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Friday, 23 December 2016

इमीग्रेशन एवं एयरपोर्ट ट्रांसफर Immigration& Airport Transfer Hong Kong Yatra Part 2 हांग कांग की यात्रा भाग 2 नीलम भागी


           

                                       

इमीग्रेशन के लिये काउण्टर पर तीनों पासपोर्ट दिये। वहाँ बैठी महिला ने उत्तकर्षिनी, गीता को ध्यान से देखा और मुझे भी देखा, इतने में एक अधिकारी आया, मुझसे बोला ,"आप मेरे साथ चलिए" और काउण्टर पर बैठी महिला से मेरा पासपोर्ट ले लिया। उसने  उत्कर्षिनी और गीता को जाने को बोल दिया, पर वे दोनो मुझसे कुछ दूरी रख कर खड़ी रहीं। मुझे बिठा दिया गया, कुछ और लोगों को भी रोक रक्खा था। दस साल बाद जब मैंने अपना पासर्पोट रिन्यू करवाया था तो, जिस दिन मुझे इन्टरव्यू के लिये बुलाया गया था, उन दिनों मुझे डेंगू था। पहले पासपोर्ट में मैंने बहुत धक्के खाये थे। इसलिये अब मुझे जिस समय बुलाया गया था, मैं बिमारी की हालत में पासपोर्ट ऑफिस पहुँच गई थी, जहाँ मेरी तस्वीर भी ली गई और पता नहीं मैं कितनी मेजों पर गई। लौटी तो सीधे डॉ. के क्लिनिक में ब्लड रिर्पोट ली, तो मेरे साठ हजार प्लेटलेट्स थे। यह सुनते ही मैं बेहोश हो गई थी। पता नहीं कैसे उस हालत में पासपोर्ट का सब काम निपटा कर आई थी। खै़र जब पासर्पोट बन कर आया तो झट से मैंने खोल कर अपनी फोटो देखी। मैं पूरे यकीन के साथ कह सकती हूँ कि मेरे मरने के बाद, मेरे मुर्दे की शक्ल बिल्कुल मेरी पासर्पोट की फोटो से मिलेगी। विदेश यात्रा में मुझे कभी नहीं रोका गया। इस पासर्पोट को देखते ही मैं समझ गई थी कि पहली बार तो मुझसे जरूर पूछताछ होगी। मैं सोच ही रही थी कि पता नहीं कब तक बिठायेंगे। लेकिन वे बहुत जल्दी काम कर रहे थे। एक महिला मेरे पास आई। उसने पूछा,’’आप यहाँ क्यों आईं हैं?
 मैंने जवाब दिया,’’ होली डे पर।’’
’’किसके साथ?’’
मैं बोली,’’अपनी बेटी के साथ।’’
’’और कौन है?’’
मैंने प्रैम पर बैठी गीता की ओर इशारा करके कहा कि मेरी ग्रैण्ड डॉटर। उसने मेरा चश्मा उतरवा कर ध्यान से मेरी शक्ल को और पासर्पोट पर मेरी तस्वीर को देखा, गाल पर मेरे दोनों  तिलों   को छू कर, असली नक़ली की पहचान की और चली गई। एक आदमी ने आकर मेरा पासर्पोट लौटा दिया। यहाँ वीसा फीस नहीं थी। मैंने भी उन्हें धन्यवाद दे दिया। अब हम बताई गई बैल्ट पर लगेज लेने गये। लगेज लेकर हमने वहाँ का नक्शा लिया। हमने नाथन होटल में कमरा बुक किया था। जो मैट्रो स्टेशन के और हारबर और शॉपिंग एरिया के पास था। होटल तक जाने के तीन तरीके थे। पहला सांझा जिसमें एक वैन थी उसमें अलग अलग उड़ानों से आये सैलानी थे। अलग अलग होटल में उन्हें जाना था, ये सबको छोड़ते हुए जाती है। इसमें समय ज्यादा लगता है पर बचत होती है। दूसरा प्राइवेट ट्रांसफर वही टैक्सी लो और होटल जाओ। तीसरा है एयरर्पोट एक्सप्रेस ट्रेन जिसका प्लेटर्फाम एयरर्पोट के आगमन हॉल से कुल सौ मीटर की दूरी पर था। मैप में देखा फिर भी हमने पूछा, हमें होटल कैसे जाना चाहिए उन्होंने कहा कि ट्रेन से और फिर वहाँ से हमने ट्रेन का टिकट लिया और यहाँ के खाने पैक करवाये। एयरर्पोट मैट्रो हमारे देश की एयरर्पोट मैट्रो की तरह थी। उसमें सवार हुए। यहाँ वाई फाई फ्री है। हर जगह वहाँ का पासवर्ड लिखा होता है। ट्रेन पर बैठते ही मैं मोबाइल में खोने ही लगी थी कि मुझे अक्ल आ गई कि मोबाइल मेंं तो रूम मेंं जाने पर लग सकती हूं, यहां पर तो घूमने आई हूँ। अब तो मेरी नज़रें खिड़की से हट ही नहीं रहीं थीं। आकाश को छूती इमारतें और हरियाली देखने लायक थी। स्टेशन आया।  डस्टबिन का उपयोग करने वाले सभ्य लोग। महिला पुरूष स्मार्ट कपड़ों, क्लास्कि हैण्ड बैगऔर आर्कषक फुटवियर में फुर्ती से चलते नज़र आते हैं। ट्रेन से उतरते ही नक्शे में देखा कि हमारे होटल के पास कौन सा एग्ज़िट गेट पास पड़ता है। वहाँ हम पहुँचे। सीढ़ियाँ और एलीवेटर देख हम लिफ्ट का साइन देख रहे ही रहे थे कि इतने में हमारे दो भारतीय भाई कहीं से आये, दोनो ने हमारा एक एक बैग उठाया सीढिय़ों से पहले ऊपर रख आये और गीता को प्रैम समेत दोनों ले गये। बाहर हल्की बारिश हो रही थी। उन्होंने अपना छाता गीता पर कर दिया। हम टैक्सी करने लगे, उन्होंने इशारा किया, वो रहा होटल और हिन्दी में पूछा,’’इण्डिया में कहाँ से? हम तो आंध्रा प्रदेश से हैं।’’ हमने भी बताया कि हम नौएडा से। वे हमें होटल छोड़ कर बाय करके चले गये। क्रमशः 


Saturday, 10 December 2016

हाँग काँग की यात्रा पर दो माँ, दो बेटियाँ कुल तीन Hong Kong Yatra Part भाग 1 Neelam Bhagi नीलम भागी

बहुमत मध्य प्रदेश एवम छत्तीसगढ़ से एक साथ प्रकाशित समाचार पत्र में यह लेख प्रकाशित है



हाँग काँग की यात्रा पर दो माँ, दो बेटियाँ कुल तीन            भाग 1
                                      नीलम भागी
हमारी मंगलवार रात की जेट एयरवेज से फ्लाइट थी। मैंने और मेरी बेटी उत्तकर्षिनी ने तय कर लिया था कि हम ढाई साल की गीता को दिन में सोने नहीं देंगे। ताकि  फ्लाइट में वो हमें तंग न करे और सोती हुई जाये। सफ़र में सामान हम कम ले जाते हैं। एक मेरा बैग, एक गीता और बेटी का, हम दोनों ने बहुत बड़े पर्स लिये, जिसमें गीता की तुरंत जरूरत का सारा सामान आ गया। घर से एयरर्पोट के रास्ते में राजीव गीता से बतियाते आये। वहाँ पहुँचते ही राजीव ने गीता को प्रैम में बिठाया, गीता बहुत खुश थी कि सब घूमने जा रहे हैं। अब राजीव ने प्रैम मुझे हैण्ड ओवर कर, पीछे से उसे बिना बाय बोले, चले गये। हम तीनों ने एयरर्पोट में प्रवेश किया। गीता ने चारों ओर नज़रें घुमाई और पापा पापा कर, रोना शरू कर दिया। बड़ी मुश्किल से उसे समझाया कि शनिवार को पापा हमें मकाऊ में मिलेंगे। दोनों बैग चैक इन में डाल कर, हम लाउंज में चले गये। फ्लाइट से पहले हम बोर्डिंग पास पर लिखे नम्बर के गेट पर पहुँचे। गीता को देखते ही, स्टाफ ने हमसे प्रैम ले ली और हमें पहले प्लेन में बिठा दिया गया। इसमें दो दो सीटे विंडो के पास थी और बीच में चार सीट। बीच की चार सीटों में से तीन पर हम बैठ गये। प्लेन के उड़ान भरते ही मैंने देखा, मेरी बायीं ओर की दोनों सीटे खाली हैं। मैं तो झट से बीच का हत्था उपर कर, दोनों सीटों पर जाकर जम गई। विंडो के बाहर देखने को केवल अंधेरा था। मैंने चॉक और डस्टर फिल्म लगा ली। खा तो लाउंज में लिया था। चाय पीती रही। उत्कर्षिनी हाँगकाँग पहले भी आ चुकी थी, केवल दस घण्टे रूकी थी, उसकी इच्छा थी कि जब विमान उतरे, तो मैं यहाँ की ऊपर से खूबसूरती देखूँ। इसलिये मैं बिल्कुल नहीं सो रही थी। मेरी और गीता की सीट मिला कर उसके लिये लेटने की जगह हो गई थी। उसे दूध की बोतल देदी, वो तो सोती रही। दूसरी फिल्म मैंने जज़्बा लगा ली। निग़ाह मैंने बीच बीच में बाहर भी रक्खी। अचानक अंधेरा छटने लगा। अब मैंने बाहर नज़रें गड़ा दीं। पहली बार मैं पौ फटना विमान से देख रही थी। जिसे देखकर, मुझे वैसी ही अनूभूति हुई। जैसी पहली बार पुरी में समुद्र देखने पर हुई थी। जब विंडो सीन हमेशा की तरह हो गया, तो मैंने ब्रेकफास्ट किया और फिल्म कंटीन्यू की। लैंड होने के बीस मिनट पहले मैंने आँखें बाहर गड़ा दीं। सफेद बादलों के पहाड़ों पर न जाने कौन कौन से एंगल से धूप पड़ कर उनकी सुंदरता बढ़ा रही थी। बेल्ट बांधने का निर्देश मिला कि कुछ ही देर में लैंड करने वाले हैं। मेरी उत्सुकता बढ़ती जा रही थी। काफी देर तक मुझे बाहर बस ग्रे भाप सी दिखती रही, बाहर वर्षा हो रही थी, खिड़की से सब धुंधला लग रहा था और कुछ क्षण के लिये लगा कि जमीन में बहुत ऊँचे ऊँचे बाँस धंसे है। पर  फिर समुद्र के सीने पर फेरियाँ तैरती नज़र आयीं। ऐसे लग रहा था, जैसे हम पानी पर लैंड कर रहे हों!! नहीं, तुरंत पहियों ने जमीन को छुआ। वहाँ के दस बज कर पाँच मिनट पर हम लैंड किये। बाहर वर्षा हो रही थी। तापमान तेइस डिग्री था। गीता को जगाया। प्लेन से बाहर आते ही हमें प्रैम मिल गई। गीता अब समझदार हो गई है, प्रैम खोलते ही, वह उस पर बैठ गई। हमने बैल्ट लगा दी और निशानों को फॉलो करते हुए चल दिये। हर नये मोड़ पर कर्मचारी खड़ा, बिना पूछे इशारे से बताता कि अब किधर जाना है। प्रैम के कारण हमें लिफ्ट का रास्ता दिखाता। अब हम एक छोटी ट्रेन पर चढ़े। जहाँ उसने हमें उतारा। वहाँ भी संकेत मिलते रहे और हम इमीग्रेशन की लाइन में लग गये। भारतीय पर्यटकों के लिये यहाँ वीसा ऑन एराइविल है। आपके पास पासर्पोट और उड़ान की टिकट होनी चाहिये। इमीग्रेशन पर बिना वीसा शुल्क के आपको वीसा दे दिया जाता है। बच्चा देख कर हमें तुरंत अलग डेस्क पर भेज दिया। यहाँ हमारा दूसरा नंबर था। क्रमशः

