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Monday, 1 April 2024

नवरात्र का वैज्ञानिक और अध्यात्मिक आयाम Neelam Bhagi

 


ऋतु संधि का पर्व नवरात्र साल में चार हैं। दो गुप्त नवरात्र, दो प्रकट नवरात्र हैं शारदीय नवरात्र और चैत्र नवरात्र। इन दोनों नवरात्र में छ महीने का अन्तर होता है। चैत्र मास की शुक्ल प्रतिपदा हिन्दू नवसंवत्सर से चैत्र नवरात्र शुरु होते हैं और इस वर्ष 9 अप्रैल से 18 अप्रैल को मनाया जायेगा। देश भर में अलग अलग नाम से इन दिनों को उत्सव की तरह मनाने में प्रकृति का भी सहयोग होता है। पेड़ पौधे नई नई कोंपले और फूलों से लदे होते हैं। इसलिए इन्हें वासंती नवरात्र भी कहा जाता है। तापमान रोगाणुओं के पनपने और संक्रमण का है। अघ्यात्म से जुड़ने के कारण इन्हें मनाने के तरीके, नौ दिन में हमें स्वच्छ तन मन और खान पान के द्वारा आने वाले मौसम बदलाव के लिए तैयार करते हैं। मसलन रबि की फसल की बुआई सितम्बर से नवंबर में की जाती है। जिसके लिए नम और कम तापमान की जरूरत होती है। जो शारदीय नवरात्र के आस पास की जाती है। मेहनत का फल आलू, गेहूँ, जौ, मसूर, चना, अलसी, मटर व सरसों खलियान में आ गई होती है या कटाई के लिए तैयार होती है। अब पकने के लिए खुश्क और गर्म वातावरण चाहिए और कटाई फरवरी के अंतिम सप्ताह से मार्च के अंतिम सप्ताह पर शुरू होती है। जो कड़ी मेहनत का काम है। जिसके लिए स्वस्थ रहना भी जरूरी है। नवरात्र के नौ दिन शाकाहार, अल्पहार, उपवास, नियम, अनुशासन से आने वाले मौसम परिवर्तन के लिए शरीर को तैयार करते हैं।

   विविधताओं के हमारे देश में उत्तर भारत में चैत्र नवरात्र में देवी के नौ रूपों की पूजा होती है। सर्दियाँ विदा हो रही होती हैं। खान पान तो जलवायु के अनुसार होता है। सर्दी से बचाव के लिए शरीर को गरिष्ठ भोजन की आदत हो जाती है। देवी उपासना के माध्यम से खान पान, रहन सहन, देवी पूजन में अपनाए गए संयम, तन और मन को शक्ति और उर्जा देते हैं। 9 दिन आत्म अनुशासन की पद्धति से मानसिक स्थिति बहुत मजबूत हो जाती है। इन दिनों आहार ऐसा होता है जिसका संबंध हमारे स्वास्थ्य और रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाता है। घट स्थापना के साथ, जौं की खेती बोई जाती है। जिसे नवमीं को व्रत पारण के साथ प्रशाद के साथ लेते हैं। वही नवरात्र की खेती का ही रूप माइक्रोग्रीन यानि दाल सब्ज़ियों का छोटा रूप व्यवसाय बन गया है। सितारा होटल में सलाद पर माइक्रोग्रीन से गार्निश किया जाता है। शारदीय नवरात्र में तो सार्वजनिक कार्यक्रम होत हैं। चैत्र नवरात्र में देवी पूजन देशभर में घरों में किया जाता है। इनके बीच में विशेष दिनों का भी वैज्ञानिक और आध्यात्मिक आयाम है।        

  गुड़ी पड़वा उत्सव महाराष्ट्रीयन और कोंकणी मनाते हैं। पूरनपोली, श्रीखंड, घी शक्कर खाने खिलाने का रिवाज़ है। गुड़ी का अर्थ है विजय पताका। महिषासुर, धूम्रलोचन, चंड मुंड, रक्तबीज असुरों का वध कर देवी ने असुरों पर विजय प्राप्त की। जिसके प्रतीक स्वरुप एक बांस पर बर्तन को उल्टा रखकर, उस पर नया कपड़ा लपेट कर पताका की तरह ऊंचाई रखा जाता है। जो दूर से देखने में ध्वज की तरह लगता है। मुख्यद्वार पर अल्पना और आम के पत्तों का तोरण तो सभी हिन्दू घरों में दिखता है। आम के पत्ते घट स्थापना में होते हैं। घर में सकारात्मक उर्जा आती है। दक्षिण भारत के कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना में उगादी का पर्व मनाते हैं। मंदिर जाते हैं और एक विशेष भोजन पचड़ी बनाया जाता है। पचड़ी को नीम की कोंपले फूल, आम, हरी मिर्च, नमक, इमली और गुड़ से बनाते हैं। जो सभी स्वादों को जोड़ती है। यानि मीठा, खट्टा, नमकीन, कडवा, कसैला और तीखा। तेलगु और कन्नड़ हिन्दु परंपराओं में पचड़ी प्रतीकात्मक है कि आने वाले वर्ष में हमें सभी अनुभवों की अपेक्षा करनी चाहिए और उनका लाभ उठाना चाहिए। इसके बाद से दक्षिण भारत में आम खाना शुरु हो जाता है। पूर्वोत्तर भारत में चैत्र महीने की षष्ठी को ’’चैती छठ’’ मनाया जाता है। इसमें परिवार नदी में स्नान करके वहाँ वेदी बना कर पूजा का कलश स्थापित करता है और सूर्य को अर्घ्य देता है। चैत्र नवरात्रों में नदी में अष्टमी स्नान किया जाता है। वहाँ मेला लगा होता है जहाँ खा पीकर खरीदारी करके लौटते हैं।

