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Monday 10 February 2020

साहित्य एवं लोकजीवन में हिमालय नीलम भागी Sahitya avm Lokjeevan mein Himalaya Neelam Bhagi



हिमालय भारतीय उपमहाद्वीप को मध्य एशिया और तिब्बत से अलग करता है। ये पश्चिम से र्पूव की ओर 2400 किमी. की लम्बाई में पाँच देशों की सीमाओं में फैला है ये देश हैं भारत, पाकिस्तान, नेपाल, भूटान और चीन हैं। हिमालय ने दक्षिणी एशिया की संस्कृ्ति को गहराई से रचा है। हिमालय के कई क्षेत्रवासी हिन्दुत्व और बौद्ध धर्म को मानते हैं। प्राकृतिक, आर्थिक, पर्यावरणीय कारकों की वजह से ये महत्वपूर्ण हैं। ध्रुवीय क्षेत्रों के बाद हिमालय सबसे बड़ा हिमाच्छादित हैं। जो विश्व जलवायु को प्रभावित करता है। वन संसाधन , लकड़ी है तो हिमनद के कारण सदानीरा नदियां यहाँ से निकलती हैं और इन नदियों के बीच के पहाड़ी क्षेत्रों और मैदानों में बसे लोगों के जनजीवन को हिमालय प्रभावित करता हैं। जब लोकजीवन में हिमालय है तो साहित्य में भी इसका प्रतिबिंब दिखेगा क्योंकि साहित्य समाज का दर्पण है। इस क्षेत्र में कैलाश मानसरोवर और अमरनाथ की यात्रा पर जो नहीं जा सकते और इन क्षेत्रों के पर्यटन स्थल पर भी नहीं जा सकते हैं, वे साहित्यकारों के यात्रा वृतांत्र पढ़ते हुए़ यात्रा का आनन्द उठा लेते हैं।
 सिंधु नदी से सतलुज नदी के बीच का भाग, 560 किमी. लम्बी हिमालय श्रृंखला कश्मीर हिमालय कहलाता है। सिंधु नदी की पाँच प्रमुख सहयोगी नदियां(झेलम, चेनाब, रावी, व्यास तथा सतलुज) का उदगम हिमालय से ही होता हेै। डलहौजी यहाँ का प्रसिद्ध हिल स्टेशन है। श्रीनगर गर्मियों की राजधानी है। प्राकृतिक सिंचाई के साधनों के कारण यह शहर बागों के लिये मशहूर है। शालीमार और निशात बाग, डल झील और उसमें तैरते हाउसबोट, चिनार के पेड़ पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। पर्यटकों के आने से यहाँ  लोगों को रोज़गार मिलता है। भेड़ों को पालने के लिए यहाँ का तापमान उपयुक्त है। भेड़ों के कारण ऊन मिलती है उससे र्गम कपड़े और शाल बनते हैं। उस पर कश्मीरी कढ़ाई के कारण, कश्मीरी शाल सबकी पसंद हैं। कालीन उद्योग है तो साथ ही विश्वप्रसिद्ध लाल चौक भी है।  लद्दाख में मोमोज़ हैं़ तो लेह सबसे ऊँचा नगर और भारत के सबसे ठंडे शहरों में एक है। यहाँ बड़ी संख्या में बौद्ध मठ हैं, जहां बौद्ध भिक्षु रहते हैं। कारगिल भी बौद्ध मठ और प्राकृतिक सुन्दरता और ट्रैकिंग के कारण सैलानियों को आकर्षित करता है और देशवासी अब वार मैमोरियल को देखने के लिये जाते हैं। जम्मू शीतकालीन राजधानी है, जो मंदिरों और विश्व प्रसिद्ध तीर्थस्थल वैष्णों देवी के दर्शन के अलावा, बहुर्फोट, अमर महल, डोगरा राजवंश के महल और संग्राहलय देखने लायक हैं। गुलर्मग खूबसूरत हिल स्टेशन है। बारामूला में फूल और दिलकश नजारे, दूर दूर तक फैली बर्फ की चादर, पर्वतों के हरे भरे ढलान आकर्षित करते हैं। प्रकृति यहाँ के जनजीवन, खानपान, रहनसहन को प्रभावित करती है। खाना ज्यादा मांसाहार है तो शाकाहारियों के लिये प्रोटीन से भरपूर राजमां हैं। ठंड होने के कारण मेवे पैदा होते हैं। ठंड में उर्जा ज्यादा चाहिए इसलिये आलू ज्यादा