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Sunday, 29 October 2017

साफ स्टेशन,आंचल कक्ष, स्वादिष्ट भोजन जबलपुर Jabalpur Yatra 2 यात्रा भाग 2 नीलम भागी



                                                                                               नींद तो मेरी उखड़ ही चुकी थी। सब खर्राटे भर रहे थे। साइड सीट का सिख छात्र मोबाइल पर लगा था और मैं बर्थ पर लेटे लेटे गंदगी फैलाने वालों और सफाई करने वालों दोनों को मन ही मन कोस रही थी। चादरों के सैट पेपर बैग में देने की क्या जरूरत! कुछ यात्रियों ने चादरें बड़ी तमीज से बिछाई और उनके कागज के कवर फर्श पर फैंक दिये। कुछ देर सो भी ली। कटनी आने पर हमारे सहयात्रियों ने उतरने से पहले मीडिल बर्थ को भी ऊपर कर दिया ताकि हमें बैठने में तकलीफ न हो। जाते जाते भी गुप्ता जी 10रू वाली चाय को 20 रू की तीन करवा कर गए। चाय पीकर मैं बाहर की हरियाली देखती रही। कोई चिंता तो थी नहीं ,स्टेशन पर हमें प्लेटफार्म न0 6 पर जाना था। सीढ़ी चढ़ने का चक्कर ही नहीं था स्लाइड था। दुर्गंध रहित साफ स्टेशन। वहाँ बोर्ड लगा था। जहाँ सब बैठे थे। मध्य प्रदेश में मुझे साँची मिल्क पार्लर का मीठा दहीं और नमकीन मट्ठा बहुत अच्छा लगता है। डॉ. शोभा सबके साथ बैठ गई। मैं साँची की खोज में निकल गई। पार्लर मिला पर बंद था। महिला वेटिंग रूम और उसके आंचल कक्ष ने तो मेरा मन मोह लिया। सब स्टेशन से बाहर आये। एक बस भर गई। दूसरी में हम बैठे। मैं तो खिड़की के बाहर आँखे गड़ाये देखती रही। हमारी बस एक बहुत बड़े नये बने हाउसिंग कॉम्पलैक्स के आगे रूकी। सामने ठंडा पानी और गर्म चाय थी। कुर्सियाँ रक्खी थीं। हमें अर्पाटमेंट का न0 दिया। वहाँ हम  पहुँचे। दो कमरों और हॉल में फर्श पर गद्दे और उन पर साफ सुथरी चादरें बिछी हुई थीं। इण्डियन और वैस्टर्न साफ दो बाथरूम थे। प्रत्येक कमरे की बालकोनी थी। 15 सितम्बर तक ऑन लाइन होटल में कमरे के लिये बुकिंग थी। एक बार मनु से करवाने की कोशिश की, उसने कहा कि सरवरडाउन है। दोनों कमरों में एक ही जगह की, चार चार महिलाएं तैयार हो रहीं थीं। किचन में सामान रख हम हॉल में आ कर कुर्सी पर बैठ गये। मुझे डॉक्टर ने पालथी मार कर बैठने और नीचे बैठने को मना किया है। मैं नीचे व्यवस्था वालों के पास आई, उनसे होटल में रूम के लिये कहा, उन्होंने फोन किये सब फुल। लेकिन कोशिश करेंगे, ऐसा कहा। काफी देर मैं वहाँ वैसे ही बैठी, देखती रही कि पूरे भारत से आये प्रतिनिधियों को कितनी शांति से सैटल कर रहे थे। जब मैं गई तो व्यवस्था वालों के लिये मेरे मन में साधूवाद था। सब महिलायें तैयार होकर जा चुकी थीं। एक बाथरूम में डॉ. शोभा थी, दूसरे में जो थी उनका पति फ्लैट से बाहर बैठा था। मेरे अंदर जाते ही उसने कहा कि मेरी वाइफ से कहना मैं तैयार होने जा रहा हूँ। मैंने दरवाजा बंद किया और बैग से कपड़े निकालने लगी। इतने में वह महिला बाथरूम से निकली, जूते पहने और मेकअप किट ली। जूतों समेत गद्दों पर चलती, खिड़की पर शीशा टिका मेकअप करने लगी। मैं बोली,’’अरे! आप ने जूते नहीं उतारे।’’