पूर्वोतर भारत में इस समय बसन्त के कारण प्राकृतिक सौन्दर्य चारों ओर होता है। इसे रोंगाली बिहु या बोहाग बिहू भी कहते हैं। बिहु की विशेषता है, इसे सब मनाते हैं कोई जाति, वर्ग, धनी निर्धन का भेद भाव नहीं होता। यूनेस्को द्वारा 2016 में मानवता की सांस्कृतिक विरासत के रुप में दर्ज, पाहेला वैशाख बंगाल, त्रिपुरा, बांगलादेश में उत्सव मंगल शोभा जात्रा का आयोजन होता है। झारखण्ड के आदिवासी, समुदाय के साथ सरहुल मनाते हैं और सरना देवी की पूजा करते हैं। उसके बाद से नया धान, फल, फूल खाते हैं और बीज बोया जाता है। यह माँ प्रकृति की पूजा और वसंत उत्सव है जो प्रजनन का भी संकेत देता है और शादी विवाह की शुरूवात होती है। जुरशीतल भारत और नेपाल क्षेत्र में मैथिलों द्वारा मनाया जाता है। मैथिल नववर्ष को जुरशीतल के उत्सव 14 अप्रैल को मिथिला दिवस का अवकाश रहता है। मैथिल इस दिन भात और बारी(बेसन की सरसों के तेल में छनी) और गुड़ वाली पूरी बनाते हैं। पाना संक्राति, महा बिशुबा संक्राति, उड़िया नुआ बरसा, उड़िया नया साल का सामाजिक, सांस्कृतिक धार्मिक उत्सव है। इस समारोह का मुख्य आर्कषण मेरु जात्रा, झामु जात्रा और चाडक पर्व है। ये भी 13 या 14 अप्रैल को नवरात्र में है। कहीं कहीं पर छाऊ नृत्य, लोक शास्त्रीय नृत्य समारोह होता है। अंगारों पर भी चलते हैं। तमिल नववर्ष को पुथांडु उत्सव कहते हैं। तमिल महीने चितराई के पहले दिन पुथांडु, तमिल नाडु, पांडीचेरी, श्रीलंका, मलेशिया, सिंगापुर, मारीशियस में और विश्व में जहां भी तमिलियन हैं मनाया जाता है। यह आमतौर पर 14 अप्रैल को पड़ता है। इस दिन को तमिल नववर्ष या पुथुवरुशम के नाम से भी जाना जाता है। यह त्यौहार परिवार के सभी लोग एक साथ मिलकर मनाते हैं। घर की सफाई, फूलों और लाइटों से सजावट करके, र्हबल स्नान कर, नये कपड़े पहन कर मंदिर जाते हैं। घरों में शाकाहारी भोजन वडा, पायसम, खासतौर पर ’मैंगो पचड़ी’ बनाया जाता है। यह भी कहा जाता है कि इस दिन देवी मीनाक्षी ने भगवान सुन्दरेश्वर से विवाह किया था। 

     केरल का नववर्ष मलियाली महीने मेदान के पहले दिन विशु मनाया जाता है। आसपास के राज्यों के कुछ हिस्सों में भी मनाया जाता है। 14 या 15 अप्रैल को परिवार के साथ मनाते हैं। पिछली फसल के लिए भगवान का धन्यवाद किया जाता है और धान की बुआई की जाती है। परिवार के बुजुर्ग विशुकानी(विष्णु की झांकी) सजाते हैं। सुबह बच्चों की आंखो को ढक कर परिवार का बड़ा, बच्चे को विशुकानी के सामने लाकर आंखों सेे हाथ हटा लेता है। अर्थात सुबह सबसे पहले भगवान के दर्शन करते हैं। बुजुर्ग बच्चों को विषुक्कणी(भेंट या रूपए) देते हैं। मंदिर जाते हैं। विशु भोजन करते हैं जिसमें 26 प्रकार का शाकाहारी भोजन होता है। यानि प्रकृति ने जो भी उस क्षेत्र में हमें दिया है उसका अधिक से अधिक वैराइटी का उपयोग विशु भोजन में होता है। इतने प्यारे फसलों के त्यौहार जिसमें सुस्वादु भोजन बनते हैं, ये पकवान नौकरी के कारण परिवार से दूूर गए सदस्यों को भी अति व्यस्त होने पर भी, कुटुंब में आने को मजबूर करते हैं। प्रतिप्रदा में सब अतीत को भूल कर आने वाले समय में खुशी और सकारात्मकता की कामना करते हैं। 

       आरती के अंत में हम गाते हैं ’जो कोई नर गावे’ और दुर्गा अष्टमी और नवमी को नवरात्र के व्रत में व्रतियों द्वारा कन्या पूजन से व्रत का पारण करते हैं। क्योंकि महिला आधी आबादी नहीं है, वह तो समस्त आबादी की जननी है।  जैविक सृष्टि का जन्म मादा से होता है। इसलिए कन्या पूजन करने वाले कन्या भ्रूण हत्या कैसे कर सकते हैं! 51 शक्तिपीठों में शक्ति स्वरूपा जगदम्बा के दर्शनों के लिए मौसम भी अनुकूल होता है। श्रद्धालू भक्ति भाव से देवी दर्शन को बड़ी संख्या में जाते हैं। जिसमें अध्यात्मिक आनन्द के साथ, इस धार्मिक तीर्थयात्रा में मानसिक सुख के साथ पर्यटन भी हो जाता है।  