Wednesday, 7 December 2016

हरिद्वार एक बार, अब गंगा जी और वहां का खाना बुलाए बार बार Haridwar Neelam Bhagi नीलम भागी

                                            
रात दस बजे हरिद्वार पहुँचे, हर की पौड़ी की जगमगाहट देखते बनती थी। शैतान बच्चे तो रात ही में नहाने को तैयार थे। किसी तरह उन्हें सुबह के लिये मनाया। हर की पौड़ी के पास ही हम ठहरे। सुबह किसी को जगाना नहीं पड़ा, हमारे जगने से पहले ही बच्चे उठ गये थे। बचपन इलाहाबाद में बीतने से गंगा जी से मोह तो लगा हुआ है। जिस सूट में नहाना था, हम वही सूट पहन कर सोए, ताकि सुबह जरा भी वक्त बरबाद न हो। गंगा माँ को प्रणाम कर जंजीर पकड़ कर ठंडे ठंडे पानी में जी भर के डुबकियाँ लगाई। जून का महीना था। तेज बहाव और ठण्डा ठण्डा पानी। जब खूब ठण्ड लगती तो बाहर निकलते, तीखी धूप लगती तो फिर गंगा मइया में डुबकी लगा लेते। थकान और भूख से बेहाल होने पर हमने हर की पौढ़ी को छोड़ा और खाया पिया। धूप बहुत तेज हो गई थी। गर्मी थी पर लू नहीं चल रही थी। अब हमारी बस हमें हरिद्वार के दर्शनीय स्थल घुमाने ले गई। सबसे पहले खूब लंबी लाइन में लग कर केवल कार द्वारा मनसा देवी और चण्डी देवी के दर्शन करने को चले। केबल कार से हरिद्वार का दर्शन विस्मय विमुग्ध कर रहा था। बच्चे की कल्पना है, अचानक मनु बोला,’’मौसी, अगर केबल कार टूट जाये, तो हम सब नीचे गिर कर मर जायेंगे न।’’सभी कोरस में उसे मनहूस टाइटल देते हुए चिल्लाये,’’अरे शुभ शुभ बोल।’’ बेचारा रूआंसा होकर बोला,’’ मेरे मुहं से ऐसी गंदी बात पता नहीं क्यों निकली।’’बदले में मैंने प्यार से उसकी पीठ पर हाथ फेर दिया। अब मंदिर आ गया। एक दिन पहले गंगा दशहरा था। शायद इस वजह से मंदिर में संगमरमर के फर्श पर कालिख जमी हुई और फिसलन थी। हमारे पैरों के तलवे काले हो गये थे। जिसे मैं अब तक नहीं भूली हूँ। इसीलिये मेरी पहचान का कोई भी अब दर्शन करके आता है तो मैं उस दिन की गंदगी का ज़िक्र करती हूँ, तो जवाब मिलता है, ’’नहीं जी, बिल्कुल साफ सुथरा मंदिर है।’’सुनकर बहुत अच्छा लगता है। गरूकुल कांगड़ी, दक्षप्रजापति मंदिर, सप्तऋषि आश्रम, भीमगोड़ा तालाब, भारत माता मंदिर और अब पतंजलि भी दर्शनीय है। प्रत्येक दर्शनीय स्थल के बाहर लकड़ी की कारीगरी का सामान, बहुत सस्ते दामों में मिलता है। हम जहाँ जाते चप्पल बस में उतार कर जाते। नंगे पैर घूमने में बहुत मजा़ आ रहा था। हरिद्वार पवित्र शहर होने के कारण इसकी सीमा में शराब और मांसाहार मना है। काश! वैसे ही थूकने पर भी जुर्माना हो तो आनन्द आ जाये। तब हम राह चलते किसी भी नल का पानी पी लेते थे पर अब नहीं। शाकाहारी बेहद सस्ता और लाजवाब खाना है। पंजाबी खाना है तो होशियार पुरी ढाबा है। छोले भटूरे तो राह चलते खा सकते हैं। मथुरा की पूरी सब्जी़, कचौड़ी बेड़मी की दुकाने, साथ में रायते का गिलास, कढ़ाइयों में कढ़ता दूध जगह जगह आपको मिलेगा। पंडित जी पूरी वाले तो मशहूर ही हैं। हरा हरा दोना हथेली पर रखकर खाने का मज़ा ही कुछ और है। हम तो जो लड्डू, मठरी बना कर ले गये थे, उसे तो खोला भी नहीं। अब गंगा जी से मिलने जाती हूँ तो वहाँ गुजराती पोहा, मिठास गुजरात में छोड़ कर यहाँ थोड़ा तीखे हो गये हैं। लौटने पर कुछ देर आराम करने आये, तो बेसुध सो गये। आँख खुली तो जून की लंबी शाम थी। फिर हर की पौढ़ी पर चल दिये डुबकियाँ लगाने। मुझे तैरना नहीं आता, इतने तेज बहाव में, न जाने मुझे क्या सूझा कि मैं तैरने की कोशिश करने लगी। अचानक मेरे पैर उखड़ गये और एक हाथ से पकड़ी चेन भी छूट गई। दो आदमियों ने पानी में कूद कर मुझे बचाया। मैं बुरी तरह से डर गई। मैंने उनसे पूछा,’’आपको कैसे पता चला कि मैं बह रहीं हूँ।’’उनका जवाब था कि हम यही देखते हैं। और चल दिये शायद किसी और को बचाने। अब मैं उचित जगह देखकर गंगा जी की आरती देखने के लिये गुमसुम सी बैठ गई। हर की पौढ़ी पर आरती में शामिल होने के लिये श्रद्धालुओं की भीड़ बढ़ती जा रही थी। हम सातों एक दूसरे का हाथ पकड़ कर बैठ गये । अंधेरा घिरने पर अनुराधा पोडवाल की आवाज में गंगा मइया की आरती में श्रद्धालुओ का भाव भी जुड़ गया। अब आरती का ऐसा समा बधां कि उसको तो लिखने की मेरी औकात ही नहीं है। हाथ सबके जुड़े, आँखें दीपों पर टिकी हुई हैं। दिन भर की हर की पौढ़ी अब अलग लग रही थी। आरती संपन्न होते ही तंद्रा टूटी। भीड़ छटने लगी और सब कुछ पहले जैसा हो गया। दस बजे हमारी बस ने लौटना था। खाकर, कुल्हड़ में धुंए की महक वाला दूध पीकर, आबशार में नल का ठंडा पानी भर कर लौटे। मुंह अंधेरे घर में घुसते ही अम्मा को बताया कि हमने नीलकंठ महादेव की पैदल यात्रा की। सुनते ही अम्मा बोली,’’ क्या मांगा भोले से?’’ मैं बोली,"मैंने मांगा,बाबा, मैं अपने घर पहुँच जाऊँ।’’ सुनते ही अम्मा ने अखबार दिखाया, जिसमें लिखा था कि जंगल में आग लगने से जंगली जानवर बेहाल हो गये। हम तो उस समय जंगल में ही थे। डॉ. शोभा उसी समय बोली,’’अरे! मेरे तो नीलकंठ के रास्ते में एक बार भी घुटने में प्राब्लम नहीं हुई, न ही तक़लीफ याद आई। अगर याद आ जाती तो!! मैं बोली,’’चढ़ाई से आपके घुटने के नट बोल्ट कसे गये।’’आजतक उन्हें घुटने की परेशानी नहीं हुई है। आबशार में ठंडा ठंडा हरिद्वार का पानी था। जिसे सबने गंगा मइया की जै बोल कर तुरंत पी लिया। अब तो याद भी नहीं कि कितनी बार गंगा स्नान कर आई हूँं।       


Wednesday, 30 November 2016

ऋषिकेश, नीलकंठ महादेव की यात्रा ने मेरी ज़िन्दगी बदली और& Rishikesh Neelkanth Mahadev ke Yatra ne mere Zindagi Badali Part 4 Neelam Bhagi यात्रा भाग 4 नीलम भागी नीलम भागी




