति घराने की थी। पर ये बेचारे बहुत मामूली दुकानदार थे। उनकी अर्पूव सुन्दरी बेटी रानो थी। रानो और रामचरण में प्यार हो गया। दोनो घर से भाग गये। लेकिन स्टेशन पर ही पकड़े गये। सबने कहा कि रानों की अब इससे शादी कर दो। रानो के बाप ने कहा,’’ इस दलित से शादी!! कभी नही, पाकिस्तान में ये हमारी हवेली में घुस नहीं सकते थे और मैं इसे बेटी दूंगा! न न हर्गिज़ नहीं।’’ उन दिनों टी. वी. तो होता नहीं था, रेडियो पर ही नाटक, कहानी सुनते थे। अब रानो और रामचरण के प्रेम की सत्यकथा को सुनाने में सब बहुत बड़े किस्सागो हो गये। इस किस्से को बार बार कहना सुनना, उन दिनों का सबसे बड़ा मनोरंजन था। रामचरण को इस अपमान से बहुत चोट पहुंची। पिताजी उसको समझाते और आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते क्योंकि वह बहुत अच्छा लड़का था। जातिगत आरक्षण से वह समयानुसार अधिकारी तो बन ही जाता पर उसे भी न जाने कैसी लगन लगी थी। 10 से 5 ऑफिस फिर शाम को लॉ में एडमिशन लिया और बाकि समय पढ़ना। पड़ोसियों को उसकी शक्ल भी न दिखती थी। बिरादरी ने रानो की शादी सजातीय युवक से करवा दी। वो युवक अपनी शादी की खुशी में इतनी शराब पी कर आया था कि जयमाला के समय उससे खड़ा भी नहीं हुआ जा रहा था। रामचरण जज बन गया था। रानो की शादी के बाद, उसने शादी के लिये वैवाहिक विज्ञापन दिया और अपने स्टेटस के साथ लिखा हिन्दू ,जातिबंधन नहीं। बेटी वालों ने जात, गोत्र, जन्मपत्री सब छोड़ कर बस रामचरण के पद को देखते हुए रिश्ते की बात चलाई। रामचरण ने रानों की जाति की लड़की से शादी की। अब हमारे सामने पाँचवा वर्ण आ गया, जिसे अभिजात वर्ण या धनिक वर्ण कहा जा सकता है। जिसे समय ने बनाया है और इस वर्ग में स्टेटस देखा जाता है। मुझे दादी याद आने लगी। जो कहती थी वेदों में जाति के आधार पर वर्ण व्यवस्था है। जबकि वेदों में र्कम के आधार पर वर्ण व्यवस्था थी जिसमें समय के साथ कुरीतियां और विकृतियां आ गईं। कुप्रथाओं में जातिगत भेदभाव, छुआछूत आदि की प्रवृति बढ़ती गई। जो आगे जाकर उच्च वर्ग और निम्नवर्ग में भेदभाव शुरू हो गया। उच्च वर्ग तो निम्न वर्ग को हेय दृष्टि से देखता है। रामचरण के इलीट वर्ग में आते ही, वह सम्पन्न और अपने से दो पायदान ऊंचे वर्ण का दामाद बन गया। और कर्म के आधार पर पांचवा वर्ण बन गया। जाति भेद के दोष से ही समरसता का अभाव उत्पन्न होता है। देश के विकास के लिए सामाजिक समरसता की जरूरत होती है। हमारा देश विविधताओं का देश है। भाषा, खानपान, देवी देवता, पंथ संप्रदाय न जाने क्या क्या है? और तो और जाति व्यवस्था में भी विविधता है पर हम एक हैं। पंजाब में अपनी भानजी तिवारी परिवार की बेटी की शादी मंे गई। लेकिन पंजाबी परिवार की कन्या को हरे कांच की चूड़ियां पहनाई गईं थी। ये देखते ही मैं समझ गई कि जीजा जी के र्पूवज उत्तर भारतीय हैं पर अब तो पंजाबी ब्राहमण हैं। सप्तपदी के बाद भानजी की सास ने तुरंत उसे चूड़ा पहनाया ताकि वह पंजाबी दुल्हन लगे। चूड़ा लाल रंग का लड़की का मामा लाता है। चूड़े का लॉजिक ये है कि पहले छोटी उम्र में लड़कियों की शादी होती थी। नये घर के तौर तरीके समझने में समय लगता है इसलिये जब तक चूड़ा बहू की बांह में है, उससे काम नहीं करवाया जाता था। अगर चूड़े का रंग उतर गया तो उस परिवार की बातें बनाई जातीं थीं कि बहू को आते ही चूल्हे चौंके में झोंक दिया। सवा महीना या सवा साल बाद बहू मीठा बना कर चूड़ा उतारती थी और सास गृहस्थी के काम बहू को हस्तांतरित कर देती थी। भानजी की चूड़े वाली बांह देखते ही उसकी सास ने कहा कि जो भी घर में मुंह दिखाई के लिये आयेगा, उसे बताना नहीं पड़ेगा कि यह बहू है। उसकी दादी बोली अब तुम्हारी बहू है जो मरज़ी पहनाओ। दूसरी भानजी की शादी पर उसकी होने वाली सास ने कहा कि जयमाला ये चूड़ेवाली बाहों से डालेगी। दादी ने क्लेश कर दिया कि हमारे यहाँ तो बेटी को हरे काँच की चूड़ियों में विदा करते हैं। समधन ने जवाब दिया कि हमारी होने वाली बहू तो चूड़ा पहनकर ही जयमाला पहनाती है। बेटी की शादी बहुत धनवान परिवार में हो रही थी। सब दादी को समझा रहे थे वो तर्क दे रही कि कन्यादान यज्ञ होता है। पूर्वजों के नियम तोड़ने पर अनिष्ट का डर था। समझदार पंडित जी ने ऐसे मौके पर कहा कि शास्त्रों में विधान है कि नया रिवाज कुटुम्ब के साथ करो तो अनिष्ट नहीं होता। तुरंत कई जोड़े चूड़े के मंगाये गये।  