इमीग्रेशन के लिये काउण्टर पर तीनों पासपोर्ट दिये। वहाँ बैठी महिला ने उत्तकर्षिनी, गीता को ध्यान से देखा और मुझे भी देखा, इतने में एक अधिकारी आया, मुझसे बोला ,"आप मेरे साथ चलिए" और काउण्टर पर बैठी महिला से मेरा पासपोर्ट ले लिया। उसने उत्कर्षिनी और गीता को जाने को बोल दिया, पर वे दोनो मुझसे कुछ दूरी रख कर खड़ी रहीं। मुझे बिठा दिया गया, कुछ और लोगों को भी रोक रक्खा था। दस साल बाद जब मैंने अपना पासर्पोट रिन्यू करवाया था तो, जिस दिन मुझे इन्टरव्यू के लिये बुलाया गया था, उन दिनों मुझे डेंगू था। पहले पासपोर्ट में मैंने बहुत धक्के खाये थे। इसलिये अब मुझे जिस समय बुलाया गया था, मैं बिमारी की हालत में पासपोर्ट ऑफिस पहुँच गई थी, जहाँ मेरी तस्वीर भी ली गई और पता नहीं मैं कितनी मेजों पर गई। लौटी तो सीधे डॉ. के क्लिनिक में ब्लड रिर्पोट ली, तो मेरे साठ हजार प्लेटलेट्स थे। यह सुनते ही मैं बेहोश हो गई थी। पता नहीं कैसे उस हालत में पासपोर्ट का सब काम निपटा कर आई थी। खै़र जब पासर्पोट बन कर आया तो झट से मैंने खोल कर अपनी फोटो देखी। मैं पूरे यकीन के साथ कह सकती हूँ कि मेरे मरने के बाद, मेरे मुर्दे की शक्ल बिल्कुल मेरी पासर्पोट की फोटो से मिलेगी। विदेश यात्रा में मुझे कभी नहीं रोका गया। इस पासर्पोट को देखते ही मैं समझ गई थी कि पहली बार तो मुझसे जरूर पूछताछ होगी। मैं सोच ही रही थी कि पता नहीं कब तक बिठायेंगे। लेकिन वे बहुत जल्दी काम कर रहे थे। एक महिला मेरे पास आई। उसने पूछा,’’आप यहाँ क्यों आईं हैं?
मैंने जवाब दिया,’’ होली डे पर।’’
’’किसके साथ?’’
मैं बोली,’’अपनी बेटी के साथ।’’
’’और कौन है?’’
मैंने प्रैम पर बैठी गीता की ओर इशारा करके कहा कि मेरी ग्रैण्ड डॉटर। उसने मेरा चश्मा उतरवा कर ध्यान से मेरी शक्ल को और पासर्पोट पर मेरी तस्वीर को देखा, गाल पर मेरे दोनों तिलों को छू कर, असली नक़ली की पहचान की और चली गई। एक आदमी ने आकर मेरा पासर्पोट लौटा दिया। यहाँ वीसा फीस नहीं थी। मैंने भी उन्हें धन्यवाद दे दिया। अब हम बताई गई बैल्ट पर लगेज लेने गये। लगेज लेकर हमने वहाँ का नक्शा लिया। हमने नाथन होटल में कमरा बुक किया था। जो मैट्रो स्टेशन के और हारबर और शॉपिंग एरिया के पास था। होटल तक जाने के तीन तरीके थे। पहला सांझा जिसमें एक वैन थी उसमें अलग अलग उड़ानों से आये सैलानी थे। अलग अलग होटल में उन्हें जाना था, ये सबको छोड़ते हुए जाती है। इसमें समय ज्यादा लगता है पर बचत होती है। दूसरा प्राइवेट ट्रांसफर वही टैक्सी लो और होटल जाओ। तीसरा है एयरर्पोट एक्सप्रेस ट्रेन जिसका प्लेटर्फाम एयरर्पोट के आगमन हॉल से कुल सौ मीटर की दूरी पर था। मैप में देखा फिर भी हमने पूछा, हमें होटल कैसे जाना चाहिए उन्होंने कहा कि ट्रेन से और फिर वहाँ से हमने ट्रेन का टिकट लिया और यहाँ के खाने पैक करवाये। एयरर्पोट मैट्रो हमारे देश की एयरर्पोट मैट्रो की तरह थी। उसमें सवार हुए। यहाँ वाई फाई फ्री है। हर जगह वहाँ का पासवर्ड लिखा होता है। ट्रेन पर बैठते ही मैं मोबाइल में खोने ही लगी थी कि मुझे अक्ल आ गई कि मोबाइल मेंं तो रूम