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Friday 28 December 2018

mainaisikyunhoon: बापूधाम मोतिहारी की मोती झील Moti Jheel Motihari...

mainaisikyunhoon: बापूधाम मोतिहारी की मोती झील Moti Jheel Motihari...:  मोतीहारी झील                 नीलम भागी  रात को जब मैं चरखा पार्क देखकर लौट रही थी तो ऑटो वाले ने अपना बायां हाथ घूमाकर बताया था कि वो ...

Thursday 27 December 2018

बापूधाम मोतिहारी की मोती झील Moti Jheel Motihari Bihar yatra बिहार यात्रा भाग 7 नीलम भागी

 मोतीहारी झील
                नीलम भागी
 रात को जब मैं चरखा पार्क देखकर लौट रही थी तो ऑटो वाले ने अपना बायां हाथ घूमाकर बताया था कि वो मोती झील है। मैंने उसके हाथ की दिशा में देखा तो मुझे झील तो नहीं दिखीं हाँ, अस्थाई दुकाने नज़र आई। उस समय मैंने सोच लिया था कि दिन के समय जब गांधी संग्राहलय देखने  आउंगी तो झील भी देख लूंगी। मोती झील के नाम पर ही इस शहर का नाम मोतीहारी पड़ा। इस तीन सौ दो एकड़ की झील में कहते हैं कि पहले मोती की खेती होती थी इसलिए झील का नाम मोती झील पड़ा। धीरे धीरे इसमें जलकुंभी फैलने से, खरपतवार, अतिक्रमण और गंदगी होने से ये झील अपनी नैसर्गिक सुन्दरता खोने लगी। मछलियों का उत्पादन भी बहुत घट गया। इसके किनारों पर गंदगी और मच्छरों का प्रकोप बढ़ गया। जो लोग झील की र्दुदशा के बारे में सोचते थे। उन्होंने लोगो से मिल कर इसके लिए लोक संवाद शुरू किया। अब सबको झील की चिंता सताने लगी। वे झील बचाओ आंदोलन से जुड़ने लगे। अब जल सत्याग्रह शुरू हो गया। तब नेता भी जागे। बिहार के पर्यटन मंत्री प्रमोद कुमार, कृषिमंत्री और भारतीय कृषि अनुसंधान के प्रयास से 15 अप्रैल 2017 से झील का पुर्नरूद्धार शुरू हो गया। वैज्ञानिको के दिशा निर्देशन में मानव श्रम, ट्रैक्टर और जेसीबी की मदद से 30 नवम्बर 2017 को सात महीने के अथक प्रयास से यह झील अपने असली रूप में आई। मछली पालन के लिए मतस्य बीज डाले गये और बत्तख पालन भी शुरू किया जाने लगा है। कतला, रोहू, जेंगा, टेगड़ा, मंगुर, सिंधी, नैनी, रेवा, पोटिका, शउरी, पटिया, बोआरी की प्रजातियों का पालन हो रहा है। 170 से 180 टन इनका उत्पादन है। वैज्ञानिकों का कहना है कि ये उत्पादन 1000 टन तक बढ़ सकता है। जिससे तेरह करोड़ अतिरिक्त आय हो सकती है। झील का नवजीवन अन्य प्रांतों के लिए उदाहरण है। इस मोतीहारी झील का ऐतिहासिक महत्व भी है। गांधी जी जब चंपारण सत्याग्रह के लिए यहाँ रूके थे तो उन्होंने मोतीहारी की शान, इस झील की प्रशंसा की थी। समय के साथ जो इसकी शान फीकी पड़ी थी उसे पुनः प्राप्त कर लिया गया है। अब भी जो हिस्सा झील का सड़क के साथ है। वहाँ अस्थाई मार्किट है। मैं इन दुकानों के पीछे गई। वहाँ लोगो ने मलमूत्र का विर्सजन किया हुआ था। झील की तस्वीरें लेने के लिए पैर बचा बचा कर रखना पड़ रहा था। बड़ी सावधानी से मैं कदम रख रही थी। ड्राइवर साहेब बोले,’’लाइए, फोटू हम लेते हैं, आप सिर्फ नज़रें नीची रखिए वर्ना आपके सेंडिल में पखाना लग जायेगा। फिर आप हमें नहीं कहिएगा कि हमने आपको सावधान नहीं किया।’’ अभी तक मैं सूखे पेशाब की गंध के कारण मुंह बंद कर, सांस रोक कर खड़ी थी। उसकी चेतावनी से मेरी हंसी छूट गई। फिर उसने बड़े दुख से कहा कि कुछ घरों ने तो अपने घर का पखाना भी झील में खोल दिया है। मैं भी उसकी बात से लोगों की ऐसी मानसिकता से दुखी हुई। सड़क की तरफ से तो झील दर्शनीय होनी चाहिए, जिससे जब पर्यटक वहाँ से गुजरे तो रूकने को मजबूर हो जाये।। बिहार पर्यटन मंत्री प्रमोद कुमार जी लाजवाब वक्ता हैं। मैंने उन्हें सुना है और उनके व्याख्यान से मैं बहुत प्रभावित हुई। झील के सौन्दर्यीकरण के लिये वे लगे हुए हैं। कुछ ऐसा प्रयास हो कि गंदगी फैलाने वाले लोग सुधरें।


Sunday 23 December 2018

सोमेश्वर नाथ मंदिर, तुरकौलिया, अहुना मटन, Bihar Yatra बिहार यात्रा भाग 6 नीलम भागी

