सभी सहयात्रियों के बैठते ही हमारी बसें चल पड़ीं। रास्ते भर जयकारे या बस के किसी भी कोने से समवेत स्वर में महिलाओं द्वारा बिना साज के भजन शुरु हो जाते। घरेलू महिलाएं बड़ी श्रद्धा भाव से गातीं। जिनके बोल इस प्रकार होते कि परिवार में वे बहुत भाग्यवान हैं जो देवी मां ने उन्हें दर्शन देने को बुलाया है। यात्रा में आने से पहले कई अड़चने(मसलन सास, ननद, जिठानी द्वारा) आई। पर मां की इच्छा थी तभी तो वे मां के दर्शन को जा रहीं हैं। मेरे साथ जसोला की उषा बैंठीं थीं। वे भी गीत समझाती जातीं। जिस भी रोड साइड ढाबे पर बसें रुकतीं महिलाएं चाय और कोल्डड्रिंक दोनों पीतीं, नमकीन, बिस्किट आदि के खूब पैकेट खरीदतीं। मंदिर के दोनों ओर की दुकानों से भी खरीदारी करतीं और बच्चों को भी खिलौने मिलते। ये सब देख कर मैं दिल से उन सबके लिए साधुवाद करती जो इस प्रकार की यात्राएं आयोजित करते हैं, जिससे सबको खुशी के साथ कुछ न कुछ मिलता है। मैं बिल्कुल नहीं पूछती कि अब कहां जा रहें हैं? जब बस चलती तो बताया जाता और पहुंचने पर बताते उससे आगे का जान कर क्या करना है? बस ये पता था कि 3 तारीख रात तक नौएडा आ जायेंगे। इस लिए इस यात्रा को खूब एंजॉय कर रही थी। परिवार से अलग अब तक मैंने जो भी यात्राएं की हैं, उस ग्रुप में ज्यादातर सीनीयर सीटीजन थे। वे कहीं भी, कभी भी गाड़ी रुकवा कर लघुशंका के लिए चले जाते। थोड़ी चहलकदमी करते। हम बुलाते तब गाड़ी में बैठते थे। कहीं ताजे़ अमरुदों से लदा ठेला देखकर, गाड़ी रोक कर अमरुद खरीदते, जिसमें अमरुद वाला चार चीरे लगाकर, उसमें मसाला लगा कर देता। फिर बुर्जुगों का अमरुद के फायदों पर व्याख्यान शुरु हो जाता। व्याख्यान का निष्कर्ष ये निकलता की अमरुद खाने से कब्ज नहीं होती है। और कब्ज सब बिमारियों की जड़ है। दूसरा वे विश्राम बहुत करते। आधी जगह देखते और लौटने का समय हो जाता।
और इस यात्रा में नाचना, गाना और ताजा बना खाना। शुरु में मेरे मुंह से एक दोे बार निकला,’’ अब रैस्ट कब करेंगें!’’ चारों दिशाओं से महिलाओं की हंसी की आवाज़ आई और वे बोलीं,’’दीदी रैस्ट तो घर में होता है। हम तो मैया के दर्शन को आएं हैं न।’’रात को हम बाबा दीप सिंह सोल्खियन गांव रोपड़ के गुरुद्वारे पहुंच गए। बसे वहां रुकीं। लगेज़ बस की डिक्की में रहता था। एक कॉटन का बैग सीट के ऊपर रखती थी। सबने बोला जल्दी से पहले प्रशाद खा लों। बहुत विशाल हॉल था, सब बैठ कर खाने लगे। वहां ऊपर बैठ कर भी खाने की जगह थी। मैं वहां जाकर बैठ गई। खाते ही रानी ओमपाल आए। हॉल में एक गद्दे के ऊपर बिछा कर बोले,’’दीदी अभी आप इस पर लेट जाओ फिर देखते हैं। मेरे पैर सूज गए थे। मैंने पैरों को बैग पर रखा और सो गई। नींद में करवट बदलती, जरा आंख खुलती तो देखती हॉल में जरा भी जगह खाली नहीं थी बीच बीच में सिक्योरटी के लिए सेवादार घूम रहें हैं। या कुछ लोग प्रशाद खा रहे होते। मैं और गहरी नींद सो जाती। अब तक मैंने जितनी भी यात्राएं की हैं। अपने घर जैसी नींद मुझे इस गुरुद्वारे में ही आई है। सुबह हाथ में चाय का गिलास पकड़े रानी और सुमित्रा आई। रानी चाय का गिलास देकर बोली,’’ चाय पियो, बड़ी देर से रात को रुम मिल गया था, आपको फोन किया आपने उठाया ही नहीं।’’ मुझे वे रुम में ले गईं।
मैं तैयार हुई। और गुरुद्वारा परिसर में घूमने लगी। यहां इतनी बड़ी संख्या में सबको प्रशाद के साथ आश्रय देना बहुत ही सराहनीय काम है। जिसे सेवादार अपनों की तरह करते हैं। बहुत बड़ी साफ सुथरी रसोई। बॉयलर से खाना बनता है।
आठ सेवादार लगातार तवी पर रोटियां बनाते हैं।
24 घण्टे चाय और खाने का लंगर चलता है। चाय के साथ भी कुछ न कुछ होता है।
पीने का ठण्डा स्वच्छ पानी। साफ टॉयलेट, पर डस्टबिन का उपयोग न करनेवाली ज्यादातर यात्री महिलाएं।
बर्तन रखने के तरीके ने तो मुझे बहुत ही प्रभावित किया। बड़े बड़े जालीदार बॉक्स जिसमें साफ मंजे बर्तन इस तरह रखे जाते हैं कि उनका पानी झर जाता है, वे सूखे हो जाते हैं।
कुछ लोग नहाते समय कपड़े जरुर धोते हैं। कपड़े सूखाने की व्यवस्था है। और वहां तक जूट की पट्टी बिछी है ताकि धूप में कपड़े फैलाते या उतारते समय फर्श पर पैर न जलें।
ऐसी सेवा की सराहना, प्रशंसा करती हुई मैं अपनी बस पर बैठ जाती हूं। क्रमशः