ऋतु संधि का पर्व नवरात्र साल में चार हैं। दो गुप्त नवरात्र, दो प्रकट नवरात्र हैं शारदीय नवरात्र और चैत्र नवरात्र। इन दोनों नवरात्र में छ महीने का अन्तर होता है। चैत्र मास की शुक्ल प्रतिपदा हिन्दू नवसंवत्सर से चैत्र नवरात्र शुरु होते हैं और इस वर्ष 9 अप्रैल से 18 अप्रैल को मनाया जायेगा। देश भर में अलग अलग नाम से इन दिनों को उत्सव की तरह मनाने में प्रकृति का भी सहयोग होता है। पेड़ पौधे नई नई कोंपले और फूलों से लदे होते हैं। इसलिए इन्हें वासंती नवरात्र भी कहा जाता है। तापमान रोगाणुओं के पनपने और संक्रमण का है। अघ्यात्म से जुड़ने के कारण इन्हें मनाने के तरीके, नौ दिन में हमें स्वच्छ तन मन और खान पान के द्वारा आने वाले मौसम बदलाव के लिए तैयार करते हैं। मसलन रबि की फसल की बुआई सितम्बर से नवंबर में की जाती है। जिसके लिए नम और कम तापमान की जरूरत होती है। जो शारदीय नवरात्र के आस पास की जाती है। मेहनत का फल आलू, गेहूँ, जौ, मसूर, चना, अलसी, मटर व सरसों खलियान में आ गई होती है या कटाई के लिए तैयार होती है। अब पकने के लिए खुश्क और गर्म वातावरण चाहिए और कटाई फरवरी के अंतिम सप्ताह से मार्च के अंतिम सप्ताह पर शुरू होती है। जो कड़ी मेहनत का काम है। जिसके लिए स्वस्थ रहना भी जरूरी है। नवरात्र के नौ दिन शाकाहार, अल्पहार, उपवास, नियम, अनुशासन से आने वाले मौसम परिवर्तन के लिए शरीर को तैयार करते हैं।
विविधताओं के हमारे देश में उत्तर भारत में चैत्र नवरात्र में देवी के नौ रूपों की पूजा होती है। सर्दियाँ विदा हो रही होती हैं। खान पान तो जलवायु के अनुसार होता है। सर्दी से बचाव के लिए शरीर को गरिष्ठ भोजन की आदत हो जाती है। देवी उपासना के माध्यम से खान पान, रहन सहन, देवी पूजन में अपनाए गए संयम, तन और मन को शक्ति और उर्जा देते हैं। 9 दिन आत्म अनुशासन की पद्धति से मानसिक स्थिति बहुत मजबूत हो जाती है। इन दिनों आहार ऐसा होता है जिसका संबंध हमारे स्वास्थ्य और रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाता है। घट स्थापना के साथ, जौं की खेती बोई जाती है। जिसे नवमीं को व्रत पारण के साथ प्रशाद के साथ लेते हैं। वही नवरात्र की खेती का ही रूप माइक्रोग्रीन यानि दाल सब्ज़ियों का छोटा रूप व्यवसाय बन गया है। सितारा होटल में सलाद पर माइक्रोग्रीन से गार्निश किया जाता है। शारदीय नवरात्र में तो सार्वजनिक कार्यक्रम होत हैं। चैत्र नवरात्र में देवी पूजन देशभर में घरों में किया जाता है। इनके बीच में विशेष दिनों का भी वैज्ञानिक और आध्यात्मिक आयाम है।