सोमेश्वर नाथ मंदिर, तुरकौलिया, अहुना मटन,
                                       नीलम भागी
उत्तर बिहार का ऐतिहासिक अरेराजा का सोमेश्वर नाथ प्राचीन मंदिर है। यह तीर्थस्थल मोतिहारी से 28 किलोमीटर की दूरी पर गंडक नदी के पास स्थित है। यहाँ सावन के महीने में बहुत बड़ा मेला लगता है। नेपाल से भी बड़ी संख्या में श्रद्धालू यहाँ पूजा अर्चना करने आते हैं। हम जब गये तो त्यौहार के बिना भी दर्शनार्थियों की वहाँ भीड़ थी। सीढ़ियां उतर कर मैं ऐसी जगह खड़ी हो गई, जहाँ मैं किसी की पूजा में रूकावट नहीं बन रही थी। जमीन पर मुझे डॉक्टर ने बैठने को मना किया है। वहीं खड़े खड़े मैंने अपने कंठस्थ शिव स्तुति को मन ही मन दोहराया। मुझे वहाँ बहुत अच्छा लग रहा था। शायद लोगों की आस्था और श्रद्धा के कारण वहाँ अलग सा भाव था। भक्त एक सीढ़ियों से आते, जल्दी पूजा करते और दूसरी सीढ़ियों से वापिस निकलते जाते। इतने प्रसिद्ध मंदिर में बढ़िया सफाई की व्यवस्था न देख अच्छा नहीं लगा। जूता चप्पल रखने का भी कोई इंतजाम नहीं था।
 यहाँ से हम तुरकौलिया के ऐतिहासिक नीम के पेड़ को देखने गये। ये पेड़ किसानों पर हुए अत्याचारों का गवाह है। इस पेड़ से बांध कर उन किसानों पर कोड़े बरसाये जाते थे, जो नील की खेती करने को मना करते थे। इसके नीचे बैठ कर कर बापू ने निलहों से पीड़ित किसानों से उन पर हुए अत्याचारों की दास्तां को सुना था। बापू ने एक आयोग बना कर डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, रामनवमी प्रसाद बाबू  धरनीधर बाबू के द्वारा गरीब किसानो के बयान दर्ज करवाये। 29 नवम्बर 1917 को मि. मौड़ ने चंपारण एग्रेरियन बिल अंग्रेजी अदालत में पेश किया, जिसे अंग्रेजी हकूमत ने स्वीकृत कर लिया। यह बिल तीनकठिया प्रथा हटाने एवं बेसी टैक्स को कम करने से संबंधित थी। अब बापू तो पिता तुल्य हो गये थे।
हम जिस भी राह जाते, हमें इकड़ी जिसे कहीं कहीं पर भुआ भी कहते हैं दिखती है। हल्की हवा में उसके रेशे पानी की लहर की तरह लहराते बहुत अच्छे लगते। कहीं कहीं महिलायें उसके बंडल सिर पर रक्खे जाते देख, मैंने पूछा कि यह किस काम आती है? पता चला कि यह पैट्रोल से तेज जलती है। झोपड़ी की छत भी बनाने के काम आती है। सामने तुरकौलिया तालाब था। अभिषेक ने बताया कि इसकी मछलियाँ बहुत प्रसिद्ध हैं। मैं ड्राइवर के बराबर की सीट पर बैठी थी। मैंने देखा कि वहाँ हाइवे पर तो किनारे पर और साइड रोड पर तो सड़क पर ही बकरियाँ घूमती रहतीं थी बिना गडरिये के। एक ही रंग आकार की कई कई बकरियाँ देख, मैंने ड्राइवर साहेब से पूछा कि लोग अपनी अपनी बकरियों को कैसे पहचानते होंगे? उन्होंने मेरी ओर ऐसे देखा मानो मैंने बहुत ही बचकाना प्रश्न किया हो फिर जीनियस की अदा से बोले,’’ ये साली बहुत ही बदमास होती हैं, शाम होते ही अपने अपने घर चली जातीं हैं। घर वालों को नहीं ले जाने की परेशानी उठानी पड़ती।’’ रास्ते में हरी सब्जी की र्नसरी देखी जहाँ पर लगभग सब किस्म की हरी सब्जियों की पौध थी। इस इलाके से ठेकेदार बाल मजदूर ले जाते थे। अब कुछ संस्थाएं ऐसी हैं जो इस काम को रोक रहीं हैं ताकि बिना रजीस्ट्रेशन के कोई न जाये।
 चम्पारन का अहुना मटन बहुत प्रसिद्ध है। यह मिट्टीहांडी में कच्चे कोयले( लकड़ी के कोयला) पर धीमी आँच  पर पकाया जाता है। अब ये चम्पारन मीट दूर दूर तक प्रसिद्ध है। इसे बनाने की विधि नेपाल से आई है। पूर्वी चम्पारण के घोड़ाहसन में इसमें कुछ परिवर्तन किया गया। उन्होंने हण्डिया को सील करना शुरू किया। बिना औटाये यह 45 से 50 मिनट में पक जाता है। घोड़ाहसन के अहुना मीट बनाने वालों की पटना और मोतीहारी में काफी मांग है। इसमें तेल मसाले और मटन सब एक साथ हाण्डी में डाल कर उसे गूंधे आटे से सील कर दिया जाता है। बस बीच बीच में हाण्डी को बिना खोले हिला दिया जाता है। मिट्टी की हांडी के कारण ये काफी समय तक गरम रहता है। अंकुरित चाट के खोमचे कहीं भी दिख जाते और गन्ने के रस के ठेले इफरात में थे।   क्रमशः







Friday 21 December 2018

मैंने क्या जुल्म किया आप ख़फा़ हो बैठे Meine Kya Julm Kiya aap khafa ho baithe Neelam Bhagi नीलम भागी

                                                                                               
                                      नीलम भागी
हुआ यूं कि मेरे घर और मार्किट जहाँ हमारी दुकान है वहाँ सड़क के किनारे एक विद्यालय की बाउण्ड्री वॉल है। पुरूष समूह ने दीवार के थोड़े से हिस्से को मू़त्रालय में तब्दील कर दिया था। वहां हमेशा कोई न कोई मूत्र विसर्जन करता रहता था। बहुत चलती हुई सड़क है। जिससे महिलाओं को वहाँ से गुजरने में असुविधा होती थी। बाकि दीवार के साथ साथ अस्थायी दुकाने लग गई हैं। दीवार मूत्रालय के बारे में मैंने कई बार संवाद में लिखा था कि मूत्रगंध के कारण वहाँ से निकलना दुश्वार है। अब एक दिन मैं जब वहाँ से दोपहर को गुजर रही थी तो मूत्रगंध के बजाय कुछ तलने की खूशबू आ रही थी पर उधर  देखने की तो आदत ही नहीं थी इसलिये नहीं देखा। अब रोज  गुजरती तो खाने की महक से वह जगह महकती। कुछ दिन बाद पता चला कि वहाँ परांठे का ठेला, सुबह नौ बजे से तीन बजे तक लग गया है। अगले दिन मैंने देखा कि एक महिला परांठे बना रही है। मंदी आंच पर सिंके लाल परांठे, दो आदमी खा रहें हैं। साथ में बूंदी के रायते का गिलास था। ठेले के एक हिस्से में उनका छ या सात महीने का बच्चा गहरी नींद में सड़क के शोरगुल से बेखबर सो रहा था। उसका सेहतमंद पति स्टूल पर बैठा ग्राहक अटैण्ड कर रहा था। मैं उसी समय समझ गई कि इस महिला के परांठों का स्वाद, ग्राहकों को खींच कर लायेगा। इसका भी एक कारण था। दिल्ली नौएडा सड़क किनारे परांठे वालों को मैंने जब भी परांठे बनाते देखा है। वे तेज आंच पर काले चकत्ते वाले जल्दी जल्दी परांठे बना रहे होते हैं। उनका घी परांठे में कम धूंए में ज्यादा तब्दील होता है। ये महिला राजरानी आसपास की दुनिया से बेख़बर, बड़ी लगन से परांठा सेक रही होती हैं। कुछ दिन बाद उसके पति सेवाराम ने एक लड़का परांठे बेलने के लिए रख दिया। ग्राहक बड़ गये तो राजरानी ने दो तवे लगा लिए पर परांठा उसी प्रीत से सेकती। सेवाराम सेल पर और बेटे राजकुमार का ध्यान रखता। जब मैं उनके ठेले के आगे से निकलती, वे मुझे अभिवादन में ’’दीदी, रामराम जी ’’ कहना नहीं भूलते। अपने बड़े परिवार के सबसे छोटे बच्चे की वॉकर, प्रैम मैं राजकुमार के लिए ले आई। वह बैठा खाने वालों को और काम करते माँ बाप को देखता रहता और खुश होता रहता है। तीन बजते ही सेवाराम हाथ में चार सौ रूपये ताश के पत्तों की तरह पकड़ कर खुशी से कूदता हुआ, हमारी मार्किट में आता है। मैं सोचती कि ये कल के लिये सामान लेने आता है। राजरानी इतनी देर में वहाँ बरतन साफ कर लेती। सफाई कर लेती। क्योंकि उसके बाद उस जगह पर किसी साउथ इंडियन का डोसे का ठेला लगता है। सेवाराम के आते ही ये अपने घर चल पड़ते। एक दिन सेवाराम उसी स्टाइल में नोट पकड़े चला आ रहा था। मैंने दिनेश मकैनिक से पूछा कि ये नोट ऐसे पकड़ कर क्यों आता है? उसने जवाब दिया,’’दीदी, इसको तो पीने को थैली भी नसीब नहीं होती थी, अब परांठे मशहूर हो गये हैं तो ये अंग्रेजी पीता है। इससे अपनी खुशी नहीं संभलती। देखना, ये बोतल हाथ में लेकर सबसे बतियाता, दिखाता आयेगा।’’ हमारे बाजू की दुकान ही तो इंगलिश वाइन शॉप है। वहाँ पीने की मनाही है। वरांडे में हमने टैंपरेरी दीवार लगा रक्खी है। ताकि उस तरफ का कुछ न दिखे। जब मैंने ध्यान दिया, सेवाराम हाथ में बोतल पकड़े दुकान के आगे से गुजरा, मेरी आँखे उसका पीछा करती रहीं। वह बोतल दिखाता, रेड़ी ठेले वालों से दुआ सलाम करता, उनके पास रूक रूक कर जा रहा था। ये देखते ही मेरे दिमाग में कुछ प्रश्न खड़े हो गये हो गये, जिसका जवाब राजरानी ही दे सकती थी पर सेवाराम तो उसके सिर पर हमेशा सवार रहता है। अगले दिन जैसे ही दूर से नोट पकड़े सेवाराम आता दिखा। मैंने जगदीश से कहा,’’दुकान का ध्यान रखना, मैं अभी आई।’’ राजरानी के पास जाकर मैंने उसकी दिनचर्या पूछी, उसने बताया कि लौटते हुए वे कल के लिए सामान खरीद लेते हैं। घर पहुंच कर वह घर के काम निपटाती है। सेवाराम बच्चे को देखता है। मैं जल्दी रात का खाना बना लेती हूं। फिर मैं राजकुमार को संभाल लेती हूं। ये आराम से अपना पीना खाना कर लेते हैं। सुबह मैं जल्दी उठ कर आटा गूदंना, पराठों का मसाला तैयार करना, रायता बनाना करती हूं। तब तक इनका नशा टूट जाता है और ये उठ जाते हैं। इनके लिए चाय नाश्ता तैयार करती हूं। ये तैयार हो जाते हैं फिर मैं राजकुमार की तैयारी करती हूं। मैंने पूछा कि ये दारू क्यों पीता है? जवाब में वह बोली,’’दीदी, इनका दिमाग बहुत थक जाते हैं, पैसे गिनना, परांठे गिनना हिसाब रखना और इनको बहुत टैंशन है।’’मैंने पूछा,’’क्या टैंशन है?’’वो बोली,’’दीदी, फटाफट महीना बीत जाता है। कोठरी का किराया देना पड़ता है। मीटर चलता जाता है, बिजली का बिल बढ़ता जाता है। इनका दिल है राजकुमार को अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाने का, इसकी भी टैंशन।’’वो तो इतनी टैंशन बता रही थी कि मैं उस पर थिसिस लिख सकती थी। दिल तो किया कि इसे कहूं कि तूं भी तो दिन भर खटती है। तूं भी टैंशन की दवा पी लिया कर। पर उसी समय मुझे शौक़ बहराइची की लाइन याद आ गई ’र्बबाद गुलिस्तां करने को बस एक ही उल्लू काफ़ी था’ न जाने कब से सेवा राम पीछे खड़ा हमारी बातें सुन रहा था। उसे देखते ही मैं दुकान पर चल दी। अगले दिन से मैं ठेले के आगे से गुजरी, उन्होंने मुझे रामराम जी करना बंद कर दिया है। मैंने किया तो मुहं फेर लिया। मैं ऐसी क्यूं हूं?  जब पुरानी मार्केट मेंं हलवाई के लिए एलौट दुकान मेंं अंग्रेजी शराब की दुकान खुलेगी, तो यही सब देखने को तो मिलेगा न।   
  बहुमत मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ से एक साथ प्रकाशित समाचार पत्र में यह लेख प्रकाशित हुआ।