उसने जवाब दिया,’’मेरे जूते बिल्कुल साफ हैं।’’ मैंने कहा,’’आप मेरे सामने से नीचे से यही जूते पहने चलती हुई आईं हैं। यहाँ महिलायें सोयेंगी।’’ उन्होंने जूते तो उतार दिये। पर क्रोधित होने से मेकअप करने पर भी अच्छी नहीं लग रहीं थीं। मैं बाथरूम चली गई। बाहर आई तो शोभा ने बताया कि वो महिला पता नहीं क्यों बैग लेकर चली गई है। तैयार होकर हमने लॉक लगाया, चाबी नीचे देकर, जल्दी जल्दी हम बाहर खडी गाड़ी से कार्यक्रम स्थल पर 11 बज कर आठ मिनट पर पहुँचे। वहाँ नाश्ते का समय खत्म हो गया था। लेकिन हमें सेब और अमूल दूध की बोतल देदी। कानों में हमारे व्याख्यान पड़ रहा था और हम पंजीकरण करवा रहे थे। उसके बाद उन्होंने हमें किट दी। उस दिन उस समय बहुत गंदी गरमी थी। उस गरमी में भी खचाखच भरा पण्डाल था। व्याख्यान थोड़ा लंबा खिच गया। लेकिन खाना एक बजे लग गया था। परिपत्र में तो साधारण भोजन लिखा था पर मैं तो उसे असाधारण कहूंगी क्योंकि उसमें कच्चा, पक्का प्रांतीय मीठा सलाद पापड़ आचार सबकुछ और बहुत स्वादिष्ट था। पढे़ लिखों से मुझे उम्मीद थी कि यहाँ जूठा नहीं छोड़ा जायेगा, पर छोड़ा गया। प्लेट में खाना लेकर जो पंखों के आगे कुर्सी लेकर बैठ कर खा रहे थे, अगर उनके और पंखे के बीच में कोई खड़ा होकर खाता तो बैठ कर खाने वालों को बहुत बुरा लगता। बैठे लोग आपस में कहते, लोगों को तमीज़ नहीं है। और  खाना लेने जब कोई जाता, तो खाली कुर्सी पर कोई बैठने लगता तो साथ बैठी महिला झट से पर्स रख देती और बोलती,’’इस पर कोई बैठा है।’’पेट भरने पर चल देते जगह जगह कुर्सियां ही कुर्सियां थी, कहीं भी बैठते बतियाते। खाते ही हम भवन के दो गेटों में से एक के  बाहर आकर, ऑटो के लिये बैठ गये। ये पॉश इलाका था। इसलिये कोई ऑटो आ नहीं रहा था। आता तो किसी को छोड़ने। सवारी उतरते ही जब तक हम उसके पास पहुँचते कोई और बैठ चुका होता। इतने में दूसरे गेट की ओर से एक बस साहित्य सम्मेलन का स्टिकर लगी आ रही थी। उसमें हमारे डेरे के साथी थे। हम भी बैठ गये ये सोच कर कि जहाँ हमें लगेगा कि पब्लिक ट्रॉस्पोर्ट मिल सकता है उतर जायेंगे। पर बस में ही उसी बस को भेड़ाघाट ले जाने का कार्यक्रम बन गया जबकि रेल में बनी हमारी पर्यटन सूची में भेड़ाघाट 8 अक्टूबर समापन के बाद था। हम भला कैसे इस मौके को छोड़ सकते थे!  क्रमशः  