पंडित जी के मंत्रों के साथ, बाल बच्चे वाली बहुओं ने पहने। दादी बोलीं कि अब हमारे घर में बहु चूड़ा पहन कर आयेगी और बेटी चूड़ा पहन कर विदा होगी। वहाँ पता नहीं कोई वेदपाठी था या नहीं , पर पण्डित जी ने वेदों के नाम पर सब में समरसता पैदा कर दी। जब बॉलीवुड में दुल्हन को चूड़े में दिखाया तो अब चूड़ा फैशन में आ गया। किसी भी पंथ, संप्रदाय, समाज सुधारकों और संतों ने मनुष्यों के बीच भेदभाव का सर्मथन नहीं किया। इसलिये र्धमगुरूओं के अनुयायी सभी जातियों के होते हैं। वे कभी अपने गुरू की जाति नहीं जानना चाहते, वेे गुरूमुख, गुरूबहन, गुरूभाई होते हैं। बापू ने अपने लेखन और र्कम में जाति, र्धम, लिंग, वर्ग और श्रम जैसे विषयों पर बेबाक टिप्पणियां लिखीं। उन्होंने विचारों से और कार्यों द्वारा सामाजिक समरसता के लिये प्रयास किया। वे र्धमशास्त्रीय आधारों पर भी छुआछूत और जाति व्यवस्था को अस्वीकार करते हैं। दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद 25 मई 1915 में बापू ने कोचरब में जीवन लाल के बंगले में सत्याग्रह आश्रम खोला था। सामाजिक समरसता लाने के लिये आर्थिक, राजनीतिक क्रान्ति की जो प्रयोगशाला उनके मस्तिष्क में थी वो वहाँ पर उस बंगले में सम्भव नहीं था। खेती बाड़ी, पशु पालन का प्रयोग भी मुश्किल था। बापू को तो समानता के सिद्धांत पर महान प्रयोग करना था जो साबरमती में सम्भव  था। चालीस लोगों के साथ सामुदायिक जीवन को विकसित करने के लिये बापू ने 1917 में यह प्रयोगशाला शुरू की यानि साबरमती आश्रम। यहाँ के प्रयोग विभिन्न धर्मावलंबियों में एकता स्थापित करना, चरखा, खादी ग्रामोद्योग द्वारा जनता की आर्थिक स्थिति सुधारना और श्रमशील समाज को सम्मान देना था। पेंटिंग गैलरी में आठ अनोखी पेंटिंग हैं। एक पर लिखा था ’’मैंने जात नहीं पानी मांगा था।’’यहाँ रहने वाले सभी जाति के देशवासी बिना छूआछूत के रहते थे। छूआछूत को सफाई पेशा से जोड़ कर देखा जाता है। महात्मा गांधी इस अति आवश्यक कार्य को निम्न समझे जाने वाले काम कोे और इसे करने वाले समाज को सम्मान प्रदान करते हैैं। इस सम्मान का उद्देश्य श्रमशील समाज का सम्मान है। वे सभी को सफाई कार्य में अनिवार्य रूप से भागीदार बनाकर श्रमशील समाज के प्रति संवेदनशील बनाना चाहते हैं।  नागपुर के हरिजनों ने बापू के विरूद्ध सत्याग्रह किया। उनका तर्क था कि मंत्रीमंडल में एक भी हरिजन मंत्री नहीं है। साबरमती आश्रम वह प्रतिदिन पाँच के जत्थे में आते, चौबीस घंटे बापू की कुटिया के सामने बैठ कर उपवास करते, बापू उनका सत्कार करते थे। उन्होंने बैठने के लिये बा का कमरा चुना, बा ने निसंकोच दे दिया, उनके पानी आदि का भी प्रबंध करतीं क्योंकि वह पूरी तरह बापूमय हो गईं थीं। किसी भी कुरीति को जड़ से खत्म करना बहुत मुश्किल है। लेकिन असंभव नहीं है। बापू समाज में समरसता लाने के लिये शारीरिक और मानसिक श्रम के बीच की खाई को समाप्त करने की बात कहते रहे। इसके लिये साबरमती में, उद्योग भवन को उद्योग मंदिर कहना उचित है! जाने पर, देखने और मनन करने पर पता चलेगा। वहाँ जाकर एक अलग भाव पैदा होता है। यहीं से चरखे द्वारा सूत कात कर खादी वस्त्र बनाने की शुरूआत की गई। देश के कोने कोने से आने वाले बापू के अनुयायी यहाँ से खादी के वस्त्र बनाने का प्रशिक्षण प्राप्त करते थे। तरह तरह के चरखे, धागा लपेटने की मशीने, रंगीन धागे, कपड़ा आदि मैं वहाँ देख रही थी। कताई बुनाई के साथ साथ चरखे के भागों का निर्माण कार्य भी यहाँ होने लगा। इससे महिलाओं में भी आत्मनिर्भता की शुरूवात हो गई। इस तरह के लघु उद्योग गांवों में किए जा सकते हैं जिससे नगरों की बढ़वार रूके। ये भी देश की समरसता में योगदान है।       

Monday, 10 February 2020

भारतीय वांग्मय में कुम्भ नीलम भागी Bhartiye Vangmaye Mein Kumbh Neelam Bhagi


                                                 
                                                   
 टी. वी. डिबेट में राम मंदिर निर्माण मुद्दे पर कई चैनल में गई। डिबेट में जो हमारे धर्मगुरू आते थे।  उनसे एक बात हमें सुनने को मिलती थी कि कुम्भ में हम इस पर विचार विमर्श करेंगे, इस पर कुम्भ में चर्चा होगी, देखो हमारे मनीषी क्या र्निणय निकालते हैं। ये सुन कर विश्वास और दृढ़ होता है कि साधू सम्मेलन ही कुम्भ मेला की जीवन शक्ति है। कुम्भ मेला कब से शुरू हुआ ? इतिहासकारों के अपने अपने विचार हैं। प्रसिद्ध प्राचीन या़त्री चीन के हव्ेन सांग पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने कुंभ मेले का उल्लेख अपनी डायरी में किया है। हिन्दु महीने माघ(जनवरी फरवरी) के 75 दिनों के उत्सव का उल्लेख किया है। जिसमें उसने लाखों साधुओं, आम आदमी, अमीर और राजाओं को देखा है। भागवत