 यानि हमारी एक ही संस्कृति हमें जोड़ती है। ये देखकर ही तो कहते हैं कि भारत सभ्यताओं का नहीं, संस्कृति का राष्ट्र है। सभ्यताओं में संघर्ष हो सकता है पर संस्कृति हमें जोड़ती है। 

नीलम भागी(लेखिका,जर्नलिस्ट, ब्लॉगर, ट्रैवलर)

 प्रेरणा शोध संस्थान नोएडा द्वारा प्रकाशित प्रेरणा विचार पत्रिका के अप्रैल अंक में यह लेख प्रकाशित है।






Sunday, 31 December 2023

मकर संक्राति की झलक अलग अलग रुपों में! जनवरी उत्सव और उल्लास नीलम भागी



उत्सव यानि पर्व या त्यौहार का हमारी संस्कृति में विशेष स्थान है। साल भर कोई न कोई उत्सव चलता ही रहता है। हर ऋतु में हर महीने में कम से कम एक प्रमुख त्यौहार अवश्य मनाया जाता है। तीर्थस्थान पर स्नान करते हैं। धर्म और लोककथाओं के बाद उत्सव की एक महत्वपूर्ण उत्पत्ति कृषि है। धार्मिक स्मरणोत्सव और अच्छी फसल के लिए धन्यवाद दिया जाता है। रवि की फसल की बुआई सितम्बर से नवम्बर तक हो जाती है। फिर बड़ी श्रद्धा और उत्साह से उत्सव मनाते हैं। इन सभी उत्सवों में प्रकृति वनस्पति और जल है। अक्टूबर से जनवरी वह समय होता है जब पूरे देश को उत्सवमय देखा जा सकता है। रेल विभाग को अतिरिक्त गाड़ियां चलानी पड़ती हैं। हवाई टिकट मंहगी होती है। कुछ उत्सव किसी अंचल में मनाए जाते हैं। कुछ देश भर में, भले ही नाम अलग अलग हों। हिन्दू देवी देवताओं की पूजा करना, परिवार के साथ सामाजिक समारोहों में जाना, मेलों में खरीदारी करना और उपहार देना, भण्डारे करना, भ्रमण, सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन करना और पर्यटन के लिए छुट्टियां भी हैं।

’’सारे तीरथ बार बार, गंगा सागर एक बार’’ मकर संक्राति (15 जनवरी) को गंगा जी जहाँ सागर (बंगाल की खाड़ी) में विलीन होने से पहले, गंगा जी में पवित्र डुबकी लगाने के लिए तीर्थयात्री देश विदेश से गंगासागर पहुँचते हैं। यहाँ 8 जनवरी से 16 जनवरी को लगने वाले मेले को गंगा सागर मेला कहते हैं। लेकिन डुबकी मकर संक्राति को ही लगाई जाती है।

’’विकसित युवा -विकसित भारत’’की थीम पर इस वर्ष राष्ट्रीय युवा दिवस पर 12 जनवरी( स्वामी विवेकानन्द के जन्मदिवस ) से 16 जनवरी तक कर्नाटक के हुबली-धारवाड़ में आयोजित किया जा रहा है। जिसमें स्वामी विवेकानन्द जो युवाओं के प्रेरणास्रोत हैं उनके विचारों और दर्शन को अपनाने के लिए युवाओं को प्रोत्साहित करना है। 

अमृतसर में छोटी पतंग को गुड्डी कहते हैं और बड़ी पतंग को गुड्डा कहते हैं। यहां लोहड़ी को पतंगबाजी देखने लायक होती है। इस दिन छुट्टी होती है। बाजार बंद रहते हैं। आसमान गुड्डे, गुड़ियों से भर जाता है। छतों पर माइक लगा कर कमैंट्री चलती है। मसलन लाल गुड्डी दा चिट्टे गुड़डे नाल पेंचा लड़दा पेया। लाल गुड्डी आई बो।(लाल और सफेद पतंग का पेच लड़ रहा है। लाल पतंग कट गई)। आई बो के साथ ही शोर मचता है। घरवालों को पतंगबाजों के खाने पीने की चिंता है तो छत पर पहुंचा दो, ये खा लेंगे, वरना भूखे मुकाबला करते रहेंगे। लेकिन मोर्चा छोड़ कर नहीं जायेंगे, वहीं डटे रहेंगे। शाम को लोहड़ी(13 जनवरी, पंजाब और उत्तर भारत का फसल उत्सव) जलाई जाती है। तब ये पतंगबाज, लोहड़ी मनाने, ढोल पर नाचने के लिए नीचे उतर कर आते हैं। बाकि बची पतंगे संक्रांति को उड़ाते हैं। यहां पर परंपरा का पालन जरुर किया जाता है। लोहड़ी की रात को सरसों का साग और गन्ने के रस की खीर घर में जरुर बनती हैं, जिसे अगले दिन मकर सक्रांति को खाया जाता है। इसके लिए कहते हैं ’पोह रिद्दी, माघ खादी’(पोष के महीने में बनाई और माघ के महीने में खाई) बाकि जो कुछ मरजी़ बनाओ, खाओ। हमारा कृषि प्रधान देश है। फसल का त्यौहार हैैं। इस समय खेतों में गेहंू, सरसों, मटर और रस से भरे गन्ने की फसल लहरलहा रही होती है। आग जला कर अग्नि देवता को तिल, चौली(चावल) गुड़ अर्पित करते हैं। परात में मूंगफली, रेवड़ी और भूनी मक्का के दाने, चिड़वा लेकर परिवार सहित अग्नि के चक्कर लगा कर थोड़ा अग्नि को अर्पित कर, प्रशाद खाते और बांटतें हैं। नई बहू के घर में आने पर और बेटा पैदा होने पर उनकी पहली लोहड़ी धूमधाम से मनाई जाती है। भोज भी करते हैं। कडा़के की सर्दी में आग के पास ढोलक पर उत्सव के अवसरों पर गाये जाने वाले अलिखित और अज्ञात रचनाकारों द्वारा रचितः अनेकानेक लोकगीत सुनने को मिलते हैं। जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक मौखिक परांपरा से सुरक्षित हैं। अगले दिन मकर संक्राति को आस पास के नदी सरोवर में स्नान करके, खिचड़ी और तिल का दान करते हैं और खिचड़ी और तिल के लड्डू खाये जाते हैं। स्वाद से खाते हुए बुर्जुग कवित्त बोलते हैं ’खिचड़ी तेरे चार यार, घी पापड़ दहीं अचार’।

