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Saturday 5 February 2022

लो फिर बसंत आया, मन में उमंग छाया उत्सव मंथन नीलम भागी

विभाजन के बाद मेरे पिताजी का लाहौर से स्थानान्तरण प्रयागराज हुआ तो मेरी धार्मिक पुस्तकें पढ़ने वाली दादी, गंगा जी के कारण बहुत खुश थी। पंजाब में सभी रिश्तेदार इसलिये खुश थे कि जब भी वे हमारे यहाँ आयेंगें तो गंगा जी जायेंगे। अम्मा बताती हैं कि आजादी के बाद वहाँ जो पहला कुंभ 1954 में आया तो सब रिश्तेदार पंजाब से प्रयागराज बड़े हिसाब किताब से आये थे। जिसमें मौनी अमावस, बसंत पंचमी, माघी पूर्णिमा और कुंभ संक्रान्ति का उत्सव भी आ गया। इन उत्सवों में नदियों में स्नान करने की परंपरा है। कोई भी संस्कार कर्म करने से पहले लोटे में जल लेकर गंगा, यमुना, गोदावरी, सरस्वती, नर्मदा, सिंधु, कावेरी, कृष्णा, इन सातों नदियों का आह़़वान किया जाता है। और प्रयागराज में तो इनमें से तीन नदियों की त्रिवेणी है। कोई शुभ दिन हो, चलो, गंगा जी नहाने। अब मेरी ठेठ पंजाबी ब्राह्मण दादी, भोजपुरी गीत गातीं थीं। सत्तू, भूजा या चबेना उनका फास्ट फूड हो गया था। अपनी अनपढ़ सखियों के साथ, माघ मेले(वार्षिक मिनी कुंभ) जातीं। वहां से लोक गीत सुनकर आतीं और घर आकर गातीं। शब्द चाहे गलत हों पर स्वर से नहीं भटकती थीं और उनकी अनपढ़ सखियां कोरस बहुत अच्छा देतीं थीं। तभी तो बचपन में मेरी मैमोरी में फीड हो गया और आज लिखते समय धुन समेत गुनगुना रहीं हूं। मसलन

इधर बहै गंगा, उधर बहै यमुना, बिचवा में सरस्वती की धार।

माघवा महिनवा, त्रिवेणी के तट पर, जाइबो मैं करिके सिंगार ।

ओ गंगा तोरी लहर, सबही के मन भायी’.... 2 

तीर्थराज का जान महातम, ऐसो ही भज लै न रामा, ऐसो ही भज लै न।

अरे गंगा गोता खाय खाय के, हमहूं तर गयो न।

हो धन धन गंगे मात, सबही कै मन भाई। हो गंगा तोरी..... 

हमारे अवतारों की जन्मभूमि प्राचीन नगर, महानगर या तीर्थस्थल नदियों वाले शहरों में है। र्तीथस्थल हमारी आस्था के केन्द्र हैं। यहाँ जाकर मानसिक संतोष मिलता है। देश के कोने कोने से तीर्थयात्री माघ मेला में आते हैं। सभी तीर्थ भी अपने राजा से मिलने प्रयागराज, माघ में  आते हैं। इसलिए श्रद्धालु भी पौष पूर्णिमा से माघी पूर्णिमा तक यहां रहना, अपना सौभाग्य मानते हैं। एक ही स्थान पर समय बिताते हुए प्रदोष, माघी पूर्णिमा, गुरु रविदास जयंती, जानकी जयंती, छत्रपति शिवाजी जयंती, दयानंद सरस्वती जयंती मिलजुल कर मनाते हैं। अपने प्रदेश की बाते करते हैं और दूसरे की सुनते हैं। कुछ हद तक देश को जान जाते हैं। उनमें सहभागिता आती है। अपने परिवेश से नये परिवेश में कुछ समय बिताते हैं। कुछ एक दूसरे से सीख कर जाते हैं, कुछ सीखा जाते हैं। मानसिक सुख भी प्राप्त करते हैं। धर्म लाभ तो होता ही है। 

मौनी अमावस को मौन धारण कर गंगा जी या अपने आसपास नदी न होने पर वैसे ही स्नान करके तिल के लड्डू, तिल का तेल, आंवला वस्त्रादि का दान करते हैं। मौन व्रत भी तो मन को साधने की यौगिक क्रिया है। इस दिन मनु ऋषि का जन्म हुआ था। इस उत्सव में ठिठुरती ठंड में अध्यात्मिक आनन्द मिलता है।