Tuesday, 24 October 2017

पॉलीथिन में गऊ ग्रास Polythene mein Gau Grass नीलम भागी


पॉलीथिन  में गऊ ग्रास
                                     नीलम भागी
               
गऊ माताएँ और साँड पिता झुंड में खड़े थे। एक गाड़ी उनके करीब आकर रुकी। पति-पत्नी उतरे गाड़ी की डिक्की खोल कर ढेर खाना , जो पॉलिथिन में बँधा था। उनके सिंगो के डर से दूर रक्खा और श्रद्धा से झुण्ड की दिशा में हाथ जोड़ कर , वे गाड़ी में बैठ कर चल दिये और पशु खाने की ओर दौड़े। किसी भी शुभ दिन या गोपाष्टमी के पर्व पर, ऐसा सीन कहीं भी देखने को मिल जाता है ।
     एक नज़ारा आमतौर पर दिखाई देता है। कूड़ेदान के पास गाड़ी रुकती है, शीशा नीचे कर, महिला जोर से पॉलिथिन की थैली फेंकती है। कई  बार थैली फट जाती है , तो देखकर हैरानी होती है। उसमें बचे हुए खाने के साथ, कई बार टूटे काँच के टुकड़े, ब्लेड आदि होते हैं। पशु पॉलिथिन नहीं खोल सकता इसलिये खाने के साथ साथ, ये चीजे़ उनकी जान ले लेती हैं। और यह देख कर..........
    मुझे कावेरी की मौत याद आ जाती है। कृष्णा  चार महीने की थी।  कावेरी ने चारा खाना बंद कर दिया। हम उसकी पसन्द का गुड़ सौंफ डाल कर दलिया रखते पर वह नहीं खाती। वह हर तरह के खाने को टुकुर-टुकुर देखती और आँखों से आँसू बहाती रहती। वह कितने कष्ट में थी! ये वो जानती थी, या उसे पालने, प्यार करने वाला हमारा परिवार।  कावेरी की हालत देख कर हमने पशु चिकित्सक भइया को सूचित किया। सूचना मिलते ही भइया इज्ज़तनगर से आये। घर का डॉक्टर है, खूब  कावेरी का दूध पिया है। अब हमें पूरी उम्मीद थी कि  कावेरी भइया के इलाज से ठीक होकर चारा खायेगी,  कृष्णा को चाट-चाट कर , पहले की तरह दूध पिलायेगी। लेकिन भइया ने जाँच करके ,बताया कि  कावेरी नहीं बचेगी। सबके मुहँ से एक साथ निकला,"" आखिर क्यों?"
     भइया बोले,’’  कावेरी पॉलिथिन खा गई है। पॉलिथिन इस तरह खाने की नली में अटक जाती है कि पशु जुगाली नहीं कर पाता। खाना बंद कर देता है। ’’ इसी घर में जन्मी  कावेरी को हमने तिल तिल कर मरते हुए देखा था। हम तो उसके चारा पानी का खूब ख्याल रखते , पर वह जानलेवा पॉलिथिन कैसें खा गई!!
     राजू ग्वाला सब घरों की गाय, सुबह 10 बजे से लेकर 3 बजे तक चरवाने लेकर जाता था। इस आउटिंग को सभी की गायें , बहुत एन्जॉय करतीं। घर से चारा खाकर जातीं , आते ही नाँद में चारा तैयार मिलता। बस घूमने के लिए 10 बजे से बाहर देखना शुरु कर देती। शायद वहीं रास्ते में खाने की पॉलिथिन में ब्लेड, काँच निगल गई। और धीरे धीरे  कावेरी मर गई। हमने सबको पॉलिथिन का नुकसान बताया। बिन माँ की कृष्णा को खूब लाड प्यार से पाला। उसने गोमती( हमारे घर में बछिया का नाम नदियों पर रखते हैं) को जन्म दिया।
     कृष्णा, गोमती और उसके बछड़ों के साथ हम मेरठ से नौएडा शिफ्ट हुए। किसी को शिकायत का मौका नहीं मिला। जर्सी और साहिवाल नस्ल की  कृष्णा, गोमती दिन के उजाले में चोरी हो गई। इस चोरी के बाद से हमने गाय पालना बंद कर दिया।
  पॉलिथिन में खाना ,दो दिन रखने से वैसे ही वह प्रदूषित हो जाता है। जिसे खाकर जानवर बीमार ही पड़ेगें। पॉलिथिन में बंधा खाना खाते देख ,जब मैं आवारा पशु के मुंह से पॉलिथिन खींच कर खाने से पालिथिन हटाती हूँ , तो मुझे लगता है कि एक  कावेरी कष्टदायक मौत से बच गई।