पुराण के सागर मंथन कथा के अनुसार असुर और देवताओं ने मिलकर समुद्र मंथन किया था। उनमें समझौता हुआ कि रत्नाकर से जो भी रत्न निकलेगें, उसे वे दोनों आधा आधा बांट लेंगे। भगवान विष्णु कछुए का रूप धर सागर तल में फैल गये। मंदराचल पर्वत मथनी बना और वासुकी नाग ने अपने आप को रस्सी के लिये प्रस्तुत कर, मंदराचल पर लिपट गया। देवताओं ने नाग को पुंछ की ओर से पकड़ा और दानवों ने मुंह की ओर से और कच्छप की पीठ पर सबके प्रयास से मथनी चलने लगी। सबसे पहले सागर मंथन से विष निकला। जिसके प्रभाव से सब  जलने से लगे। तब देवाधिदेव शिव जी ने उस हलाहल को अपने गले में उतार लिया और नीलकंठ कहलाये। उसके बाद अमृत निकला। जो भी उसको पीता, वह अमरत्व को प्राप्त होता और असुर तो बुराई के प्रतीक हैैं। अब अमृत कलश को पाने की होड़ लग गई। देवताओं के इशारे से इन्द्र पुत्र जयंत अमृत कलश लेकर आकाश में उड़़ गया। दैत्यों ने जयंत का पीछा किया। छिना झपटी में अमृत कुम्भ से कुछ बूंदे अमृत की गंगा जी प्रयागराज(उ.प्र.) , गंगा जी हरिद्वार(उत्तराखण्ड), उज्जैन शिप्रा(मध्य प्रदेश) और गोदावरी नासिक(महाराष्ट्र) में गिरीं। इस युद्ध में बारह दिन लगे। देवताओं के बारह दिन मनुष्यों के 12 साल के बराबर होते हैं। कलह शांत करने के लिये भगवान विष्णु ने मोहिनी का रूप धारण कर लिया। असुर उन पर मोहित हो गये। मोहिनी ने यथाधिकार सबको अमृत बांट कर पिला दिया। इस प्रकार देव दानव युद्ध का अंत किया।  अतः कुम्भ इन चारों स्थानों पर बारह साल बाद होतो हैं। प्रयागराज में विशेष दिन मकर संक्रांित, पौष पूर्णिमा, एकादशी, मौनी अमावस्या, वसंत पंचमी, रथ सप्तमी, माघी पूर्णिमा, भीष्म एकादशी, महाशिवरात्रि विशेष है। इस पर विशेष स्थान होता है। विभिन्न पुराणों और प्राचीन मौखिक परम्पराओं पर आधारित पाठों में चार स्थानों पर अमृत गिरने का उल्लेख है। कुम्भ के लिये नियम निर्धारित हैं। उसके अनुसार प्रयाग में कुम्भ तब लगता है जब माघ अमावस्या के दिन सूर्य ओर चंद्रमा मकर राशि में होते हैं और गुरू मेष राशि में होता है। इस कारण अगला कुंभ 2025 में होगा। कुंभ योग के विषय में विष्णु पुराण में उल्लेख मिलता है। विष्णु पुराण में बताया गया है कि जब गुरू कुंभ राशि में होता है और सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता है। तब हरिद्वार में कुंभ लगता है। अगला महाकुंभ मेला हरिद्वार में 2022 में लगेगा। सूर्य और गुरू जब दोनों ही सिंह राशि में होते हैं। तो नासिक में गोदावरी तट पर कुम्भ मेला लगता है। यहां 2015 को लगा था। गुरू जब कुम्भ राशि में प्रवेश करता है तब उज्जैन में शिप्रा तट पर कुम्भ मेला लगता है। 2016 में यहां लगा था। कुम्भ के आयोजन में नवग्रह में से सूर्य, चंद्र, गुरू और शनि की भूमिका महत्वपूर्ण मानी जाती है। इन ग्रहों की विशेष स्थिति में कुंम्भ का आयोजन होता है। चंद्र ने अमृत को बहने से बचाया। गुरू ने छिपा कर रखा, सूर्य ने फूटने से बचाया और शनि ने इन्द्र के कोप से बचाया। प्रयाग में 144 साल बाद महाकुंभ लगता है। समुद्र मंथन का अमृत यदि कुछ बुूंदे ही होता तो इन नदियों के अनवरत बहते प्रवाह में कब का बह चुका होता पर इस अमृत में ही कुम्भ के आयोजन का रहस्य छिपा है। आदि शंकराचार्य ने तपस्वियों सन्यासियों को कुम्भ पर ज्ञान यज्ञ के लिये एकत्रित होने की परंपरा शुरू की।   
 महाभारत, भागवत , पुराण आदि से ज्ञात होता है कि अनादिकाल से भारत में ऐसे सम्मेलन  होते आएं हैं। नैमिषासण्य, कुरूक्षेत्र, प्रभासादि पुण्य क्षेत्रों में असंख्य ऋषि मुनि, साधू सन्यासी, महात्मा शास्त्राथर््ा करते रहें हैं। देश तथा समाज की स्थिति, रीति प्रकृति पर विचार विर्मश करते रहें हैं। कुंभ योग पर चारों दिशाओं से महापुरूष यहां हाते हैं। 1780 ब्रिटिशों द्वारा मठवासी समूहों के शाही स्नान के लिये व्यवस्था की स्थापना तभी तो की गई होगी। आज यहां चारों आचार्यों, रामानुज, मध्व, निर्म्बाण और वल्लभ संप्रदाय से जुड़े सन्यासी और अखाड़े भी वहां एकत्रित होते हैं। आज भारत मे मान्यता प्राप्त अखाड़ों की संख्या 13 हो गई है। हर अखाड़े का अपना इतिहास है। पहले इन्हें साधू संयासियों का जत्था कहा जाता था। मुगलकाल में इन्हें अखाड़ा नाम दिया गया। यह शैव, वैष्णव एवं उदासीन पन्त के सन्यासियों के अखाड़े हैं। जोे शास्त्र विद्या में भी महारती होते हैं। सन्यासी तप साधना र्माग से आगे बढ़े हैं। उनका शास्त्रज्ञ होना आवश्यक नहीं है। शास्त्रज्ञ की भूमिका में अखाड़े के आचार्य होते हैं। आचार्य नये सन्यासियों को दीक्षा देते हैैं। महन्त और आचार्य पद सामान महत्व के पद हैं।  