  क्योंकि देशभर में कई शहरों में पतंगे मकर संक्रांति को उड़ाने की परंपरा है इसलिए इसे पतंग उत्सव भी कहते हैं। कुछ राज्यों तेलंगाना, गुजरात, राजस्थान, पंजाब में ’पतंग महोत्सव’ मनाया जाता है। उत्तर भारत में इन दिनों कड़ाके की ठंड पड़ती है। इस दिन पतंगें उड़ाते हुए, कई घंटे सूर्य के प्रकाश में बिताना शरीर के लिए स्वास्थ्यवर्द्धक और त्वचा व हड्डियों के लिए बेहद लाभदायक होता है।

    94 वर्षीय अम्मा प्रयागराज में बिताए वर्षो के कल्पवास और माघ मेले को याद करती हैं। मकर संक्राति से कल्पवास शुरु है। इस बार यह 52 दिन का माघ मेले को मिला कर हो जायेगा। वे बताती हैं कि त्रिवेणी, संगम, गंगा जी, यमुना जी के किनारे निशुल्क कुटिया इतनी बन गईं कि लगता जैसे कोई गांव बस गया। श्रद्धालू यहां कल्पवास करने आते हैं। कल्पवास में स्नान के साथ यहाँ ज्ञान यज्ञ भी होता है। इनका  आध्यात्मिक जीवन ही नहीं, आर्थिक दृृष्टि से भी बहुत महत्व है। ये आदरणीय लोग स्वेच्छा से न्यूनतम भौतिक साधनों पर जीवन निर्वाह करते हुए, पूरे समाज के सामने सादगी और त्याग का आदर्श रखते हैं। एक समय भोजन करते हैं , ठंड के कारण जगह जगह अलाव जलते हैं। सिंघाड़ा, शकरकंदी और आलू, मूंगफली भून के खाते हैं। र्बेरे की रोटी (जौं चने की मिक्स रोटी), ज्यादा अरहर की दाल, चावल और नमुना(मिक्स वैजीटेबल) प्राय इनका भोजन होता है। कुछ लोग साथ में अपनी बकरियां भी लाते हैं। वहां जरुरत के सामान के लिए अस्थाई दुकाने भी लग जातीं। घर के लोग जब इन्हें मिलने आते तो वे भी अतिआवश्यक सामान दे जाते हैं। रोज तो नहीं पर विशेष दिनों जैसे माघ पूर्णिमा, मकर संक्रांति, पौष पूर्णिमा, बसंत पंचमी पर पिता जी के ऑफिस जाने के बाद, अम्मा को लेकर दादी, दो दो आने सवारी के टांगे पर बैठ कर, घर से लोकनाथ तक जाती और आगे पैदल जाकर गंगा स्नान और माघ मेला देख कर आतीं। ये बताते हुए अम्मा के चेहरे पर ऐसे भाव थे जैसे अभी गंगा स्नान करके आ रहीं हों। मैं उनके चेहरे पर आए भाव को देखती रही इसलिए मेरा ऐसा मानना हैं कि अपनी समर्थ के अनुसार तीर्थ यात्रा जरुर करनी चाहिए।

    राधे मिस्त्री काम करते हुए अम्मा को सुन रहा था, बताने लगा,’’जिसके पास गंगाजी नहीं होती वो जो भी पास में नदी होती है। वहीं मकर संक्राति नहान करता है। जैसे हमारा गाँव ननियुरा, जलालाबाद( उसके अनुसार जहाँ परशुराम ने अवतार लिया था) शाहजहाँ पुर, वहाँ से गंगाजी की एक धारा 5 किमी, बहाबुल नदी 2 किमी, रामनगरिया गंगा जी 20 किमी दूर हैं। वहाँ पवित्र दिन स्नान के लिए गाँव से ट्रॉली भर भर के राम नगरिया जाते हैं। रास्ते में कोई पैदल जाता दिखा तो उसे भी बैठने का आग्रह करते हैं। वो पैसे देकर ही ट्रॉली में बैठने को राजी होता है। उसका मानना है कि अगर उसने डीजल के भी पैसे नहीं दिए तो उसका गंगा स्नान का पुण्य तो मुफ्त में, ले जाने वाले को लगेगा न।’’ त्यौहार मनाने का तरीका हमारा उनका एक सा है। वही तिल, गुड़, खिचड़ी आदि।    

