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Thursday 1 February 2024

इक नाज़नीन ने पहने फूलों के जैसे गहने, प्रकृति का पर्व वसंत पंचमी नीलम भागी

 


प्रकृति का इकलौता पर्व है, जिसमें लगता है कि जैसे प्रकृति ने हमें वसंत ऋतु का आना, एक उपहार के रुप में दिया है। शरद ऋतु जाने की तैयारी कर रही होती है। प्रकृति का कण कण खिलने लगता है। बसंत ऐसा उत्सव है जिसमें ठंड से सिकुड़े सिमटे पशु और परिन्दे लगते हैं अब वो ज़िन्दे। यानि पूरी कायनात में उमंग आ जाती है। जहाँ भी वन उपवन हैं वहाँ बहार आ जाती है। खेतों में सरसों फूली हुई है और धरती तो फूलों के गहनों से सजने लगी है।


 ऋतुराज बसंत के स्वागत में लगता है ’किसी नाज़नीन ने पहने, फूलों के जैसे गहने,’ बेल, बूटों और वृक्षों पर नई कोंपलें फूट गई हैं। उन पर फूल खिलने लगे हैं, भौंरे, तितलियाँ मंडराने लगे हैं। मधुमक्खियों में फूलों के रस को पीने की होड़ है यानि ’बसंत पंचमी का उत्सव’ सब ओर रंग और उमंग से सराबोर है। 

बसंत पंचमी से वसंत ऋतु का आगमन होता है। कटीली ठंड का स्थान बसंती हवा ले लेती है। 

बसंत को ऋतुओं का राजा इसलिए कहते हैं क्योंकि पंच तत्व जल, वायु, धरती, आकाश, अग्नि सभी अपना मोहक रुप दिखाते हैं। स्वच्छ आकाश, सूर्य का ताप सर्दी की कंपकंपाहट से मुक्त करता है तो पक्षी उड़ने का सुख प्राप्त करते हैं। सावन की हरियाली सर्दी तक बूढ़ी हो जाती है। बसंत उसे फिर युवा कर देता है। सतत सुदंर लगने वाली प्रकृति वसंत ऋतु में सोलह कलाओं से खिल उठती है। ब्रह्मपुराण के अनुसार ब्रह्मा जी को वनस्पतियों, जीवधारियों की मनमोहक रचना के बाद संतुष्टि नहीं मिली, सृष्टि मौन और उदास महसूस हुई। तब विष्णु जी के कहने पर उन्होंने अपने कमण्डल के जल की अंजुरी भर कर उसे अभिमंत्रित करके भूमि पर छिड़का तो वृक्षों से एक अद्भुत चर्तुभुजी स्त्री प्रकट हुई। जिसके एक हाथ में वीणा तथा दूसरा हाथ वर की मुद्रा में था। अन्य दोनों हाथों में पुस्तक एवं माला थी। ब्रह्मा जी ने देवी से वीणा बजाने का अनुरोध किया। देवी की वीणा की झंकार सुनते ही जीवों को वाणी मिल गई। जल की धारा में कलकल और हवा में सरसराहट के साथ मूक सृष्टि मुखर हो गई। वह तिथि माघ महीने की शुक्ल पक्ष की पंचमी थी। जिसे भारत, नेपाल, बंगलादेश, बाली और इण्डोनेशिया में बसंत पंचमी के रुप में मनाते हैं। सरस्वती को बागीश्रवरी, भगवती, शारदा, वीणावादनी और विद्या, बु़िद्ध देने वाली देवी के रुप में पूजा जाने लगा। ये कला और संगीत की देवी कहलाती है। सोलह कलाओं से संपूर्ण श्री कृष्ण के लिए ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार, सर्वप्रथम श्रीकृष्ण ने ही सरस्वती पूजन किया था।      

 और मानव मन का इस दिन पीले कपड़े पहनना प्रकृति को अपनाने का भाव दर्शाता है। क्योंकि पूरे उत्तर भारत में पीले सरसों के फूल दिखाई देते हैं। खेतों में तो ऐसा लगता है मानों धरती ने पीले कपड़े पहने हों। दक्षिण भारत में इसे श्रीपंचमी कहा जाता हैं। सरस्वती पूजन में पुस्तकों, वाद्य यंत्रों की पूजा करना, गृह प्रवेश, नया कारोबार शुरु करना, बच्चों को पुस्तकें भेंट करना आदि पूरे देश की तरह है पर वस्त्र किसी भी फूलों के रंग के रंग बिरंगे पहनते हैं। महानगरों में जिन्होने छतों पर बागवानी की है, उन्हें भी वसंत उनके परिश्रम का फल, रंग बिरंगे फूलों से देती है। कहीं सफेद फूल भी प्राकृतिक सौन्दर्य को बढ़ाते हैं।

  काफी के फूल सफेद रंग के होते हैं। जब वे खिलते हैं, तो सारा बागान हरे और सफेद रंग में तब्दील हो जाता है। ये नजा़रा देखने में बहुत खूबसूरत होता है। लेेकिन इनका जीवन काल केवल चार दिन का होता है और ये फल में बदल जाते हैं। गुजरात में इस दिन फूलों का आदान प्रदान किया जाता है। 

