नीरज तिवारी अपनी पंतग को गुड़्डा लेकिन युवराज और शिवराज की पंतंगों को गुड्डी कह रहे थे। पहले तो मैंने गुड्डा गुड्डी में र्फक समझा। अम्बरसर में छोटी पतंग को गुड्डी कहते हैं और बड़ी पतंग को गुड्डा कहते हैं। हल्की सर्दी की शुरुवात हो चुकी थी। घनी बसावट का, पतली पतली गलियां और एक दूसरे से मिली हुई छतों वाले अम्बरसर में सर्दी में धूप सेकने के साथ गुड्डी उड़ाई जाती है। लेकिन लोहड़ी को पतंगबाजी देखने लायक होती है। इस दिन छुट्टी होती है। बाजार बंद रहते हैं। पतंगबाज ठंड की परवाह किए बिना ही छतों पर पतंगबाजी शुरु कर देते हैं। जब तक सूरज निकलता है, तब तक तो आसमान गुड्डे, गुड़ियों से भर जाता है। छतों पर ही डी.जे., माइक लगा कर कमैंट्री चलती है। मसलन लाल गुड्डी दा चिट्टे गुड़डे नाल पेंचा लड़दा पेया। लाल गुड्डी आई बो।(लाल और सफेद पतंग का पेच लड़ रहा है। लाल पतंग कट गई)। आई बो के साथ ही शोर मचता है। कुछ गुड्डों पर पतंगबाज अपना नाम, अपनी गली मौहल्ले का नाम लिख कर उड़ाते हैं। शहर का नाम नहीं लिखते क्योंकि दस फीट का गुड्डा अम्बरसर से दूर नहीं जा सकता। कुछ की कोशिश ये रहती है कि जिसके लिए उन्होंने अपना नाम पता लिखा है। पतंग उसकी छत पर ही कटने पर गिरे। प्रेमी का अगर नसीब अच्छा होता है, तो हवा की दिशा, प्रेमिका के घर की ओर होती है। घरवालों को उनके खाने पीने की चिंता है तो छत पर पहुंचा दो, ये खा लेंगे वरना भूखे मुकाबला करते रहेंगे। लेकिन मोर्चा छोड़ कर नहीं जायेंगे, वहीं डटे रहेंगे। लटाई चर्खी पकड़ कर खड़े होने वाले को भी कुछ देर के लिए मांझा(डोर) उड़ती हुई पतंग की पकड़ाई जाती है। वह भी उसमें थोड़ी ढील देकर, थोड़ा डोर खींच कर अपने एक्शन का, पतंग पर रिएक्शन देखता है। जब उसकी हरकतें ज्यादा बढ़़ने लगतीं हैं तो उस्ताद जी उससे डोर झपट लेते हैं। पतंगबाजों में जैसा जोश सुबह के समय होता है। वैसा ही उत्साह सूरज डूबने पर भी होता है। अंधेरा होने पर कहीं कहीं पैराशूट भी उड़ाते हैं। लेकिन आजकल पतंगबाज हाथों और अंगुलियों में मैडिकल टेप चिपकाकर उड़ातें हैं। ताकि अंगुलियां न कटे।
शाम को सात आठ बजे के बीच में लोहड़ी जलाई जाती है। तब ये पतंगबाज नीचे उतरकर आते हैं। बाकि पतंगें मकर संक्रांति को उड़ाने के लिए। यहां पर परंपरा का पालन जरुर किया जाता है। रात को सरसों का साग और गन्ने के रस की खीर घर में जरुर बनती हैं, जिसे अगले दिन मकरसक्रांति को खाया जाता है। इसके लिए कहते हैं। ’पोह रिद्दी, माघ खादी’(पोष के महीने में बनाई और माघ के महीने में खाई) बाकि जो कुछ मरजी़ बनाओ। हमारा कृषि प्रधान देश है। फसल का त्यौहार हैैं। इस समय खेतों में गेहूं, सरसों, मटर और रस से भरे गन्ने की फसल लहरलहा रही होती है। गुड़ बन रहा होता है। चारों ओर गन्ने के रस पकने़ की महक होती है। आग जला कर अग्नि देवता को तिल चौली(चावल) गुड़ अर्पित करते हैं। परात में मूंगफली, रेवड़ी और भूनी मक्का के दाने, चिड़वा लेकर परिवार सहित अग्नि के चक्कर लगा कर थोड़ा अग्नि को लगा कर प्रशाद खाते और बांटतें हैं। नई बहू के घर में आने पर और बेटा पैदा होने पर उनकी पहली लोहड़ी धूमधाम से मनाई जाती है। पार्टी भी की जाती है। आग के पास ढोल पर डांस तो होना ही है। अगले दिन मकरसंक्राति को खिचड़ी और तिल का दान करते हैं और खिचड़ी खाई जाती है। खिचड़ी के साथ, घी, पापड़, दहीं, अचार होता है। स्वाद से खाते हुए बुर्जुग कवित्त बोलते हैं ’खिचड़ी तेरे चार यार, घी पापड़ दहीं अचार’। क्रमशः
Ambarsariya deaa Tooklaa ( special type variety of Patang ) v bht maashoor Haan