पूर्वोत्तर भारत में भोगाली बिहू मनाते हैं। यह मकर संक्राति का उत्सव, माघ बिहू एक सप्ताह तक मनाया जाता हैं। मकर संक्रातिं की पूर्व संध्या को लकड़ी बांस, फूस आदि से मेजी बनाई जाती हैं। वहां पारंपरिक भोज बनाये और खाए जाते हैं। मकर संक्रातिं को सुबह मेजी की प्रदक्षिणा करके उसमें आग लगा दी जाती है। एक दूसरे को गमुछा(गमछा) भेंट करके प्रणाम करते हैं। चिड़वा, दहीं, गुड़ खाया जाता है। हुरुम(परमल), नारियल, तिल के लड्डू बनाते हैं। दावत में तिल नारियल का पीठा जरुर  बनता है। भोगाली बिहू यानि माघ बिहू में अलाव जलाने और भोज खाने और खिलाने की परंपरा है। नये कपड़े  पहनते हैं पर युवाओं का दूसरे के बाड़े से सब्जी चुरा कर तोड़ना शगल है।   

 नवान्न और सम्पन्नता लाने का त्यौहार पोंगल का इतिहास कम से कम 1000 वर्ष पुराना है। दक्षिण भारतीय देश विदेश में जहां भी रहते हैं। पोंगल उत्साह से मनाते हैं। इस त्यौहार का नाम पोंगल इसलिए है क्योंकि सूर्यदेव को जो प्रसाद अर्पित करते हैं वह पगल कहलाता है। तमिल भाषा में पोंगल का एक अर्थ है, अच्छी तरह उबालना। चार दिनों तक चलने वाले पोंगल में वर्षा, धूप, खेतिहर मवेशियों की अराधना की जाती है। जनवरी में चलने वाले पहली पोंगल(15 जनवरी) को भोगी पोंगल कहते हैं जो देवराज इन्द्र( जो भोग विलास में मस्त रहते हैं) को समर्पित है। शाम को अपने घरों का पुराना कूड़ा, कपड़े लाकर आग लगा कर, उसके इर्द गिर्द युवा भोगी कोट्टम(एक प्रकार का ढोल) जिसे भैंस के सींग से बजाते हैं।

दूसरा पोंगल सूर्य देवता को निवेदित सूर्य पोंगल है। मिट्टी के बर्तन में नये धान, मूंग की दाल और गुड़ से बनी खीर और गन्ने के साथ, सूर्य देव की पूजा की जाती है।

 तीसरा मट्टू पोंगल तमिल मान्यताओं के अनुसार माट्टु भगवान शंकर का बैल हैं जिसे उन्होंने पृथ्वी पर हमारे लिए अन्न पैदा करने को भेजा है। इस दिन बैल, गाय और बछड़ों को सजा कर उनकी पूजा की जाती है। कहीं कहीं इसे कनु पोंगल भी कहते हैं। बहने भाइयों की खुशहाली के लिए पूजा करतीं हैं। भाई उन्हें उपहार देते हैं। 

चौथा दिन कानुम पोंगल मनाया जाता है। इस दिन दरवाजे पर तोरण बनाए जाते हैं। महिलाएं मुख्यद्वार पर रंगोली बनाती हैं। नये कपड़े पहनते हैं। रात को सामुदायिक भोज होता है। तमिल की तन्दनानरामयाण के अनुसार श्री राम ने मकर संक्रातिं को पतंग उड़ाई थी और उनकी पतंग इन्द्रलोक में चली गई। अब सागर तट पर लोग पतंग उड़ाते और धूप से मुफ्त में प्राप्त विटामिन डी का सेवन करते मिलेंगे। तमिल नाडु से जुड़े होने से यही दिन आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक और केरल में संक्रान्ति के नाम से मनाया जाता है। 

  केरल में राजा राजशेखर ने अयप्पा को देव अवतार मान कर सबरीमालाई में देवताओं के वास्तुकार विश्कर्मा से डिजाइन करवा कर अयप्पा का मन्दिर बनवाया। ऋषि परशुराम ने उनकी मूर्ति की रचना की और मकर संक्रातिं को स्थापित की। आज भी यह प्रथा है कि हर साल मकर संक्रातिं के अवसर पर पंडालम राजमहल से अयप्पा के आभूषणों को संदूक में रख कर, एक भव्य शोभा यात्रा निकाली जाती है। जो 90 किलोमीटर तीन दिन में सबरीमाला पहुंचती है।

अंतर्राष्ट्रीय पतंगबाजी महोत्सव(14 -15 जनवरी) साबरमती रिवरफ्रंट अहमदाबाद में पतंगबाज पहुंचेंगे।

बीकानेर ऊँट महोत्सव(13 से 15 जनवरी) इसकी शुरूवात जूनागढ़ किले के परिसर से ऊँटों के एक रंगीन जुलूस से होती है। 

टुसू महोत्सव(टुसू परब, मकर परब, पूस परब)(15 दिसम्बर से 15 जनवरी) झाड़खंड के कुड़मी और आदिवासियों का सबसे महत्वपूर्ण पर्व है। एक महीने तक नाच गानों, कर्मकांडों से मनाया जाता है। अंतिम दिन मकर संक्राति को मनाए जाने वाले इस लोक उत्सव में सुबह नदी में स्नान करके उगते सूरज की प्रार्थना की जाती है। और कुवांरी कन्याओं द्वारा बनाई टुसू देवी की मूर्ति, एक माह तक प्रतिदिन शाम को पूजने के बाद विसर्जित कर दी जाती है।

ृतिरूवल्लूर दिवस तमिलनाडु सरकार ईसा पूर्व चौथी शताब्दी के प्रसिद्ध तमिल कवि दार्शनिक, तिरूवल्लुर के सम्मान में 15 जनवरी को तिरूवल्लूर दिवस के रूप में मनाती है।