अखाड़े तप साधना में लीन सन्यासियों का संगठन होता है। इनके शीर्ष पर महन्त विराजमान होते हैं। हर अखाड़ा शास्त्रज्ञ सन्यासियों को अपने महामंडलेश्वर के पद पर अभिषिक्त करता हेै। प्रचार प्रसार के इस युग में  महामंडलेश्वर का पद वैभवपूर्ण हो गया है। कुम्भ में नये सन्यासियों को दीक्षा दी जाती है। स्नान के साथ यहाँ ज्ञान यज्ञ भी होता है। देश दुनिया के लोग कुम्भ स्नान के साथ साधू महात्माओं के दर्शन की लालसा लेकर आते हैं। देश की जनसंख्या के लगभग एक प्रतिशत सन्यासी है। इनका  आध्यात्मिक जीवन ही नहीं इनका आर्थिक दृृष्टि से भी बहुत महत्व है। ये आदरणीय लोग स्वेच्छा से न्यूनतम भौतिक साधनों पर जीवन निर्वाह करते हुए पूरे समाज के सामने सादगी और त्याग का आदर्श रख रहें है। दूर दूर से करोडों की संख्या में देशवासी, विभिन्न संस्कृतियों भाषा के साधू संतों को देख कर हेैरान रह जाते हैं और इनके चरण छूकर आर्शीवाद लेना अपना सौभाग्य समझते हैं। इस अवसर पर प्राचीन काल से कौन अखाड़ा पहले स्नान करेगा इसका विधान है। लेकिन शाही स्नान की परम्परा 14वीं से 15वीं शताब्दी के बीच शुरू हुई। तब देश में मुगलों के आक्रमण की शुरूआत थी। र्धम और संस्कुति की रक्षा के लिए हिन्दु शासकों ने साधुओं विशेषकर नागाओं से मदद मांगी थी। सन्यासियों के लिए वैभव का कोई अर्थ नहीं है फिर भी उनको दिए गये उपहारों का साधू सन्यासी ख़ास अवसरों पर उपयोग करते हैं। कुम्भ में बड़ी सज्जा के साथ उनकी सवारियां निकलती हैं। सोने चांदी की पालकी, रथों हाथीं घोड़ों पर चढ़ कर, नगाड़े, बड़े बड़े डमरूओं को बजाते, साधू सन्यासियों की शाही सवारी निकलती है।  पहला शाही स्नान नागा साधुओं द्वारा किया जाता है। उनके बाद अन्य अखाड़ो का, उनके स्नान का अद्भुत दृश्य होता है। स्नान के लिये उत्साहित साधू बच्चों की तरह बाजू फैला कर  पवित्र नदी में प्रवेश करते हैं। जल में खेल करते हैं। इस अद्भुत द्श्य को देखना लोग अपने जीवन में सौभाग्य समझते हैं। नदी का जल ठहर गया लगता है। सूर्य नारायण का रथ भी ठहर गया लगता है। मेरे मित्र का परिवार हैदराबाद से प्रयागराज का 2012 में लगा महा कुंभ में शाही स्नान का नजा़रा देखने और स्नान के लिये 36 घण्टे का सफ़र करके प्रयागराज पहुंचा। स्टेशन पर उतरते ही सबसे पहले बुक किये गये होटल के कमरे में सामान रक्खा और ऑटो करके घाट पहुंचे। मैंने उनसे शाही स्नान के बारे में पूछा तो जवाब मुझे हैदराबादी शैली में मिला ,’’ शाही स्नान देखा जी और स्नान किया भी। उस दिन चालीस लाख लोगां ने स्नान किया। घाट पर कोई लफड़ेबाजी नहीं हुआ जी। सब कुछ इंतजाम, एकदम मस्त। कुम्भ स्नान करके एनर्जी लेवल बढ़ जाता जी, अजीब सा वाइब्रेशन होता, ख़्याल अच्छा आता जी। तब लौट कर होटल में दो घण्टे सोया। फिर दिन भर अखाड़ा घूमा और प्रयागराज घूमा जी। रात का गाड़ी पकड़ कर 36 घण्टे का सफर कर वापिस हैदराबाद पहुंचा जी। अब शाही स्नान का देखना बोत अच्छा लगता, नासिक कुम्भ गोदावरी का भी देखा। यहां आठ घण्टा सफ़र किया और पहुंचा। 2016 में उज्जैन कुंभ में 24 घण्टे का सफर करके गया। वहां तो तीन दिन रहे भी। शाही स्नान के  अद्भुत दृश्य को आँखों में भर कर लोग जीवन को धन्य मानते हैं। उनके चरणों की धूल लेने के लिए भीड़ आतुर रहती है। प्रयाग में तो बडी संख्या में लोग संगम तट पर कल्पवास करते है। साधू महात्माओं के दर्शन की लालसा लेकर आते हैं। अपना समय स्नान, पूजा, साधूओं के दर्शन, उनके प्रवचन सुननंे, सायंकाल आरती दीपदान में बिताते है। इस बार तो पिछले कुंभ स्नानों के रिर्काड टूट गये हैं। हिन्दू विचारधारा सदैव से सर्वे भवन्तु सुखिना एवं विश्व शांति में विश्वास रखती है। ये तो चिंतनपर्व है। यहाँ वैचारिक चिंतन होते हैं। श्रमनिष्ठा, सद संकल्प का महापर्व है। जहाँ प्रकृति, समाज और विकास पर चर्चा होती है। समय के साथ बदलाव को भी स्वीकार किया जाता है। प्रसिद्ध समाज सेवी , आध्यात्मिक गुरू अजय दास ने किन्नरों को अपने आश्रम में स्थान देकर किन्नर अखाड़ा बनाया। इनके माता पिता को इन्हें अपना कहने और इनका पालन पोषण करने में र्शम आती थी। ऋषिवर ने किन्नर अखाड़े के दस पीठ बनाये। हर पीठ का एक किन्नर ही मण्डलेश्वर होता है। देश के लगभग 500 किन्नरों ने सिंहस्थ कुम्भ उज्जैन में शिप्रा नदी के गंदर्भ घाट पर नाचते गाते ढोल मजीरों के साथ शाही स्नान के लिये यात्रा निकाली। किन्नर ई रिक्शा पर सवार थे। इसे उन्होंने देवत्व यात्रा का नाम दिया। इस यात्रा को देखने के लिये जन समूह उमड़ पड़ा। साधू संतों के समान इनका भी लोगों ने फूल मालाओं से स्वागत किया। वे इनके चरण छू रहे थे और किन्नर उन्हें दिल से आशीष दे रहे थे। अखाड़ों में नाराज़गी थी लेकिन विरोध भी नहीं किया गया। लेकिन अखाड़ा परिषद ने इन्हें अखाड़े के तौर पर मान्यता देने से इन्कार कर दिया। अखाड़ा परिषद के इन्कार से मेला परिषद ने भी इनको फंड देने से इन्कार कर दिया। आगे आये लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी भारत नाट्यम में एम. ए. और सामाजिक कार्यकता एवं गुरू अजयदास। आखिर इनके अखाड़े को 13 अखाड़ों के साथ खड़ा कर दिया गया।