  फूली हुई है सरसों और धरती तो फूलों के गहनों से सजने लगी है। ऋतुराज बसंत के स्वागत में। यानि ’बसंत पंचमी का उत्सव’ सब ओर रंग और उमंग। पीले कपड़े पहनना, पीले चावल या हलुआ बनाना, खाना, खिलाना और परिवार सहित सरस्वती पूजन करना। इस दिन बिना साहे के विवाह संपन्न किए जाते हैं। कोई भी शुभ कार्य कर सकते हैं। बच्चे का अन्नप्राशन यानि पहली बार अन्न खिलाने का संस्कार कर सकते हैं। परिवार का सबसे बड़ा सदस्य बच्चे को खीर चटाता है। बसंत पंचमी के बाद से बच्चे को सॉलिड फूड देना शुरु किया जाता है। वैसे बच्चे को छ महीने का होने पर पहले ही अन्न देने लगते हैं। पर अन्नप्राशन संस्कार बसंत पंचमी को कर लेते हैं। 

बच्चे का तख्ती पूजन(अक्षर ज्ञान) करते हैं। सरस्वती पूजन के बाद तख्ती पर हल्दी के घोल से बच्चे की अंगुली से स्वास्तिक बनवाते हैं। परिवार बोलता है

गुरु गृह पढ़न गए रघुराई, अल्पकाल सब विद्या पाई। 

और बच्चे की स्कूली शिक्षा शुरु होती है।       

पूर्वांचल में बसंत पंचमी को होलिका दहन के लिए ढाड़ा गाढ़ देते हैं।

फगुआ के बिना होली कैसी!! अब फगुआ, फाग, जोगीरा और होली गायन शुरु हो जाता है। जिसमें शास्त्रीय संगीत, उपशास्त्रीय संगीत और लोकगीत हर्षोल्लास से गाए जाते हैं। प्रवासी घर जाने की तैयारी शुरु कर देते हैं।

वृंदावन बांके बिहारी मंदिर, शाह बिहारी मंदिर, मथुरा के श्री कृष्ण जन्मस्थान और बरसाना के राधा जी मंदिर में ठाकुर जी को बसंत पंचमी के दिन पीली पोशाक पहनाई जाती है और पहला अबीर गुलाल लगा कर होलिका दहन के लिए ढाड़ा गाड़ा जाता है और बसंत पंचमी से फाग गाने की शुरुआत होती है। देश विदेश से श्रद्धालु ब्रजमंडल की होली में शामिल होने के लिए तैयारी शुरु कर देते हैं। बसंत पंचमी से ब्रज में चलने वाले 40 दिन के उत्सव पर, होलिका दहन को अनोखा नजा़रा देखना अपने सौभाग्य की बात है, ऐसा माना जाता है।  

खिचड़ी मेला गुरु गोरखनाथ जी के मंदिर गोरखपुर(जिले का नाम गुरु गोरखनाथ के नाम पर है) में मकर संक्राति को शुरु होता है जो एक महीने से अधिक समय फरवरी तक चलता है। मकर संक्राति को तड़के से खिचड़ी चढ़ाई जाती है। किसान अपनी पहली फसल की खिचड़ी चढ़ाने के लिए लाइनों में लगे होते हैं। इस प्रशाद की खिचड़ी को मंदिर की ओर से बनाया जाता है और विशाल मेले के साथ, मंदिर में खिचड़ी का भंडारा चलता है। रविवार और मंगलवार के दिन खास महत्व होता है। मेले में झूले और हर तरह के सामान, खाने पीने की दुकाने लगी रहती हैं। गुरु गोरखनाथ के खिचड़ी मेले में कोई भूखा नहीं रह सकता। खिचड़ी का प्रशाद खाओ और मेले का आनन्द उठाओ। देश के बड़े आयोजनों में यह मेला है।

माघ पूर्णिमा को काशी में जन्में संत रविदास की जयंती पवित्र नदी में स्नान करके उनके रचे पदों दोहों को कीर्तन में गाया जाता है। उनका जीवन बताता है कि भक्ति के साथ सामाजिक, परिवारिक कर्त्तव्यों को भी निभाना चाहिए। उनका कहना था कि ’मन चंगा तो कठौती में गंगा’

ब्राह्मण मत पूजिए जो होवे गुणहीन

पूजिए चरण चंडाल के, जो होवे गुण प्रवीण

हर नदी वहाँ के स्थानीय लोगो के लिये पवित्र है और उनकी संस्कृति और उत्सवों से अभिन्न रूप से जुड़ी है। नदियों को माँ कहा जाता है। जैसे माँ निस्वार्थ संतान का पोषण करती है। वैसे ही नदी हमें देती ही देती है। जीवनदायनी नदियों को लोग पूजते हैं, मन्नत मानते हैं। वनवास के समय सीता जी ने भी गंगा मैया पार करने से पहले, उनसे सकुशल वापिस लौटने की प्रार्थना की थी। इसलिए जानकी जयंती पर श्रद्धालु पवित्र नदी का पूजन भी करते हैं। यही हमारे उत्सवों की मिठास है जिसमें प्रकृति भी हमारे साथ है.

केशव संवाद के फरवरी अंक में प्रकाशित यह लेख