गुरू गोविंद सिंह जयंती(17 जनवरी) सिख धर्म के दसवें और अंतिम गुरू गोविंद सिंह जी का जन्मोत्सव दुनिया भर के गुरूद्वारों में मनाया जाता है।

 तैलंग स्वामी जयंती(21 जनवरी) तैलंग स्वामी अपनी योग शक्तियों और लंबे जीवन के लिए प्रसिद्ध हैं।

नेताजी सुभाषचंद्र बोस जयंती(23 जनवरी) हमारे स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी नेता, आज़ाद हिंद फ़ौज को गठने वाले, देश को राष्ट्रीय नारा ’’जय हिन्द’’ देने वाले नेताजी को इस दिन देश याद करता है।  

शाकंभरी देवी जयंती उत्सव(25 जनवरी) माँ शाकंभरी देवी मंदिर सहारनपुर में मेले का आयोजन किया जाता है। इस दिन लाखों भक्त दर्शन के लिए आते हैं। 

गणतंत्र दिवस(26 जनवरी) सुबह परेड देखना और दिन भर जगह जगह देशभक्ति के कार्यक्रमों में शिरकत करके राष्ट्रीय त्यौहार को मनाते हैं। 

  इस प्रकार मकर संक्राति के माध्यम से भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति की झलक हमें अलग अलग रुपों में दिखाई देती है। जिसमें प्रकृति के साथ मवेशियों का भी उपकार माना जाता है। 

नीलम भागी

 लेखिका, जर्नलिस्ट, ब्लॉगर, ट्रैवलर    

यह आलेख प्रेरणा शोध संस्थान से प्रकाशित प्रेरणा विचार पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।







Sunday, 13 November 2022

ऐतिहासिक मेले कोई कहे गोविंदा, कोई कहे गोपाला नवम्बर उत्सव मंथन भाग 2 नीलम भागी Fair Utsav Manthan November Neelam Bhagi

 

बाबा जित्तो की याद में जम्मू में झड़ी का ऐतिहासिक मेला 7 नवंबर से 16 नवंबर तक लगता है। उत्तर भारत के इस सबसे बड़े मेले में लाखों लोग पंजाब, हरियाणा से पहुंचते हैं और अपने हक के लिए लड़ने वाले ब्राह्मण किसान बाबा जित्तो को माथा टेकते हैं और बुआ कौड़ी के लिए गुड़िया ले जाते हैं।


मेले तो पूरे देश में कहीं न कहीं लगते ही हैं और पशुओं के भी लगते हैं। लेकिन कार्तिक पूर्णिमा से शुरु होने वाला पुष्कर का ऊँट मेला विदेशी सैलानियों को भी आकर्षित करता है। इस बार पुष्कर मेला 31 अक्तूबर से शुरु होकर 9 नवम्बर को समाप्त होगा। कई किलोमीटर तक यह मेला रेत में लगता है जिसमें खाने, झूले, लोक गीत, लोक नृत्य होते हैं। कालबेलिया नृत्य ने तो विदेशों में भी धूम मचा दी है। ऊँटों को पारंपरिक परिधानों में सजाया जाता है। ऊँट नृत्य करते हैं और इनसे वेट लिफ्टिंग भी करवाई जाती है। रात को आलाव जला कर गाथाएं भी सुनाई जाती हैं। कार्तिक पूर्णिमा के दिन लाखांे श्रद्धालु पुष्कर झील में स्नान करके ब्रह्मा जी के मंदिर में दर्शन करते हैं। अगर ऊँट खरीदना हो तो खरीदते हैं। सबसे सुन्दर ऊँट और ऊँटनी को इनाम मिलता है।  

जैन का धार्मिक दिवस प्रकाश पर्व है।

वंगाला(11नवंबर)मेघालय में गारो समुदाय द्वारा फसल कटाई से सम्बन्धित वंगाला उत्सव है। गारो भाषा में वंगालाका अर्थ सौ ढोलहै। वर्षा अधिक होने के कारण सूर्यदेवता(सलजोंग) के सम्मान में गारो आदिवासी अक्तूबर नवम्बर में वांगलानामक त्योहार मनाते हैं। यह त्यौहार लगभग एक हफ्ते तक मनाया जाता है। मौखिक पीढ़ी दर पीढ़ी परम्परा से सूर्य की आराधना की जाती है। सूर्य देवता फ़सल के अधिदेवता भी माने जाते हैं। रंगीन वेषभूषा में सिर पर पंख सजाकर अंडाकार आकार में खड़े होकर ढोल की ताल पर नृत्य करते हैं।

रण उत्सव(1नवंबर से 20 फरवरी) गुजरात का रण उत्सव अपनी रंगीन कला और संस्कृति के लिए विश्व प्रसिद्ध है। तीन महीने तक मनाये जाने वाले इस उत्सव में कला, संगीत, संस्कृति के साथ इसमें बुनकर, संगीतकार, लोक नर्तक और राज्य के श्रेष्ठ व्यंजन निर्माताओं के साथ कारीगर भी आते हैं। इस दौरान कलाकार रेत में भारत के  इतिहास की झलक पेश करते हैं।