उतरना सबके लिये आसान था पर मेरे जैसी मोटी के लिये और भी मुश्किल साबित हो रहा था। अब मैं दो डण्डियों की सहायता बड़ी सावधानी से उतर रही थी। जरा सी असावधानी के कारण मैं फुटबॉल की तरह लुड़क सकती थी। खैर चार बजे मैं मंदिर में पहुँच गई। वहाँ एक झरना था। श्रद्धालु वहाँ दर्शन से पहले स्नान कर रहे थे। मंदिर की दिवारों पर संमुद्र मंथन के दृश्य उकेरे हुए थे। बहुत नजदीक से दर्शन हुए। वहाँ धूनी जल रही थी। दर्शनार्थियों की आस्था थी शायद, जिसके प्रभाव से एक अलग सा भाव पैदा हो रहा था जिसे मैं लिखने में असमर्थ हूँ। मेरी आँखों से टपटप पानी बह रहा था। मैंने बाबा से एक ही प्रार्थना की बाबा मैं ठीक से अपने घर पहुँच जाऊँ। प्रशाद में मुझे भभूत मिली, जिसे मैंने सहेज कर रख लिया। बाहर आते ही खानदान ने मुझ पर प्रश्न दागा,’’दीदी, आप हमारे साथ पैदल चलेंगी या टैक्सी से आयेंगी।’’ टैक्सी सुनते ही मैं खुशी से उछल पड़ी। उन्हें धन्यवाद किया। अब तक अर्जुन को जैसे चिडि़या की आँख नज़र आ रही थी, वैसे ही मुझे अब तक केवल बाबा के दर्शन ही दिख रहे थे। जैसे ही मैंने आस पास देखा वहाँ तो लोग टैक्सियों से आ रहे थे। अब मुझे खानदान पर बहुत गुस्सा आया। पहले बता नहीं सकते थे कि टैक्सी से जाया जा सकता है। मैं मर जाती तो!! तुरंत मेरी सोच बदली कि मरी तो नहीं न। नासमझी से ही मेरे अंदर आज आत्मविश्वास आ गया कि मैं 11 किलोमीटर की कठिन चढ़ाई कर सकती हूँ। अब मुझे उन पर गुस्सा नहीं आ रहा था। पर उस समय मेरी हालत ऐसी थी कि मैं एक कदम भी नहीं बढ़ा सकती थी।  तब टैक्सी का किराया 35रू था। जिस भी टैक्सी वाले से बात की वो बोलता कि टैक्सी आने जाने के लिये है। हम जिन्हें लाते हैं, उन्हें ही लेकर जाते हैं। मैं उसे दोनों समय का किराया देने को तैयार थी। पर कोई राजी नहीं हो रहा था। बड़ी समस्या! इतने में एक टैक्सी रूकी उसमें से सवारियाँ उतरी, मैं झट से उसमें बैठ गई। सातों किसी तरह उसमें एडजस्ट हो गये। टैक्सी वाला बोला,’’उतरो।’’ मैं बोली,’’मेरे में गंगा जी में छलांग लगाने की भी हिम्मत नहीं हैं। मैं तुम्हें दुगने पैसे दूँगी। चलो या मुझे उठा कर गंगा जी में फेंक दो।’’ उतरने वाली सवारियाँ बोली,’’छोड़ आओ भइया, हम तुम्हारा इंतजार कर लेंगे।’’वह हमें लेकर चल पड़ा। ये रास्ता तो मेरी आँखों में बस गया। एक ओर गंगा की धारा अठखेलियाँ करती चल रही है और दूसरी ओर हरे भरे पहाड़। सबकी आँखे बाहर टिकी हुई थीं, कोई कुछ नहीं बोल रहा था। हम विस्मय विमुग्ध से बैठे थे। गाड़ी चलती जा रही थी। अचानक, उतरो, सुनते ही हमारी तंद्रा टूटी। एक घण्टा तो पलक झपकते ही बीत गया। उतरे, किराया चुकाया। गंगा जी के ठंडे पानी में पैर लटका कर बैठ गये। सारी थकान हमारी गंगा माँ ने चूस ली। पास के रैस्टोरैंट में खाया पिया। तब तक खानदान भी आ गया। मैंने पूछा,’’पैदल इतनी जल्दी!! सबने कोरस में जवाब दिया। उतरना आसान होता है न। नौ बजे हमारी बस हरिद्वार के लिये रवाना होनी थी। तब तक हम आस पास के दर्शनीय स्थानों त्रिवेणी घाट, अयप्पा मंदिर, भारत मंदिर, स्वर्ग आश्रम, गीता भवन, योग केन्द्र, राम झूला आदि के दर्शन किये। गंगा जी के किनारे सूर्या अस्त का नज़ारा देखा। गंगा जी की आरती में शामिल होना, अपना सौभाग्य लगा। आरती संपन्न हो गई। मैं अपने आप में इतनी खुश थी कि वर्णन नहीं कर सकती। इस खुशी का कारण था। नीलकंठ की यात्रा के बाद, मैं इन सभी दर्शनीय स्थानों पर पैदल पैदल घूमी और मुझे थकान नहीं थी। इस यात्रा ने तो जीवन भर के लिये मेरी जीवन शैली बदल दी।  क्रमशः     




Sunday, 20 November 2016

अचानक, नीलकण्ठ महादेव की यात्रा ने मेरी ज़िन्दगी बदली भाग 3 Achanak, Neelkanth Mahadev ke Yatra ne mere Zindagi Badali Neelam Bhagi Part 3 Uttrakhand भाग 3 Neelam Bhagi नीलम भागी



                                                        
दोनों बहने पीछे से आकर मुझसे आगे निकलने लगी, तो मैंने उन्हें रोका और कहा,’’मैं तो आज मर जाऊँगी, तुम मेरी बेटी उत्कर्षिणी को प्यार से पाल लोगी न।’’दोनो कोरस में बोलीं,’’चुपचाप, चलती रहो। अपनी बेटी को तुम्हीं पालोगी।’’और आगे निकल गई। कुछ लौटने वाले युवा मेरे पास से गुजरते हुए बोल जाते,’’दीदी, आप तो हर हफ्ते पैदल बाबा के दर्शन करने आया करो, एकदम स्लिम ट्रिम हो जाओगी।’’मैं उनके सुझाव पर हंस देती और मन ही मन कहती कि आज बचूंगी, तभी तो आऊँगी न। चलते चलते मेरे तेजी से पसीने छूटने लगे और आँखों के आगे अंधेरा छाने लगा। मैं बैठ गई। ऐसा चूने वाला पसीना मुझे कभी नहीं आया। एक श्रद्धालू मेरे पास आकर बैठ गया, उसने अपने बैग से थरमस निकाला और उसके ढक्कन में भर कर मुझे गर्म तेज मीठे की चाय दी। मैं चाय पीती जा रही थी और मेरी तबियत सुधरती जा रही थी। चाय खत्म होते ही उसने र्थमस पर ढक्कन लगाया और ये जा, वो जा, मैं तो उसे धन्यवाद भी नहीं कर सकी। अब मैं चलने लगी और साथ ही मेरे दिमाग में विचार भी चलने लगे।
मैं एक साधारण महिला हूं। हमेशा संयुक्त परिवार में रहीं हूं। परिवार के एक सदस्य से नाराज़ होती हूँ तो दूसरे से मेरी पटने लगती है। इसलिये मुझे बहुत सारे भगवान पसंद हैं। एक भगवान जी मेरी मनोकामना पूरी नहीं करते तो, मै उनसे नाराज होकर, दूसरे भगवान जी की शरण में चली जाती हूँ। उस दिन मैं बाबा से नाराज़ हो गई। मेरे साथ चलने वाले एक साधू से मैंने गुस्से से कहा कि नीलकंठ बाबा को क्या जरूरत थी, इतनी दूर आने की? जिसके जवाब में उन्होंने कहा कि समुद्र मंथन से जो कालकूट विष निकला, उसे भोले नाथ ने पी लिया, पार्वती जी ने उनका गला इस तरह दबाया कि विष गले में ही अटक गया, जिससे उनका विष के प्रभाव से कंठ नीला पड़ गया और उनका नाम नीलकंठ पड़ गया। कैलाश पर्वत पर जाने से पहले उनका यहीं वास था। विष के कारण उनका माथा भी गरम रहता था। जल चढ़ाना श्रद्धालुओं का उनके प्रति प्रेम है। फिर इशारे से कहा कि वो देखो, दूर देख रही थी, एक महिला हाथ में हंसली ले, एक पेड़ की शाखा पर छिपकली की तरह चिपकी हुई, दराती से पतली पतली टहनियाँ काट काट कर पीछे की ओर फैंकती जा रही थी और पीछे वाली कैच करती हुई, साथ आई बकरियों को डालती जा रही थी। मुझे देख कर ऐसा लगा कि अगर वो शाखा टूट जाती, तो नीचे खाई में उस महिला का मिलना मुश्किल था। तुरंत मेरे दिमाग में प्रश्न आया कि ये भी तो महिलाएँ हैं। बकरियों का पेट भर रहीं हैं और घर में इनको खिलाने के लिये गठृठर बाँध कर ले भी जायेंगी और घर जाकर गृहस्थी के काम भी निपटायेंगी। एक मैं हूँ, अपने आप को ले जाने में भी हाय! तोबा मचा रखी है। ऐसा क्यों? इस सबका कारण था मेरी सोच। मेरा मानना था कि इनसान कमाता किस लिये है? अपने आराम के लिये। इसलिये मुझे पानी का गिलास भी अपने आप लेकर पीना अच्छा नहीं लगता था। जरा सी दूरी भी मैं पैदल नहीं नापती थी। आज बहुत जल्दी जिसका परिणाम मुझे मिल रहा था और मेरी समझ में खूब अच्छी तरह आ रहा था कि कलम चलाने के साथ शरीर का चलना भी जरूरी है। मैंने मन ही मन तोबा कर ली कि भगवान जी, अगर घर लौट गई तो सबसे पहले शरीरिक श्रम से अपना स्टैमिना बढ़ाऊँगी। अब पता नहीं कहाँ से लंगूर आकर मेरे साथ चलने लगे। थोड़ी देर सुस्ताने के लिये बैठी, तो वो भी बैठ गये। मैं डर गई तो साधू महाराज बोले’’ ये किसी को कुछ नहीं कहते।’’ उठ कर थोड़ा सा चली तो उतराई शुरू हो गई। साधू महाराज ने समझाया कि आगे झुक कर नहीं उतरना। क्रमशः


Sunday, 23 October 2016

नीलकण्ठ महादेव की यात्रा ने मेरी ज़िन्दगी बदली भाग 1 Neelkanth Mahadev ke Yatra ne mere Zindagi Badali Neelam Bhagi Uttrakhand भाग 1 Neelam Bhagi नीलम भागी