Tuesday 18 December 2018

गांधी स्मारक चंद्रहिया, केसरिया का बौध स्तूप, बाबा केशरनाथ महादेव मंदिर, लौरिया नन्दनगढ़,Bihar yatra बिहार यात्रा 5नीलम भागी


चंद्रहिया गांधी उद्यान विशाल भूखंड पर है जिसमें काम चल रहा था। तरह तरह के पेड़ लगे थे। निर्माण के साथ साथ पौधों को देखभाल की भी जरूरत है। वहाँ बकरी भी पौधे खा रही थी। माननीय मुख्यमंत्री श्री नीतीश कुमार जी के पौधे से पत्ते गायब थे। वहाँ एक डण्डी थी। शायद उस पौधे के पत्ते बकरी खा गई होगी। लेकिन माननीय पूर्व उपमुख्यमंत्री श्री तेजस्वी प्रताप यादव जी का पौधा हरे हरे पत्तों के साथ था। जबकी दोनों पौधों के साथ र्बोड लगा हुआ है। बकरी तो जानवर है उसे क्या कह सकते हैं। हम अब बहुत सुन्दर रास्ते से केसरिया की ओर चल पड़े। जो मोतिहारी से 35 किलोमीटर दूर साहेब चकिया र्माग पर लाल छपरा चौक पर केसरिया में बौद्ध स्तूप स्थित है। 1998 में पुरातत्ववेता के अनुसार यह बौद्ध स्तूप दुनिया का सबसे ऊँचा स्तूप है। यह पटना से 120 किमी और वैशाली से 30 किमी दूर है। उनके अनुमान के द्वारा से मूल रूप से इसकी ऊँचाई 150 फीट थी। 1934 में आये भूकंप से 123 फीट है। भारतीय पुरातत्व के अनुसार यह विश्व का सबसे ऊँचा बौद्ध स्तूप है। जो 14000 फीट में फैला है।
जावा का बोरेबुदूर स्तूप 103 फीट है। जबकि  केसरिया 104 फीट है। दोनों ही स्तूप छह तल्ले वाला है। विश्व धरोवर में शामिल सांची के स्तूप की 77.50 फीट ऊँचाई है।  दुनियाभर के पर्यटक यहाँ आते हैं।भगवान बुद्ध जब महापरिनिर्वाण ग्रहण करने कुशीनगर जा रहे थे। तो वे एक दिन के लिए केसरिया ठहरे थे। जिस स्थान पर वे ठहरे थे। उसी स्थान पर कुछ समय बाद सम्राट अशोक ने इस स्तूप का निर्माण करवाया था।
  बाबा केशरनाथ महादेव मंदिर भी पूर्वी चंपारण में स्थित है। यह शिवलिंग 1969ई0 में नहर की खुदाई के दौरान मिला था। श्रावण मास के सोमवार और शुक्रवार को यहाँ मेला लगता है। नेपाल से भी बड़ी संख्या में लोग पूजा अर्चना करने यहाँ आते हैं।
लौरिया गाँव जो अरेराजा अनुमंडल में स्तंभ है। वह 36.5 फीट ऊँचा स्तंभ है। जो बलूआ पत्थर से बना है। कहते हैं 249 ईसा पूर्व सम्राट अशोक ने इसे बनवाया था। इस पर सम्राट अशोक ने अपने छह आदेश लिखवायें हैं। आधार का व्यास 41.8 इंच है और शिखर का 37.6 इंच, जमीन से वजन लगभग 34 टन है। और कुल वजन 40 टन है। इन सब स्थानों पर जाने के रास्ते हरियाली से भरे हुए हैं। सड़क के दोनो ओर छाया दार पेड हैं और अच्छी बन रही सड़कें हैं। जिससे इन स्थानों पर जाना बहुत अच्छा लग रहा था।़









Monday 17 December 2018

नर्सिंग रुम और चेंजिंग स्टेशन की खोज Nursing room aur Changing station ke khoj नीलम भागी

