सड़क का रास्ता मुझे सदा अच्छा लगता है क्योंकि इससे शहर का परिचय हो जाता है। जींद की सीमा से पहले खूब बंदर सड़क के दोनो ओर थे।
शहर में घुसते ही भीड़ भाड़ वाला पुराना शहर है। कहीं सड़क के किनारे ही चारा मशीने लगी हुई हैं। भीषण गर्मी में भी हरे चारे से लदे हुए ट्रैक्टर की ट्रालियां खड़ी थीं। इसका मतलब है कि घर में गाय भैंस पाल सकते हैं क्योंकि चारा आस पास ही मिल जाता है।
कहीं सड़क के किनारे परिवार खजूर के पत्तों से झाड़ू बना और बेच रहे थे।
सम्पन्न शहर है दुकाने सामान से भरी हुईं थी और खरीदार भी थे। हुक्के की दुकाने भी आई जिसमें तरह तरह के हुक्के सजे हुए थे।
प्रशिक्षण शिविर में समय पर पहुंचने की जल्दी में मैं गाड़ी से नहीं उतरी। हुक्कों की तस्वीरें लेती रही। राजकुमार जी तम्बाकू की किस्में बताते रहे। रेलवे स्टेशन से छोटूराम किसान महाविद्यालय एक किमी दूर था। अब हम पहुंच चुके थे। आस पास बीजों की दुकाने देख कर मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। मैंने सोच लिया था कि लौटते समय बीज खरीदूगीं। समय पर पहुंचने की कोशिश में हम रास्ते में कहीं चाय के लिए भी नहीं रुके क्योंकि नरेला मार्ग में निर्माण की वजह से वन वे ट्रैफिक होने से हम काफी लेट हो गए थे। महाविद्यालय सड़क पर ही है। पहुंचते ही हमने पंजीकरण करवाया। सभी आगंतुकों का अक्षत -रोली व तिलक के परम्परागत अभिनंदन
एक घण्टे का लंच ब्रेक था। महाविद्यालय में जब प्रवेश किया था तो मुझे दूर से विशाल बरगद के पेड़ के नीचे प्रदर्शनी सी दिखी थी। मैंने सोच रखा था लंच के बाद वहां जाकर देखूंगी। सुस्वादु भोजन के बाद मैं चल दी। गर्म लू के थपेड़े लग रहे थे। ग्रिल से बाहर मैं हैरान होकर प्रदर्शनी देखने लगीं। मैंने उनसे पूछा,’’मैं इन वस्तुओं को पास से देख सकती हूं।’’उन्होंने कहा,’’उधर से रास्ता है आप आइए।’’ मैं खुशी से उधर चल दी। पर वहां तो बंदरों का झुण्ड पहरेदारी कर रहा था। दो लोगों ने बंदरों को भगा कर मुझे वहां पहुंचाया। जहां संस्कृति संरक्षण अभियान के तहत प्रदर्शनी लगी थी। तेज गर्म हवा से मेरे बाल कपड़े उड़ रहे थे पर यहां तो मुझे अपनी 90़+ दादी, नानी याद आने लगीं और अब 93 साल की अम्मा, जो इनमें से प्रतिदिन किसी न किसी चीज का नाम लेती हैं। क्रमशः
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