कुछ साल पहले मेरी छात्रा के पिता आये और बोले,’’दीदी, मैंने टूर ले जाने का काम शुरू किया है।  पहली बस हरिद्वार और ऋषिकेश जा रही है। सबसे पहले आपके पास आया हूँं।’’ मैंने सात टिकट ले लीं। एक रात जाना ,एक रात आना और एक रात हरिद्वार में रूकना। शनिवार रात को निकलना था। मैंने बेसन के लड्डू, मठरी, कचौड़ी बना ली। अंजना ने तैयारी कर ली। उत्तकर्षिनी छोटी थी, सिर्फ पढ़ने का काम करती थीं। उसे टेंशन थी कि ये पकाने में लगी हैं, बस हमें छोड़ कर चली जायेगी। खाना शोभा ने बनाकर लाना था और हमने बस में ही खाना था। वहाँ घर में उसके बच्चे, अपर्ना, मनु कनु ने माँ की नाक में दम कर रक्खा था, वे एक ही रट लगा रहे थे ,बस चलो। खैर शोभा अपने साथ एक पाँच लीटर के ठण्डा पानी रखने के जग,आबशार में बर्फ भर कर लाई। हम जैसे ही घर से निकले, अम्मा पीछे से आकर एक हाथ जलाता हुआ, स्टील का डिब्बा देते हुए बोली,’’हलुआ।’’मुझे याद आया, हमारे यहाँ त्यौहार या शुभ काम पर कढ़ाई चढ़ाते हैं, तो उसमें मीठा बना कर ही कढ़ाई को चूल्हे से उतारते हैं। यहाँ तो हम तीर्थयात्रा जैसे शुभ काम को करने जा रहे थे। जितनी देर हम तैयार हो रहे थे, अम्मा ने हलुआ बनाने की  परम्परा को पूरा किया। अभी कुछ दूर ही चले थे कि शोभा का घुटना रूक गया। उसके घुटने का न जाने कौन सा स्क्रू ढीला हो गया था, जिसके कारण वह कुछ समय तक चल नहीं पाती थी। ये समस्या कभी भी, कहीं भी आ जाती थी। उसके डाक्टर पति कहते, मेरे सामने हो तो डायग्नोज़ करता हूँ ,एक्स रे करवाउँगा। दर्द तो था नहीं इसलिये वक्त टलता रहा। अब शोभा बोली,’’मैं तो घुटने से परेशान हूँ, तुम मेरी जगह किसी और को ले जाओ न ,पर मेरे बच्चे ले जाना। मैं बोली,’’नदी का मामला है, इन शैतान बच्चों की, मैं जिम्मेवारी नहीं ले सकती।’’सुनते ही बच्चों के लौकी की तरह चेहरे लटक गये। बच्चों की शक्ल देख शोभा चल पड़ी। पौं फटने से कुछ पहले ही हम ऋषिकेश पहुँचे। बस वालों ने कहाकि हम रात को हरिद्वार चलेंगे । जून का महीना था।दिल्ली की भीषण गर्मी से गए थे, हम गंगा जी को प्रणाम कर किनारे पर पड़े पत्थरों पर ठण्डे पानी में पैर लटका कर बैठ गये। हमने सोचा कि जब तक धूप तेज नहीं होती, तब तक यहीं बैठेगें। फिर स्नान करके घूमने जायेंगे, रात तक का हमारे पास समय है। इतने में मैं क्या देखती हूँ!!हमारी बस में आया एक खानदान, हमसे कुछ दूरी पर जल्दी जल्दी नहा रहा है। मैं उनके पास गई और पूछा,’’हमने तो रात को यहाँ से लौटना है। आपने इतनी आफत क्यों मचा रक्खी है?’’ क़ायदे से आफत शब्द सुन कर, उन्हें मुझसे लड़ना चाहिये था। मैं पढ़ी लिखी थी और वे अनपढ़। पर उनमें से एक महिला बड़ी खुशी से  बोली,’’हमें न, बाबा के दर्शन करने जाना है।’’मैंने पूछा,’’बाबा कहाँ है?’’ उसने गंगा जी के पार पहाड़ों की ओर हाथ से इशारा करके कहा,’’वहाँ।’’ मैंने प्रश्न किया,’’कैसे जाओगे?’’वो बोली,’’हम तो हमेशा पैदल ही जाते हैं। अपने साथ के सात आठ साल के बच्चों की ओर इशारा करके बोली, ये भी पिछले सावन को पैदल ही गये थे, हमारे साथ।’’ मैंने उनसे कहा कि हम भी आपके साथ जायेंगे, बाबा के दर्शन करने। सुनकर वे खुश हो गये। आकर, मैंने अपने परिवार को कहा कि हम भी इनके साथ बाबा के दर्शन करने जायेंगे। सबने कोरस में पूछा,’’कौन से बाबा?’’मैंने उस खानदान से वहीं से चिल्ला कर पूछा,’’कौन से बाबा?’’उनका जवाब था ’’भोले बाबा नीलकंठ’’। अब हमारे अंदर भी गज़ब की फुर्ती आ गई। हमने स्नान किया। लक्ष्मण झूले से गंगा जी को पार कर एक रैस्टोरैंट में गर्मागर्म आलू और सीताफल की सब्जी, पूरी, जलेबी चाय का नाश्ता करके, अपने साथियों का इंतजार किया। वे चलते हुए आये और चलते चलते बोले,’’चलो।’’पर्स लटकाये, फैशनेबल चप्पलों की हील से टकटक करती हम तीनों और बच्चे उनके पीछे चल दिये। चारों बच्चों ने नम्बर लगा लिया आबशार उठाने का, हम उनके पीछे चलते जा रहें हैं। तब मैं बहुत मोटी थी इसलिये सब मुझसे काफी आगे चल रहे थे। कुछ दूर जाने पर पक्की सड़क खत्म हो गई थी। मेरे मन मे आया कि ये अनपढ़ लोग हैं, किसी और से भी पूछ लूँ शायद शार्टकट रास्ता हो। सड़क के किनारे चार पाँच साधू बैठे थे। मैंने उनसे पूछा,’’महाराज, नीलकंठ का रास्ता यही है।"मेरे प्रश्न के जवाब में उनमें से एक ने प्रश्न पूछा,’’पैदल नीलकंठ जा रही हो?’’मैंने कहा,’’हाँ जी।’’वो बाकियों से बोला,’’देखो, ये मोटी पदैल नीलकंठ जा रही है।’’वे सब मुस्कुराये और मैं हंसते हुए तेजी से अपनी बहनों के पास पहुँच गई और उनको किस्सा बता कर कहा कि आजकल तो साधु भी महिलाओं से मजाक करते हैं। सुनकर सभी हंसने लगे और मैं भी सबके साथ कदम मिला कर चलने की कोशिश करने लगी। हम जितना ऊपर चढ़ते जा रहे थे ऋषिकेश और गंगा जी  की सुन्दरता बढ़ती जा रही थी। अचानक खानदान ने अपने सब सदस्यों को एक एक पुड़िया दी, उन्होंने उसे फांका और ये जा वो जा। रास्ता पूछने की तो जरूरत ही नहीं थी। पेड़ों पर तीर के निशान थे। चलते चलते मैं तो बेहाल हो गई, पर बाबा का दूर दूर तक पता नहीं था। क्रमशः






Sunday, 16 October 2016

पाण्डी करी, बैम्बूशूट करी, योद्धा संस्कृति, अतुलनीय प्राकृतिक सौंदर्य और विश्व स्तर की कॉफी का कूर्गCoorg यात्रा भाग 9 नीलम भागी यात्रा भाग 9 नीलम भागी

                                                                                                                                   
                                                                                                                             



