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Friday, 26 June 2020

पतंगबाजी और लोहड़ी, मकर संक्रान्तिअमृतसर यात्रा भाग 9 नीलम भागी Amritsar Yatra Part 9 Neelam Bhagi Patang Bzi, Lohari




नीरज तिवारी अपनी पंतग को गुड़्डा लेकिन युवराज और शिवराज की पंतंगों को गुड्डी कह रहे थे। पहले तो मैंने गुड्डा गुड्डी में र्फक समझा। अम्बरसर में  छोटी पतंग को गुड्डी कहते हैं और बड़ी पतंग को गुड्डा कहते हैं। हल्की सर्दी की शुरुवात हो चुकी थी। घनी बसावट का, पतली पतली गलियां और एक दूसरे से मिली हुई छतों वाले अम्बरसर में सर्दी में धूप सेकने के साथ गुड्डी उड़ाई जाती है। लेकिन लोहड़ी को पतंगबाजी देखने लायक होती है। इस दिन छुट्टी होती है। बाजार बंद रहते हैं। पतंगबाज ठंड की परवाह किए बिना ही छतों पर पतंगबाजी शुरु कर देते हैं। जब तक सूरज निकलता है, तब तक तो आसमान गुड्डे, गुड़ियों से भर जाता है। छतों पर ही डी.जे., माइक लगा कर कमैंट्री चलती है। मसलन लाल गुड्डी दा चिट्टे गुड़डे नाल पेंचा लड़दा पेया। लाल गुड्डी आई बो।(लाल और सफेद पतंग का पेच लड़ रहा है। लाल पतंग कट गई)। आई बो के साथ ही शोर मचता है। कुछ गुड्डों पर पतंगबाज अपना नाम, अपनी गली मौहल्ले का नाम लिख कर उड़ाते हैं। शहर का नाम नहीं लिखते क्योंकि दस फीट का गुड्डा अम्बरसर से दूर नहीं जा सकता। कुछ की कोशिश ये रहती है कि जिसके लिए उन्होंने अपना नाम पता लिखा है। पतंग उसकी छत पर ही कटने पर गिरे। प्रेमी का अगर नसीब अच्छा होता है, तो हवा की दिशा, प्रेमिका के घर की ओर होती है। घरवालों को उनके खाने पीने की चिंता है तो छत पर पहुंचा दो, ये खा लेंगे वरना भूखे मुकाबला करते रहेंगे। लेकिन मोर्चा छोड़ कर नहीं जायेंगे, वहीं डटे रहेंगे। लटाई चर्खी पकड़ कर खड़े होने वाले को भी कुछ देर के लिए मांझा(डोर) उड़ती हुई पतंग की पकड़ाई जाती है। वह भी उसमें थोड़ी ढील देकर, थोड़ा डोर खींच कर अपने एक्शन का, पतंग पर रिएक्शन देखता है। जब उसकी हरकतें ज्यादा बढ़़ने लगतीं हैं तो उस्ताद जी उससे डोर झपट लेते हैं। पतंगबाजों में जैसा जोश सुबह के समय होता है। वैसा ही उत्साह सूरज डूबने पर भी होता है। अंधेरा होने पर कहीं कहीं पैराशूट भी उड़ाते हैं। लेकिन आजकल पतंगबाज हाथों और अंगुलियों में मैडिकल टेप चिपकाकर उड़ातें हैं। ताकि अंगुलियां न कटे।
शाम को सात आठ बजे के बीच में लोहड़ी जलाई जाती है। तब ये पतंगबाज नीचे उतरकर आते हैं। बाकि पतंगें मकर संक्रांति को उड़ाने के लिए। यहां पर परंपरा का पालन जरुर किया जाता है। रात को सरसों का साग और गन्ने के रस की खीर घर में जरुर बनती हैं, जिसे अगले दिन मकरसक्रांति को खाया जाता है। इसके लिए कहते हैं। ’पोह रिद्दी, माघ खादी’(पोष के महीने में बनाई और माघ के महीने में खाई) बाकि जो कुछ मरजी़ बनाओ। हमारा कृषि प्रधान देश है। फसल का त्यौहार हैैं। इस समय खेतों में गेहूं, सरसों, मटर और रस से भरे गन्ने की फसल लहरलहा रही होती है। गुड़ बन रहा होता है। चारों ओर गन्ने के रस पकने़ की महक होती है। आग जला कर अग्नि देवता को तिल चौली(चावल) गुड़ अर्पित करते हैं। परात में मूंगफली, रेवड़ी और भूनी मक्का के दाने, चिड़वा लेकर परिवार सहित अग्नि के चक्कर लगा कर थोड़ा अग्नि को लगा कर प्रशाद खाते और बांटतें हैं। नई बहू के घर में आने पर और बेटा पैदा होने पर उनकी पहली लोहड़ी धूमधाम से मनाई जाती है। पार्टी भी की जाती है।  आग के पास ढोल पर डांस तो होना ही है। अगले दिन मकरसंक्राति को खिचड़ी और तिल का दान करते हैं और खिचड़ी खाई जाती है। खिचड़ी के साथ, घी, पापड़, दहीं, अचार होता है। स्वाद से खाते हुए बुर्जुग कवित्त बोलते हैं ’खिचड़ी तेरे चार यार, घी पापड़ दहीं अचार’। क्रमशः   