सोनपुर मेला(6नवंबर से 7 दिसम्बर) गंडक नदी के तट पर एशिया का सबसे बड़ा पशु मेला है। यह कार्तिक पूर्णिमा पर स्नान के बाद शुरु होता है। चंद्र गुप्त मौर्य, अकबर और 1857 के गदर के नायक वीर कुँवर सिंह ने भी यहाँ से हाथियों की खरीद की थी। सन् 1803 में रार्बट क्लाइव ने सोनपुर में घोड़े के लिए अस्तबल बनवाया था। यहाँ घोड़ा, गाय, गधा, बकरी सब बिकता था। पर आज की जरुरत के अनुसार यह आटो एक्पो मेले का रुप लेता जा रहा हैं। हरिहर नाथ की पूजा होती है। नौका दौड़, दंगल खेल प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती हैं। यह मेला 15 किमी. तक फैल जाता है।

 बूंदी महोत्सव(11से 13) राजस्थान के हड़ौती क्षेत्र में छोटा सा बूंदी अपनी ऐतिहासिक वास्तुकला और संस्कृति के लिए जाना जाता है। इसके खूबसूरत दर्शनीय स्थलों और प्रसिद्ध मंदिरों में हनुमान जी मंदिर, राधाई कृष्ण मंदिर, नीलकंठ महादेव बूंदी के कारण यह छोटी काशी के रुप में जाना जाता है। इसमें किलों का भी मेल है। बूंदी उत्सव में बिना किसी शुल्क के सांस्कृतिक गतिविधियों, विभिन्न प्रतियोगिताओं और रंगारंग कार्यक्रमों का आनन्द उठाने के लिए दुनिया भर से लोग हड़ौती पहुंचते हैं। राजस्थानी व्यंजनों के स्वाद के साथ खरीदारी कर सकते हैं कार्तिक पूर्णिमा की रात में महिला पुरुष दोनों पारंपरिक वेशभूषा पहनकर चंबल नदी के तट पर दिया जला कर, आर्शीवाद लेते हैं। क्रमशः

प्रेरणा शोध संस्थान से प्रकाशित केशव संवाद के नवंबर अंक में यह लेख प्रकाशित हुआ है।





Wednesday, 5 October 2022

व्यस्त और रंगीन सांस्कृतिक गतिविधियों का अक्तूबर! भाग 2 उत्सव मंथन नीलम भागी Utsav Manthan October Part 2 Neelam Bhagi

 


आज हर रामकथा के मूल में भगवान बाल्मीकि की रामायण है।

पहले महाकाव्य ’रामायण’ के रचयिता महाकवि महर्षि वाल्मिकी जयंती अश्विन महीने की पूर्णिमा(9 अक्तूबर) को मनाई जाती है। जगह जगह जुलूस और शोेभायात्रा निकाली जाती है। लोगों में बहुत उत्साह होता है। 

कंगाली बिहु(13 अक्टूबर) इस समय धान की फसल लहलहा रही होती है। लेकिन किसानों के खलिहान खाली होते हैं। इसमें खेत में या तुलसी के नीचे दिया जला कर अच्छी फसल की कामना करते हैं यानि यह प्रार्थना उत्सव है। भेंट में एक दूसरे को गमझा(गामुस) देते हैं।


कोंगाली बिहू से ये भी युवाओं को समझ आ जाता है कि मितव्यवता से भी उत्सव मनाया जाता है।

 सौभाग्यवती महिलाएं पति की लम्बी आयु के लिए निर्जला करवाचौथ(13 अक्टूबर) का व्रत रखती हैं। महिलाएं श्रृंगार करके रात्रि को चंद्रमा को अर्घ्य देकर पति के हाथ से पानी पीतीं हैं और व्रत का पारण करतीं हैं।   


अहोई अष्टमी(17 अक्तूबर)पुत्रवती महिलाएं पुत्र की लम्बी आयु और उसके सुखमय जीवन की कामना के लिये यह निर्जला व्रत रखती हैं। शाम को तारे को अर्ध्य देकर व्रत का पारण करतीं हैं।


मेरी अम्मा ने परिवार में इस व्रत को पुत्र की जगह संतान के लिए कर दिया है। पोती के जन्म पर अम्मा ने भारती से व्रत यह कह कर करवाया कि बेटा बेटी में कोई फर्क नहीं है। यह व्रत संतान के अच्छे स्वास्थ लिए करो। मेरी भाभी दोनों बेटियों शांभवी, सर्वज्ञा के लिये करती हैं। मेरी बेटी उत्कर्षिणी अपनी दोनों बेटियों गीता और दित्या के लिए करती है। 93 साल की अम्मा, दूसरी पीढ़ी में भी बेटियों के लिए अहोई का व्रत उत्कर्षिणी को रखते देख बहुत खुश हैं।




धनतेरस को खूब खरीदारी की जाती है। जिससे शुभ लाभ होता है और यह चार दिवसीय दिवाली का त्यौहार सब उल्लास से मनाते हैं।

दीपावली उत्सव धूमधाम से मिट्टी के दिए जलाकर मनाया जाता है। लक्ष्मी जी की पूजा खील बताशे से ही होती है ताकि गरीब अमीर सब करें। लेकिन मेवा, मिठाई खूब खाया जाता है।





दिवाली के अगले दिन पर्यावरण और समतावाद का संदेश देता, गोर्वधन पूजा अन्नकूट का उत्सव दुनिया के किसी भी कोने में रहने वाला कृष्ण प्रेमी परिवार या सामूहिक रुप से मनाता है। जिसमें 56 भोग बनते हैं।


