बहन की सुरक्षा के लिए भाई की प्रतिबद्धता, भाई बहन के स्नेह का प्रतीक रक्षा बंधन सावन मास की पूर्णिमा को (इस वर्ष 19 अगस्त) को मनाया जाता है। हमारे विशाल भारत में कहीं न कहीं प्रतिदिन उत्सव है और हिंदू धर्म में उत्सव के बारे में प्रचलित कथाएँ उसे और भी लोकमंगलकारी बना देती हैं। रक्षाबंधन के बारे में भी कई पौराणिक कथाएँ हैं, मसलन भगवान कृष्ण ने जब शिशुपाल का वध किया था तो सुर्दशन चक्र से उनकी अंगुली पर घाव हो गया था। उनकी अंगुली से रक्त बहता देखकर द्रोपदी ने अपनी साड़ी चीर कर उसका टुकड़ा, उनकी अंगुली पर बांधा था। श्री कृष्ण उनके स्नेह से प्रभावित हुए। जब द्रोपदी का चीरहरण हो रहा था तो श्रीकृष्ण उसकी रक्षा के लिए पहुँचे। तभी से रक्षा बंधन मनाने की परंपरा है। इतिहास में भी कई कहानियां हैं। रक्षा बंधन मनाने के पीछे हमारे पूर्वजों की बहुत प्यारी सोच है। गांव की बेटी, दूसरे गांव में ब्याही जाती है। उसके सुख दुख की खबर भी रखनी है। माता पिता सदा तो रहते नहीं हैं। उनके बाद भाई बहन की सुध लेता रहे। इस त्यौहार पर भाई के घर बहन आती है या भाई, बहन के घर राखी बंधवाने जाता है। बहन भाई का यह उत्सव परिवारिक मिलन है। इसे देश विदेश में रहने वाले समस्त हिन्दू मनाते हैं। पहले राजपुरोहित राजा को रक्षा सूत्र बांधते थे। राजा धर्म और सत्य की रक्षा का संकल्प लेता था। पारिवारिक उत्सव तो है ही जो चलता आ रहा है। धार्मिक मान्यताओं के कारण समस्त हिन्दू धर्म का प्रत्येक वर्ग, जाति और वर्ण इसे मनाता है। इस पर्व की उत्पत्ति लोक संस्कृति से हुई, जिसमें पारंपरिक रूप से एक जिम्मेदारी का हिस्सा दिया जाता है। जो रक्त से रिश्तेदार नहीं हैं, वे भी आपस में रक्षासूत्र बांधने से स्वैक्षिक संबंधों की परम्परा के सम्मान के प्रतीक के रूप में बंध जाते हैं।
संघ परिवार के साथ परम पूजनीय डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने समस्त हिन्दू समाज में सामजस्य स्थापित करने के लिए इस दिन परम पवित्र भगवा ध्वज पर रक्षा सूत्र बांधकर उस संकल्प का स्मरण करवाया जिसमें कहा गया है कि धर्मों रक्षित रक्षितः अर्थात हम सब मिलकर धर्म की रक्षा करें। समस्त हिन्दू समाज मिलकर, समस्त हिन्दू समाज की रक्षा का संकल्प ले। स्वयंसेवकों ने समस्त हिन्दू धर्म की रक्षा का संकल्प लिया। इस प्रकार इस सुन्दर स्वरूप के साथ रक्षा बंधन, चौथा संघ उत्सव हो गया। संघ का मानना है कि सबके सुखी हुए बिना हम सुखी नहीं होंगे। उसके लिए विकास पहली सीढ़ी है। विकास के लिए सुरक्षा बहुत जरूरी है। हम सुरक्षित नहीं हैं तो विकास कैसे संभव है! लंबे पराधीन काल के दौरान समाज का प्रत्येक वर्ग संकट में था। इसके लिए सभी वर्ग, वर्ण, जाति जो अलग थलग पड़ गईं थी,ं उनमें असुरक्षा की भावना घर कर गई थी। सभी को अपने अस्तित्व और सुरक्षा की चिंता थी। इसलिए उनके भी छोटे छोटे वर्ग बने और वे