Jasbir Singh Bhagi
Ambarsariya deaa Tooklaa ( special type variety of Patang ) v bht maashoor Haan

Saturday, 15 February 2020

बिटिया की लोहड़ी!!!! भारतीय दृष्टिकोण और ज्ञान परंपरा भाग 5 नीलम भागी Betiya ke Lohari Bhartiye Drishtikon Aur Gyan ke Parampera part 5 Neelam Bhagi






     दीदी बी.एड. के बाद गर्ल्स इंटरकॉलिज में लेक्चरर बन गई और दादी स्वर्ग सिधार गई। अम्मा अब घर से बाहर बिना घूंघट के सिर पर पल्लू रख कर जाने लगीं। सिर का पल्लू उनका आज 92 साल की उम्र में भी कायम है।आज 92 साल की उम्र में भी अम्मा सिर पर पल्लू रखकर  ही गेट से बाहर खड़ी होती है।

अम्मा की पढ़ाई छूटी थी, शायद इसलिए वो बेटियों को पढ़ाने में जी जान से लगी रहतीं थीं। दीदी की शादी दिल्ली में हो गई और उन्होंने नौकरी छोड़ दी और पी.एच.डी की। दीदी को रिवाज के अनुसार पहली डिलीवरी के लिए मैके बुलाया गया। उनकी बेटी का जन्म हुआ और लोहड़ी का त्यौहार उन्हीं दिनो आया था। लोहड़ी का त्यौहार बेटे के जन्म पर या बहू आने पर मनाया जाता है। वैसे हर बार धूनी जला कर, तिलचौली अग्नि को अर्पित करते हैं। अम्मा ने उसकी पहली लोहड़ी मनाई और उसको अर्पणा कहा। पड़ोसने आईं और उन्होंने दबी जबान से अम्मा से कहा,’’ बहन जी बेटी की लोहड़ी कौन डालता है!!’जवाब में अम्मा ने सबको पार्वती की शंकर जी के लिए तपस्या की कहानी सुना दी कि कैसे उनका नाम अर्पणा पढ़ा! नैना से उत्पन्न हिमालय की ज्येष्ठ पुत्री उमा ने शिव को वर के रुप में प्राप्त करने के लिए दुसाध्य तप किया था। पहले फल शाक पर रहीं, और खुले आकाश में वर्षा आदि ऋतुओं की परवाह नहीं की। फिर पेड़ से गिरे बेलपत्रों को आहार बनाया। विकट कष्ट सहे और पत्तों को भी खाना बंद कर दिया यानि निराहार रहीं।
पुनि परिहरेउ सुखानेउ परना। उमा नाम तब भयउ अपरना।।
उमहि नाम तब भयउ अर्पणा।
 और अर्पणा को गोद में लेकर बोलीं,’’ आर्शीवाद दो। ये ज्ञान के लिए तप करे।’’अर्पणा हार्वड पढ़ने गई तो अम्मा बहुत खुश। वहां ऑनर मिला तो अम्मा ने दादी को याद किया। अर्पणा की बेटी रेया को सिंगापुर में हिंदी पढ़ाने ट्यूटर आती है। हम जाते हैं या वो जब भारत आती है तो अर्पणा ने कह रक्खा है कि सब रेया से हिंदी में बात करेंगें और नानी दादी की सुनी हुई कहानियां ही सुनायेंगे। हम वैसा ही करते हैं। मेरी शादी बी.एड की परीक्षा से पहले हुई। बाद में मैंने कैमिस्ट्री एम.एससी में एडमिशन लिया। बेटे के जन्म से दो दिन पहले तक मैंने क्लास अटैण्ड की, छ घण्टे प्रैक्टिकल किया। पर मेरी एम.एससी पूरी नहीं हुई। बेटी के जन्म से पहले मैं कपूरथला मामा के घर रहने गई। चारो मामा में छोेटे मामा श्री निरंजन दास जोशी ही बचे थे जो विधुर थे। मंदिर वाले मुख्य नाना के घर में बेटे बहुओं के साथ रहते थे। बैंक मैनेजर पद से रिटायर थे और घर के प्राचीन राधा कृष्ण के मंदिर की सेवा में थे। और गऊशाला का काम देखते थे। सामने दूसरे घर में सबसे बड़ी मामी  परिवार के साथ रहती थी। दूसरी मामी थोड़ी दूरी पर पास ही रहती थीं। मेरे मामा तीनो समय खाने से पहले और दूध पीने से पहले पूछते,’’नीलम ने खाना खा लिया।’’भाभी के हां कहने पर वे मुंह में कौर डालतें और दूध पीते थे। इसलिए मैं दिन भर जिस मर्जी मामा परिवार में जाउं, खाना सोना छोटे मामा के घर ही करती थी। अगर मैंने कहीं और खाना खा लिया तो मुझे मामा को रिर्पोटिंग करनी पड़ती थी। नही तो वे खाना नहीं खाते थे। चाय वो पीते नहीं थे इसलिये चाय मैं कहीं भी पी लेती थी। क्रमशः