खाये जाते हैं। महानगरों के पाँच सितारा होटल, रैस्टोरैंट में भी कश्मीरी दमआलू , गुच्छी लोगों की पसंद के व्यंजन हैं। कश्मीरी चाय कहवा कहलाती है। हिमपात के दिनों में घर के अंदर कढ़ाई बुनाई चलती है। आज धरती के स्वर्ग कश्मीर हिमालय के लोकजीवन को जानने के लिये किसी विस्थापित कश्मीरी परिवार में बैठें। जून को मेरे साथ एक कश्मीरी पण्डित महिला का ऑपरेशन हुआ था। हम दोनों दस दिन तक एक कमरे में रहीं थीं। उसे जो भी मिलने आता, बात बात में कश्मीर को याद करता। जो भी फल सब्जी वह खाती, साथ ही मुझे कहती कि उसका स्वाद कश्मीर में उगे जैसा नहीं था। जो भी आता वो वहां लौटने के लिये तड़फता था। हरेक का सपना था कि काश वे फिर से वहाँ अमन शांति से रह पायें।
  सतलुज नदी से काली नदी(सरयू) के बीच का भाग, 320 किमी की हिमालय श्रृंखला कुमाऊँ हिमालय कहलाता है। उत्तराखंड तथा हिमाचल प्रदेश में यह श्रृंखला चारों हिमालयों में सबसे छोटी है। यह झीलों और प्राकृतिक सौर्न्दय के लिए प्रसिद्ध है। नंदादेवी, कामेत, त्रिशूल, केदारनाथ, बद्रीनाथ, दूनागिरी, तथा गंगोत्री इत्यादि कुमांऊ हिमालय की प्रमुख चोटियां हैं। चार धाम बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री गंगा, यमुना तथा रामगंगा नदियों का यहां से उदगम हुआ है। नैनीताल, भीमताल, नौकुचियाताल तथा सात ताल इत्यादि यहाँ की प्रसिद्ध झीलें हैं। लगभग 12 नैशनल पार्क, ग्लेशियर, फूलों की घाटी का घर जिसे यूनेस्को ने विश्वधरोहर की सूची में शामिल किया है। कुमाऊँनी संस्कृति  का प्रतीक अल्मोड़ा  विशेष  है। स्वतंत्रता की लड़ाई से लेकर, शिक्षा, कला एवं संस्कृति के विकास में अल्मोड़ा का विशेष स्थान रहा है। रानीखेत, चितई मंदिर, जागेश्वर धाम, कसार देवी, सोमेश्रव्रघाटी, द्वारा हाट, मानिला, बिनसर महादेव, चौबटिया र्गाडन, प्राकृतिक प्रेमियों एवं पर्वतारोहियों के लिये सर्वोत्तम नगर है। सरयू और गोमती के तट पर बसे बागेश्रवर के कौसानी हिल स्टेशन, चाय बागान हिल रटेशन, पिंडारी ग्लेशियर और चारों ओर कुदरती मनोहर रोमांचित कर देने वाले दृश्य हैं। नैनीताल, पौढ़ी गढ़वाल, पित्थौरागढ़, रूद्रप्रयाग में तो अलकनंदा तथा मंदाकिनी नदियों का संगम है। ये केदारखंड का हिस्सा है। चोपता, तुंगनाथ, चंद्रशिला है। टिहरी गढ़वाल, उत्तरकाशी में गंगोत्री ग्लेशियर, दुर्योधन मंदिर और दायरा बुग्याल है। भारतीय साहित्य में लोक साहित्य सर्वमान्य है। लोकसाहित्य मौखिक साहित्य होता है। लोक कथाओं में लोक विश्वास, लोक जीवन के दुःख दर्द का समावेश होता है। यहाँ के लोक साहित्य में लकोक्तियां, मुहावरे तथा पहेलियां आज भी प्रचलन में हैं। छोलिया नृत्य में नृतक लम्बी लम्बी तलवारें और गेंडे की खाल से बनी ढाल लिये, नगाड़े की चोट पर रणसिंह से युद्ध करते हैं। ये मनोरंजन के लिये किए गये युद्ध राजाओं के एतिहासिक काल की याद दिलाते हैं। पाण्डौ नृत्य किया जाता है। वनवास के दिनों में हिमालय ने पाण्डवों को भी शरण दी होगी। जागर तो मशहूर ही है।