नर्सिंग रुम और चेंजिंग स्टेशन की खोज
नीलम भागी
    इतने बड़े मॉल में चुम्मू और गीता के सामान की खरीदारी के लिए हम घूम रहे थे। खूब भीड़ थी। इतने में चुम्मू ने पू कर दी। मैं उसकी नैपी बदलने के लिए चेंजिंग स्टेशन ढूँढ रहा था, जो कहीं नहीं मिल रहा था। लेडीज,़ जैंट्स टॉयलेट थे पर बच्चों के बारे में किसी ने सोचा ही नहीं। जब बच्चों का सामान बिकता है, तो उनकी  नैपी बदलने की जगह भी तो होनी चाहिए। पू की बदबू के कारण नैपी तो तुरंत बदलनी थी न। पी पी से नैपी गीली होती और र्दुगंध नहीं होती, इसलिए थोड़ा इंतजार भी कर लेता। पर अब तो मजबूरी थी। जिन पाठकों के बच्चे छोटे हैं, उनके सामने भी मेरी तरह, इस तरह की परेशानी आई होगी। मैं तो चुम्मू के बैग में उसका पैड भी लेकर गया था क्योंकि बच्चों का कोई भरोसा नहीं कब पू कर दें। तो मैं पैड पर लिटा कर उसकी नैपी ठीक तरह से बदल सकूँ। पर पैड कहाँ बिछा कर चुम्मू को लिटाऊँ और उसकी नैपी बदलूं? समस्या तो ये थी न! उसके लिए चेंजिंग स्टेशन तो होना ही चाहिए। अभी एक समस्या तो खत्म हुई नहीं, दुसरी शुरु, गीता को भूख लग गई। श्रीमती जी गीता को फीड कराने नर्सिंग रुम की खोज में चल दी।
     काफी खोजबीन के बाद पता चला कि लेडिज़ टॉयलेट में ही चेजिंग स्टेशन है। इस जानकारी के बाद मुझे बहुत गुस्सा आया कि जैंनट्स टॉयलेट में चेंजिंग स्टेशन क्यों नहीं है?  या जैसे लेडीज़ और जैंट्स टॉयलेट बनाये हैं, वैसे ही एक बच्चे के लिए चेंजिंग स्टेशन बनाना चाहिए। जिसमें मम्मी ,पापा कोई भी जाकर बच्चे की नैपी बदल दे। जब हम घर में बच्चे की नैपी बदलते हैं, तो बाहर क्यों नहीं बदल सकते? किसी ने बताया कि लेडिज़ टॉयलेट में चेंजिंग बोर्ड लगा हुआ है। चुम्मू को गोद में लेकर मैं लेडिज़ टॉयलेट में जाने लगा, तो महिलाएँ कोरस में दहाड़ी,’’ ये लेडिज़ टॉयलेट है। ये लेडिज टॉयलेट है।’’ मैंने उन्हें शान्ति से अपनी समस्या बताई। उन्होंने  मुझे चुम्मू की नैपी बदलने की परमीशन दे दी। मैंने र्बोड पर पैड बिछाया। उस पर चुम्मू को लिटाया और सधे हुए हाथों से उसे साफ करने का काम कर रहा था। तो, मुझे एक बात समझ नहीं आई। जितनी देर मैं चुम्मू को साफ करता रहा और उसकी नैपी बदलने का काम करता रहा , उस समय जो भी महिला आ रही थी या जा रही थी। उसे मुझे देखकर  हंसी बहुत आ रही थी। बताइए भला, इसमें हंसने की क्या बात है?

Sunday 16 December 2018

लाइन में लगना तो मेरी इगो के रिवर्स है Line mein lagna meri ego k reverse hai Neelam Bhagi नीलम भागी

 लाइन में लगना तो मेरी इगो के रिवर्स है Line mein lagna to meri ego k Reverse hai
                                                 नीलम भागी                आप अगर मेरे चेहरे को ध्यान से देखेंगे, तो उस पर ये फिल्मी डॉयलाग कहीं भी फिट नहीं होता कि ’हम जहाँ पर खड़े होते हैं, लाइन वहीं से शुरू होती है।़’ क्योंकि मुझे लगता है कि मैं एक बहुत समझदार महिला हूँ और मेरी सारी समझदारी इसमें लगी रहती है कि मैं कैसी तरकीब लगाऊँगी कि मेरा काम भी बन जाये और मुझे लाइन में भी न लगना पड़े। मसलन जैसे मैं किसी काम से गई, वहाँ लंबी छोटी जैसी भी लाइन हो सबसे पहले मैं लाइन में लगती हूँ जब मेरे पीछे लाइन में कोई लग जाता है तो मैं अपने आगे वाले से कहती हूँ कि ’एक्सक्यूज मी, आपके पीछे मेरा नंबर है, और पीछे वाले से कहती हूँ कि आपसे पहले मेरा नंबर है, मैं अभी आती हूँ। सुनते ही दोनों कोरस में बोलते हैं कोई बात नहीं। अब मैं चल देती हूँ, अपने आगे लगे लोगो का मुआइना करने और बेमतलब बोलने कि लाइन तो लम्बी है पर नंबर सब का आ जायेगा। आगे अगर कोई पहचान का दिख जाये तो उससे बातें करते, चलने लगती हूँ। खड़ी मैं ऐसे होती हूँ कि काउंटर पर काम करने वाला, काम से जब भी नज़र उठाये, उसे मैं दिखूँ। इसका एक फायदा है कि वो मुझे लाइन में लगा समझेगा। अब मैं खिड़की के पास खड़ी होकर दिशा निर्देश देने लगती हूँ।’लाइन सीधी रखिए, बीच में मत लगिये, सबका नम्बर आयेगा आदि आदि।’ और पता नहीं कब मेरा हाथ खिड़की में चला जाता है और मेरा काम हो जाता है। जब मैं अपनी इस कोशिश में कामयाब होती हूँ ,तो उस समय मेरे चेहरे पर जो चमक आती है, वो देखने लायक होती है मुझे ऐसा लगता है। ऐसा मैं इसलिये महसूस करती हूँ क्योंकि अपनी इस फतह से मेरे अंदर जितनी खुशी होती है, उसी अनुपात में Utkarshini उत्कर्षिनी के चेहरे पर क्रोध होता है, वह मुझे घूर रही होती है और सभ्य लोगों की तरह लाइन में लगी रहती है। लगी रहे मेरी बला से।
  आज मेरा हृदय परिवर्तन हो गया है। हुआ यूं कि हांग कांग में बिग बुद्धा के दर्शन के लिये केबल कार में जाने के लिये 3 घण्टे लाइन में लगी। दुनिया भर से सैलानी आये थे। हर उम्र के लोग चुपचाप लाइन में लगे थे। गीता को हमने प्रैम में बिठा रक्खा था। जब बूढ़े भी खूबसूरत स्टिक के सहारे खड़े देखे, तो मैं भी खड़ी रही। लौटते समय ढाई घण्टे में नंबर आ रहा था रात हो गई थी केबल कार खाली आ रही थी शायद इसलिये। कोई भी लाइन से निकलता कॉफी पी आता और आकर अपनी जगह लग जाता। ठण्ड से हॉल में डोरियाँ बंध गई सब उसमें चल रहे थे दूर से देखने में भीड़ थी पर थी, अनुशाषित लाइन। कहते हैं कि आदत तो चिता के साथ ही जाती है पर मेरी ये आदत पहले ही चली गई। पता नहीं परदेश के कारण या आने जाने के कुल साढ़े पाँच घण्टे लाइन में लगने से और जहाँ भी गई लाइन में लगी। यहाँ तक कि टैक्सी स्टैण्ड में भी टैक्सी के लिए भी लाइन में लगी। वहाँ कोई भी लाइन तोड़ने की गलती नहीं करता। वहाँ मैं अपनी बुरी आदत को अब छोड़ आई हूँ।     