डिनर के लिय तैयार हुए बग्गी आ गई। हल्की बरसात तो चल ही रही थी। फर्न ट्री रैस्टोरैंट मैन्यू का ध्यान से अध्ययन किया कि कूर्ग स्पेशल में कुछ छूटा तो नहीं, वही आर्डर किया। वेज़ में बैम्बू शूट करी रह गई थी, उसे भी आर्डर किया और पाण्डी करी तो प्रत्येक मील के साथ लाज़मी थी। इसमें काचमपुली का रस या उसका सिरका पड़ता है, जो केवल कूर्ग में ही उगता है और घने जंगलों के कारण जंगली सूअर भी यहाँ मिलता है। बैम्बू शूट डिश पहली बार सुनी, देखी थी इसलिये इसे सबने चखा। कहते हैं कि बैंबू 60-70 साल में केवल एक बार खिलता है। खूब स्वाद ले कर खाया। पुट्टु के बारे में बहुत मजेदार वाकया है। मुझे मीठा बहुत पसंद है। मैंने सफेद रसगुल्ला समझ कर पुट्टु को मुंह में डाला। लेकिन ये फीका था। बाद में पता चला कि इसे घी, मक्खन, शहद के साथ भी खा सकते। पुट्टु चपटे नूडल की तरह नूल पुट्टु, चावल के आटे से ये कई तरह के आकार में बनाये जाते हैं, जो मटन करी, पाण्डी करी के साथ खाये जाते हैं। सबसे आखिर में हम वहाँ से निकले। विला पहुँचे। 12 बजे केक काटा, खाया और उत्तकर्शिनी को बधाई दी। मैंने कहा,’’आज तो गंगा दशहरा है।’’इलाहाबाद में थे तो गंगा जी में नहाने जाते थे। नौएडा में गढ़मुक्तेश्वर या हरिद्वार मौका मिलने पर चल देते हैं। यहाँ तो पास में ही हमारे देश की पाँच पवित्र नदियों में शुमार दक्षिण की गंगा, कावेरी का उदगम स्थल, ताल कावेरी है, लक्ष्मणातीर्थ नदी के तट इरुप्पू फॉल्स है। यहाँ का तो कण कण पवित्र है। वीरों की भूमि है, जो श्रद्धेय होती है। राजीव बोले,’’ गंगा दशहरा का स्नान करके ही सोयेंगे।’’गीता तो चौबीस घण्टे तैयार रहती है। ये तीनों पूल में उतर गये। मैं तो सो गई। सुबह जल्दी निकलना था और आस पास के दर्शनीय स्थलों के दर्शन करने थे। यहाँ के रहन सहन, खान पान की अपनी पहचान है। साधारण देसी स्वादिश्ट मिठाइयाँ हैं। कच्चे केले के कटलेट आपको जगह जगह मिलेंगे। स्थानीय लोग मानसून में मांसाहार नहीं करते। उनका मानना है कि ये जानवरों का ब्रीडिंग सीज़न है। बारिश ज्यादा होने से कटहल आदि सब्ज़ियाँ खूब होती हैं। वे इनसे काम चलाते हैं। यहाँ का शहद उम्दा और कई तरह का है। अलग अलग सीज़न के फूलों के अनुसार। मसलन कॉफी के फूलों का शहद भी, कॉफी के फूल एक साथ चार से छ दिन रहते हैं। सोचों मक्खियाँ कितनी फुर्ती से पराग इक्ठ्ठा करती होंगी।    
मेडिकेरी महल, किला इसकी प्राचीर से मेडिकेरी शहर की शोभा निराली है। किले में एक पुरानी जेल, मंदिर और संग्राहालय है। ज्यादातर हिस्से में ऑफिस वगैरह हैं।  ओमकारेश्वर मंदिर राजा लिंगाराजेन्द्रा द्वारा बनाया 1820 में खूबसूरत मीनारों और गुम्बद वाला मंदिर है। , राजा की सीट यह नाम इसलिये पड़ा क्योंकि कोडगू के राजा अपनी शाम यहाँ बिताते थे। कॉफी बगानों से पतला संकरा बेहद खूबसूरत रास्ता यहाँ जाता है। यहाँ से हरी भरी घाटी और धुंध में छिपे पहाड़ों की सुन्दरता तो देखते ही बनती है।
इर्पू फाल्स दक्षिण कूर्ग में लक्ष्मणातीर्थ नदी जिस स्थान पर गिरती है उसका नाम है। सीता जी की खोज में भटकते हुए भगवान राम को प्यास लगी तो लक्ष्मण जी के तीर से इस तीर्थ का उद्गम हुआ। यहाँ का स्नान पाप नाशक है। शिवरात्री को श्रद्धालुओं की भीड बहुत़ होती है।      
  मेडिकेरी के बाजार में कॉफी, शहद, ंअंजीर मसाले, इलायची, काली मिर्च, अन्नानास के पापड़ और संतरे के भण्डार थे। कुर्गी सिल्क साड़ियाँ भी आर्कशण का केन्द्र थीं। ब्रहमगिरि की पहाड़ियों में भागमंडला मंदिर है। यहाँ से आठ किलामीटर की दूरी पर तालकावेरी है, कावेरी का उद्गम स्थल, मंदिर के प्रांगण में ब्रह्मकुण्डिका है, जहाँ श्रद्धालु स्नान करते हैं। 17 अक्टूबर को कावेरी संक्रमणा का त्यौहार मनाया जाता है। जीवनदायिनी माता कावेरी ने दूर दूर तक कैसा अतुलनीय प्राकृतिक सौंदर्य बिखेरा है।  मैं लौट रहीं हूँ लेकिन कूर्ग तो दिल पर छा गया, मेरे साथ ही आ गया।

Wednesday, 21 September 2016

इको फ्रैंडली जन्मदिन कूर्ग यात्रा Coorg Yatra भाग 8 नीलम भागी

      कूर्ग यात्रा भाग 8                  




इको फ्रैंडली जन्मदिन  कूर्ग यात्रा#Coorg भाग 8
                                                      नीलम भागी
वाॅक से थकी हुई थी, चिंता थी कि कल निशानी जा पाऊँगी या नहीं। थोड़ी देर पारदर्शी दीवार से बाहर हरियाली देखती हुई लेटी, तो सो गई। आँख खुलने पर बाहर अंधेरा छा गया था। डिनर के लिये ’दा ग्रिल’ जाना था। तैयार हुए बारिश हो रही थी। बग्गी से हम जा रहे थे और उसकी रोशनी तो बारिश और पौधों की सुन्दरता को और बढ़ा रही थी। दा ग्रिल में हम तीनों एक लाइन में बाहर की ओर मुंह करके बैठे क्योंकि बाहर के बरसाती खूबसूरत नज़ारे को हम एक पल के लिये भी खोना नहीं चाहते थे और गीता हमारे सामने हमारी ओर मुंह करके बैठी। वहाँ का स्टाफ गीता को बहुत अच्छे से अटैण्ड कर रहा था। मजबूरी में गीता के दो मनपसंद गेम हैं जो हम उसे करने देते हैं। पहला उसको चीनी दे दो, जिसे वह जाॅनी( जाॅनी जाॅनी यस पापा.....) कहती है और उसका एक एक दाना उठा उठा कर खाती रहती है। जब उससे बोर हो जाती है, तब दो गिलास में थोड़ा पानी दे दो जिसे वह एक दूसरे में पलटती रहती है। मेरे लिये वेज़ और अपने नानवेज़ लेकिन कूर्ग विशेष ही आर्डर किया गया। मैं अपना वेज़ वाह वाह करके खा रही थी, वे नानवेज। दोनों ने मेरा वेज चखा उनके मुँह से एक साथ निकला, लाज़वाब!! उत्तकर्षिणी राजीव ने मुझे बहुत जोर दिया,’’ माँ एक बार नानवेज़ चख के तो देखो, आप अभी से नानवेज़ खाना शुरु कर दोगी। पर बचपन से पड़े शाकाहारी ब्राहमण संस्कार कैसे छोड़ सकती हूँ!! डिनर सम्पन्न होते ही जिस शेफ ने बनाया था, वो मिलने आये, उत्तकर्षिणी राजीव ने तो खूब तारीफ़ की, लेकिन मैं तो इतनी प्रसन्न थी कि मेरे पास तो प्रशंसा के लिये शब्द ही नहीं थे। लौटते ही मैंने पैरों के फफोलों पर दवा लगाई ताकि सुबह निशानी जा सकूँ और रात पैर भी मैंने नहीं ढके ताकि नींद में फफोले न फूट जायें। सुबह सात बजे जाना था। जल्दी उठी, देखा पैर जूते पहनने लायक नहीं थे। मन को समझाया कि कोई बात नहीं, मेरा कौन सा अंतिम समय आ गया है। इस बार नहीं तो अगली बार सही।    
यहाँ का तो चप्पा चप्पा घूमने लायक है। ऐसी जगह में पैदल चलने और बग्गी से गुजरने में फर्क होता है। गीता मेरे साथ पैदल चल दी। थोड़ा घूमने के बाद मैंने सोचा कि गीता कभी फैमली मैम्बर के बिना नहीं रही, ज्यादा पैदल चलने से, ये थक जायेगी तो मुझे भी बग्गी में घूमना पड़ेगा। क्यों न इसे क्रेच में छोड़ू? ट्रायल भी हो जायेगा। पास से जो बग्गी गुजरी उसमें बैठ कर हम क्रेच गये। अंदर जाते ही मैम ने उसे बुलाया, वो तो मेरी अंगुली छोड़, झट से मैम के पास फिर मैम को छोड़ कर वहाँ रखे बच्चों की पसंद के खिलौनों, झूलों में लग गई। गीता की मेरी तरफ पीठ थी। मैं दरवाजा बंद कर बाहर आ गई। कान मेरे क्रेच की ओर लगे रहे कि गीता रोयेगी तो ले आउँगी। दो घण्टे बाद जब मैं घूम कर थक गई तो गीता को लेने गई तो वह मजे से खेल रही थी। उसकी नैपी भी बदली हुई थी क्योंकि उसने पाॅटी कर ली थी। मैं तो बिना तैयारी केे अचानक मन बना तो, क्रेच गई थी। गीता वहाँ से आने को तैयार नहीं थी, स्वीमिंग का लालच देकर उसे लाई। खा के सो के हम सब लेवल 6 लाॅबी गये।      अनन्त में अनन्त, वहाँ से कूर्ग के नज़ारों को वर्णन करने की तो मेरी औकात ही नहीं है। विस्मय विमुग्ध से खड़े हैं। खड़े खड़े थक गये तो बैठ गये। कभी इनफीनटी पूल में स्वीमिंग करते लोगों की किलकारियाँ आनंदित करती, कभी गीता की। प्राकृतिक सौन्दर्य तो था ही। गीता ने मछलियाँ देख लीं, वो तो उनमें मस्त हो गई। अंधेरा होने पर लौटे। विला में प्रवेश करते ही खुशी चौगुनी हो गई. उत्तकर्षिणी के जन्मदिन की सजावट देख कर। वहाँ पाये जाने वाले फर्न से विश किया गया था, बुके, केक के साथ, कूर्ग की काॅफी उपहार में। जब तक काॅफी खत्म नहीं हुई। कूर्ग में मनाया जन्मदिन हमारे साथ रहा। क्रमशः 