मेंं जाने पर लग सकती हूं, यहां पर तो घूमने आई हूँ। अब तो मेरी नज़रें खिड़की से हट ही नहीं रहीं थीं। आकाश को छूती इमारतें और हरियाली देखने लायक थी। स्टेशन आया। डस्टबिन का उपयोग करने वाले सभ्य लोग। महिला पुरूष स्मार्ट कपड़ों, क्लास्कि हैण्ड बैगऔर आर्कषक फुटवियर में फुर्ती से चलते नज़र आते हैं। ट्रेन से उतरते ही नक्शे में देखा कि हमारे होटल के पास कौन सा एग्ज़िट गेट पास पड़ता है। वहाँ हम पहुँचे। सीढ़ियाँ और एलीवेटर देख हम लिफ्ट का साइन देख रहे ही रहे थे कि इतने में हमारे दो भारतीय भाई कहीं से आये, दोनो ने हमारा एक एक बैग उठाया सीढिय़ों से पहले ऊपर रख आये और गीता को प्रैम समेत दोनों ले गये। बाहर हल्की बारिश हो रही थी। उन्होंने अपना छाता गीता पर कर दिया। हम टैक्सी करने लगे, उन्होंने इशारा किया, वो रहा होटल और हिन्दी में पूछा,’’इण्डिया में कहाँ से? हम तो आंध्रा प्रदेश से हैं।’’ हमने भी बताया कि हम नौएडा से। वे हमें होटल छोड़ कर बाय करके चले गये। क्रमशः








बच्चे की कल्पना है, अचानक मनु बोला,’’मौसी, अगर केबल कार टूट जाये, तो हम सब नीचे गिर कर मर जायेंगे न।’’सभी कोरस में उसे मनहूस टाइटल देते हुए चिल्लाये,’’अरे शुभ शुभ बोल।’’ बेचारा रूआंसा होकर बोला,’’ मेरे मुहं से ऐसी गंदी बात पता नहीं क्यों निकली।’’बदले में मैंने प्यार से उसकी पीठ पर हाथ फेर दिया। अब मंदिर आ गया। एक दिन पहले गंगा दशहरा था। शायद इस वजह से मंदिर में संगमरमर के फर्श पर कालिख जमी हुई और फिसलन थी। हमारे पैरों के तलवे काले हो गये थे। जिसे मैं अब तक नहीं भूली हूँ। इसीलिये मेरी पहचान का कोई भी अब दर्शन करके आता है तो मैं उस दिन की गंदगी का ज़िक्र करती हूँ, तो जवाब मिलता है, ’’नहीं जी, बिल्कुल साफ सुथरा मंदिर है।’’सुनकर बहुत अच्छा लगता है। गरूकुल कांगड़ी, दक्षप्रजापति मंदिर, सप्तऋषि आश्रम, भीमगोड़ा तालाब, भारत माता मंदिर और अब पतंजलि भी दर्शनीय है। प्रत्येक दर्शनीय स्थल के बाहर लकड़ी की कारीगरी का सामान, बहुत सस्ते दामों में मिलता है। हम जहाँ जाते चप्पल बस में उतार कर जाते। नंगे पैर घूमने में बहुत मजा़ आ रहा था। हरिद्वार पवित्र शहर होने के कारण इसकी सीमा में शराब और मांसाहार मना है। काश! वैसे ही थूकने पर भी जुर्माना हो तो आनन्द आ जाये। तब हम राह चलते किसी भी नल का पानी पी लेते थे पर अब नहीं। शाकाहारी बेहद सस्ता और लाजवाब खाना है। पंजाबी खाना है तो होशियार पुरी ढाबा है। छोले भटूरे तो राह चलते खा सकते हैं। मथुरा की पूरी सब्जी़, कचौड़ी बेड़मी की दुकाने, साथ में रायते का गिलास, कढ़ाइयों में कढ़ता दूध जगह जगह आपको मिलेगा। पंडित जी पूरी वाले तो मशहूर ही हैं। हरा हरा दोना हथेली पर रखकर खाने का मज़ा ही कुछ और है। हम तो जो लड्डू, मठरी बना कर ले गये थे, उसे तो खोला भी नहीं। अब गंगा जी से मिलने जाती हूँ तो वहाँ गुजराती पोहा, मिठास गुजरात में छोड़ कर यहाँ थोड़ा तीखे हो गये हैं। लौटने पर कुछ देर आराम करने आये, तो बेसुध सो गये। आँख खुली तो जून की लंबी शाम थी। फिर हर की पौढ़ी पर चल दिये डुबकियाँ लगाने। मुझे तैरना नहीं आता, इतने तेज बहाव में, न जाने मुझे क्या सूझा कि मैं तैरने की कोशिश करने लगी। अचानक मेरे पैर उखड़ गये और एक हाथ से पकड़ी चेन भी छूट गई। दो आदमियों ने पानी में कूद कर मुझे बचाया। मैं बुरी तरह से डर गई। मैंने उनसे पूछा,’’आपको कैसे पता चला कि मैं बह रहीं हूँ।’’