’बेड़ू पाको बारह मासा, नरेली काफल पाके चैता मेरी छैला’ मधुर पहाड़ी धुन में गाते हुए, ढपली जैसा कुछ बजाते हुए, धीरे धीरे थिरकते हुए कुछ युवा रंग खेलते जा रहे थे। सन 1982 में नौएडा में हमारे सेक्टर में पहला होली का त्यौहार था। तब इस नये बसे शहर में गिनती के प्रवासी कह सकते हैं, लोग थे। जिनमें गढ़वाली, कुमाऊँ और हिमाचली अधिक थे और सभी युवा थे। एक परिवार में एक महिला और बाकि सब उसके पति के, कुल के भाई होते थे। महिला बच्चे संभालती और घर केे काम करती थी। युवक सब कमाने जाते। परिवारों में सब ओर सुख शांति थी। गर्मी की छुट्टी में महिला और बच्चे गांव चले जाते, तब पुरूष नौकरी के साथ घर का काम भी करते थे। बच्चों के स्कूल खुलते ही महिला बच्चों के साथ देवभूमि से आ जाती। अपने गांव को ये साधारण लोग देवभूमि और हिमालय की चोटियों को देव कहते हैं। इनकी आपसी समझदारी की जितनी प्रशंसा की जाए वो कम है। उनमें से जो युवक मकान खरीद लेता तब अपना परिवार लाता था। इस काम में सब साथी उसकी मदद करते थे। बाद में वह सबका पैसा चुका देता था। वह भी पहले परिवार की तरह ही नये गाँव भाई या कुल भाई के साथ रहता। पर्यटन स्थल जो आज विकसित किये गये हैं। उन्हें छोड़ दिया जाये तो  इस पद्धति से अब उनके गाँवों में सिर्फ बुर्जुग रह गये हैं। जो खेती भी नहीं कर सकते क्योंकि यहाँ सीढ़ीनुमा खेते होते हैं जो बहुत मेहनत मांगते हैं। वे सिर्फ पशु पालन कर रहें हैं क्योंकि हिमालय के कारण चारा मुफ्त है। पहले पाँच, छ बच्चे होते थे। जो शहर कमाने आया, वो यहाँ की सुविधाओं में खो गया। बाकि भी आ गये। कारण, परिवार नियोजन का पालन करने वाले लोग हैं। अब इनके दो बच्चे हैं, उन्हें कोई गाँव नहीं भेजना चाहता। गर्मी में पिकनिक के लिये जाते हैं। लोकगीतों में बुरांश के फूल के गीत गाते हैं।
 सरयू से तिस्ता नदी के बीच के 800 किमी. लम्बी हिमालय श्रृंखला को नेपाल हिमालय कहते हैं। हिमालय की उच्च भूमि के कारण यह बफर स्टेट  कहलाती है। जैसे चीन और भारत के बीच नेपाल। नेपाल से तो हमारे सम्बंध रामायण काल से हैं। नेपाल जाकर तो लगता ही नहीं कि हम किसी दूसरे देश में हैं। कुछ खरीदने पर बिना पूछे दूकानदार बताता हैं, दो रेट एक भारत का और दूसरा नेपाल का। कचनजंघा की चोटी प्रसिद्ध है तो कोशी, बाघमती, गंडक नदियां बिहार में बाढ़ का तांडव करती हैं। तिस्ता सिक्किम और उत्तरी बंगाल की जीवन रेखा है। अब जहाँ से भी हिमालय से निकलने वाली नदियाँ गुजरती हैं। वहाँ के लोक जीवन और साहित्य को ये प्रभावित करती हैं। सर सिडनी बुराड ने हिमालय के चौथे भाग को असम हिमालय कहा है। यह तिस्ता नदी से ब्रह्मपुत्र के मोड़ तक 750 किमी. की श्रंृखला है। यह नेपाल हिमालय से कम ऊँचा है। इसका विस्तार सिक्किम, असम तथा अरूणाचल प्रदेश में है। असम में चाय के बागान देखने लायक हैं और यह चाय हमें इस क्षेत्र से आत्मीयता पैदा करवाती है। वनस्पति, भूगोल, क्षेत्र का इतिहास, लोक संस्कृति और लोक जीवन तो हर जगह का अपना होता है। चाय की खेती के लिये ऐसी भूमि चाहिये जिसकी जड़ों में पानी न रूके और थोड़ी थोड़ी बरसात भी होती रहे। हिमालय के इस भाग में यह सम्भव है। यहाँ का मुख्य रोजगार चाय बगान है। किसी के पास कोई भी हुनर नहीं है तो भी उसके लिए रोजगार है चाय की पत्ती तोडने का। यहाँ स्कूलों की छुट्टी भी एक जुलाई से एक महीने की होती है। हथकरघे का