   प्रयागराज में अर्द्ध कुम्भ के अवसर पर सुर्ख जोड़े में किन्नर अखाड़े के आचार्य महामण्डलेश्वर लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी सबसे आगे ऊँट पर हाथ में तलवार लिए किन्नर समाज का नेतृत्व कर रहे थे। उनके पीछे देश के कोने कोने और विदेशों से आए किन्नर, अखाड़े के पदाधिकारी, महन्त, पीठाधीश आदि रथ पर सवार होकर चल रहे थे। पीछे चल रहा था अपार जनसमूह। ठाठ बाट से रथों पर सवार होकर देवत्व यात्रा निकाली गई। इनकी पेशवाई अलोपी बाग़ में शंकराचार्य आश्रम में पूजा करने के बाद आगे बढ़ी। किन्नर अखाड़ों की शोभा अनोखी थी। अधिकतर का लिबास सुर्ख था। वह नृत्य कर रहे थे। कुछ वाद्य यंत्रों के साथ बड़े बड़े डमरू बजा रहे थे।े किन्नर महाकाल के उपासक हैं। शंखनाद के साथ किन्नर सन्यासी माँ भागीरथी के संगम में उतरा। मानों किन्नरों की आत्मा परमात्मा से मिलने को आतुर हो। सदियों से परिवार और समाज से ठुकरायों को अपने धर्म में स्थान मिला। रामचरित मानस के रचियता गोंसाई जी ने वर्षों र्पूव किन्नरों को भी देवता दनुज मनुष्य की श्रेणी में सबके समान मान का महत्व दिया था
’’देव दनुज किन्नर नर श्रेणी, सादर मज्जहिं सकल त्रिवेणी’’अब कई अखाडे़ उन्हें अपने साथ मिलाना चाहते हैं। तीर्थयात्रियों की नजरें उन पर थीं। गंगा में डुबकी लगाने के बाद सूर्यनारायण को जलांजली दी। कुम्भ के इतिहास में इस र्स्वणिम क्षण को कभी नहीं भुलाया जा सकेगा। कुंभ के अवसर पर साधू सन्यासियों ने घोषणा की है कि वह देहदान की नई परम्परा की शुरूवात करेंगे। उनकी देह मैडिकल के छात्रों की पढ़ाई में सहायक होगी। वे तो सन्यास लेने से पहले ही पिंडदान कर चुके हैं। प्रयागराज में आयोजित कुम्भ को यूनेस्को ने विश्व की सांस्कृतिक धरोहर में स्थान दिया है।     
             

साहित्य एवं लोकजीवन में हिमालय नीलम भागी Sahitya avm Lokjeevan mein Himalaya Neelam Bhagi



हिमालय भारतीय उपमहाद्वीप को मध्य एशिया और तिब्बत से अलग करता है। ये पश्चिम से र्पूव की ओर 2400 किमी. की लम्बाई में पाँच देशों की सीमाओं में फैला है ये देश हैं भारत, पाकिस्तान, नेपाल, भूटान और चीन हैं। हिमालय ने दक्षिणी एशिया की संस्कृ्ति को गहराई से रचा है। हिमालय के कई क्षेत्रवासी हिन्दुत्व और बौद्ध धर्म को मानते हैं। प्राकृतिक, आर्थिक, पर्यावरणीय कारकों की वजह से ये महत्वपूर्ण हैं। ध्रुवीय क्षेत्रों के बाद हिमालय सबसे बड़ा हिमाच्छादित हैं। जो विश्व जलवायु को प्रभावित करता है। वन संसाधन , लकड़ी है तो हिमनद के कारण सदानीरा नदियां यहाँ से निकलती हैं और इन नदियों के बीच के पहाड़ी क्षेत्रों और मैदानों में बसे लोगों के जनजीवन को हिमालय प्रभावित करता हैं। जब लोकजीवन में हिमालय है तो साहित्य में भी इसका प्रतिबिंब दिखेगा क्योंकि साहित्य समाज का दर्पण है। इस क्षेत्र में कैलाश मानसरोवर और अमरनाथ की यात्रा पर जो नहीं जा सकते और इन क्षेत्रों के पर्यटन स्थल पर भी नहीं जा सकते हैं, वे साहित्यकारों के यात्रा वृतांत्र पढ़ते हुए़ यात्रा का आनन्द उठा लेते हैं।
 सिंधु नदी से सतलुज नदी के बीच का भाग, 560 किमी. लम्बी हिमालय श्रृंखला कश्मीर हिमालय कहलाता है। सिंधु नदी की पाँच प्रमुख सहयोगी नदियां(झेलम, चेनाब, रावी, व्यास तथा सतलुज) का उदगम हिमालय से ही होता हेै। डलहौजी यहाँ का प्रसिद्ध हिल स्टेशन है। श्रीनगर गर्मियों की राजधानी है। प्राकृतिक सिंचाई के साधनों के कारण यह शहर बागों के लिये मशहूर है। शालीमार और निशात बाग, डल झील और उसमें तैरते हाउसबोट, चिनार के पेड़ पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। पर्यटकों के आने से यहाँ  लोगों को रोज़गार मिलता है। भेड़ों को पालने के लिए यहाँ का तापमान उपयुक्त है। भेड़ों के कारण ऊन मिलती है उससे र्गम कपड़े और शाल बनते हैं। उस पर कश्मीरी कढ़ाई के कारण, कश्मीरी शाल सबकी पसंद हैं। कालीन उद्योग है तो साथ ही विश्वप्रसिद्ध लाल चौक भी है।  