चुम्मू फर्स्ट आया न! Chummu First aya na! नीलम भागी


चुम्मू फर्स्ट आया न!                                                                                                  नीलम भागी
                                       
 चुम्मू की क्रेच से मुझे ऑफिस में फोन आया कि इस संडे को शाम 5 बजे क्रेच के बच्चों  के लिये फैंसी ड्रेस प्रतियोगिता आयोजित की जा रही है। पेरेंट ही अपनी मरजी से बच्चों को तैयार करके , उसका मंच पर इन्ट्रोडक्शन देंगे। सुन कर ,मैं खुशी से फूली नहीं समायी, मेरा 1 साल 6 महीने का चुम्मू कम्पटीशन में भाग लेगा। मैं उसी समय  फोन से सहेलियों, रिश्तेदारों से सलाह लेने लगी की अपने लाडले चुम्मु को क्या बनाऊँ?
    अब देखिये न डेढ़ साल का चुम्मू ता ता पा पा बोलता है। सू सू पौटी तक नैपी में करता है। वो तो बता नहीं सकता कि उसे क्या बनाया जाये? मेरा चुम्मू सबसे डिफरेंट लगे ,इसलिये मैंने सबकी सलाह माँग ली। शनिवार की छुट्टी लेकर, बस ड्रेस लेंगे। मैंने उसके दादा, दादी, बुआ की राय लेने के लिये उन्हे भी बुला लिया।
  ड्रेस लेना बहुत ही कठिन काम था। नगर परिक्रमा करने पर दो चार दुकाने ही मिलीं। वहाँ चुम्मू के नाप की ड्रेस बहुत ही कम और अगर मिलीं भी तो फल और सब्जियाँ। दुकानदार बोला,’’यह बैंगन, टमाटर, शिमलामिर्च में बहुत प्यारा लगेगा।’’मैं चुप, मुझे चुप देखकर बोला,’’बच्चे को एप्पल, केला, सन्तरा बना दो।‘‘ उसकी बुआ ने मुहँ बिचका कर कहा,’’जूट की बोरी लपेट कर, आलू न बना दें, सब्ज़ियों का राजा लगेगा और झट से मना कर दिया। हम डिसाइड नहीं कर पा रहे थे कि उसे क्या बनाया जाये, इसलिए टेंशन में थे और चुम्मू परिवार के साथ घूमने में बहुत खुश था। सहेलियों ने दो महिलाओं का पता बताया, उनके पास मेरे बच्चे के नाप में सिर्फ चुहिया और गिलगरी की ड्रेस थी। जिसे देखते ही उसकी दादी जी बोली,’’चुम्मू की मर्दाना पर्सनैलटी है, चुहिया, गिलहरी, न न , बिल्कुल नहीं। यह सुनते ही चुम्मू के पापा बोले,’’इसे चड्डी पहनाकर ,सुम्मो रैसलर का मेकअप कर दूँगा बिल्कुल छोटा सा मर्द लगेगा।’’