Sunday, 4 September 2016

क से कबूतर, ख से खतूतर, ग से गतूतर ,ल से लतूतर........ नीलम भागी Neelam Bhagi




     केशव संवाद, बहुमत समाचार पत्र जो मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ से प्रकाशित होता है उसमें भी यह लेख प्रकाशित हुआ है ।                                                   कमली हमारे घर में झाड़ू पोचा बरतन करने आती थी। कमली जब कभी काजल को काम पर हमारे घर लाती, तो मेरी अम्मा बहुत खुश होती। काजल को देखते ही अम्मा कमली से कहती,’’ कमली तू औरों के घर के काम निपटा आ। मैं काजल से काम करवा लूँगी।’’ कमली चल देती और अम्मा उससे दबा के काम लेती। एक दिन छुट्टी थी, कमली काजल को ले आई। अम्मा काजल से फर्श इस कद़र साफ करवा रही थी जैसे शीशा हो। मैं पढ़ रही थी, मेरी पढ़ाई खराब न हो इसलिए धीरे बोल रही थी और काजल को भी हिदायत दे रक्खी थी कि शांति से काम करे जिससे दीदी की पढ़ाई खराब न हो। जब पोचा लगाते हुए काजल ने मुझे धीरे से पैर ऊपर करने को कहा, ताकि मेरे पैरों के नीचे की जगह गन्दी न रह जाये। मैंने गुस्से से अम्मा से पूछा,’’ ये पोचा क्यों लगा रही है? कमली क्यों नहीं लगा रही है?’’ अम्मा ने बड़ी शांति से जवाब दिया,’’ बेटी ये कमली से अच्छा काम करती है। क्योंकि काजल बच्ची है, जैसा कहो वैसा करती जाती है।’’अम्मा का जवाब सुनते ही मुझे गुस्सा आ गया मैं बोली,’’आपको शर्म नहीं आती, बच्ची से काम करवाते। आपकी बेटी पढ़े तो आपको खुशी मिलती है। दूसरे की बेटी पढ़ने लिखने की उम्र में आपका का काम, आपके अनुसार करे तो आपको अच्छा लगता है। कमली से कह कर इसे स्कूल क्यों नहीं पढ़ने भेजती।’’ अम्मा की एक ही बात ने मुझे चुप करा दिया। र्म नहीं आती, माँ से इस तरह बात करते।मैं चुप हो गई। अम्मा जानती हैं ,युवा आर्दशवादी होता है। अम्मा ने उसी समय काजल से काम लेना बंद कर, उसे कमली को बुलवाने भेज दिया।
   कमली के आते ही अम्मा ने उस पर प्रश्नो की बौछार करते हुए पूछा,’’ तू काजल को काम पर क्यों लाती है?’’ कमली ने जवाब दिया,’’दीदी हमारी झुग्गियों का माहौल बच्चियों के लिए ठीक नहीं है। सुबह औरते तो घरों में काम करने निकल जाती हैं। ज्यादातर आदमी भी मेहनत मजदूरी करने चले जाते हैं। अकेली बच्ची को झुग्गी में देखकर कोई भी घुस कर मुहँ काला करने की हिम्मत कर जाता है।’’ अम्मा ने अगला प्रश्न दागा,’’इसके तीनों भाई कहाँ होते हैं?’’ कमली बोली,’’ भईया स्कूल जाते हैं न।’’ अम्मा ने पूछा,’’ काजल को स्कूल क्यों नही भेजती?’’ कमली ने कहा,’’इसके पापा ने मना किया है।’’ अम्मा ने कमली से कहाकि शाम को इसके पापा को मेरे पास भेजना।
    कमली भी प्रत्येक माँ की तरह अपनी बेटी को पढ़ाना चाहती थी। इसलिए शाम होते ही अपने पति मुन्नालाल को लेकर अम्मा के पास आ गई। अम्मा ने अब मुन्नालाल की क्लास लेनी शुरु की। छूटते ही उसे कहा कि कल से काजल को स्कूल भेजना। वह बोला,’’ काजल पढ़ कर क्या करेगी? करना तो वही है जो इसकी माँ कर रही है झाड़ू, पोचा, बर्तन। इस काम में भला पढ़ाई की क्या जरुरत? और पढ़ कर इसका दिमाग न चढ़ जायेगा।’’ अम्मा ने पूछा,’’तो इसके भाइयों को स्कूल क्यों भेजते हो? जैसे तुम अनपढ़ मजदूर हो वैसे ही वे तीनों बन जायेंगे।’’ उसने दुखी होकर जवाब दिया,’’ हममें और बोझा ढोनवाले पशु में क्या फर्क है? चाहता हूँ कि ये ससुरे इंसान बन जाये, तभी तो इन्हें पढा रहा हूँं।’’ अम्मा बोली,’’ मैं ज्यादा पढ़ी नहीं हूँ इसलिए नौकरी नहीं करती, सिर्फ घर सम्भालती हूँ, और ये भी मेरी ओर इशारा करके कहाकि बड़ी होकर घर सम्भालेगी तो मैं इसे क्यों पढ़ाऊँ? मैं तो ऐसा नहीं सोचती। पर मैं तो अपनी बेटी को खूब पढ़ाऊँगी, ये सोचकर की ये हमसे अच्छी जिन्दगी जिये।’’ कमली ने अम्मा की बात का सर्मथन करते हुए कहाकि हमारी माँ हमें पढ़ाती, तो हम कामवाली थोड़ी बनती। मैं अपनी बिटिया को कामवाली न बनाऊँगी।’’अब मुन्नालाल भी राजी हो गया और नौ साल की काजल का नाम दसवें साल में पहली कक्षा में लिखवाने को तैयार  हो गया।
   मुन्नालाल अगले दिन अपनी दिहाड़ी का नुकसान करके काज़ल का नाम स्कूल में लिखवाने गया। मास्टर जी ने काजल का जन्म प्रमाण पत्र माँगा। जो उसने बनवाया ही नहीं था। कमली दौड़ती हुई अम्मा के पास आई। अम्मा उसके साथ स्कूल गई। मास्टर जी बहुत भले थे. उन पर सरकार के नारे सब पढ़ें, सब बढ़ेंका प्रभाव था. वे चाहते थे कि बच्ची पढ़े और आगे बढ़े। इसलिए उन्होंने बताया कि इसका एफीडैविट बनवा लाओ। पाँच साल उम्र लिखवा कर उसका उसका एफीडेविट बनवाया और स्कूल में नाम लिखवाया। सरकारी स्कूल था वर्दी, किताब कापी सब कुछ मुफ्त में मिला। दसवें साल में लगी काजल, कक्षा में छात्रा कम टीचर की सहायिका ज्यादा थी इसलिए माॅनिटर बना दी गई। साठ साल की टीचर, इस उम्र में घुटनों में वैसे ही तकलीफ़ थी। वह बार-बार कैसे उठती भला! गरीब घरों के गंदे, गाली बकने वाले बच्चे, इनसान बनने आए थे। काजल तो टीचर के लिए वरदान साबित हुई। भाग दौड़ के सारे काम माॅनिटर के जिम्मे थे। मसलन बच्चों को लाइन बना के प्रार्थना में ले जाना और प्रार्थना से कक्षा में लाना, मिड डे मील बाँटना, कक्षा कंट्रोल करना, मैडम बोलती,’’परशोतम तुम्हारे मुहँ पर तमाचा मारुँगी।’’ काजल तुरंत जाकर परशोतम के गाल पर चाँटा जड़ आती। सर्दी में टीचर के जोड़ों में र्दद रहता है और जोड़ों के र्दद के लिए धूप बहुत मुफ़ीद होती है। काजल सब बच्चों को धूप में लाइन से बिठाती। मैडम की मेज कुर्सी बाहर लगाती। ये सब काम माॅनिटर ही तो देखेगा न।
     मिड डे मील तक बच्चों की संख्या का ध्यान रखना पढ़ाने से ज्यादा जरुरी था ताकि मिड डे मील बच्चों को कम न पड़ जाये। बच्चो को स्कूल आने की तैयारी का तो झंझट ही नहीं था। जो मिला खा लिया, जैसे सोय थे वैसे ही उठ कर, बस्ता उठाया और  चल दिये। लघुशंका और पाॅटी जहाँ लगी वहाँ कर ली। जब से मिड डे मील शुरु हुआ तब से हाजिरी बहुत जरुरी हो गई है। प्रार्थना बहुत देर तक चलती है। ख़त्म होने तक सब टीचर भी पहुँच जाते हैं।  अब प्रार्थना के बाद से ही बच्चो को मिड डे मील की चिंता हो जाती, न जाने आज क्या मिलेगा? जो भूखे आते वे मिड डे मील का ख्वाब देखते रहते और सुस्त बैठे रहते। मिड डे मील मिलते ही कुछ बच्चो में गज़ब की ऊर्जा का संचार होता, वे पढ़ाई के नाम पर कक्षा में कई घंटे घिरे हुए बैठना नहीं पसन्द करते इसलिए वे स्कूल से भाग जाते। बाकि बचे बच्चों को टीचर समझाती कि वे जो भाग गये हैं, उनके भाग्य में पढ़ना नहीं है। जिनके भाग्य में पढना था, वे छुट्टी तक कक्षा में बैठे रहते।
     टीचर उम्र के साथ-साथ अनुभवी भी बहुत थी। उसका कहना था कि नीव मजबूत हो तो उस पर इमारत टिकी रहती है। किसी तरह अक्षरों की पहचान अच्छे से हो जाये तो, किताब पढ़ना कोई मुश्किल नहीं है। इसलिये वह अक्षर ज्ञान पर बहुत जोर देती थी। मैडम जी मेज पर किताब खोल कर रख, कुर्सी पर बैठ कर अक्षर ज्ञान सिखा रहीं थी। बच्चे भी किताब खोलकर, मैडम जो अक्षर बोल रही थी, उस पर अंगुली रख कर दोहरा रहे थे। काजल डण्डी लेकर खड़ी देख रही थी कि सब बच्चे मैडम जी के पीछे बोले और अंगुली ठीक अक्षर पर खिसकाते जायें। सब बच्चे ऐसा कर रहे थे। यदि कोई बच्चा ऐसा नहीं करता, तो काजल मैडम जी से कहती और मैडम जी जितने डण्डे कहती, काजल उस बच्चे को उसकी सीट पर जाकर लगाकर आती। मैडम जी को कई सालों से एक ही किताब पढ़ाते हुए याद हो गई थी। वे किताब की बजाय बाहर बरामदे में देखते हुए पढ़ा रहीं थी। जैसे ही क तक पहुँची, वे बोली क से कबूतर, इतने में शैला जी नई साड़ी पहने उनकी कक्षा के आगे से निकली, मैडम जी ने किताब काजल के हाथ में पकड़ाई और चल दी शैला जी की साड़ी की इनक्वायरी करने। आगे का मोर्चा काजल ने सम्भाला। क से कबूतर, ख से खतूतर, ग से गतूतर घ से घतूतर ल से लतूतर........समवेत स्वर में तूतर तूतर तूतर का कोरस बहुत अच्छा लग रहा था। मैडम जी जब आई तो बच्चों को उधम न मचाते देख बहुत खुश हुई और काजल को शाबाशी भी दी।
   कक्षा में जो भी पढ़ाया, जाता काजल तुरंत याद कर लेती। अब ठ से ठठेरा या ठग भला कितनी बार बोलती या लिखती। मैडम काम तो उससे सारे करवाती लेकिन पढ़ाती वही जो पहली के कोर्स में था। दूसरी कक्षा में जाने का समय आ गया जिसे कोर्स आया वो भी पास जिसे नहीं आया वो भी पास। घर में कमली काजल से काम नहीं करवाती थी। उसे कहती तूँ बस मेरे सामने बैठ कर पढ़। काजल परेशान रहती कि वो क्या पढ़े? अब काजल भी मिड डे मील के बाद इधर उधर घूमने लग गई। क्योंकि अगली कक्षाओं में उसे जवान मास्टर मास्टरनियाँ मिले, जिन्हें काजल की सेवा की जरुरत नहीं थी। काजल का अब कक्षा में जरा मन नहीं लगता था अब तो पढ़ने में भी नहीं लगता था इसलिये अब वह घूमती ज्यादा थी।
 सर्दियों में कोई एन.जी.ओ. कंबल बाँट जाता तो कोई स्वेटर, कोई बढि़या भोजन करा जाता, फल दे जाता। बाल दिवस पर तो बच्चे घर से झोला लेकर आये क्योंकि न जाने कौन कौन सी समितियों से लोग चिल्ड्रन डे मनाने और मनाते हुए फोटो खिंचवाने आये थे। सब कुछ मिला पर दसवें साल में पढ़ने गई काजल को ढंग से शिक्षा ही नहीं मिली। चौदह साल की काजल तो अपना नाम भी लिख लेती थी। कुछ लड़कियाँ तो अपना नाम भी नहीं लिख पाती थीं। इसमें क़सूर बच्चियों का नहीं था उनके घरवालों का था जिन्होंने उनके मुश्किल नाम रखे जैसे शकुन्तला, उर्मिला, कौशल्या आदि। कमली को काजल के घूमने का पता चला। उसने उसे खूब पीटा और स्कूल भेजना बंद कर के अपने साथ काम पर लाने लगी।  

