अब ई रिक्शा के कारण घूमना बहुत आसान हो गया है। शेयररिंग आटो में तो सवारियां बाहर तक लटक रही होती हैं। लेकिन ई रिक्शा में पांच सवारियां ही बैठ सकती हैं। पतली पतली गलियों में आराम से चलती है। बस से उतरते ही मैंने एक ई रिक्शाचालक से कहा कि द्वारकाधीश मंदिर के कितने रुपये लोगे? वह बोला,’’सौ रुपये।’’ हम झट से बैठ गये। एक महिला की सहेली उसमें बैठी तो छठी महिला भी उसमें ठूस गई। हम ये सोच कर जल्दी बैठ गये कि ज्यादा से ज्यादा जगह घूम कर बस पर पहुंच जायेंगे। हमारी रिक्शा तुरंत चल प़ड़़ी। बाकि रिक्शा वाले आवाज़ लगा रहे थे ’’द्वारकाधीश मंदिर दस रुपये सवारी।’’साथ की सवारियों ने भी सुना। हममंे से एक महिला रिक्शावाले से पूरे रास्ते लड़ती जा रही कि उसने हमें लूट लिया है। वो कलप कलप के ब्रज भाषा में समझा रहा था कि तुमने रिक्शा का भाव किया था, सवारी का रेट नहीं पूछा था और छ जनी चढ़ी हो। ’तुम रिच्छा में लदी, जबी तो हमौं चलाए।’ अगर हमें पुलिस वाला ज्यादा सवारी के चक्कर में पकड़ लेयौ तो चालान तो हमौं भरना पढ़ैगो।’’ फिर वो यह कह कर चुप हो गई कि द्वारकाधीश सब देख रहें हैं। कुछ हमारे साथी पैदल भी जा रहे थे। अब उस महिला को टंेशन हो गई कि सौ रुपये का हिसाब छ महिलाओं में कैसे होगा?
पुरानी पतली गली जिसके दोनो ओर दुकाने थीं। ज्यादातर महिलाओं के श्रृंगार, चूड़ियों की और धातु के बने लड़डू गोपाल और उनके श्रृंगार और पोशाक की दुकाने थी। चांदी के सामान की खूब दुकाने थीं। मेरी इस यात्रा में पहले की गई तीन दिन मथुरा वुृंदावन गोवर्धन में रुकना और गिरिराज परिक्रमा मेरी स्मृति में साथ साथ चल रही थीं। उस समय हमने खाना, दर्शन और पैदल घूमना ही किया था। तब हमने दो जगह से पेड़े हनुमान टीले के पास ब्रजवासी से और गोंसाईं पेड़े वाले से लिए थे। लस्सी और पेड़े तो यहां के मशहूर हैं। लस्सी में मलाई डाल के देते हैं। मथुरा में पेड़ों का स्वाद और रंग सब जगह एक सा है, फर्क है तो सिर्फ चीनी की मात्रा का। मैं बताती जा रही थी कि ये बिना सजावट की खाने पीने की दुकानें हैं लेकिन इनके व्यंजनों का स्वाद लाजवाब है। द्वारकाधीश के मंदिर के आगे श्रद्धालुओं की चप्पलों के ढेर लगे थे। इतनी भीड़ की चप्पलों के लिए जगह की तंगी के कारण जूताघर नहीं बन सकता है। एक व्यक्ति वहां बैठा ध्यान रख रहा था। हमारे पहुंचते ही दर्शन का समय हो गया। भीड़ बहुत थी पर हमें अच्छे से दर्शन हो गये। मैं साथिनों के इंतजार में बाहर आकर खड़ी हो गई। यहां मैं हर प्रांत केे देशवासियों को देख रही थी और वे द्वारकाधीश के दर्शन करने आये थे। एक बार मैं सुबह यहां आई, दूर से पुलिसवालों को मंदिर के पास देखा। मेरे दिमाग में तुरंत प्रश्न उठ खड़ा हुआ कि यहां क्या हो गया है? आस पास की दुकाने वैसे ही चल रहीं थीं। मैंने हलवाई से पूछा कि यहां पुलिस क्यों है? उसने जवाब दिया कि ये ड़यूटी से पहले दर्शन करने आयें हैं। मैंने कचौड़ी, दही, ंआलू की सब्ब्जी़(इसे यहां आलू का झोल भी कहते हैं ) खस्ता कचौड़ी और साथ में छोटी छोटी पतली पतली जलेबियों का नाश्ता किया था। वो स्वाद मैं आज तक नहीं भूली हूं। शायद वहां घर पर नाश्ता नहीं बनता था। साइड की गलियों के घरों से लोग आते और दोना बनवा कर ले जाते। न ही यहां बैठ कर खाने की जगह है। तब तक साथिने आ गईं। सब ने अपनी चप्पलें पहन ली तो एक ई रिक्शा ने सवारियां उतारीं। हमने उससे पूछा,’’कृष्ण जन्मभूमि कै रुपये सवारी?’’वो बोला,’’दस रुपया सवारी।’’ हम छओं फिर उस पर लद गई। ये ज्यादा दूर नहीं था पर जाते समय रिक्शावाले से लड़ते जा रहे थे न, तो छ सवारियों के साथ दिक्कत का पता नहीं चला। अब शांति से जा रहे थे तो एक फालतू सवारी से सबको परेशानी लग रही थी।
6 comments:
bahut badia hai neelam ji
हार्दिक धन्यवाद
Bahut Badhai Ho!!! Itna Rochak tareeke se Vrindavan & Mathura Yatra Ka Varnan tareef ke Kabil hai!!! Meri posting Mathura Jila hospital ek Saal ke liye thi, lekin Mai khud us tareeke se enjoy Nahi Kiya jaisa aap 6 logo me Kiya!! Jai Ho!!!
Extrimly nice
हार्दिक धन्यवाद
हार्दिक धन्यवाद डॉक्टर पांडे
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