अपने छोटे से वर्ग मेें अपने को सुरक्षित महसूस करते थे। इसका लाभ तो हुआ लेकिन विभिन्न वर्गों मेें दूरियाँ बढ़ती गईं। कहीं कहीं तो हिन्दू समाज में एक दूसरे को छूना तो दूर, उनकी परछाईं भी पड़ना वंचित का अपराध माना जाता था। जिसकी परछाईं पड़ गई उसे अपराधी समझते थे। जातियों के भेद बहुत गहरे हो रहे थे। प्रांत और भाषाओं की विविधता के कारण विद्वेष पैदा हो रहा था। ऐसा लगता था कि अगर यह खाई नहीं पाटी गई तो समाज अनगिनत टुकड़ों में बट जायेगा। वैमनस्य की खाई को और चौड़ा करने में विदेशी शक्तियों ने आग में घी का काम किया। धर्म का काम है जोड़ना, सबको धारण करना, अंधकार रूपी अज्ञान से उभारना है। रक्षा बंधन, धर्म का बंधन है जो परिवार को बांधता है और परिवारों से राष्ट्र है। राष्ट्र की सुरक्षा और विकास के लिए बंधन में रहना होगा तभी उन्नति है। संघ (यानि जुड़ना) के इसी विश्वास को स्वयंसेवकों ने समाज में पुनः स्थापित करने का श्रेष्ठ कार्य किया है। उन्होंने इसके स्थायी निवारण के लिए संकल्प लिया। समाज का एक भी अंग अपने को अलग थलग या असुरक्षित न समझे, प्रत्येक में यह भावना जाग्रत करना संघ का उद्देश्य है। रक्षाबंधन के पर्व पर स्वयंसेवक श्रद्धेय भगवा ध्वज को रक्षा सूत्र बांध कर इस संकल्प को दोहराते हैं जिसमें कहा गया है कि धर्मो रक्षति रक्षितः अर्थात् हम सब मिल कर धर्म की रक्षा करें। अपनी श्रेष्ठ परंपराओं का रक्षण करें। यही धर्म का व्यवहारिक पक्ष है। जिससे यह कार्यक्रम अनोखा बन गया है। इसके बाद अब देश में लाखों स्वयंसेवक मलिन बस्तियों में जाकर, वहाँ निवास करने वाले लाखों वंचितों के परिवारों में बैठ कर रक्षाबंधन बड़े भाव से मनाते हैं। उन्हें रक्षा सूत्र बांधते हैं और उनसे अपने को रक्षासूत्र बंधवाते हैं। इसका भाव यही होता है कि सम्पूर्ण समाज, सम्पूर्ण समाज की रक्षा का व्रत ले। लोग श्रेष्ठ जीवन मूल्यों की रक्षा का व्रत लें। सामाजिक आंदोलन और सांस्कृतिक समरसता राष्ट्र को एकात्मकता के सूत्र में पिरो देते हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दृष्टिकोण, उसके शब्द शब्द और व्यवहार के निर्वाह से परिलक्षित होता है। भारत दुनिया का इकलौता पर्वों का देश है जो उत्सवों में इतना प्रचुर है। जिसमें संघ का चौथा पर्व यानि रक्षा बंधन पर मनोरंजन के लिए भाषण नहीं दिया जाता है। ऐसा भाषण होता है जिस पर चिंतन होता है जो परिवर्तन लाता है। मेरा समाज मेरा धर्म, धर्म से चलते हुए, सबका विकास हो। यह सब तुरंत तो नहीं होता है। विकास के रास्ते पर निरंतर लगना है और लगाना है। क्योंकि अगर गरीबों की संख्या बढ़ेगी तो गरीबी का विस्फोट भी सबको झेलना होगा। नए समय में नया सीखना होगा और सिखाना होगा।