    इस खोज में मोबाइल का इस्तेमाल खूब हो रहा था। मुझे एकदम चुम्मू को मोबाइल बनाने का आइडिया आया। मैंने अपना आइडिया दुकानदार को बताया। ड्रेस का खर्च हमारा, बाद में ड्रेस दुकानदार की, वह अर्जेंट भी तो दे रहा था न इसलिए। तय करके एडवांस देकर हम घर लौटे।
   चुम्मू  की मोबाइल पोशाक पर  एन्टीना था, जिसे वह नोचे जा रहा था। मैं स्टेज पर ले जाने से पहले उसे मेकअप लगाने लगी। जैसे ही लिपिस्टिक लगाई। झट से उसने चाकलेट की तरह अपने चारो दाँतों से उसका टुकड़ा काट लिया। मैंने उसके मुहँ में अँगुली डाल कर लिपिस्टिक निकाली तो वो चीख चीख कर रोने लगा। साथ ही उसका नाम एनाउन्स हो गया।
     रोते हुए चुम्मू ने एक हाथ से पापा की अँगुली पकड़ी और एक हाथ से मेरी, हमने खुशी से पूरे दाँत निपोड़ रखे थे। मंच पर मोबाइल(चुम्मू) को लेकर आए। खूब तालियाँ बजी । तालियाँ सुन, अब चुम्मू भी खरगोश की तरह अपने चारों दाँत दिखा कर हमारी अँगुली छुड़ा मंच पर फुदकने लगा। सांत्वना पुरुस्कार लेकर, हमारे खानदान का पहला एक साल 6 महीने का बच्चा पुरुस्कृत हुआ। पर मैं दुखी थी क्योंकि मेरा बच्चा फस्ट नहीं आया था। अगले दिन क्रेच की छुट्टी थी।
    अब मैं छुटटी लेकर घर पर  चुम्मू को खिला रही थी, वो सब खिलौने छोड़, केवल इनाम में मिली ट्रॉफी को ही पटक-पटक कर, मुँह में लेकर खेल रहा था। मैं सजाने के लिए छिनती, तो हृदय विदारक विलाप करता। तंग आकर मैंने उसका इनाम उसे दे दिया वह खुशी से खेलने लगा। मुंझे लगातार सबके फोन आ रहे थे, सबका एक ही प्रश्न’’ चुम्मू ़र्फस्ट आया न!
  मुझे स्ट्रेस होने लगा। उत्कर्षिनी आई। उसने मुझे समझाया कि क्या प्रतियोगिता में भाग लेने का मतलब फस्ट आना ही है? हमने, बच्चों ने कितना एन्जॉय किया। क्योंकि बच्चे छोटे थे वे फस्ट, सेकण्ड की दौड़ से बाहर थे। शायद इसलिए खुश थे। उन बच्चों पर कितना प्रेशर होता होगा, जिनके माता-पिता के लिए प्रतियोगिता में भाग लेने का मतलब फस्ट आना ही होता है। यह समझ आते ही मैं तनाव से बाहर आने लगी। 