गुड़ी पड़वा उत्सव महाराष्ट्रीयन और कोंकणी मनाते हैं। पूरनपोली, श्रीखंड, घी शक्कर खाने खिलाने का रिवाज़ है। गुड़ी का अर्थ है विजय पताका। महिषासुर, धूम्रलोचन, चंड मुंड, रक्तबीज असुरों का वध कर देवी ने असुरों पर विजय प्राप्त की। जिसके प्रतीक स्वरुप एक बांस पर बर्तन को उल्टा रखकर, उस पर नया कपड़ा लपेट कर पताका की तरह ऊंचाई रखा जाता है। जो दूर से देखने में ध्वज की तरह लगता है। मुख्यद्वार पर अल्पना और आम के पत्तों का तोरण तो सभी हिन्दू घरों में दिखता है। आम के पत्ते घट स्थापना में होते हैं। घर में सकारात्मक उर्जा आती है। दक्षिण भारत के कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना में उगादी का पर्व मनाते हैं। मंदिर जाते हैं और एक विशेष भोजन पचड़ी बनाया जाता है। पचड़ी को नीम की कोंपले फूल, आम, हरी मिर्च, नमक, इमली और गुड़ से बनाते हैं। जो सभी स्वादों को जोड़ती है। यानि मीठा, खट्टा, नमकीन, कडवा, कसैला और तीखा। तेलगु और कन्नड़ हिन्दु परंपराओं में पचड़ी प्रतीकात्मक है कि आने वाले वर्ष में हमें सभी अनुभवों की अपेक्षा करनी चाहिए और उनका लाभ उठाना चाहिए। इसके बाद से दक्षिण भारत में आम खाना शुरु हो जाता है। पूर्वोत्तर भारत में चैत्र महीने की षष्ठी को ’’चैती छठ’’ मनाया जाता है। इसमें परिवार नदी में स्नान करके वहाँ वेदी बना कर पूजा का कलश स्थापित करता है और सूर्य को अर्घ्य देता है। चैत्र नवरात्रों में नदी में अष्टमी स्नान किया जाता है। वहाँ मेला लगा होता है जहाँ खा पीकर खरीदारी करके लौटते हैं।
पूर्वोतर भारत में इस समय बसन्त के कारण प्राकृतिक सौन्दर्य चारों ओर होता है। इसे रोंगाली बिहु या बोहाग बिहू भी कहते हैं। बिहु की विशेषता है, इसे सब मनाते हैं कोई जाति, वर्ग, धनी निर्धन का भेद भाव नहीं होता। यूनेस्को द्वारा 2016 में मानवता की सांस्कृतिक विरासत के रुप में दर्ज, पाहेला वैशाख बंगाल, त्रिपुरा, बांगलादेश में उत्सव मंगल शोभा जात्रा का आयोजन होता है। झारखण्ड के आदिवासी, समुदाय के साथ सरहुल मनाते हैं और सरना देवी की पूजा करते हैं। उसके बाद से नया धान, फल, फूल खाते हैं और बीज बोया जाता है। यह माँ प्रकृति की पूजा और वसंत उत्सव है जो प्रजनन का भी संकेत देता है और शादी विवाह की शुरूवात होती है। जुरशीतल भारत और नेपाल क्षेत्र में मैथिलों द्वारा मनाया जाता है। मैथिल नववर्ष को जुरशीतल के उत्सव 14 अप्रैल को मिथिला दिवस का अवकाश रहता है। मैथिल इस दिन भात और बारी(बेसन की सरसों के तेल में छनी) और गुड़ वाली पूरी बनाते हैं। पाना संक्राति, महा बिशुबा संक्राति, उड़िया नुआ बरसा, उड़िया नया साल का सामाजिक, सांस्कृतिक धार्मिक उत्सव है। इस समारोह का मुख्य आर्कषण मेरु जात्रा, झामु जात्रा और चाडक पर्व है। ये भी 13 या 14 अप्रैल को नवरात्र में है। कहीं कहीं पर छाऊ नृत्य, लोक शास्त्रीय नृत्य समारोह होता है। अंगारों पर भी चलते हैं। तमिल नववर्ष को पुथांडु उत्सव कहते हैं। तमिल महीने चितराई के पहले दिन