काम तो प्रत्येक घर में होता है। लोग बहुत र्कमठ हैं। महिलाएं कुछ ज्यादा ही मेहनती हैं खेती के साथ, कपड़ा भी बुनती हैं। अब इतनी मेहनत के बाद त्यौहारों को बहुत उत्साह से मनाते हैं। बीहू को साल में तीन बार मनाते हैं। जनवरी मेें भोगाली बिहु तब नई फसल आई होती है। पंजाब के लोहड़ी और संक्राति के त्यौहार की तरह ही लकड़ियों की ढेरी लगाई जाती है। जिसे भेला घर कहते हैं। रात भर इसके आस पास नाच गाना सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं। सुबह नहा कर उस पर तिल, गुड, चावल आदि यही फसल उस समय निकलती है। उसे भेलाघर में अग्नि देवता को अर्पित करते हैं और इसकी राख को अपने खेतों में छिड़कते हैं और प्रार्थना करते हैं कि अगली फसल अच्छी हो। चिवडा दही, परमल, बुरा चावल और मूड़ी गुड के लड्डू बनाते हैं जिसे हांडो गुड़ी कहते हैं, इऩ्हें खाते हैं और खिलाते हैं। इसे भोगाली बिहु इसलिये कहते हैं क्योंकि इसमें भोग लगता है। ़   
 सबसे महत्वपूर्ण  बैसाख याानि 13, 14 अप्रैल में मनाया जाने बिहु उत्सव है।  इस समय बसन्त के कारण प्राकृतिक सौन्दर्य चारों ओर होता है। इसे रोंगाली बिहु या बोहाग बिहू भी कहते हैं। एक महीना रात भर किसी न किसी के घर बीहू नृत्य गाना होता है। जो अपने घर करवाता है। वह सबका खाना पीना बकरी ,सूअर का मांस पकाता है और हाज (चावल की बीयर) आदि का बन्दोबस्त करता है। इसे सम्मान सेवा कहते हैं। मूंगा सिल्क जिसे दुनिया में गोल्डन सिल्क ऑफ आसाम कहते हैं, विश्व में और कहीं नहीं होता। मेखला चादर तो बहुत ही खूबसूरत पोशाक है। पुरूष गमझा गले में डालते है। नृत्य के समय पहनते हैं, सब रेशम का होता है। जिसका श्रेय हिमालय द्वारा प्रदत्त जलवायु को जाता है। कंगाली बिहु सितम्बर अक्टूबर को मनाया जाता है। इसमें खेत में या तुलसी के नीचे दिया जला कर अच्छी फसल की कामना करते हैं। भेंट में एक दूसरे को गमझा, हेंगडांग(तलवार) देते हैं। बिहु की विशेषता है इसे सब मनाते हैं कोई जाति, वर्ग, धनी निर्धन का भेद भाव नहीं होता। कहीं ये भी रिवाज है कि लड़की भगाना माघ में शुभ मानते हैं। जो लड़का जिस लड़की पर दिल रखता है। वह उसे प्रभावित करने के लिये उत्सवों में मार्शल आर्ट दिखाता है, उसकी रजामंदी से उसे लेकर भाग जाता। पहले हिमालय के जंगलों में जा छिपते थे। एक महीने के बाद उनकी खोज खबर लगती पर आज कल मोबाइल के कारण आपस में लिंक रहता है। फिर वे आ जाते हैं। अब लड़की की मां ’घर उठा’ रस्म करती है। गाँव के लोग बैठते हैं। लड़के के घर से क्या क्या आया है? देखते हैं लड़की वालों को कोई झमेला नहीं। किसी का स्वागत या निमंत्रण तांबूल और पान से ही किया जाता है। शिलांग में एक समुदाय है। वहाँ पत्नी का सरनेम लगता है। मातृ प्रधान समाज है। अरूणाचल, मणिपुर, मिजोरम, त्रिपुरा, मेघालय, नागालैंड और असम में दहेज संस्कृति नहीं है। केन का फर्नीचर और मणिपुरी नृत्य की पोशाक प्रसिद्ध है। भगवान कृष्ण की पटरानी रूक्मणी मणिपुर की थीं और आज सागर किनारे द्वारका में उनका मंदिर है।
    



2 comments:

डॉ शोभा भारद्वाज said...

दिलचस्प बहुत अच्छा भारतीय संस्कृति का दर्शन

Neelam Bhagi said...

हार्दिक धन्यवाद डॉ शोभा