उनका जवाब था कि हम यही देखते हैं। और चल दिये शायद किसी और को बचाने। अब मैं उचित जगह देखकर गंगा जी की आरती देखने के लिये गुमसुम सी बैठ गई। हर की पौढ़ी पर आरती में शामिल होने के लिये श्रद्धालुओं की भीड़ बढ़ती जा रही थी। हम सातों एक दूसरे का हाथ पकड़ कर बैठ गये । अंधेरा घिरने पर अनुराधा पोडवाल की आवाज में गंगा मइया की आरती में श्रद्धालुओ का भाव भी जुड़ गया। अब आरती का ऐसा समा बधां कि उसको तो लिखने की मेरी औकात ही नहीं है। हाथ सबके जुड़े, आँखें दीपों पर टिकी हुई हैं। दिन भर की हर की पौढ़ी अब अलग लग रही थी।
आरती संपन्न होते ही तंद्रा टूटी। भीड़ छटने लगी और सब कुछ पहले जैसा हो गया। दस बजे हमारी बस ने लौटना था। खाकर, कुल्हड़ में धुंए की महक वाला दूध पीकर, आबशार में नल का ठंडा पानी भर कर लौटे। मुंह अंधेरे घर में घुसते ही अम्मा को बताया कि हमने नीलकंठ महादेव की पैदल यात्रा की। सुनते ही अम्मा बोली,’’ क्या मांगा भोले से?’’ मैं बोली,"मैंने मांगा,बाबा, मैं अपने घर पहुँच जाऊँ।’’ सुनते ही अम्मा ने अखबार दिखाया, जिसमें लिखा था कि जंगल में आग लगने से जंगली जानवर बेहाल हो गये। हम तो उस समय जंगल में ही थे। डॉ. शोभा उसी समय बोली,’’अरे! मेरे तो नीलकंठ के रास्ते में एक बार भी घुटने में प्राब्लम नहीं हुई, न ही तक़लीफ याद आई। अगर याद आ जाती तो!! मैं बोली,’’चढ़ाई से आपके घुटने के नट बोल्ट कसे गये।’’आजतक उन्हें घुटने की परेशानी नहीं हुई है। आबशार में ठंडा ठंडा हरिद्वार का पानी था। जिसे सबने गंगा मइया की जै बोल कर तुरंत पी लिया। अब तो याद भी नहीं कि कितनी बार गंगा स्नान कर आई हूँं। 
उतरना सबके लिये आसान था पर मेरे जैसी मोटी के लिये और भी मुश्किल साबित हो रहा था। अब मैं दो डण्डियों की सहायता बड़ी सावधानी से उतर रही थी। जरा सी असावधानी के कारण मैं फुटबॉल की तरह लुड़क सकती थी। खैर चार बजे मैं मंदिर में पहुँच गई। वहाँ एक झरना था। श्रद्धालु वहाँ दर्शन से पहले स्नान कर रहे थे। मंदिर की दिवारों पर संमुद्र मंथन के दृश्य उकेरे हुए थे। बहुत नजदीक से दर्शन हुए। वहाँ धूनी जल रही थी। दर्शनार्थियों की आस्था थी शायद, जिसके प्रभाव से एक अलग सा भाव पैदा हो रहा था जिसे मैं लिखने में असमर्थ हूँ। मेरी आँखों से टपटप पानी बह रहा था।




कुछ साल पहले मेरी छात्रा के पिता आये और बोले,’’दीदी, मैंने टूर ले जाने का काम शुरू किया है। पहली बस हरिद्वार और ऋषिकेश जा रही है। सबसे पहले आपके पास आया हूँं।’’ मैंने सात टिकट ले लीं। एक रात जाना ,एक रात आना और एक रात हरिद्वार में रूकना। शनिवार रात को निकलना था। मैंने बेसन के लड्डू, मठरी, कचौड़ी बना ली। अंजना ने तैयारी कर ली। उत्तकर्षिनी छोटी थी, सिर्फ पढ़ने का काम करती थीं। उसे टेंशन थी कि ये पकाने में लगी हैं, बस हमें छोड़ कर चली जायेगी। खाना शोभा ने बनाकर लाना था और हमने बस में ही खाना था। वहाँ घर में उसके बच्चे, अपर्ना, मनु कनु ने माँ की नाक में दम कर रक्खा था, वे एक ही रट लगा रहे थे ,बस चलो। खैर शोभा अपने साथ एक पाँच लीटर के ठण्डा पानी रखने के जग,आबशार में बर्फ भर कर लाई। हम जैसे ही घर से निकले, अम्मा पीछे से आकर एक हाथ जलाता हुआ, स्टील का डिब्बा देते हुए बोली,’’हलुआ।’’मुझे याद आया, हमारे यहाँ त्यौहार या शुभ काम पर कढ़ाई चढ़ाते हैं, तो उसमें मीठा बना कर ही कढ़ाई को चूल्हे से उतारते हैं। यहाँ तो हम तीर्थयात्रा जैसे शुभ काम को करने जा रहे थे। जितनी देर हम तैयार हो रहे थे, अम्मा ने हलुआ बनाने की परम्परा को पूरा किया। अभी कुछ दूर ही चले थे कि शोभा का घुटना रूक गया। उसके घुटने का न जाने कौन सा स्क्रू ढीला हो गया था, जिसके कारण वह कुछ समय तक चल नहीं पाती थी। ये समस्या कभी भी, कहीं भी आ जाती थी। उसके डाक्टर पति कहते, मेरे सामने हो तो डायग्नोज़ करता हूँ ,एक्स रे करवाउँगा। दर्द तो था नहीं इसलिये वक्त टलता रहा। अब शोभा बोली,’’मैं तो घुटने से परेशान हूँ, तुम मेरी जगह किसी और को ले जाओ न ,पर मेरे बच्चे ले जाना। मैं बोली,’’नदी का मामला है, इन शैतान बच्चों की, मैं जिम्मेवारी नहीं ले सकती।’’सुनते ही बच्चों के लौकी की तरह चेहरे लटक गये। बच्चों की शक्ल देख शोभा चल पड़ी। पौं फटने से कुछ पहले ही हम ऋषिकेश पहुँचे। बस वालों ने कहाकि हम रात को हरिद्वार चलेंगे । जून का महीना था।दिल्ली की भीषण गर्मी से गए थे, हम गंगा जी को प्रणाम कर किनारे पर पड़े पत्थरों पर ठण्डे पानी में पैर लटका कर बैठ गये। हमने सोचा कि जब तक धूप तेज नहीं होती, तब तक यहीं बैठेगें। फिर स्नान करके घूमने जायेंगे, रात तक का हमारे पास समय है। इतने में मैं क्या देखती हूँ!!हमारी बस में आया एक खानदान, हमसे कुछ दूरी पर जल्दी जल्दी नहा रहा है। मैं उनके पास गई और पूछा,’’हमने तो रात को यहाँ से लौटना है। आपने इतनी आफत क्यों मचा रक्खी है?’’ क़ायदे से आफत शब्द सुन कर, उन्हें मुझसे लड़ना चाहिये था। मैं पढ़ी लिखी थी और वे अनपढ़। पर उनमें से एक महिला बड़ी खुशी से बोली,’’हमें न, बाबा के दर्शन करने जाना है।’’मैंने पूछा,’’बाबा कहाँ है?’’ उसने गंगा जी के पार पहाड़ों की ओर हाथ से इशारा करके कहा,’’वहाँ।’’ मैंने प्रश्न किया,’’कैसे जाओगे?’’वो बोली,’’हम तो हमेशा पैदल ही जाते हैं। अपने साथ के सात आठ साल के बच्चों की ओर इशारा करके बोली, ये भी पिछले सावन को पैदल ही गये थे, हमारे साथ।’’ मैंने उनसे कहा कि हम भी आपके साथ जायेंगे, बाबा के दर्शन करने। सुनकर वे खुश हो गये। आकर, मैंने अपने परिवार को कहा कि हम भी इनके साथ बाबा के दर्शन करने जायेंगे। सबने कोरस में पूछा,’’कौन से बाबा?’’मैंने उस खानदान से वहीं से चिल्ला कर पूछा,’’कौन से बाबा?’’उनका जवाब था ’’भोले बाबा नीलकंठ’’। अब हमारे अंदर भी गज़ब की फुर्ती आ गई। हमने स्नान किया।























बहुमत मध्य प्रदेश और छतीसगढ़ से एक साथ प्रकाशित समाचार पत्र में यह लेख प्रकाशित