Monday 10 December 2018

गरीब आदमी के लिए लड़ाई Garib Aadmi K Liye Ladai नीलम भागी

 गरीब आदमी के लिए लड़ाई Garib aadmi k liye ladai
नीलम भागी

अपना स्टॉप आने से पहले मैं बस की सीट छोड़ कर उतरने के लिए खड़ी हो गई। मेरे आगे सिर्फ एक सवारी थी। बस रुकते ही आगे वाला आदमी बस के गेट से एक सीढ़ी ही उतरा, शायद इरादा बदलने से वैसे ही बैक गियर लगा, कर बस में चढ़ा। उसके जूते की एड़ी से मेरे पैर का अंगूठा दब गया। उस सवारी ने पीछे मुड़ कर देखा, सॉरी बोला, मुझे रास्ता दिया। भयानक र्दद सहती, मैं बस से उतरी। बस स्टैण्ड की सीट पर बैठ कर पैर का मुआयना किया। उस पर से सवारी के जूते की लगी गन्दगी को रुमाल से साफ किया। र्दद ज्यादा था, लेकिन ज़ख्म मामूली सा था, जो ध्यान से देखने पर ही दिखाई देता था। शाम तक वह भी दिखना बंद हो गया। अब अंगूठा दबाने पर ही र्दद होता था। कुछ दिन बाद नाखून के नीचे पस पड़ गई। डॉक्टर को दिखाया, उसने दवा दी मैंने खाई। दवा का कोर्स ख़त्म और अंगूठा भी ठीक हो गया। अब कुछ दिन बाद फिर से अंगूठे में र्दद शुरु हो गया। मैं फिर से डॉक्टर के पास गई। उसने फिर दवा का कोर्स लिखा। मैंने खाया, अंगूठा ठीक हो गया। कुछ दिनों बाद फिर अंगूठा पक गया। अब मैंने दूसरे डॉक्टर को दिखाया उसने भी दवा दी, मैंने खायी फिर अंगूठा ठीक हो गया। दवा बंद करने के कुछ दिन बाद अंगूठा फिर पक गया। यह सिलसिला तीन महीने तक चला। अब मैंने डॉक्टर बदलना बंद कर दिया। दवा खा-खाकर, र्दद से मैं तंग आ गई थी। डॉक्टर ने मुझे कहा,’’ नाखून निकलवाना होगा। कब की डेट दूँ?’’मैंने जवाब दिया,’’कल।’’
 
   अगले दिन ऑपरेशन हो गया। छुट्टी मिलते ही, अंजना को बाहर कोई भी ऑटो, टैक्सी नहीं मिली। वह मैनुअल रिक्शा ले आई। रिक्शा पर बैठने से पहले, मैंने रिक्शावाले को ध्यान से और धीरे रिक्शा चलाने की नसीहत दी। उसने भी गर्दन हिला कर हामी भरी कि वह मेरी नसीहत का पालन करेगा। अब मैं रिक्शा पर बैठ गई। मेरा ध्यान पैर पर था। कुछ दूरी पर दो लड़के, खड़ी बाइक के पास बतिया रहे थे। खड़ी बाइक से हमारी रिक्शा टकराई। बाइक वाला चिल्लाया, ’’देख कर नहीं चला सकता, खड़ी बाइक पर टक्कर मार दी।’’मैं उससे भी जोर से अपने पैर पर बँधी पट्टी दिखा कर, उस पर चिल्लाई कि तुमने घर से बाहर बाइक क्यों खड़ी की? वे चुप हो गये। रिक्शावाला चुप रहा। वह तो गलती कर ही नहीं सकता था क्योंकि उसको तो मैं नसीहत दे ही चुकी थी।
   घर के रास्ते में जितनी भी लाल बत्ती आई। प्रत्येक लाल बत्ती पर, लाल बत्ती होने पर, हमारा रिक्शा जे़ब्रा क्रॉसिंग से आगे ही होता। जैसे ही रिक्शा रुकती, दूसरी ओर की गाड़ियाँ रिक्शा को लगभग छूती हुई निकलती और मैं 3 महीने और उस दिन के भोगे हुए कष्ट के कारण, गाड़ी वालों को कोसती जा रही थी। जब तक रिक्शावाला उतर कर रिक्शा पीछे करता, उसके पीछे वाहनों की लाइन लगी होती। अब हरी बत्ती का इन्तजार, ऊपर वाले का जाप करते हुए और अपने पैर को देखते हुए गुजारती। लेकिन दिमाग में डॉ. की कही बात घूमती कि नया नाखून आने में एक महीना लगेगा। उस समय दिमाग में एक ही प्रश्न उठ खड़ा होता कि अगर किसी वाहन से टकराकर रिक्शा पलट गई तो मेरे पैर का क्या होगा?
    अपने ब्लॉक में रिक्शा पहुँचा, मुझे सकून आया। मेरे घर का न0 24 है। अपने गेट से पहले ही, मैं चिल्लायी,’’रोको  भइया, रोको।’’रिक्शा रुका, मगर न0 30 पर। रिक्शावाला कूद कर उतरा, पैदल खींचते हुए रिक्शा मेरे गेट के अन्दर लाया। मैंने पूछा,’’तुम्हें यहाँ रोकने को कहा, तुम रिक्शा वहाँ क्यों ले गये?’’ उसने जवाब दिया,’’इसमें हमारा कौनों कसूर नाहिं, रिस्का का बिरेक फैल है।’’ मैंने पूछा कि तुम ब्रेक ठीक क्यों नहीं करवाते। उसने शांति से जवाब दिया,’’जब सवारी ढोने से र्फुसत मिलेगी, जभी तो ठीक करवाऊँगा न।’’वो तो पैसे लेकर ये जा वो जा। और मैं उस गरीब आदमी के लिये सबसे लड़ती आई। 

Tuesday 4 December 2018

चंद्रहिया, चंपारण सत्याग्रह, यहाँ गांधी जी सबके प्रिय बापू कहलाये Bihar Yatra बिहार यात्रा भाग 4 नीलम भागी


धुंध के कारण रास्ते की तस्वीरें साफ नहीं आ रहीं थीं। यह देख कर और उन दिनों दिल्ली और नोएडा में हवा में पॉल्यूशन का स्तर बहुत बढ़ने से दोपहर तक फॉग रहता था। यहाँ धुंध देख कर और अभी तो सर्दी दस्तक ही दे रही थी। मैंने ड्राइवर साहेब से सुबह के सवा नौ बजे पूछा कि यहाँ भी धुंध रहती है! ड्राहवर साहेब बोले,’’ऐसे ही कोहरा है, कुछ ही देर में फ्रेश हो जायेंगे।’’ अच्छी बनी सड़क पर जिसके दोनो ओर दूर तक हरियाली ही दिख रही थी। साइड रोड पर अंदर चंद्रहिया गाँव में चंद्रिहया गाँधी स्मारक है। अभी 15 अप्रैल 1917 को जब बापू मोतिहारी पहुँचे तो उसी रात को उन्हें पता चला कि गाँव जसौली पटटी में किसानों पर बहुत अत्याचार किया जा रहा है। जिसका कारण नील की खेती था। बेतिया राज पतन पर था। अंग्रेजों ने उनसे पट्टे पर जमीन लेकर नील की खेती करवानी शुरू कर दी। मजदूरों को न के बराबर मजदूरी देते थे। एक बीघे में तीन कट्टे नील की खेती करना जरूरी था यानि तिनकटिया मतलब पंद्रहा प्रतिशत भूमि। अपनी जमीन पर अपनी मरजी से फसल भी नहीं पैदा कर सकते थे। बाबू लोमराज सिंह जसौला पट्टी के जमींदार थे। जगीरहां कोठी के जमादार थे। किसानों पर नीलहों के अत्याचार के कारण उन्होंने निल्हों की नौकरी को लात मार दी। अपने अदम्य साहस और जुझारूपन के गुणों कारण उन्होंने वहाँ किसानों को निल्हों के खिलाफ इक्ट्ठा करना शुरू किया। तिरकोलिया और पिपराकोठी में भी पीड़ितों को जोड़ा। ये काम आसान नहीं था। कोटक गांव के मिठुआवर के पास एक बड़ी सभा करने में वे कामयाब रहे। वे लगभग सात सौ किसानों के हस्ताक्षर  इस विरोध के लिए ले चुके थे। जसौली पट्टी में सत्याग्रह का बीजारोपण हो चुका था। इस काम को मुकाम तक पहुँचाना, उनके लिये आसान नहीं था। अंग्रेज साहब मि0 एमन के दमन के शिकार पं0राजकुमार शुक्ल ने भी विरोध का झंडा उठा लिया तो उसमें बाबू लोमराज की सिंह की शक्ति भी जुड़ गई। वकील बाबू गोरख प्रसाद की सलाह भी इसमें शामिल हो गई। गोरखप्रसाद जी ने इन्हें और इनके साथियों को बापू के द्वारा दक्षिण अफ्रीका में उनके द्वारा किए गये कार्यों को बताया और कहा कि अगर बापू आ जाये तो इस दमन, शोषण के विरूद्ध हमने जो शुरूवात की है। उसमें हमारी सफलता  निश्चित है। राजकुमार शुक्ला ऐसे समय बापू को लेकर आये। नामी वकीलों के साथ और गोरख प्रसाद जी, बाबू रामनवमी प्रसाद, धरनी बाबू के साथ वे हाथी पर बैठ कर जसौला पट्टी की ओर चल पड़े। चंद्रहिया पर यहाँ उन्हें अंग्रेज दरोगा ने गांधी जी को चंपारण  कलेक्टर डब्लू बी हेकॉक का नोटिस दिया। जिसमें कहा गया कि वो चंपारण छोड़ दें। गांधी जी ने कहा कि मैं सत्य को जाने बिना यहाँ से नहीं जाउँगा। उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें वापिस मोतिहारी लाया गया। अगले दिन उन्हें अदालत में पेश किया गया। बाबू लोमराज सिंह की लोकप्रियता और जनशक्ति  इस कदर थी कि उनके साथ 10 हजार लोगों  की भीड़  थाने जेल और कचहरी के सामने जमा हो गई। सरकार ने बापू को छोड़ने का आदेश दिया। बापू ने कानून के अनुसार अपने लिये सजा की माँग की। गांधी जी ने इसके खिलाफ एसडी एम की अदालत में कानूनी लड़ाई, सत्य के आधार पर लड़ी। एक साल यह सत्याग्रह चला। किसानों के हक में डॉ0 अनुग्रह नारायण सिन्हा, बाबू राजेन्द्र प्रसाद, रामनवमी प्रसाद, आचार्य जे. बी. कृपलानी, महादेव देसाई, नरहरि पारीख सत्याग्रह के साथ वहाँ के लोगो में आत्मविश्वास जगाते, उनको साफ सफाई का महत्व समझाते हुए, उनको शिक्षित करने के लिये योजनायें बनाने लगे। संत राउत ने यहाँ गांधी जी को बापू कहा। वे यहाँ सबके बापू हो गये। क्रमशः