लद्दाख में मोमोज़ हैं़ तो लेह सबसे ऊँचा नगर और भारत के सबसे ठंडे शहरों में एक है। यहाँ बड़ी संख्या में बौद्ध मठ हैं, जहां बौद्ध भिक्षु रहते हैं। कारगिल भी बौद्ध मठ और प्राकृतिक सुन्दरता और ट्रैकिंग के कारण सैलानियों को आकर्षित करता है और देशवासी अब वार मैमोरियल को देखने के लिये जाते हैं। जम्मू शीतकालीन राजधानी है, जो मंदिरों और विश्व प्रसिद्ध तीर्थस्थल वैष्णों देवी के दर्शन के अलावा, बहुर्फोट, अमर महल, डोगरा राजवंश के महल और संग्राहलय देखने लायक हैं। गुलर्मग खूबसूरत हिल स्टेशन है। बारामूला में फूल और दिलकश नजारे, दूर दूर तक फैली बर्फ की चादर, पर्वतों के हरे भरे ढलान आकर्षित करते हैं। प्रकृति यहाँ के जनजीवन, खानपान, रहनसहन को प्रभावित करती है। खाना ज्यादा मांसाहार है तो शाकाहारियों के लिये प्रोटीन से भरपूर राजमां हैं। ठंड होने के कारण मेवे पैदा होते हैं। ठंड में उर्जा ज्यादा चाहिए इसलिये आलू ज्यादा खाये जाते हैं। महानगरों के पाँच सितारा होटल, रैस्टोरैंट में भी कश्मीरी दमआलू , गुच्छी लोगों की पसंद के व्यंजन हैं। कश्मीरी चाय कहवा कहलाती है। हिमपात के दिनों में घर के अंदर कढ़ाई बुनाई चलती है। आज धरती के स्वर्ग कश्मीर हिमालय के लोकजीवन को जानने के लिये किसी विस्थापित कश्मीरी परिवार में बैठें। जून को मेरे साथ एक कश्मीरी पण्डित महिला का ऑपरेशन हुआ था। हम दोनों दस दिन तक एक कमरे में रहीं थीं। उसे जो भी मिलने आता, बात बात में कश्मीर को याद करता। जो भी फल सब्जी वह खाती, साथ ही मुझे कहती कि उसका स्वाद कश्मीर में उगे जैसा नहीं था। जो भी आता वो वहां लौटने के लिये तड़फता था। हरेक का सपना था कि काश वे फिर से वहाँ अमन शांति से रह पायें।
  सतलुज नदी से काली नदी(सरयू) के बीच का भाग, 320 किमी की हिमालय श्रृंखला कुमाऊँ हिमालय कहलाता है। उत्तराखंड तथा हिमाचल प्रदेश में यह श्रृंखला चारों हिमालयों में सबसे छोटी है। यह झीलों और प्राकृतिक सौर्न्दय के लिए प्रसिद्ध है। नंदादेवी, कामेत, त्रिशूल, केदारनाथ, बद्रीनाथ, दूनागिरी, तथा गंगोत्री इत्यादि कुमांऊ हिमालय की प्रमुख चोटियां हैं। चार धाम बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री गंगा, यमुना तथा रामगंगा नदियों का यहां से उदगम हुआ है। नैनीताल, भीमताल, नौकुचियाताल तथा सात ताल इत्यादि यहाँ की प्रसिद्ध झीलें हैं। लगभग 12 नैशनल पार्क, ग्लेशियर, फूलों की घाटी का घर जिसे यूनेस्को ने विश्वधरोहर की सूची में शामिल किया है। कुमाऊँनी संस्कृति  का प्रतीक अल्मोड़ा  विशेष  है। स्वतंत्रता की लड़ाई से लेकर, शिक्षा, कला एवं संस्कृति के विकास में अल्मोड़ा का विशेष स्थान रहा है। रानीखेत, चितई मंदिर, जागेश्वर धाम, कसार देवी, सोमेश्रव्रघाटी, द्वारा हाट, मानिला, बिनसर महादेव, चौबटिया र्गाडन, प्राकृतिक प्रेमियों एवं पर्वतारोहियों के लिये सर्वोत्तम नगर है। सरयू और गोमती के तट पर बसे बागेश्रवर के कौसानी हिल स्टेशन, चाय बागान हिल रटेशन, पिंडारी ग्लेशियर और चारों ओर कुदरती मनोहर रोमांचित कर देने वाले दृश्य हैं। नैनीताल, पौढ़ी गढ़वाल, पित्थौरागढ़, रूद्रप्रयाग में तो अलकनंदा तथा मंदाकिनी नदियों का संगम है। ये केदारखंड का हिस्सा है। चोपता, तुंगनाथ, चंद्रशिला है। टिहरी गढ़वाल, उत्तरकाशी में गंगोत्री ग्लेशियर, दुर्योधन मंदिर और दायरा बुग्याल है। भारतीय साहित्य में लोक साहित्य सर्वमान्य है। लोकसाहित्य मौखिक साहित्य होता है। लोक कथाओं में लोक विश्वास, लोक जीवन के दुःख दर्द का समावेश होता है। यहाँ के लोक साहित्य में लकोक्तियां, मुहावरे तथा पहेलियां आज भी प्रचलन में हैं। छोलिया नृत्य में नृतक लम्बी लम्बी तलवारें और गेंडे की खाल से बनी ढाल लिये, नगाड़े की चोट पर रणसिंह से युद्ध करते हैं। ये मनोरंजन के लिये किए गये युद्ध राजाओं के एतिहासिक काल की याद दिलाते हैं। पाण्डौ नृत्य किया जाता है। वनवास के दिनों में हिमालय ने पाण्डवों को भी शरण दी होगी। जागर तो मशहूर ही है।