पुथांडु, तमिल नाडु, पांडीचेरी, श्रीलंका, मलेशिया, सिंगापुर, मारीशियस में और विश्व में जहां भी तमिलियन हैं मनाया जाता है। यह आमतौर पर 14 अप्रैल को पड़ता है। इस दिन को तमिल नववर्ष या पुथुवरुशम के नाम से भी जाना जाता है। यह त्यौहार परिवार के सभी लोग एक साथ मिलकर मनाते हैं। घर की सफाई, फूलों और लाइटों से सजावट करके, र्हबल स्नान कर, नये कपड़े पहन कर मंदिर जाते हैं। घरों में शाकाहारी भोजन वडा, पायसम, खासतौर पर ’मैंगो पचड़ी’ बनाया जाता है। यह भी कहा जाता है कि इस दिन देवी मीनाक्षी ने भगवान सुन्दरेश्वर से विवाह किया था।
केरल का नववर्ष मलियाली महीने मेदान के पहले दिन विशु मनाया जाता है। आसपास के राज्यों के कुछ हिस्सों में भी मनाया जाता है। 14 या 15 अप्रैल को परिवार के साथ मनाते हैं। पिछली फसल के लिए भगवान का धन्यवाद किया जाता है और धान की बुआई की जाती है। परिवार के बुजुर्ग विशुकानी(विष्णु की झांकी) सजाते हैं। सुबह बच्चों की आंखो को ढक कर परिवार का बड़ा, बच्चे को विशुकानी के सामने लाकर आंखों सेे हाथ हटा लेता है। अर्थात सुबह सबसे पहले भगवान के दर्शन करते हैं। बुजुर्ग बच्चों को विषुक्कणी(भेंट या रूपए) देते हैं। मंदिर जाते हैं। विशु भोजन करते हैं जिसमें 26 प्रकार का शाकाहारी भोजन होता है। यानि प्रकृति ने जो भी उस क्षेत्र में हमें दिया है उसका अधिक से अधिक वैराइटी का उपयोग विशु भोजन में होता है। इतने प्यारे फसलों के त्यौहार जिसमें सुस्वादु भोजन बनते हैं, ये पकवान नौकरी के कारण परिवार से दूूर गए सदस्यों को भी अति व्यस्त होने पर भी, कुटुंब में आने को मजबूर करते हैं। प्रतिप्रदा में सब अतीत को भूल कर आने वाले समय में खुशी और सकारात्मकता की कामना करते हैं।
आरती के अंत में हम गाते हैं ’जो कोई नर गावे’ और दुर्गा अष्टमी और नवमी को नवरात्र के व्रत में व्रतियों द्वारा कन्या पूजन से व्रत का पारण करते हैं। क्योंकि महिला आधी आबादी नहीं है, वह तो समस्त आबादी की जननी है। जैविक सृष्टि का जन्म मादा से होता है। इसलिए कन्या पूजन करने वाले कन्या भ्रूण हत्या कैसे कर सकते हैं! 51 शक्तिपीठों में शक्ति स्वरूपा जगदम्बा के दर्शनों के लिए मौसम भी अनुकूल होता है। श्रद्धालू भक्ति भाव से देवी दर्शन को बड़ी संख्या में जाते हैं। जिसमें अध्यात्मिक आनन्द के साथ, इस धार्मिक तीर्थयात्रा में मानसिक सुख के साथ पर्यटन भी हो जाता है।
यानि हमारी एक ही संस्कृति हमें जोड़ती है। ये देखकर ही तो कहते हैं कि भारत सभ्यताओं का नहीं, संस्कृति का राष्ट्र है। सभ्यताओं में संघर्ष हो सकता है पर संस्कृति हमें जोड़ती है।
नीलम भागी(लेखिका,जर्नलिस्ट, ब्लॉगर, ट्रैवलर)
प्रेरणा शोध संस्थान नोएडा द्वारा प्रकाशित प्रेरणा विचार पत्रिका के अप्रैल अंक में यह लेख प्रकाशित है।