Monday 26 November 2018

इन कुत्तों का तो नामकरण भी नहीं हुआ था!! नीलम भागी

इन कुत्तों का नामकरण भी नहीं हुआ था!!
                                                नीलम भागी
     मेरे ब्लॉक के तीन कुत्ते मेन गेट पर घुसते ही सब का स्वागत करने के लिए हमेशा तैयार रहते थे। अगर आप पैदल हैं तो आपको काट कर स्वागत करेंगे। कार में हैं तो कार के पीछे दौड़ते आयेंगे जिस घर के आगे आपकी गाड़ी खड़ी होगी, वहाँ वे खड़े होकर आपके निकलने का इंतजार करेंगे ताकि वे आपको काटें। टू विलर वालों को वो देख कर बहुत खुश होते थे। वे टाँग पकड़ने के लिए वे साथ साथ भागने लगते थे। गार्ड उन्हें डांटता था, तो वे पार्क में जा कर चुपचाप बैठ जाते थे। अकेला कोई पार्क में जाये तो उसे काट लेते थे। हमारे घरों में डण्डी रहती थी। जाते हुए हम ले जाते थे और गार्ड के पास रख देते थे। लौटते हुए गार्ड के पास से छड़ी उठा लेते थे। अगर आपका गेट खुला रह गया तो ये एक एक चप्पल उठा कर पार्क में ले जाते थे और उसके टुकड़े टुकड़े कर देते थे। जूता जोड़े से नहीं, जो इनका दिल करेगा यानि आपके तीन जोड़े खराब। गाड़ी पर रात को यदि आपने कवर चढ़ा दिया तो सुबह वो चिथड़ों में तब्दील मिलेगा। बाइयों का कहना है कि ये पचास लोगो को काट चुके हैं। मेरी दोनो मेड को ये काट चुके थे। इनकी वजह से हमारे ब्लॉक में बाइयों को असाधारण दुलार मिलता है क्योंकि अगर वो काम छोड़ देगी तो दूसरी बाई से काम की बात करो तो उसका जवाब होता ’’कुत्तों के ब्लॉक में मैं काम नहीं करेगी।’’नवरात्र में हमारे ब्लॉक में बाजपेयी परिवार ने कीर्तन का आयोजन किया तो महिलाओं को कहा गया कि हाथ में डण्डी लेकर आयें। रावण के पुतले को दशहरे तक इन कुत्तों से बचाना, बच्चों के लिये आसान न था!                                   
      पार्क में रावण का पुतला एक बजे खड़ा कर दिया था। उसके बराबर में स्टूल पर हाथ में डण्डा पकड़े एक लड़का धूप में बैठा था। तीन लड़के पेड़ की छाया में डण्डे लिये बैंच पर बैठे थे। धूप में बैठने की शिफ्ट बदलती रहती थी। यह देख मेरे मन में एक प्रश्न बार बार उठ खड़ा हो रहा था। भला 12 फुट के रावण को कौन चुरायेगा! मैं चल दी पूछने। जाने पर पता चला कि वे रावण के पुतले को कुत्तों से बचाने के लिये रखवाली कर रहें थे। यहाँ के कुत्ते गाड़ी का कवर फाड़ देते हैं। इसलिये वे रावण को भी फाड़ने की फिराक में थे। ये रावण बच्चों की कड़ी मेहनत से तैयार हुआ था। रावण दहन तो सायं 7.30 था। सर्दी आ गई। आंगन में पेड़ छायें हुए हैं। मैं धूप के कारण पेड़ नहीं छटवाना चाहती। कारण धूप तो सिर्फ दो महीने सेकी जाती है। गर्मी आठ महीने झेलनी पड़ती है। 93 साल की अम्मा को धूप चाहिए। सामने पार्क में कुत्तों की वजह से नहीं बिठा सकती थी। कई बार इन्हें पकड़ने वाले आये। इन्होंने छिपने के ठिकाने ढूंढ रखें थे। रैंप के नीचे नाली में छिप कर बैठ जाते थे। वे थक कर चले जाते तो उनके जाने के बाद निकल कर उत्पात मचाते। हाई जम्प में ये बेमिसाल थे। जिनकी बाउण्ड्री वॉल पर ग्रिल नहीं है। कुत्ते पकड़ने की गाड़ी देखते ही ये उन घरों में कूद जाते और छत पर छिप कर बैठ जाते। मैंने एक छोटा सा मिट्टी का बर्तन गेट से बाहर जानवरों के पानी पीने के लिये रक्खा है। एक दिन बहुत गर्मी थी। मुझे लगा बाहर कोई गेट खोलने की कोशिश कर रहा है। मैं बाहर आई देखा ये गेट से अपने को रगड़ रहें हैं। मुझे देखते ही चुपचाप खड़े होकर, मुझे देखने लगे। मैंने देखा बर्तन में पानी खत्म हो गया था। मुझे न जाने क्या सूझा मैंने बर्फ का ठंडा पानी बनाया। पानी के बर्तन में बर्फ का टुकड़ा डाला और उसमें गेट के अंदर से ही एक गिलास पानी डाला। मैं पानी डालती गई तीनों ने क्रम से पानी पिया। शाम को मैं किसी काम से बाहर जाने लगी, ये मुझे देखते ही पार्क में चले गये। मैंने भी डण्डी फैंक दी। जब बाहर से लौटी फिर ये मुझे देखते ही पार्क में चले गये। बड़ी मेहनत से ये पकड़े गये। इनसे पहले ब्लॉक के कुत्तो के नाम उनके रंग के अनुसार होते थे जैसे कालू, भूरे, चिंकी आदि। ये इतने दुष्ट थे कि किसी ने इनका नाम भी नहीं रक्खा था। इन्हें कुत्ते नाम से ही पुकारा गया। इनके जाने से सभी प्रसन्न थे। कुछ दिनों बाद ये बिल्कुल शरीफ़ होकर लौटे हैं। काटने की आदत भी छोड़ आए हैं।

Thursday 22 November 2018

mainaisikyunhoon: बेल्ट की कौनू आवश्यकता नहीं है यहाँ! चरखा पार्क, ब...

mainaisikyunhoon: बेल्ट की कौनू आवश्यकता नहीं है यहाँ! चरखा पार्क, ब...: बेल्ट की कौनू आवश्यकता नहीं है यहाँ! चरखा पार्क बापूधाम मोतीहारी Bihar yatra बिहार यात्रा 3                                     नीलम भागी मोतीहारी...