’बेड़ू पाको बारह मासा, नरेली काफल पाके चैता मेरी छैला’ मधुर पहाड़ी धुन में गाते हुए, ढपली जैसा कुछ बजाते हुए, धीरे धीरे थिरकते हुए कुछ युवा रंग खेलते जा रहे थे। सन 1982 में नौएडा में हमारे सेक्टर में पहला होली का त्यौहार था। तब इस नये बसे शहर में गिनती के प्रवासी कह सकते हैं, लोग थे। जिनमें गढ़वाली, कुमाऊँ और हिमाचली अधिक थे और सभी युवा थे। एक परिवार में एक महिला और बाकि सब उसके पति के, कुल के भाई होते थे। महिला बच्चे संभालती और घर केे काम करती थी। युवक सब कमाने जाते। परिवारों में सब ओर सुख शांति थी। गर्मी की छुट्टी में महिला और बच्चे गांव चले जाते, तब पुरूष नौकरी के साथ घर का काम भी करते थे। बच्चों के स्कूल खुलते ही महिला बच्चों के साथ देवभूमि से आ जाती। अपने गांव को ये साधारण लोग देवभूमि और हिमालय की चोटियों को देव कहते हैं। इनकी आपसी समझदारी की जितनी प्रशंसा की जाए वो कम है। उनमें से जो युवक मकान खरीद लेता तब अपना परिवार लाता था। इस काम में सब साथी उसकी मदद करते थे। बाद में वह सबका पैसा चुका देता था। वह भी पहले परिवार की तरह ही नये गाँव भाई या कुल भाई के साथ रहता। पर्यटन स्थल जो आज विकसित किये गये हैं। उन्हें छोड़ दिया जाये तो  इस पद्धति से अब उनके गाँवों में सिर्फ बुर्जुग रह गये हैं। जो खेती भी नहीं कर सकते क्योंकि यहाँ सीढ़ीनुमा खेते होते हैं जो बहुत मेहनत मांगते हैं। वे सिर्फ पशु पालन कर रहें हैं क्योंकि हिमालय के कारण चारा मुफ्त है। पहले पाँच, छ बच्चे होते थे। जो शहर कमाने आया, वो यहाँ की सुविधाओं में खो गया। बाकि भी आ गये। कारण, परिवार नियोजन का पालन करने वाले लोग हैं। अब इनके दो बच्चे हैं, उन्हें कोई गाँव नहीं भेजना चाहता। गर्मी में पिकनिक के लिये जाते हैं। लोकगीतों में बुरांश के फूल के गीत गाते हैं।
 सरयू से तिस्ता नदी के बीच के 800 किमी. लम्बी हिमालय श्रृंखला को नेपाल हिमालय कहते हैं। हिमालय की उच्च भूमि के कारण यह बफर स्टेट  कहलाती है। जैसे चीन और भारत के बीच नेपाल। नेपाल से तो हमारे सम्बंध रामायण काल से हैं। नेपाल जाकर तो लगता ही नहीं कि हम किसी दूसरे देश में हैं। कुछ खरीदने पर बिना पूछे दूकानदार बताता हैं, दो रेट एक भारत का और दूसरा नेपाल का। कचनजंघा की चोटी प्रसिद्ध है तो कोशी, बाघमती, गंडक नदियां बिहार में बाढ़ का तांडव करती हैं। तिस्ता सिक्किम और उत्तरी बंगाल की जीवन रेखा है। अब जहाँ से भी हिमालय से निकलने वाली नदियाँ गुजरती हैं। वहाँ के लोक जीवन और साहित्य को ये प्रभावित करती हैं। सर सिडनी बुराड ने हिमालय के चौथे भाग को असम हिमालय कहा है। यह तिस्ता नदी से ब्रह्मपुत्र के मोड़ तक 750 किमी. की श्रंृखला है। यह नेपाल हिमालय से कम ऊँचा है। इसका विस्तार सिक्किम, असम तथा अरूणाचल प्रदेश में है। असम में चाय के बागान देखने लायक हैं और यह चाय हमें इस क्षेत्र से आत्मीयता पैदा करवाती है। वनस्पति, भूगोल, क्षेत्र का इतिहास, लोक संस्कृति और लोक जीवन तो हर जगह का अपना होता है। चाय की खेती के लिये ऐसी भूमि चाहिये जिसकी जड़ों में पानी न रूके और थोड़ी थोड़ी बरसात भी होती रहे। हिमालय के इस भाग में यह सम्भव है। यहाँ का मुख्य रोजगार चाय बगान है। किसी के पास कोई भी हुनर नहीं है तो भी उसके लिए रोजगार है चाय की पत्ती तोडने का। यहाँ स्कूलों की छुट्टी भी एक जुलाई से एक महीने की होती है। हथकरघे का काम तो प्रत्येक घर में होता है। लोग बहुत र्कमठ हैं। महिलाएं कुछ ज्यादा ही मेहनती हैं खेती के साथ, कपड़ा भी बुनती हैं। अब इतनी मेहनत के बाद त्यौहारों को बहुत उत्साह से मनाते हैं। बीहू को साल में तीन बार मनाते हैं। जनवरी मेें भोगाली बिहु तब नई फसल आई होती है। पंजाब के लोहड़ी और संक्राति के त्यौहार की तरह ही लकड़ियों की ढेरी लगाई जाती है। जिसे भेला घर कहते हैं। रात भर इसके आस पास नाच गाना सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं। सुबह नहा कर उस पर तिल, गुड, चावल आदि यही फसल उस समय निकलती है। उसे भेलाघर में अग्नि देवता को अर्पित करते हैं और इसकी राख को अपने खेतों में छिड़कते हैं और प्रार्थना करते हैं कि अगली फसल अच्छी हो। चिवडा दही, परमल, बुरा चावल और मूड़ी गुड के लड्डू बनाते हैं जिसे हांडो गुड़ी कहते हैं, इऩ्हें खाते हैं और खिलाते हैं। इसे भोगाली बिहु इसलिये कहते हैं क्योंकि इसमें भोग लगता है। ़   
 सबसे महत्वपूर्ण  बैसाख याानि 13, 14 अप्रैल में मनाया जाने बिहु उत्सव है।  इस समय बसन्त के कारण प्राकृतिक सौन्दर्य चारों ओर होता है। इसे रोंगाली बिहु या बोहाग बिहू भी कहते हैं। एक महीना रात भर किसी न किसी के घर बीहू नृत्य गाना होता है। जो अपने घर करवाता है। वह सबका खाना पीना बकरी ,सूअर का मांस पकाता है और हाज (चावल की बीयर) आदि का बन्दोबस्त करता है। इसे सम्मान सेवा कहते हैं। मूंगा सिल्क जिसे दुनिया में गोल्डन सिल्क ऑफ आसाम कहते हैं, विश्व में और कहीं नहीं होता। मेखला चादर तो बहुत ही खूबसूरत पोशाक है। पुरूष गमझा गले में डालते है। नृत्य के समय पहनते हैं, सब रेशम का होता है। जिसका श्रेय हिमालय द्वारा प्रदत्त जलवायु को जाता है। कंगाली बिहु सितम्बर अक्टूबर को मनाया