Sunday, 22 October 2017

रेल में भारतीय संस्कृति, आगरे का पेठा, Jabalpur Yatra 1जबलपुर यात्राReil mein Bhartiye Sanskrity,Agara Ka Petha, जबलपुर यात्रा भाग 1 नीलम भागी


                                           
6 अक्टूबर से आठ अक्टूबर तक अखिल भारतीय साहित्य परिषद का 15वाँ राष्ट्रीय अधिवेशन जबलपुर में आयोजित किया गया था। हमारे साथी दिल्ली से 4 को चल कर 5 को पहुँच रहे थे और वापिसी 9 को कर रहे थे, क्योंकि आयोजकों ने लिखा था कि पर्यटन 6 से पहले और 8 के बाद करें। अधिवेशन के प्रत्येक सत्र में उपस्थिति अनिवार्य है। मेरे साथ डॉ. शोभा भारद्वाज को जाना था। वे डायबटिक हैं और उनकी सितम्बर में डायबटीज बहुत बड़ गई थी। उनके डॉक्टर पति ने कहा था कि कंट्रोल होने पर ही वे उसे जाने के लिये 3 दिन की  परमीशन देंगे। मैंने दो टिकट एम. पी. संपर्क क्रांति की 3 ए.सी. में करवाली। बी 3 में 9 और 12 न0 सीट कनर्फम हो गई थी। डॉ.शोभा ने भी जाने के लोभ में नियमित दवाइयां ली और जमकर परहेज किया। उन्हे जाने की अनुमति मिल गई। गाड़ी में सीट पर जाते ही हमारे सहयात्रियों ने सीट के नीचे हमारा सामान लगा दिया। जैसे ही हम सामान में चेन लगाने लगे। उन्होंने वह भी लगा कर, हमें चाबी देदी। वे एक दूसरे को तिवारी जी, त्रिपाठी जी.... आदि से सम्बोधित कर रहे थे इसलिये हमने सबको पण्डित जी से सम्बोधित किया और उनका नाम नहीं पूछा। ज्यादातर ने कटनी पर उतरना था, वे आस पास की जगहों के 30 सहयात्री, सभी व्यापारी थे। किसी कम्पनी ने उन्हें घूमने के लिये पैकेज पर हरिद्वार, ़ऋषिकेश, मसूरी भेजा था। साधूवाद उस कंपनी को, जिसने सेल पर उन्हें नगद पुरूस्कार न देकर, घुमाया था। किसी का बोल बोल कर गला बैठा था। किसी को बहुत डुबकियां लगाने से मामूली ठंड की शिकायत थी, पर सभी बहुत खुश थे। सभी उम्र के लोग थे ,अपनी बीती बातों को खूब दोहरा रहे थे और खुश थे। गाड़ी ने ग्वालियर रूकना था। आगरे का पेठा बेचने वाले आते तो उससे शुगल के लिये मोलभाव किया जाता, आधा किलो 80रू का पेठा का डिब्बा 70 रू में, दो डिब्बे यानि एक किलो 130रू के लिये गये। मैं तो लौटते समय खरीद सकती थी कहाँ कहाँ उठाये घूमती इसलिये नहीं लिया। पेठा सबके आगे किया जाता। मेरे आगे डिब्बा करने से पहले कहते,’’देखिए, आपके सामने लिया और खोला है।’’ मैं एक टुकड़ा ले लेती। डॉ.शोभा परहेज में थी। गाड़ी आगरा में रूकी। जबकि ट्रेन शेड्यूल में आगरा नहीं है। कई युवा पण्डित जी उतरे, मैं डरती हुई खिड़की से देखती रही कि इनकी गाड़ी न छूट जाये। गाड़ी चलते ही सब आ गये। प्रत्येक के हाथ में अंगूरी पेठे का डिब्बा था। सबके चेहरों से खुशी टपक रही थी। एक डिब्बा खोला गया। बहुत स्वाद पेठा कुल 70रू किलो। मैंने पूछा,’’इतना सस्ता कैसे?’’