बेल्ट की कौनू आवश्यकता नहीं है यहाँ! चरखा पार्क, बापूधाम मोतीहारी,Bihar Yatra बिहार यात्रा 3 नीलम भागी

बेल्ट की कौनू आवश्यकता नहीं है यहाँ! चरखा पार्क बापूधाम मोतीहारी  बिहार यात्रा 3
                                    नीलम भागी
मोतीहारी स्टेशन पर कदम रखते ही दीवारों पर बापू और उस समय चम्पारण सत्याग्रह 1917 में उनके मार्गदर्शन में किए गये कार्यो को दर्शाते चित्र, पेंटिंग, मूर्तियां देख कर मेरी मन स्थिति वैसी ही हो गई, जैसी साबरमती आश्रम में जाने पर हुई थी यानि बापूमय। स्टेशन पर गंदगी बिल्कुल नहीं थी। 15 अप्रैल 1917 को बापू यहाँ पर आये थे तो युवा थे इसलिये अधिकतर इन चित्रों में वे युवा हैं। स्टेशन से बाहर उस समय का रेल के डिब्बे का दृश्य है, जिस वेश भूषा में वे आये थे, वैसी ही बापू की मूर्ति पर पोशाक दर्शाई गई है। गैस्ट हाउस जाने के लिए गाड़ी पर बैठते ही मैं सीट बैल्ट लगाने लगी। तो ड्राइवर साहेब भीम सिंह बोले,’’ बेल्ट की कौनू आवश्यकता नहीं है यहाँ! ’’मैंने पूछा ,’’ यहाँ सीट बैल्ट न बांधने पर जुर्माना नहीं है।’’ उसने जबाब दिया कि कुछ नहीं होगा। सायं 4.30 हम गैस्ट हाउस पहुंचे वहाँ खाना तैयार था। खाते ही अपने कमरे में जाकर थोड़ा आराम किया और चाय पी कर हम गांधी स्मारक संग्रहालय गये। वहाँ श्री बृजकिशोर जी पूर्व स्वास्थ्य मंत्री बिहार सरकार , सचिव गांधी स्मारक संग्रहालय से भेंट हुई। मैंने उन्हें अपना परिचय दिया। सुनकर गांधी विचारधारा के वे वयोवृद्ध सज्जन बोल,"मुझे तो तुम कस्तूरबा लग रही हो ।" सुनकर मेरा गला भर गया। बा जैसा असाधारण व्यक्तित्व !! अंधेरा हो गया था। उन्होंने किसी के साथ हमें चरखा र्पाक देखने भेजा और उन्होंने उससे कहा कि इन्हें लाइट जला कर अच्छे से दिखाना। वो हमें छोड़ कर आ गया। शायद उसकी ड्यूटी ऑफ हुए काफी समय हो चुका था इसलिये। यहाँ के चौराहे को भी चरखा चौराहा कहते हैं। यहाँ के गेट पर बाहर हाइ मास्ट लाइट लगी थी। उसकी रोशनी में सब दिख रहा था। बस तस्वीरें साफ नहीं आ रहीं थी। पत्थरों पर बा और बापू की तस्वीरें उभारी गईं थी। ऊँचाई पर एक बहुत बड़ा चरखा है। खादी कमीशन द्वारा यह विशाल चरखा लगाया गया है। बैठने के लिये भी स्थान है। इन पत्थरों पर सत्याग्रह के समय के दृश्य भी दर्शाए गए थे। काफी समय हमने चरखा पार्क में बिताया। मुझे तो यहाँ फिर से दिन की रोशनी में संग्रहालय देखने आना था फिर हम गैस्ट हाउस लौटे। रास्ते में दुर्गा विसर्जन का भी जुलूस दिखा.आते ही मैं सो गई। सुबह नौ बजे हमें चम्पारण बापू की  कर्मभूमि को देखने के लिए निकलना था। नाश्ता करके हम सुबह नौ बजे निकले। हमारे गाइड थे अभिषेक। चम्पा के पेड़ों के आरण्य से इस जगह का नाम चम्पारण है। सड़क के दोनो ओर पेड़ ,बागमती, गंडक नदियों के कारण यहाँ की भूमि बहुत उपजाऊ है। पूर्वी चंपारण की सीमा नेपाल से मिलती है। उत्तम कोटि के बासमती चावल और गन्ने की उपज के कारण यह जिला  मशहूर है। शायद इसलिये यहाँ जनसंख्या का घनत्व भी सबसे अधिक है। हर जगह घनी हरियाली देखने को मिल रही थी। पौराणिक दृष्टि से भी यह जगह पवित्र है। भक्त ध्रुव ने यहाँ घोर तपस्या कर ज्ञान प्राप्त किया था। देवी सीता की शरणस्थली भी यहाँ की पवित्र भूमि है। राजा जनक के समय यह मिथिला प्रदेश का अंग था। भगवान बुद्ध ने भी यहाँ उपदेश दिया था। भारत में बापू का स्वतंत्रता संग्राम का पहला सफल सत्याग्रह भी चंपारण सत्याग्रह है। इतनी उपजाऊ भूमि के किसान नील की तीन कठिया खेती के कारण बेहाल थे। राज कुमार शुक्ल ने गांधी जी को यहाँ की स्थिति से अवगत करवाया और उनसे चम्पारण चलने का आग्रह किया। पूरी जानकारी प्राप्त कर बापू 10 अप्रैल 1917 को कलकत्ता से पटना होते हुए बापू मुजफ्फरपुर पहुँचे थे फिर बापूधाम। अपने सत्याग्रह के बल पर यहाँ के किसानों को तीनकठिया से मुक्ति दिलाई। आज मैं भी इस हरीतमा पवित्रभूमि पर हूँ। मेरे दिमाग मेंं वही प्रश्न फिर खड़ा हो गया कि ऐसी भूमि के लोग प्रवासी क्यों हैं?