सबसे श्रेष्ठ संबंध भातृत्व भाव है। इस भावना से स्वयंसेवक किसी भी प्रांत या भाषा के वंचित गरीब परिवारों में जाकर वहाँ रक्षाबंधन का त्यौहार मनाते हैं। उनके साथ भोजन करते हैं। जो रक्षाबंधन पर रक्षासूत्र बंध गया तो इन परिवारों के संपर्क में रहते हैं। इस उत्सव के द्वारा समाज के वे वर्ग जो हाशिए पर खड़े थे, वे भी मुख्यधारा में आने लगे हैं। यह व्यक्तिगत बहन भाई का उत्सव, संघ के प्रयास से धीरे धीरे सभी प्रांतों में सामाजिक स्तर पर मनाया जाने लगा है। अब रक्षाबंधन सामाजिक समरसता का प्रतीक है। स्वयंसेवक रक्षासूत्र बांधते समय और बंधवाते समय कभी गरीबी, अमीरी, जाति, प्रांतीयता का मन में भाव नहीं लाते। बस एक दूसरे की रक्षा का प्रण लेते हैं। भारत हमारी मातृभूमि है, हम सब भारत माता की संताने हैं। हमें यह हमेशा याद रखना है कि हमारा राष्ट्र के प्रति कर्तव्य है। उसकी रक्षा का प्रण कभी न भूलें। सबको साथ लेकर चलना और एकात्मता का भाव जागृत करना ही संघ का उद्देश्य है। रक्षाबंधन मनाने के पीछे सशक्त, समरस और संस्कार संपन्न समाज निर्माण का भाव है। जिन प्रांतों में इसे जिस रूप में मनाया जाता है। वहाँ स्वयंसेवक ध्वज पूजन के बाद उनमें शामिल होते हैं। भाव तो एक ही है न। महाराष्ट्र, गोआ, केरल, गुजरात सागर तटीय प्रांतों में इसे नारियल पूर्णिमा भी कहते हैं। इसमें वर्षा के देवता वरूण की पूजा करके समुद्र से शांत रहने की प्रार्थना करते हैं और समुद्र को नारियल भेट करते हैं। फिर बहने भाई को रक्षासूत्र बांधतीं हैं। इस दिन से फिर से मछली पकड़ना शुरू किया जाता है। उड़ीसा में किसान मवेशियों को भी रक्षा सूत्र बांधते हैं क्योंकि इस दिन खेती के देवता बलभद्र का जन्मदिन है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और झारखंड में कजरी पूर्णिमा है तो पंजाब हरियाणा में इसे सलोनो कह कर मनाया जाता है। झारखंड, उत्तराखंड में तो श्रावणी मेला लगता है। देवघर जाने पर मैंने देखा वहाँ तो भगवा के सिवाय कोई रंग ही नज़्ार नहीं आ रहा था। संघ ने इस गौरवशाली व भावना प्रधान पर्व को व्यक्तिगत के स्थान पर सामाजिक स्तर पर मनाने की परंपरा डाली। रक्षाबंधन सामाजिक परिवारिक एकसूत्रता का संास्कृतिक उपाय है। अब कुछ और भी परिवर्तन होने लगे हैं। आजकल दो बच्चों का, देश विदेश में नौकरी के कारण एकल परिवार है। कहीं दो बहनें हैं तो कहीं दो भाई हैं। त्यौहार भारतीय संस्कृति की आधारशिला है वो तो मनाया जायेगा ही इसलिए बहन बहन को राखी बांधती है और भाई भाई को और मिलकर पकवान बनाते हैं। हम पर्यावरण को भी नहीं भूलें हैं इसलिए पेड़ों की रक्षा के लिए उन्हें भी राखी बांधने लगे हैं।
यह लेख प्रेरणा शोध संस्थान नोएडा से प्रकाशित प्रेरणा विचार पत्रिका के अगस्त विशेषांक में प्रकाशित हुआ है।
अमेरिका में उत्कर्षनी की बेटियां गीता और दित्या एक दूसरे को राखी बांधती हैं और मां के साथ पकवान बनाने में मदद करती हैं।
नीलम भागी(लेखिका, जर्नलिस्ट, ब्लॉगर, टैªवलर)
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