   हमारे किसी भी उत्सव में घर में पकवानों की महक भर जाती है क्योंकि पकवानों का भी हमारे पर्व में बहुत महत्व है। हर राज्य की प्रसाद बनाने की अपनी परंपरा है। पीले चावल या हलुआ बनाना, खाना, खिलाना और परिवार सहित सरस्वती पूजन करना तो हिंदू करते ही हैं। प्रसाद में कहीं थोड़ा बदलाव है। प. बंगाल में खिचड़ी, राजभोग, बिहार में केसरी रंग के मालपुए और बूंदी, पंजाब में केसरिया मीठे और नमकीन चावल, तेलंगाना और दक्षिण भारत में शुद्ध घी में मीठे भात और केसरी लड्डू, उत्तर प्रदेश में 16 तरह के व्यंजन जिसमें पीले मीठे का भोग लगाया जाता है। महाराष्ट्र में पूरनपोली, पुआ और खास तरह से चने की दाल बनती है। पूरे देश में इस दिन बिना साहे के विवाह संपन्न किए जाते हैं। कोई भी शुभ कार्य कर सकते हैं। 

  बच्चे का अन्नप्राशन यानि पहली बार अन्न खिलाने का संस्कार किया जाता हैं। परिवार का सबसे बड़ा सदस्य उसको खीर चटाता है। बसंत पंचमी से बच्चे को सॉलिड फूड देना शुरु किया जाता है। वैसे बच्चे को छ महीने का होने पर पहले ही अन्न देने लगते हैं पर अन्नप्राशन संस्कार बसंत पंचमी को कर लेते हैं। 

बच्चे का तख्ती पूजन(अक्षर ज्ञान) करते हैं। सरस्वती पूजन के बाद तख्ती पर हल्दी के घोल से बच्चे की अंगुली से स्वास्तिक बनवाते हैं। परिवार बोलता है

गुरु गृह पढ़न गए रघुराई, अल्पकाल सब विद्या पाई। 

और बच्चे की स्कूली शिक्षा शुरु होती है।   ऐसा माना जाता है कि महाभारत के रचियता वेदव्यास मानसिक उलझनों में उलझे थे तब शांति के लिये वे तीर्थाटन पर चल दिए। दंडकारण्य(बासर का प्राचीन नाम) तेलंगाना में, गोदावरी के तट के प्राकृतिक सौन्दर्य ने उन्हें कुछ समय के लिए रोक लिया था। यहीं ऋषि वाल्मिकी ने रामायण लेखन से पहले, माँ सरस्वती को स्थापित किया और उनका आर्शीवाद प्राप्त किया था। आज उस माँ शारदे निवास को श्री ज्ञान सरस्वती मंदिर कहते हैं। बसंत पंचमी को बासर में गोदावरी तट स्थित इस मंदिर में बच्चों को अक्षर ज्ञान से पहले अक्षराभिषेक के लिए लाया जाता है। और प्रसाद में हल्दी का लेप खाने को दिया जाता है। भारत भूमि ज्ञान की भूमि कहलाती है। विदेशी छात्र बौद्ध काल में पढ़ने आए, जब वे लौटे तो अपने साथ कई भारतीय परंपराएं लेकर लौटे। जहाँ जहाँ बौद्ध धर्म का प्रसार हुआ वहाँ सरस्वती पूजन भी होने लगा। जैसे चीनी और जपानी भी पूजने लगे।

      पूर्वांचल में बसंत पंचमी को होलिका दहन के लिए ढाड़ा गाढ़ देते हैं। फगुआ के बिना होली कैसी!! अब फगुआ, फाग, जोगीरा और होली गायन शुरु हो जाता है। जिसमें शास्त्रीय संगीत, उपशास्त्रीय संगीत और लोकगीत हर्षोल्लास से गाए जाते हैं। प्रवासी घर जाने की तैयारी शुरु कर देते हैं।

वृंदावन में बांके बिहारी मंदिर, शाह बिहारी मंदिर, मथुरा के श्री कृष्ण जन्मस्थान और बरसाना के राधा जी मंदिर में ठाकुर जी को बसंत पंचमी के दिन पीली पोशाक पहनाई जाती है और पहला अबीर गुलाल लगा कर होलिका दहन के लिए ढाड़ा गाड़ा जाता है और बसंत पंचमी से फाग गाने की शुरुआत होती है। देश विदेश से श्रद्धालु ब्रजमंडल की होली में शामिल होने के लिए तैयारी शुरु कर देते हैं। बसंत पंचमी से ब्रज में चलने वाले 40 दिन के उत्सव पर, होलिका दहन को अनोखा नजा़रा देखना अपने सौभाग्य की बात है। 

  बसंत पंचमी से वसंत ऋतु शुरु होती है और होली पर उल्लास चरम पर होता है इसके साथ ही वसंतोत्सव पूर्ण होता है। बसंत पंचमी, सरस्वती पूजा न केवल हमारे पवित्र त्यौहार हैं बल्कि इसमें भारतीयता और हिंदू सभ्यता के प्राचीन परंपराएं आज भी दिखाई देती हैं। 

यही हमारे उत्सवों की मिठास है जिसमें प्रकृति भी हमारे साथ है।

नीलम भागी(लेखिका, पत्रकार, ब्लॉगर, ट्रैवलर)

यह आलेख प्रेरणा शोध संस्थान नोएडा से प्रकाशित प्रेरणा विचार पत्रिका  के फरवरी अंक में प्रकाशित हुआ है।