नेचर वॉक, सैक्रेड ग्रोव Nature Walk, Sacred Grove Coorg Yatra कूर्ग यात्रा 7 नीलम भागी

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 नेचर वॉक, सैक्रेड ग्रोव         कूर्ग यात्रा 7
                                                    नीलम भागी
बकायदा प्रमाण के साथ महेश हमें बहुत मनोरंजक पेड़ों और कुछ पक्षियों की कहानियाँ सुनाते चल रहे थे। इस वॉक में बारिश नहीं आई। लेकिन सुबह से हो रही थी। महेश को घेरे हम सब चल रहे थे। रुद्राक्ष के पेड़ के नीचे से हम रुद्राक्ष उठाते, वो हमें पहचान बताते एक मुखी......आदि। परजीवी पौधों में अमरबेल आदि पता था मुझे, लेकिन यहाँ बहुत विचित्रता देखने को मिली। घनी वनस्पितियों से गुजरते हुए हमेशा की तरह एक ही प्रश्न मेरे मन उठ रहा था कि क्या ये जंगल ऐसे ही रहेंगे? क्योंकि घूमने के बाद मैंने अपने परिवार और मित्रों को जब भी उस घूमी हुई जगह की हरियाली का वर्णन किया, तो वे कुछ सालों बाद या अपनी सुविधानुसार जब वहाँ जाते हैं, तो लौटने पर मुझे कहते हैं,’’अब वहाँ पर इतनी हरियाली तो नहीं है, जैसा आप ने बताया था। सुन कर दुख होता है कि पेड़ कम हो गये हैं। लेकिन यहाँ ऐसा कभी नहीं होगा। हमारे पूर्वज पेड़ों का महत्व समझते थे। जहाँ हम खड़े थे वहाँ मेला लगता है। मंदिर है और पास में ही एक बोर्ड लगा था जिस पर कन्नड में कुछ लिखा था और दो शब्द इंगलिश के थे "सैक्रेड ग्रोव". उस स्थान से कोई भी पेड़ तो क्या टहनी भी नहीं तोड़ता है। इतने में किसी ने अपना ज्ञान बघारा कि मरे हुए पेड़ की लकड़ियाँ तो ले जाते होंगे! जिसके जबाब में महेश हमें एक मरे पड़े के पास ले गये, जिसके तने पर कई वनस्पतियों का जन्म हुआ था। यह सब देख कर कुर्गी लोगो के प्रति मन श्रद्धा से भर गया। अब मैं पूरे विश्वास  से सबसे कह सकती हूँ कि घने जंगलों को देखना है तो कूर्ग जायें।
कहते हैं न, जहाँ चाह, वहाँ राह। यात्रा संपन्न होने से पहले एक टहनी पर छोटे छोटे, खूबसूरत गहरे लाल रंग के छ काफी बीन्स नज़र आ गये। देख तो मैंने लिये थे बाकि लोग भी देख रहे थे। लेकिन मेरे तस्वीर लेने से पहले ही एक व्यक्ति ने झट से उन्हें तोड़ कर मसल दिया और सूंघते हुए बोले,’’हाँ, देखो!मेरी अंगुलियों से कॉफी की महक भी आ रही है।’’किसी को भी उनकी अंगुलियाँ सूंघने का शौक नहीं था। वो स्वयं ही अपनी अंगुलियाँ सूंघ कर खुश होते रहे। लेकिन मैं मन ही मन क्रोधित होती रही। बे मौसम के फल हमें देखने को मिले, अगर वे तोड़े न जाते तो, कुछ दिन और पौधों की शोभा बढ़ाते। हमारे जैसे और भी लोग आते, उन्हें देखते और उन्हें तस्वीरों में कैद कर  लेते। लेकिन उनकी वजह से ऐसा नहीं हुआ। एक दीवार पर बहुत प्यारा फूल था, नाम मुझे याद नहीं आ रहा है लेकिन उसकी तस्वीर मैंने ले ली थी। आप भी चित्र देख सकते हैं। अब हमारी यात्रा को विश्राम मिला। जैसे ही मैंने ज़़ुराबे उतारी, मेरे पैरों में मोटे मोटे छाले थे। पर वे फूटे नहीं थे। विस्मय विमुग्ध करने वाली इस यात्रा में मुझे दर्द महसूस ही नहीं हुआ। अब मेरे फफोले र्दद कर रहे थे। अगले दिन सुबह सात बजे हमें निशानी जाना था। मैंने महेश से पूछा कि कल मैं निशानी चप्पलों में जा सकती हूँ। वो बोले,’’नहीं।’’मैं अपने साथ कॉटन की मोटी जुराबे और दो तीन जोड़ी "पेवर इंग्लैंण्ड" की चप्पलें अपने पैरों को सूट करती हुई रखती हूँ। और जहाँ भी जाती हूँ, वहाँ खूब घूमती हूँ। अब मुझे अपने आप पर गुस्सा आ रहा था कि मुझे अपने पैरों के बारे में पता है इसलिये अपनी जुराबें साथ ले कर जाना चाहिये था। विला में लौटते ही उत्कर्षिणी राजीव का ध्यान मेरे पैरों पर गया। दोनों का एक ही प्रश्न," ऐसे पैरों से, चलीं कैसे!!" जवाब,’’प्राकृतिक सौन्दर्य।’’उत्कर्षिणी ने मुझे गर्मागर्म कॉफ़ी दी। पता नहीं क्यों मुझे आज कॉफी का स्वाद विशेष लगा।
क्रमशः   

Monday, 29 August 2016

रेन फाॅरेस्ट वाॅक, काॅफी की कहानी Happy World Coffee Day Coorg Yatra 6 Kernatak कूर्ग यात्रा भाग 6 नीलम भागी





रेन फाॅरेस्ट वाॅक, काॅफी की कहानी                          कूर्ग यात्रा भाग 6
                                                             नीलम भागी
रेन फाॅरेस्ट वाॅक के लिये ढाई बजे बग्गी मुझे लेने आ गई। इस वाॅक के शौकीन सब एक जगह एम्फीथिएटर पर एकत्रित होते जा रहे थे। पहुंंचते ही हमें घुटनों तक लम्बी जुराबें, गम शूज़, रेनकोट, पीने के पानी की बोतल और बड़ा छाता दिया गया। जब हम वाॅक के लिये तैयार हो गये, तो हमारे जूतों पर स्प्रे भी कर दिया गया। वो इसलिये कि लीच आदि हमारे पैरों पर न चिपटे। ढाई घण्टे की ये न भूलने वाली वाॅक, कूर्ग को जीवन भर के लिये मेरे साथ ले आई। हमारे गाइड महेश का वर्णन करने का तरीका भी गज़ब का था। बी.एस.सी. में मेरे पास बाॅटनी सबजेक्ट था। तब मैंने सलेबस परीक्षा में अच्छी परसेंटेज़ लेने के लिये रटा था और एक्जा़म में जाकर उगल दिया था बस। शायद बाॅटनी पढ़ने के कारण, मुझे पेड़ पौधों से बहुत लगाव है और यहाँ तो उनसे, पेड़ पौधों और उनपर बसेरा करने वाले कुछ पक्षियों की विचित्र बातें पता चलीं। सबसे पहले महेश ने काॅफी के पौधे के पास खड़े होकर उसके पत्तों को सहलाते हुए काॅफी की कहानी सुनाई जो मैंने अपनी मैमोरी में फीड कर ली थी। एक दिन इथोपिया के कफा प्रांत में एक गडरिया पशु चरा रहा था। उसने ध्यान दिया कि उसके पशुओं के व्यवहार में अचानक परिवर्तन आया, वे बड़े चुस्त और फुर्तीले लग रहे थे। उसने गौर किया कि ये परिवर्तन उन्हीं जानवरों में आया जो एक पौधे के गहरे लाल बीजों को चर रहे थे। इथोपियाई गडरिये कलड़ी ने भी उन बीजों को खाया और अपने अंदर भी परिवर्तन महसूस किया। उसकी थकान दूर और उसने उर्जा और शक्ति का अनुभव किया। ऐसा 600वीं सदी में हुआ था।
हमारे देश मे काफी उगाने का श्रेय एक संत बाबा बुदान को है। वे मक्का की तीर्थयात्रा पर गये थे और अपनी कमर पर बांध कर सात काॅफी बीन्स लाये थे। काॅफी के बीजों को अरब से बाहर ले जाना गैर कानूनी था। इसलाम में सात अंक पवित्र माना है और ये काम एक संत द्वारा हुआ इसलिये ये धार्मिक कार्य माना गया। उन्होने उसे चंद्रगिरी की पहाड़ियों पर उगाया था। इसके बाद  से ही काफी की व्यवस्थित खेती की शुरुआत हो गई। चिकमंग्लूर के पास ये पहाड़ियां ’बाबा बुदान गिरी’ यानि पहाड़ी के नाम से मशहूर हो गई। इस सराहनीय काम के लिये बाबा बुदान की जितनी तारीफ की जाये वो कम है। क्योंकि अरब में सख्त कानून था कि उनके देश से काफी बींस बिना उबाले या भूने बाहर नहीं जा सकती। ये कहानी सुन कर मेरा मन बाबा बुदान के प्रति श्रद्धा से भर गया। अब काफी के पौधे की पहचान तो हो गई थी। फल का मौसम नहीं था। मेरी बड़ी इच्छी थी कि मैं हरी टहनी पर गहरे लाल रंग के काॅफी से जड़े बीज देखूं। महेश भी हमें दिखाना चाहतेे थे। दूर दूर से लोग यह  देखने आते हैं क्योंकि काॅफी उगाने के लिये तो परिस्थितियाँ यहीं अनुकूल हैं। यहाँ दो प्रकार की काॅफी रोबस्टा और अरेबिका को, पानी से भरपूर मिट्टी में उगाया जाता है। इसे छाया के दो स्तरों में उगाया जाता है। बीच बीच में इलायची, दालचीनी, लौंग और जायफल उगाया जाता है। महेश ने जैसे ही एक पौधे पर हरी हरी इलायची लगी दिखाई, मैंने तो झट से उसकी तस्वीर ले ली। काफी के फूल सफेद रंग के होते हैं। जब वे खिलते हैं, तो सारा बागान हरे और सफेद रंग में तब्दील हो जाता है। ये नजा़रा देखने में बहुत खूबसूरत होता है। लेेकिन इनका जीवन काल केवल चार दिन का होता है और ये फल में बदल जाते हैं। फूल खिलने की और फल आने का समय किस्म और जलवायु के अनुसार अलग अलग होता है। अरेबिका का फल पकने में सात महीने और रोबेस्टा में यह प्रक्रिया लगभग नौ महीने चलती है। रोबेस्टा काफी का फल छोटा होता है और अरेबिका काॅफी का फल आकार में थोड़ा बड़ा होता है। फल पकने पर इन गहरे लाल जामनी फलों को हाथ से इक्कट्ठे कर लेते है। काॅफी और काली मिर्च की खेती कुर्गी लोगों का मुख्य व्यवसाय है।  क्रमशः             

