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Tuesday 26 September 2023

पाठशाला और प्रयोगशाला नए भारत का बाल साहित्य नीलम भागी भाग 2Part 2

अपने पच्चीस साल के प्रयोग से प्राप्त परिणाम से लिख रही हूँ। मैं 1982 में नोएडा रहने आई। देश के नामी स्कूलों को सस्ते दरों पर जगह दी गई, पर जिसमें स्टेटस, आय, माता पिता की शैक्षिक योग्यता आदि उनके नियमों के अनुसार दाखिला दिया जाता था। या सरकारी दूर कहीं प्राइमरी स्कूल था। ऐसे में असंगठित क्षेत्रो के कामगारों आदि के दूर दराजों से आए बच्चों के लिए मैंने घर में पाठशाला खोल ली। जो पाठशाला कम, प्रयोगशाला अधिक थी। मैंने बी.एड में चाइल्ड साइक्लोजी बहुत मन से पढ़ी थी। दो सौ से अढाई सौ बच्चा, तीन से बारह साल का हमेशा रहता, इसमें पढ़ता था। मेरी क्षमता के कारण संख्या हमेशा इतनी रही लेकिन बच्चे बदलते रहते थे। कारण था नौएडा भी विकास कर रहा था। जिससे कुछ की आय भी बढ़ रही थी। उसके बच्चे का पब्लिक स्कूल में एडमीशन हो जाता तो वह औरों को मेरे यहाँ पढाने की सलाह देता था। कुछ ऐसे भी थे मसलन भवन बनाने राज मिस्त्री, लेबर आते थे जिनके बच्चे मेरे यहाँ पढ़ने बिठा दिए जाते। भवन तैयार हो गया। तोे अब जहाँ काम मिला उन्होंने वहाँ झुग्गी डाल ली। बच्चों की पढ़ाई छूट गई।

  और मेरी याद में बी.एड. में पढ़ी कोठारी कमीशन की रिर्पोट आ जाती कि पचास प्रतिशत बच्चे प्राइमरी शिक्षा पूरी करने से पहले स्कूल छोड़ देते हैं। अब मन में एक संकल्प लिया कि मेरे स्कूल में जो भी बच्चा आयेगा, सबसे पहले उसे हिंदी पढ़ना सिखाना है। क्योंकि पता नहीं कब उसके पापा की फैक्टरी बंद हो जायेगीे। पापा बच्चों को गाँव भेज कर नई नौकरी की खोज में लग जाते। मैंने इस बात को ध्यान में रखा और दाल रोटी की जरुरत ने नये नये तरीके भी सुझाए। इनमें ऐसे बच्चे भी थे जिनके माता पिता हस्ताक्षर करना भी नहीं जानते थे। इसलिए इन्होंने जो सीखना था, स्कूल से ही सीखना था। उस समय चंपक, नंदन, चंदामामा, लोक कथाएँ, पंचतंत्र की कहानियाँ, कॉमिक्स आदि मंगा कर रखती थीं। मेरा मन बच्चे का हो गया था। हाथ में तस्वीरों वाली कहानी की किताब लेकर प्रतिदिन किसी न किसी कक्षा में कहानी सुनाने जाती। पहले किताब के पन्ने पलट कर चित्र बच्चों के सामने करती फिर उन्हें एक कहानी सुनाती। उस कहानी में बीच बीच में बच्चों को भी शामिल करती, वो भी बोल कर अपनी राय देते। इसलिए मैं जिस कक्षा में जाती बच्चे पहले तालियाँ बजाते थे। कहानी सुनाने के बाद मैं कभी नहीं पूछती कि बच्चों तुम्हें इस कहानी से क्या शिक्षा मिलती है? शिक्षा सीख आदि देने के लिए तो पाठ्यक्रम में किताबें हैं न! ये तो छोटी छोटी कहानियाँ, सरल भाषा शैली में, संवाद शैली अधिक और शुद्ध मनोरंजन के लिए सुनाती थी। जब बच्चे कहानी में बुरी तरह से खो जाते यानि सुई पटक सन्नाटाहोने पर मैं किताब में बीच बीच में देख कर बोलती, ताकि बच्चों को लगे कि पुस्तकों में कितनी अच्छी अच्छी कहानियाँ होती हैं! जिससे उनमें किताबें पढ़ने का शौक जागता था। क्रमशः 



2 comments:

Aao Badlen Apni Soch said...

मैडम जी जय हिन्द

बहुत सुंदर प्रयास और प्रयोग। आपकी जितनी प्रशंसा करूं, कम है।

Neelam Bhagi said...

हार्दिक आभार