 यम द्वितीया का त्यौहर, भाई दूज है। मथुरा में बहन भाई यमुना जी में नहा कर मनाते हैं। कथा है सूयदेव की पत्नी संज्ञा की दो संताने यमी और यमुना हैं। यम ने अपनी नगरी यमपुरी बसा ली। वहां वह पापियों को दण्ड देने का काम करते थे। यमराज का ये काम यमुना को अच्छा नहीं लगता तो वह गोलोक चली गईं। यमराज और यमुना में बहुत स्नेह था। यमुना जी उन्हें बार बार आने का निमन्त्रण देतीं, पर काम में बहुत व्यस्त होने के कारण, वे बहन का निमंत्रण स्वीकार नहीं कर सके। अचानक एक दिन उन्हें बहन की बहुत याद आई। उन्होंने यमुना जी को ढूंढने के लिए दूतों को भेजा, वे पता नहीं लगा पाए। फिर वे स्वयं ढूंढने आए। कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की द्वितीया को विश्राम घाट पर यमराज और यमुना का मिलन हुआ था। यमुना जी भाई को मिल कर बहुत प्रसन्न हुईं। उनके लिए स्वयं भोजन बनाया। यमराज बहन के व्यवहार से प्रसन्न होकर बोले कि वह उनसे कोई भी वरदान मांगे। यमुना जी ने छूटते ही मांगा कि जो नर नारी उनके जल में स्नान करें, वे यमपुरी न जाएं। सुनकर यमराज सोच में पड़ गये कि ऐसे तो यमपुरी का महत्व ही खत्म हो जायेगा। भाई को सोच विचार में पड़ते देख, यमुना जी बोली,’’नहीं नहीं, जो बहन भाई आज के दिन यहां स्नान करेंगे या आज के दिन भाई, बहन के घर जाकर भोजन करेगा, उसे यमपुरी न जाना पड़े। यमराज तुरंत प्रसन्न होकर बोले,’’ठीक है, ऐसा ही होगा।’’

  कहते हैं कि विवाह के बाद कृष्ण भी पहली बार सुभद्रा से यहीं मिले थे। भाई बहन का त्यौहार भइया दूज कहलाता है। भाई बहन के घर जाता है। बहन भाई का खूब आदर सत्कार करती है। भाई बहन को उपहार देता है।

सादगी, पवित्रता, लोकजीवन की मिठास का पर्व ’छठ’ है। छठ पर्व में प्रकृति पूजा सर्वकामना पूर्ति,  सूर्योपासना, निर्जला व्रत के इस पर्व को स्त्री, पुरुष और बच्चों के साथ अन्य धर्म के लोग भी मनाते हैं। 


पौराणिक और लोक कथाओं में छठ पूजा की परम्परा और महत्व की अनेक कथाएं हैं। देवता के रुप में सूर्य की वन्दना का उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। सृष्टि पालनकर्ता सूर्य को, आरोग्य देवता के रुप में पूजा जाता है। भगवान कृष्ण के पौत्र शाम्ब को कुष्ठ रोग हो गया था। रोगमुक्ति के लिए विशेष सूर्योपासना की गई। एक मान्यता के अनुसार भगवान राम ने लंका विजय के बाद कार्तिक शुक्ल षष्ठी को सीता जी के साथ उपवास किया और सूर्यदेव की आराधना की। सप्तमी को पुनः सूर्योदय पर अनुष्ठान कर सूर्यदेव से आर्शीवाद प्राप्त किया था।

एक अन्य मान्यता के अनुसार छठ पर्व की शुरुआत महाभारत काल में हुई। कर्ण प्रतिदिन पानी में खड़े होकर सूर्यदेव को अर्घ्य देते थे। आज भी छठ में अर्घ्य देने की यही पद्धति प्रचलित है। इन सब से अलग बिहार, झारखण्ड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के जन सामान्य द्वारा किसान और ग्रामीणों के रंगों में रंगी अपनी उपासना पद्धति है। सूर्य, उषा, प्रकृति, जल, वायु सबसे जो कुछ उसे प्राप्त हैं, उसके आभार स्वरुप छठ मइया की कुटुम्ब, पड़ोसियों के साथ पूजा करना है, जिसमें किसी पुरोहित की जरुरत नहीं है। घाट साफ सफाई सब आपसी सहयोग से कर लेते हैं। बिहारियों का पर्व उनकी संस्कृति है। छठ उत्सव प्रवासी अपने प्रदेश जैसा ही मनाता है। 

चार दिन का कठोर व्रत नहाय खाय से शुरु होता है। सूर्य अस्त पर चावल और लौकी की सब्जी को खाता है। दूसरा दिन निर्जला व्रत खरना कहलाता है। शाम सात बजे गन्ने के रस और गुड़ की बनी खीर खाते हैं। चीनी नमक नहीं। अब सख्त व्रत शुरु होता है निर्जला व्रत , दिन भर व्रत के बाद सूर्य अस्त से पहले घर में देवकारी में रखा डाला(दउरा) उसमें प्रकृति ने जो हमें अनगिनत दिया है उनमें से इसे भर कर, डाला को सिर पर रख कर सपरिवार घाट पर जाते हैं। व्रती पानी में खड़े होकर हाथ में डाले के सामान से भरा सूप लेकर सूर्य को अर्घ्य देती है। सूर्या अस्त के बाद सब घर चले जातें हैं, फिर सूर्योदय अर्घ्य के बाद व्रत का पारण होता है।

हिन्दू देवी देवताओं की पूजा करना, परिवार और सामाजिक समारोहों, खरीदारी करना और उपहार देना, भण्डारे करना, पंडाल का भ्रमण, सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन और पर्यटन के लिए छुट्टियां भी हैं।

प्रेरणा शोध संस्थान से प्रकाशित केशव संवाद पत्रिका के अक्टूबर अंक में यह लेख प्रकाशित हुआ है।