Wednesday, 24 August 2016

मुरली वाले का हैप्पी बर्थ डे Lord Krishana Happy Birthday Neelam Bhagi नीलम भागी





                                   
                                    
’’भारत से आप बाँसुरी लेती आना, मेरी जर्मन लैंड लेडी कात्या मुले के लिए ,वो प्रोफैशनल बाँसुरी वादक है।’’ उत्कर्षिनी का फोन सुनते ही मैं बेहतरीन बाँसुरी की खोज में जुट गई। विदेशी महिला को गिफ्ट देना था, वो याद करे मेरे भारत महान की बाँसुरी को, इसके लिए मैंने एक बाँसुरी वादक को ढूँढा। उसे साथ लेकर, दिल्ली की मशहूर म्यूजिकल इन्स्ट्रूमेंट की दुकान पर गई। मैंने दुकानदार से पूछा,’’आपके पास बहुत बढ़िया बाँसुरी है।’’दुकानदार ने मुझे ऐसे घूरा, जैसे किसी गंवार को घूरते हैं। फिर घूरना स्थगित कर बोला,’’बाँसुरी नहीं मुरली’’। साथ ही सेल्समैन ने मेरे हाथ में एक मुरली पकड़ा दी। मैंने अब तक जो बाँसुरी बचपन से देखी थीं, उसमें मुँह से फूँक मारते ही हवा आवाज में बदल जाती थी। लेकिन इस मुरली में मेरी फूँक योंहि बिना आवाज के निकल गई। मेरा साथी बाँसुरी वादक यह देखकर मुस्कराया और उसने मेरे हाथ से मुरली लेकर, उसका अच्छी तरह से मुआयना किया और मधुर धुने निकालने लगा। वह तो बजाता ही जा रहा था। मैंने उसके हाथ से मुरली छीनकर, दुकानदार से रेट पूछा। दुकानदार ने बताया,’’तीन हजार।’’ दाम सुनते ही, बाँसुरी वादक को जोर का झटका लगा। साथ ही दुकानदार उस बाँस की तारीफ करने लगा, जो केवल उस मुरली  के निर्माण के लिए ही उगाया गया था, उस झाड़ में विशेष खाद पानी दिया गया था, जिससे वह बाँस उगा तो यह मुरली तैयार हुई। बड़ी दुकान होने के कारण, बाँसुरी वादक, मेरे कान के पास धीरे-धीरे कहने लगा कि ये दुकानदार तो डाकू है। आप मेरठ की हैं। हम मेरठ से यही मुरली बहुत सस्ती ले आयेंगे। पर मैं कहाँ मानने वाली!! बात विदेशी महिला और देश की थी। इसलिए रेट और दुकान का नाम ही मेरा आत्मविश्वास था।  छः हजार में मैंने दो मुरलियाँ ली और उनकी खूबसूरत पैकिंग करवाई।
   मुरलियों को कोई नुकसान न पहुँचे, इसलिये मैं उन्हें हाथों में पकड़, एअरपोर्ट में दाखिल हुई। सामान जाँच की लाइन में मुरली कंधे से लगा, सैनिक की तरह खड़ी थी। यदि बच्चे की तरह बाहों में लेती, तो बराबर वाले को छूती। जैसे ही मैं काउण्टर पर पहुँची, तो पर्स से डाक्यूमेंट निकालने के लिए मैंने मुरलियों को बगल में दबाया, और पर्स खोलने लगी, मेरे पीछे, खड़ी मोहर्तमा, -’उई माँचिल्लायी, क्योंकि उससे मुरलियाँ टकरा गई थी। मैंने पीछे मुड़ के उसे साॅरी कहा। अब वह पीछे खिसक गई। पूरी लाइन में बैक गियर लग गया।
 सबसे पहले चैक इन में उसकी पैकिंग फाड़ कर डस्टबिन में डाली गई। कई मशीनों पर गुजारने के बाद ,उस पर स्टीकर चिपका दिया और मुझे बोर्डिंग पास दिया गया।  सुरक्षा जांच मेंं भी वह फिर मशीन से गुजरने के बाद मुझे मिली।
  प्लेन में प्रवेश करते समय मैं इकलौती सबसे कम इनहैण्ड बैगेज़ की यात्री थी, जिसका सामान कुछ ग्राम की मुरलियां थीं। एअरहोस्टेज़ ने हाथ में लेकर स्टिकर पढ़ा और मुरलियां अपने पास हिफाजत से रख ली। लैंड करते ही उसने मुझे पकड़ा दी| दुबई में घर पहुँचते ही उत्कर्षनी बोली,’’माँ, आप ही दे आओ न, उससे मिलना भी हो जायेगा।’’
सिल्क की साड़ी पहने, हाथ में मुरलियां लेकर, मैंने कात्या मुले की काॅलबैल बजाई। कात्या ने मुझे गले लगा कर, मेरे गाल पर चुम्बन जड़ दिया। वैभवशाली ड्रांइगरुम में मुरलीधर विराजमान थे। मैंने कान्हा के चरणों में मुरलियाँ अर्पित कर दी और कात्या मुले से कहा,’’आज इनका हैप्पी बर्थ डे है।’’कृष्ण जन्माष्टमी वह नहीं समझती थी। उसने चहक कर पूछा,’’कैसे सैलिब्रेट करते हैं?’’मैंने कहा,’’ नहा कर, इनके आगे घी का दीपक जलाते हैं।’’ मेरे आगे बोलने से पहले, उसने तपाक से पूछा,’’घी क्या होता है?’’ मैंने जीनियस की अदा से उसे समझाया कि दूध उबाल कर, उसे जमाकर दहीं बनाते हैंदही बिलोकर, मक्खन निकाल कर, उसे पिघला कर, घी बनाते हैं। उसने इस सारे प्रौसेस को बहुत ध्यान से सुना। वह सोच में डूब गई और मैं घर आ गई।
थोड़ी देर में उसका कृष्णा के बर्थ डे सैलिब्रेशन का बुलावा आया। मैं पहुँची। मूर्ति के आगे, कटोरी में दीपक, बगीचे के ताजे फूल सजे थे। मैंने कहा,’’दीपक जलाओ।’’हाॅट प्लेट, अवन, माइक्रोवेव पर खाना बनाने वाली माचिस नहीं जानती थी। उसने अपने सिग्रेट लाइटर से दीपक जलाया। मैंने गणेश वन्दना कर, उसके हाथ में मुरली दी। सोफे पर बैठ कर, उसने धुन छेड़ी। सामने मैं बैठ गई। वो आँखें बंद कर बजाने में तल्लीन थी। मधुर धुन सुनकर, उसकी 11 बिल्लियाँ, एक कुत्ता भी चुपचाप आकर बैठ गये। दीपक की लौ भी मुझे, उसकी बासुँँरी वादन की मधुर धुन के साथ झूमती लग रही थी। बजाने में खोई हुई वह और भी खूबसूरत लग रही थी।

मैं राग-रागनियाँ नहीं जानती, लेकिन सुनना बहुत अच्छा लगता है। देश के विख्यात संगीतकारों के कार्यक्रम सुनती हूँ। वैसी ही अनुभूति मुझे यहाँ हो रही थी। जैसे ही उसने बजाना बंद किया। मेरी तंद्रा टूटी। 
मैंने कहा,’’तुम तो बहुत अच्छा बजाती हो।’’उसने गोपाल की मूर्ति की ओर इशारा कर, बताया,"उनकी पूजा के कारण, आज जैसा बजाने मेंं आनंद मुझे आया वैसा पहले  कभी नहीं आया।’’फिर कहने लगी ,’’दीपक में एनिमल फैट मैंने बहुत कीमती, अपनी पसंद की गूस (पक्षी)लीवर फैटडाली है। मैंने फिर हैरान होकर पूछा, ’’क्या’’? उसने समझाया’’इट इज़ आलसो काॅल्ड गूस पेट ,बड़ी श्रद्धा से बोली , मैंने उससे दीपक जलाया है।" उसके चेहरे से टपकती हुई आस्था और श्रद्धा देखकर, मैं उसे नहीं समझा पाई कि हमारे यहाँ दीपक में जलने वाली फैट में एनिमल भी जिन्दा रहता है और फैट भी मिलती है। 

अमर उजाला रूपायन में भी प्रकाशित

बहुमत मध्य प्रदेश और छतीसगढ़ से एक साथ प्रकाशित समाचार पत्र में यह लेख प्रकाशित