सबने कोरस में जवाब दिया,’’गुप्ता जी की वजह से।़’’ अब पता चला कि अलग जातियों के भी लोग थे। मैंने पूछा,’’कैसे?’’जवाब में 10 न0 सीट के पंण्डित जी बोल,े’’मैंने वाइफ के लिये कुछ सामान लिया, बिल्कुल वैसा ही इन्होने लिया मुझसे चार सौ रू कम में, उसी दुकान से, जबकि मैं एम.बी.ए. हूँ। गुप्ता जी बोले,’’बनिया नहीं हो न इसलिये।’’सब हंस पडे। मैंने कहा,’’मुझे सीखा दीजिये बारगनिंग।’’ इतने में पेठा बेचने वाला आया। मैंने सीखने वाली छात्रा की तरह पूरा ध्यान, गुप्ता जी और पेठे वाले की वार्ता पर लगा दिया। उसने पेठे का भाव वही आधा किलो अस्सी रू डिब्बा बताया। गुप्ता जी ने उसे अंगूरी पेठे का डिब्बा दिखा कर कहा,’’ये सत्तर रू किलो लिया है। तू लगा न, सारे डिब्बे ले लेंगे।’’ फिर पेठे वाले पर बिल्कुल भी ध्यान न देकर सब लोगों से ऐसे बतियाते रहे, जैसे पेठे से कोई मतलब न हो। पेठे वाला बोला,’’50रू का डब्बा।’’ गुप्ता जी बोले,’’चल तू भी क्या याद करेगा, 80 रू किलो यानि 40 रू का डिब्बा। कैश पैसे।’’ कहकर पेठे वाले से विरक्त हो गये। पर वह दे गया। जिन्होंने 130रू किलो लिया था। उन्होने भी और डिब्बे लिये। अब हमसे पूछा कि हम कहाँ जा रहें हैं। हमने बताया। उन्होंने हमें तुरंत जबलपुर के पर्यटन स्थल बताये। हमने उन्हें अपनी समस्या बताई कि जाते ही अधिवेशन शुरू और अधिवेशन समापन पर शाम 7ः10 की हमारी यही गाड़ी है। इतने में उनका एक जबलपुर का साथी आया। उन्होंने हमारी समस्या उनके सामने रक्खी। मैंने उन्हें कहा कि मैं प्रत्येक सत्र में भी रहना चाहती हूँ और घूमना भी चाहती हूँ। क्या ये सम्भव है? मैंने मोबाइल में उन्हें तीनों दिन का टाइम टेबिल निकाल कर दिया, उन्होंने ध्यान से पढ़ कर कहा कि जबलपुर 11-12 कि.मी. में है। जैसे मैं बताउँगा उसी प्रकार करोगी तो भाषण भी सुन लोगी और भ्रमण भी कर लोगी। मैंने डायरी पैन लेकर सब लिख लिया। मैंने कहा,’’मैं तो ऑटो से ही जाऊंगी।’’उन्होंने कहा कि फिर तो हम शत प्रतिशत घूम लेंगी। ये सुनकर सब बहुत खुश हुए। अब सब सोने की तैयारी में लग गये। मेरी अब तक की रेल यात्रा में इतने गंदे टॉयलेट कभी नहीं मिले। किसी में लाइट नहीं। फर्श तक गंदगी से भरे हुए। इसलिये रात भर मैं ठीक से सो नहीं पाई। डॉ.शोभा ने तो दवा खा रक्खी थी, वे खर्राटे ले रहीं थी। रात दो बजे अटैण्ट ने कहाकि इनकी सफाई तो कटनी में होगी, आप दूसरे डिब्बे में हो आओ, फिर मैं गई न । क्रमश:


Tuesday, 10 October 2017

अन्तर्राष्ट्रीय पर्यटकों को आकर्षित करते समुद्र तट, मनमोहक सूर्योदय सूर्यास्त,Goa 8 गोआ का तो चप्पा चप्पा Anterashtriya Peryatako ko aakershit kerte samundra tath ,Manmhak surya asth, Suryodaya नीलम भागी





                               नीलम भागी               
इतने दिन गोवा रहने पर भी हमने सूर्योदय और सूर्यास्त नहीं देखा कारण देर से सोना देर से उठना। आज हमने दोपहर को नहीं सोना था क्योंकि अंधेरा होने पर ही आँख खुलती थी। धूप ढलते ही हम बीच पर बैठ गये और सूरज डूबने के नज़ारे को कैमरे में कैद करने लगे। अंधेरा होते ही चाय पीने चल दिये। चाय के साथ हमने उसल मिसल पाव खाया। शॉपिंग की। आज हमारा यहाँ आखिरी डिनर था। हमने थेचा, भाखरी और आलू ची पातल भाजी खाई। अंकूर ने फिश रेशैडो खाई। अगले दिन हमने जिस कैब वाले को बुलाया था, उससे तय कर लिया था कि वह सुबह हमें सूर्योदय दिखाता हुआ, मडगाव स्टेशन छोड़ेगा। 9 बजे की राजधानी से जाना था। मेरी 12 बजे की मुंबई के लिये फ्लाइट थी। सूूर्य उदय देखने के कारण अंकूर श्वेता जल्दी स्टेशन पहुँच जायेंगे। वही कैब मुझे डैबोलिन हवाई अड्डे पर पहुँचा देगी। रात हमने पैकिंग कर ली थी। सुबह जल्दी उठ कर तैयार हो गये। कैब आ गई। चालक अजय ने सामान गाड़ी में रक्खा। अजय ने पूछा,’’कौन से बीच।’’ हमने कहा,’’जो रास्ते में पड़े।’’ हल्की नीली रोशनी में हम बीच पर बैठ गये, सूर्य देवता के स्वागत में। देवता उदय हुए। उन्हें और सागर को नमन कर हम कैब में बैठे और चल दिये। हम सब बाहर देखते हुए जा रहे थे। बहुत पहले हम स्टेशन पर पहुँच गये। श्वेता अंकूर ने सामान उतारा। अजय मुझे लेकर एयरपोर्ट चल पड़ा। ये रास्ता आने वाले रास्ते से अलग था। जो भाग गोवा का छूटा था वो देख रही थी। वास्कोडिगामा से भी गुजरी। अजय यहाँ गाइड का भी काम कर रहा था। मोर भी मैदानों में देखे, बेहद पुराने पेड़ भी। यहाँ का मुख्य उद्योग पर्यटन है। लौह अयस्क का 40%निर्यात होता है। चावल, काजू, सुपारी और नारियल की खेती की जाती है। गोवन फिश करी, प्रॉन करी मशहूर है। एक बात की मुझे बहुत खुशी हुई, वो ये कि मैंने जिससे भी हिन्दी में बात की, वह बहुत अच्छी हिन्दी में बात करता था। यहाँ कोंकणी, मराठी बोली जाती है। कुछ लोग पुर्तगाली भी बोलते हैं। अंग्रेजी तो है ही। यहाँ लगने वाले बाजारों में दुकानदार महिला पुरूषों का अंग्रेजी  बोलने का लहज़ा बिल्कुल विदेशी था। मरियम को स्थानीय कोंकणी भाषा में साइबिन माई पुकारा जाता है।
घरों के आँगन के बीचो बीच छोटा सा ऊँचा चबूतरा जो कई रंगों से सजाया होता था, उस पर तुलसी जी का गमला विराजमान था।
समुद्र तट पैरासैलिंग, जल क्रीड़ाओं, वागाटोर, अंजुना, और पालोलम बीच पर अन्तर्राष्ट्रीय पर्यटकों का आना जाना है। वे जैसे मरजी घूमे उनकी ओर कोई ध्यान नहीं देता। सिनेमा में जिस तरह माइकल और गोअन लड़की की वेश भूषा दिखाते हैं। वैसा मुझे तो कहीं नहीं दिखा। गोवन महिला पारंपरिक पोशाक में या देश की महिलाओं की तरह सलवार कुर्ते या रिवाज़ के अनुसार दिखीं, भारतीय महिलाओं की तरह। मैं बहुत जल्दी एअरर्पोट पहुँच गई। अब अंदर जाकर मैं अपनी फ्लाइट का इंतजार करने लगी। मार्था का फोन आया कि हमारे कुछ कपड़े रह गये हैं। मैंने धन्यवाद करते हुए उन्हें कहाकि अपर्णा और सौरभ हमसे एक दिन बाद आयेंगे। वे आपसे ले लेगें। जाते जाते यहाँ की इमानदारी ने भी मेरा मन मोह लिया।