12 जून दोपहर 3 बजे अखिल भारतीय साहित्य परिषद्, उत्तर क्षेत्रिय अभ्यास वर्ग के समापन के पश्चात अक्षय कुमार अग्रवाल, भुवनेश सिंगल, राजकुमार जैन और मैं, जयंती देवी मंदिर के लिए निकले। भीषण गर्मी होने से सड़के भी खाली थीं। मन में मंदिर के बारे में जो सुना था वह सब याद आ रहा था। मंदिर के नाम से ही जिले का नाम जींद पड़ा। आज यह प्राचीन मंदिर जिले के आर्कषण का केन्द्र है। लोगों की मंदिर में गहरी आस्था है। हमें दूर से मंदिर का मुख्यद्वार बंद लगा। यह सोच कर गाड़ी से उतरे कि बाहर से ही इस पवित्र स्थान पर माथा टेक कर लौट जायेंगे। बाहर विशाल वट वृक्ष था। उसके चबूतरे पर बैठ कर मंदिर को देखने लगे। प्रवेश द्वार पर दोनो ओर माता की सवारी शेर और ऊपर बंजरंग बली विराजमान हैं। बाएं हाथ पर अन्नक्षेत्र जहां 1.30 बजे तक भोजन मिलता है। एकदम ध्यान में आया कि गेट पर ताला नहीं था। गेट तो हाथ लगाते ही खुल गया। हम विशाल मंदिर प्रांगण में पहुंच गए। और दूर से दर्शन भी किए। मंदिर में शिवजी, गणपति, लक्ष्मी जी और स्थानीय लोकदेव व बालसुंदरी की मूर्तियां भी हैं। यज्ञशाला अलग से है। मंदिर का एक पार्क और जयंती पुरातत्व संग्रहालय भी है।
मंदिर की स्थापना से जुड़ी कई कथाएं हैं। वामन पुराण, नारद पुराण और पद्म पुराण में भी जींद का उल्लेख मिलता है। यहां कहा जाता है कि समुद्र मंथन के समय भी देव सेनापति जयन्त ने यहाँ दानवों से अमृत कलश पाने के लिए इसी स्थान पर पूजा अर्चना कर विजय का आर्शीवाद मांगा था और अमृत कलश को देवताओं के पास पहुँचाया था। इसके बाद महाभारत काल में पांडवों ने यहाँ पर विजय के लिए जयंती देवी(विजय की देवी) की पूजा की थी। विजयी होने पर जयंती देवी मंदिर का निर्माण करवाया। जयंती देवी मंदिर के नाम से इसका नाम जयंताय प्रस्थः रखा गया था। समय के साथ जयंतीपुरी का नाम बदलकर जीन्द हो गया।
इसके बाद महाराजा जीन्द ने लजवाना गांव विजय के बाद यहां पर एक राजराजेश्वरी मंदिर का निर्माण करवाया था।
एक दंतकथा भी प्रचलित है जो इस प्रकार है यहां के राजा के एक भाई का विवाह कांगड़ा के राजा की बेटी से हुआ। कन्या जयंती देवी की बहुत भक्त थी। विवाह के समय वह बहुत चिंतित थी क्योंकि वह देवी से दूर नहीं जाना चाहती थी। उसने प्रार्थना की और अपना दुख देवी को बताया। उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर जयंती देवी, उसके सपने में आयीं और कहा कि वह उसके साथ जायेंगी। शादी के बाद जब दुल्हन की डोली चली तो अचानक उसकी डोली बहुत भारी हो गई। दुल्हन ने अपने पिता को अपना सपना बताया। उन्होंने तुरंत दूसरी डोली सजा कर उसमें जयंती देवी की मूर्ति को विराजमान किया। बेटी के साथ उसकी अराध्य जयंती देवी को भी साथ भेजा। राजा ने जयंती देवी मंदिर का निर्माण कर उसमें मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा की।
आज भी भक्तजन अपने मनोरथों को पूर्ण करने के लिए मंदिर में यज्ञ, पूजा-अर्चना व भण्डारे आदि का आयोजन करते हैं। विशेष दिनों में यहां मेले जैसा माहौल होता है। क्रमशः
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