नौएडा में अलग अलग राज्यों से लोग आ रहे थे। परिवारों की आय में, परिवेश में, माहौल में स्टेटस में फर्क था पर बच्चे हमेशा एक से ही होते हैं। रीडिंग सीखते ही पंचतंत्र, हितोपदेश, अमर कथाएँ, जातक कथाएँ और अकबर बीरबल सभी बहुत चाव से पढ़ते थे।
राजीव खे़रोर डायरेक्टर (लॉस एंजिल्स अमेरिका)
का कहना है कि भारत का बाल साहित्य लेखन के समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए,
जो बच्चों को उनकी संस्कृति, सभ्यता और विरासत से जोड़ता हो और उनपर
कार्यक्रम भी बनें। जैसे
आस्ट्रेलियाई
ब्रॉडकास्टिंग कंपनी दुनिया में सबसे ज्यादा बच्चों के कार्यक्रम बनाती है। यह
आस्ट्रेलियाई सरकार का विश्वास है कि लोगों की एक बेहतर पीढ़ी बनाने के लिए हमें
बच्चों के लिए ज्ञानवर्धक कार्यक्रमों की आवश्यकता है, ताकि उन्हें बेहतर इंसान बनाने के लिए संज्ञानात्मक कौशल
विकसित हो सकें। वे उन कंपनियों को उत्पादन का पैसा देते हैं जो बच्चों के
ज्ञानवर्धक कार्यक्रम बना रही हैं। और यही कारण है कि ऑस्टेªलियाई बच्चों के कार्यक्रम दुनिया के सभी प्रसारण नेटवर्कों
के लिए सिंडिकेट हैं।
अर्पणा भारद्वाज बोस्टन कंस्लटैंट ग्रुप,
मैनेजिंग डॉयरैक्टर एण्ड र्पाटनर का, नये भारत के बाल साहित्य के बारे में विचार है
कि ’’यह सलेबस से अलग समझ
बढ़ाने वाला हो। वैज्ञानिक दृष्टिकोण का ध्यान रख कर रचित हो न कि अंधविश्वास और
भाग्यवाद को परोसता हो। बालमन पर इसका बहुत असर होता है। जिसका प्रभाव बचपन में
पढ़ने वाले पर और बाद में कहीं न कहीं, उसके बच्चों पर भी पड़ता है। जैसे मुझे भारत छोड़े बीस साल हो गए हैं। मेरे मन
पर रामायण, महाभारत के प्रसंगों का
प्रभाव है। अपनी बेटी रेया को उनके द्वारा ही फैमली वैल्यू सिखाती हूँ। इसलिए
स्कूल में मंडारिन की जगह वह हिंदी शौक से पढ़ती है। ताकि वह खुद से ही उन कहानियों
को हिंदी में पढ़े’’
अभिजात भारद्वाज
सी.सी.ओ( सी. एल. ओ. मुंबई) का कहना है कि नये भारत के बाल साहित्य में बच्चे सही
पढ़े। जिससे उनमें स्वाभीमान जागे। मसलन शिवाजी ,राजा चोल आदि। आजकल किसी भी सोसाइटी के प्ले एरिया में जाकर
देखें। बच्चे टेढ़े मेढे़ अंदाज में अंग्रेजी बोलते मिलेंगे। नाम भी उनके बिना किसी
अर्थ के दिया, टिया, मिया, लिया आदि हैं। जो अमेरिका के लिए तैयार किए जा रहें हैं। वीजा मिलते ही देश
छोड़ चल देंगे। विदेशियों को उनके नाम लेने में परेशानी न हो इसलिए नाम भी ऐसे रखें
हैं। इसलिए पढ़ने की संस्कृति को विकसित करना होगा, जिससे भारत के गौरवशाली इतिहास को जानें।
जिन बच्चों को पढ़ने की आदत हो गई है तो अब सुविधाएँ भी बहुत हो गईं हैं। कहीं जाना हो तो किताबें उठा कर जाने की बजाए किंडल साथ है तो किताब उपलब्ध है। किताब की तरह ही पेज हैं। कोई शब्द समझ न आए तो उस पर अर्थ भी तुरंत सामने है। पर मकसद है कैसा साहित्य उनको संवेदशील बनायेगा। मनोरंजक ढंग से बच्चों के मानसिक स्तर के अनूरूप तार्किकता जगाने वाली सामग्री हो, जिसे बच्चे दिल से पढ़ें। उसे पर्यावरण, अपनी संस्कृति और सभ्यता से जोड़ना होगा। देश जितने साल गुलाम रहा, उतने साल आजादी के लिए संघर्ष भी चला, बताना होगा। अपने पर्वो की कहानियों से परिचय करवाना जरुरी है। क्योंकि उत्सव समाज को जोड़ता है। अपने ऋषि मुनियों की जीवन गाथा से परिचय कराने वाला लेखन हो। महापुरुषों का सरल ढंग से परिचय कराना है। इस सब के लिए लिखते समय, बच्चे का मन लेकर, बचपन में उतरना होगा। तभी वह नये भारत का बाल साहित्य होगा। डिजिटल युग है इसलिए नये भारत के बाल साहित्य में बच्चे के परिवेश को, लोकजीवन, गाँव, गरीब आदिवासी बच्चों को समुचित स्थान देना होगा क्योंकि साहित्य सबके लिए है। भारत का बाल साहित्य पढ़ते हुए, उसके जीवन में ईमानदारी, हर्ष, उल्लास, आत्मविश्वास आए। उसे पता ही नहीं चले कि कब उनमें पढ़ने की आदत हो गई है और किताबों से दोस्ती हो जाए। उत्त्कर्षिनी मंच पर बेस्ट डॉयलॉग राइटर का अवार्ड ले रही थी और मेरी आँखों से टपटप आँसू बह रहे थे।
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