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Monday 2 August 2021

प्रशासन को कोसने का मौसम नीलम भागी

 

मेरठ में केंद्रीय  विद्यालय डोगरा लाइंस से हम सब  घर पैदल आते थे। हमारे रास्ते में सी डी ए ऑफिस के सामने गोला मैदान में बहुत बड़ा आम का बाग था। जो हमारे स्कूल और घर के रास्ते के बीच में पड़ता था, वहां से गुजरना हमें बहुत पसंद था। हमेशा हम सड़क का रास्ता छोड़ कर मैदान से ही पेड़ों के नीचे से निकल कर जाते थे। जब स्कूल साइकिल से आने-जाने लगे तब भी पक्की सड़क छोड़कर कच्चे रास्ते  में से बाग से ही निकलते थे। क्योंकि वहां पेड़ों के बीच में एक  तालाब था। वहां पेड़ के नीचे कुछ देर बैठ कर तालाब के पानी को देखने से हमारी  थकान उतार जाती। गर्मी की छुट्टियों के बाद हमारा स्कूल जून के आखिरी हफ्ते में खुलता था तब तालाब सूखा होता था। उसकी मिट्टी में दरारें पड़ी होती थी। बरसात होती तो तालाब  भी भरता पर अगले दिन पानी गायब! ऐसा ही  काफी बरसात होने तक चलता रहता था। हमेशा  बरसात होती, अगले दिन लौटते हुए तालाब पर जाते कि आज हमें वहां पर पशु पक्षी पानी पीने आते, भैंसे नहाती है दिखेंगे पर पानी गायब होता पानी कहां चला जाता! ये देख, हम बच्चों की एक ही राय होती की जमीन सारा पानी पी जाती है। उसको बहुत प्यास लगती है। तालाब जमीन के लिए पानी भर के रखता है। लेकिन बरसात के एक महीने के बाद से तालाब  भरा रहता था। जब पानी कुछ कम होता तो बीच में जो भी बरसात होती है उससे पानी भर जाता और धरती की प्यास तो बरसात ने पहले ही बुझा दी थी। थोड़ी बहुत बीच में होने वाली बरसात बुझा देती थी और तालाब को भर  देती थी। हमारी गर्मी की छुट्टियां आने तक तालाब भरा रहता था। स्कूल छूट गया, तालाब भी छूट गया। नोएडा आई यहां कोई आस पास तालाब था ही नहीं। जबलपुर गई तो भेड़ा घाट के रास्ते में पहला तालाब आया तो मैं फोटो लेने लगी। ड्राइवर बोला कितनी फोटो लीजिएगा? यहां तो 50-52 ताल है। तालाब देखते ही मेरे दिमाग में बचपन का गोला मैदान का तालाब आ जाता, जिसके चारों ओर पूरा एक इकोसिस्टम चल रहा था।





अब बरसात में कभी घर से बाहर जाते ही सड़कों पर स्विमिंग पूल बने देखकर गोला मैदान का तालाब मन में नहीं आता बल्कि यह जलभराव देखकर दुख होता है कि यह सारा पानी इंतजार कर रहा है  नालियों से

नालों में जाने का, व्यर्थ बह जाने का। ना कि धरती की प्यास बुझाने का। कहने को देशभर में रेन वाटर हार्वेस्टिंग


के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए भू जल सप्ताह का आयोजन किया जाता  है परंतु व्यवहारिक रूप है ना तो बारिश के जल को संचित करने का प्रयास किया जा रहा है और ना ही जल की बर्बादी पर पूरी तरह लगाम लग पाई है। लाखों घन मीटर बारिश का पानी  बह जाता है। लोगों का भी पानी की बर्बादी में बहुत बड़ा योगदान है जो भी घर बनाता है वह अपने घर के आस-पास सुंदर टाइल  लगा के या फर्श पक्का करके ऐसा पुख्ता इंतजाम कर लेता है कि मजाल है जो वर्षा का जल जमीन के अंदर चला जाए और वह भू जलस्तर को सुधारने में मदद
करें।  कारण सिर्फ  यहां हमारी गाड़ी खड़ी होगी  का स्वार्थ। बरसात के पानी की बर्बादी से कोई मतलब नहीं है। पहले सड़क के फुटपाथ इस तरह होते थे कि वर्षा होते ही पानी जमीन मे जाता था लेकिन अब लोगों द्वारा बनाए, पक्के फर्श के कारण जलभराव हो जाता है और फिर प्रशासन को कोसने का काम शुरू हो जाता है कि पानी भरा है, हाय पानी भरा है यानि कि बरसात का मौसम प्रशासन को कोसने का सबसे अच्छा मौसम होता है। अपनी गलती कोई नहीं देखता। ऐसे तो भूजल स्तर गिरता ही जाएगा। पानी व्यर्थ ना जाए इसके लिए बरसात आने से पहले ही वाटर हार्वेस्टिंग पर सबसे ज्यादा ध्यान देना होगा। स्कूल में एक कविता पढ़ी थी "प्यासी धरती देख मांगती तो क्या मेघो से पानी" पर यहां तो मेघ पानी देते हैं पर हम धरती की प्यास बुझाने में कोई मदद नहीं करते हैं।
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