जाता है। इसमें खेत में या तुलसी के नीचे दिया जला कर अच्छी फसल की कामना करते हैं। भेंट में एक दूसरे को गमझा, हेंगडांग(तलवार) देते हैं। बिहु की विशेषता है इसे सब मनाते हैं कोई जाति, वर्ग, धनी निर्धन का भेद भाव नहीं होता। कहीं ये भी रिवाज है कि लड़की भगाना माघ में शुभ मानते हैं। जो लड़का जिस लड़की पर दिल रखता है। वह उसे प्रभावित करने के लिये उत्सवों में मार्शल आर्ट दिखाता है, उसकी रजामंदी से उसे लेकर भाग जाता। पहले हिमालय के जंगलों में जा छिपते थे। एक महीने के बाद उनकी खोज खबर लगती पर आज कल मोबाइल के कारण आपस में लिंक रहता है। फिर वे आ जाते हैं। अब लड़की की मां ’घर उठा’ रस्म करती है। गाँव के लोग बैठते हैं। लड़के के घर से क्या क्या आया है? देखते हैं लड़की वालों को कोई झमेला नहीं। किसी का स्वागत या निमंत्रण तांबूल और पान से ही किया जाता है। शिलांग में एक समुदाय है। वहाँ पत्नी का सरनेम लगता है। मातृ प्रधान समाज है। अरूणाचल, मणिपुर, मिजोरम, त्रिपुरा, मेघालय, नागालैंड और असम में दहेज संस्कृति नहीं है। केन का फर्नीचर और मणिपुरी नृत्य की पोशाक प्रसिद्ध है। भगवान कृष्ण की पटरानी रूक्मणी मणिपुर की थीं और आज सागर किनारे द्वारका में उनका मंदिर है।
    



Sunday, 2 February 2020

फूलवाले धनिए की लाजवाब चटनी, कंटेनर में साल भर धनिया उगायें Swad khai, Container mein Sal bhar Dhaniyan Ugain Neelam Bhagi नीलम भागी


ताजी थोड़ी धनिया की पत्ती का बनाई चटनी का स्वाद ही अलग होता है। इसके लिए मैं एक कटोरी धनिया, आधी कटोरी पुदीना, 2 हरी मिर्च 1 इंच टुकड़ा अदरक का, थोड़ा सा लहसुन डाल कर इन्हें मिक्सी में चला लेती हूं। इसका रंग ना बदले अगर इसका रंग हरा रखना है तो इसमें  दो क्यूब पीसते समय बर्फ के डाल दो। अगर चिकनी सी रखनी है तो थोड़ी सी बेसन की सेव डाल दे। तो पीसने के बाद इसमें थोड़ा सा नमक और काला नमक मिलाकर नींबू का रस मिला देती हूं
 और जब मेरे धनिए में फूल आता है तो उसमें से मैं फूल जरूर डालती हूं तब मेरे धनिए की चटनी का स्वाद लाजवाब होता है सब पूछते हैं कि मैंने क्या डाला? कुछ नहीं सिर्फ अपने घर का उगा हुआ  धनिया और पीसते समय उसके फूल डाले हैं। आप भी उगाए ताजा ।

कोई भी चार से छ इंच तली में छेद वाला कंटेनर ले लें। उसमें 70 प्रतिशत मिट्टी और 30 प्रतिशत गोबर की खाद या वर्मी कम्पोस्ट खाद मिला लें। बढ़िया साबुत धनिया लें। उसे चकले पर रख कर बेलन से हल्के हाथ से रगड़ें ताकि वह दो टुकड़ों में टूट जाये। कंटेनर से थोड़ी सी मिट्टी निकाल लें। अब कंटेनर में टूटा हुआ धनिया बिखेर दें। फिर उस पर वह मिट्टी छिड़क दें, जो हमने कंटेनर से निकाली थी। उससे बस धनिया छिप जाये। अब फुहारे से या इस पर बोतल जिसके ढक्कन में छेद हों उससे पानी छिड़क दें ताकि बीज अपनी जगह से न हटे और धूप में रख दें।
 अगर जल्दी उगाना है तो टूटे हुए धनिए के बीजों को एक रात पानी में भिगों दे। अगले दिन उसी तरह बस सूखे धनिए के बीजों की तरह रात भर भीगे धनिए को बोयें। इसका अंकूरण 7 से 15 दिन में हो जाता है। दो महीने में यह तोड़ने लायक हो जाता है। ये ज्यादा गर्मी नहीें सहता। गर्मियों में कंटेनर को ऐसी जगह रक्खें जहां सुबह की धूप आती हो और कंटेनर को मिले, छायादार जगह हो। ज्यादा गर्मी में धूप में नहीं, ज्यादा रोशनी में रखे तो आप साल भर इसका इस्तेमाल कर सकते हैं। मैं गर्मी में धनिया मिट़टी के बर्तन में उगाती हूं और पेड़ के नीचे रखती हूं। जहां उसे सुबह या शाम की धूप  मिलती है। 
  दाल सब्जी बनने के बाद अपने हाथ से लगाये धनिया पत्ती तोडते हुए, बड़ी खुशी मिलती है। धोकर सब्जी में डालते ही ढक देती हूं ताकि उसकी महक उसमें समा जाये। अब अक्टूबर में लगाउंगी| तब बोने के बाद सीधी धूप में रखती हूँ| जब ट्रे का सारा धनिया क़ेची से काट लेती हूँ तो इस पर फिर वर्मी कम्पोस्ट डाल कर पानी डाल देती हूँ| सर्दी में हरे धनिए से भरी लाल ट्रे  बहुत सुंदर लगती है| 
किसी भी कंटेनर या गमले में किचन वेस्ट फल, सब्जियों के छिलके, चाय की पत्ती आदि सब भरते जाओ और जब वह आधी से अधिक हो जाए तो एक मिट्टी तैयार करो जिसमें 60% मिट्टी हो और 30% में वर्मी कंपोस्ट, दो मुट्ठी नीम की खली और थोड़ा सा और बाकी रेत मिलाकर उसे  मिक्स कर दो। इस मिट्टी को किचन वेस्ट के ऊपर भर दो और दबा दबा के 6 इंच किचन वेस्ट के ऊपर यह मिट्टी रहनी चाहिए। बीच में गड्ढा करिए छोटा सा 1 इंच का, अगर बीज डालना है तो डालके उसको ढक दो।और यदि पौधे लगानी है तो थोड़ा गहरा गड्ढा करके शाम के समय लगा दो और पानी दे दो।