लोरी,
पालना गीत,
तुकांत कविता घर में सुर और लय से सुनते हुए जब बच्चा
नर्सरी में आता तो इसी शैली में मौखिक चित्रों के साथ बच्चों का पुस्तकों से परिचय
कराया जाता था। स्थानीय किवंदतिंयों से जानी गई कहानियाँ,
आस पास के पशु पक्षियों से संबंधित कहानियाँ,
सुनाने से उनकी मौखिक भाषा शैली संवरती। मेरी
दादी बहुत ग़ज़ब की कहानी बाज थीं । उनकी कहानी में कवित्त ज़रुर होता था। बाइस साल
मैंने देखा बच्चों को मेरी दादी की कहानी बहुत अच्छी लगती थी। कौआ चिड़िया की खिचड़ी
की कहानी का कवित्त बच्चे घर में गाते हुए जातेे थे। उनकी कहानी में एक दागड़दौआ
था। बी.एस.सी. तक मेरे पास जूलॉजी थी,
उसमें और चीड़ियाघर में मैंने दागड़दौआ कहीं भी न देखा,
न पढ़ा। पर बच्चों को एक बार में उसका कवित्त याद हो जाता
था। दादी की कहानियाँ कभी भी भाग्यवादी और भूत प्रेत वाली नहीं थीं। इसलिए बच्चों
को जो भी बताया सुनाया जाता,
उसका मनोरंजक
होना पहली शर्त थी।
जैसे हाथी का चित्र लगा कर बाल गीत
हाथी आया,
हाथी आया।
झूम झूम कर आता
है।
अपने कान हिलाता
है।
लंबे दाँत दिखाता
है।
छोटी पूंछ हिलाता
है।
थप थप करता आता
है।
हाथी मुझको भाता
है।
बाइस साल तक पहले
दिन स्कूल आने वाले बच्चे इसे गाते हुए घर जाते थे। फिर उन्हें हाथी और दर्जी की
कहानी सुनाई जाती थी। इसी तरह नई नई बच्चों के मन के अनुकूल रचना की जाती जो
बच्चों में हिट हो जाती यही तो बाल साहित्य है जो समय और बच्चों की आयु के अनुसार
विकसित होता जाता है। कई बार हटाना भी पड़ता था। जैसे
नई बच्ची ने आते
ही कविता सुनाई
चक्की रानी,
चक्की रानी।
उसमें आटा पीसेगे,
रोटियाँ
पकायेंगे।
भइया को
खिलायेंगे।
भइया पढ़ने
जायेगा।
अफसर बनके आयेगा।
बाल मन पर,
हर बात बहुत असर करती है। यह तो बेटा बेटी में
भेद भाव कर रही है। ऐसे बालगीत को बदला। क्रमशः
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