Thursday 15 November 2018

हम अपने बच्चे को वह सब देंगे जो हमें.... नीलम भागी Neelam Bhagi नीलम भागी E se Imali E se EEkh


 
हम अपने बच्चों को वो सब देंगे जो हमें नहीं मिला है। ये लाइने मुझे अकसर सुनने को मिलती हैं। अपने आस पास के समाज को देखती हूँ तो मुझे माँ बाप संतान को हैसियत से ज्यादा देते हुए ही दिखते हैं। हमें भी हमारे अम्मा पिता जी ने दिया है और उन्हें भी उनके माँ बाप ने दिया होगा। ये इनसान की फितरत में शामिल है कि औलाद के भविष्य को बनाने के लिए आस पास की दुनिया से बेखबर होकर जुट जाना। सभी चाहते हैं कि उसकी संतान उससे कई सोपान ऊपर हो। झुग्गी झोपड़ी के अनपढ़ लोगो के बच्चों को मैंने पच्चीस साल पढ़ाया। मैंने देखा जिसने भी अपने बच्चे को स्कूल भेजना बंद किया, उसका मुख्य कारण आर्थिक ही था। पापा की फैक्टरी में ताला बंदी हो गई. खायें कहाँ से? गाँव वापिस लौटना मजबूरी है। बाइयों को अगर किसी के घर से फल या मिठाई मिलती, वह स्वयं न खाकर, स्कूल के आसपास मंडराती रहती किसी बच्चे को देखते ही इशारे से बुला कर, ,खाने का सामान अपने बच्चे के लिए भिजवाती। सबसे ज्यादा मैं उन बाइयों का सम्मान करती जो झाड़ू, पोचा बर्तन करने के लिए अपनी बच्चियों को साथ न ले जाकर उन्हें पढ़ने भेजतीं क्योंकि वे भी अपनी बच्चियों को अपनी मैडम की तरह देखना चाहती थीं। इतने सालो में सिर्फ एक बच्चा ओबीराम को मैं आज तक नहीं भूली, पढ़ने का बेहद शौकीन, हैण्डराइटिंग उसकी बहुत ही सुंदर!ने स्कूल आना बंद कर दिया। मैंने उसके साथी बच्चों से स्कूल न आने का कारण पूछा, उन्होंने बताया कि वह पॉलिथिन बिनने जाने लगा है। घर का पता तो इनका यही होता था आठ, नौ, पाँच सेक्टर झुग्गी और पिता का नाम। मैंने उसके पड़ोसियों  से उसके माता पिता को बात करने के लिए बुलवाया। पता चला कि वे झुग्गी बेच कर कहीं और चले गए हैं क्योंकि उसका पिता मंहगा नशा करता है इसलिये ओबीराम का पन्नी बिनना बहुत जरूरी है। एक मशहूर टी.वी. शो में बाल दिवस के कारण सप्ताह बच्चों के लिए रखा गया। एक बच्चे से पहला प्रश्न पूछा गया कि इनमें से किसका स्वाद खट्टा मीठा है। चार विकल्प थे जिसमें इमली भी था। मेधावी बच्चे को नहीं पता था। उसने लाइफ लाइन का ऑडियंस के लिए इस्तेमाल किया। ऑडियंस भी बच्चे थे। 99 से ज्यादा प्रतिशत बच्चों का उत्तर था इमली। यह सुन कर एंकर भी बहुत हैरान हुए, जब बच्चे ने कहा कि उसने कभी इमली को देखा ही नहीं। एंकर ने शो में कई बार उस लायक बच्चे को कहा कि घर जाकर इमली जरूर  खाना। किसी भी प्रश्न का वह तुरंत जवाब देता। जब उससे गुलिवर की यात्रा का साधारण प्रश्न पूछा, उसने लाइफ लाइन का इस्तेमाल किया। यानि माता पिता ने उसे असाधारण बनाने के लिए साधारण से दूर रक्खा। शायद शुरू के चार या पाँच प्रश्नों में सबसे सरल दो प्रश्नों में वह दो लाइफ लाइन इस्तेमाल कर चुका था। अगर उस बच्चे से सरल की जगह मुश्किल प्रश्न पूछे जाते तो वह निश्चय ही जवाब देता। जिस व्यंजन में इमली जो स्वाद देगी, वो अमचूर या अनारदाने का पाउडर नहीं देगा। मैं, अनिल, अंजना भाई बहन मेरठ मेंं के. वी. डोगरा लाइनस में पढ़ते थे। हम सबके दोस्त एक ग्रुप में पैदल घर से स्कूल आते जाते थे। कैंट एरिया है। आज की तरह स्कूल का गेट अलग नहीं था। कहीं से भी आते जाते थे। इमली, कैथा, अमरक, अमरूद, जामुन, चिलबिल, जंगल जलेबी, बेल पत्थर, अमरक न जाने क्या क्या जो भी उस एरिया में पेड़ होते उसके फल तोड़ना अपना अधिकार समझते थे। लड़के पेड़ पर चढ़ते थे। हम कैच करते थे। कोई डर भय नहीं होता था। नवीं कक्षा में आते ही ये कर्म अपने आप छोड़ देते थे। हमारे देश की धरती ने हमें जो भी वनस्पति खाने को दी है उससे अपने बच्चों को सर्मथ अनुसार परिचित कराया है और बाल साहित्य पढ़ाया है। वे भी अपने बच्चों को ऐसे ही पाल रहें हैं ताकि उनके बच्चों को इ से इमली और ई से ईख का स्वाद पता हो और वे उनकी तरह पंचतंत्र की कहानियों का रस ले। सिंगापुर रेया और अमेरिका से गीता आई। मेरे भाई यशपाल ने दोनों को कटोरी में करोंदे नमक लगाकर दिए। नमक लगा लगा कर वे उसे खा रहीं थीं और उनको वह याद करा रहा था करौंदा करौंदा। अपने बच्चों को वो जरूर दें जो उन्हें उनके माता पिता से मिला है मसलन गन्ने की गनेरियां भी। बाद में तो उनके लिए पूरी दुनिया के रास्ते खुले हैं।






Saturday 10 November 2018

मनचली गाड़ी का सफ़र!! कुछ नहीं कहने को है, खड़ी रही तो..........बिहार यात्रा Bihar yatra भाग 2 नीलम भागी

 कुछ नहीं कहने को है, खड़ी रही तो..........बिहार यात्रा भाग 2
                                    नीलम भागी
मैंने एक कर्मचारी से पूछा,’’गाड़ी के मोतीहारी कब तक पहुँचने का अनुमान है?’’उसने जवाब दिया,’’कुछ नहीं कहने को है, खड़ी रही तो, यहीं आधा घण्टा खड़ी रहेगी।’’उसका उत्तर सुन कर लगा कि गाड़ी है या मनचली! जब दिल करेगा चलेगी, जब दिल करेगा रूकेगी। खैर डिब्बा बहुत साफ सुथरा और सुन्दर था। बढ़िया डस्टबिन भी रक्खा हुआ था। जिसे भरने पर खाली भी किया जा रहा था। फर्श और टॉयलेट भी साफ थे और उसमें टॉयलेट पेपर भी रक्खा हुआ था। शायद गाड़ी नई थी, अगर उसमें गुटका, पान मसाला या तंबाकू थूका न गया तो बहुत सुन्दर रहेगी। सामने सीट की अत्यंत सुन्दर युवती का नाम इन्नमा था। उसे लखनऊ उतरना था। समय रात 9 बजे पहुंचने का था पर रेलवा के लक्षण देखकर नहीं लग रहा था कि वो रात दो बजे तक लखनऊ पहुँचेगें। उसके पति ने डॉ0 संजीव से कहा कि वे इन्नमा को अपनी लोअर सीट दे दें और उसकी मिडिल सीट ले लें क्योंकि वह प्रैगनेंट है। डॉ0 संजीव तुरंत सीट छोड़ कर उसके पति के पास जाकर बैठ गये। मैंने उसे कहा ,’’ तुम लेट जाओ।’’ वो बोली,’’मैं सात बजे नहीं सोती।’’ मैंने कहा कि मैं तुम्हें सोने को नहीं, लेटने को कह रहीं हूं। जब से घर से निकली हो, गाड़ी के इंतजार में बैठी या खडी रही हो। वो चादर ओढ़ कर लेट गई। मायके जा रही थी, बार बार उसके अम्मी अब्बू के फोन आ रहे थे। मैं और वो बतियाने लगे। नौ बजे सबने बिस्तर लगाया और सोने लगे। साइड सीट पर दो लड़कियां अपने ग्रुप से आकर सो गई। मैं भी मोबाइल में लग गई। बिहारी श्रमिकों ने वहीं अपनी सीट के पास ही कपडे बदले। पहले उतारे गए नये कपड़े, कच्छा बनियान पहने पहने ही कपड़े घड़ी करके (तह लगा कर)रक्खे फिर नये र्शाट्स और नई टी र्शट्स पहनी और सो गए। मैं बीच बीच में सो भी जाती। सुबह हुई अभी हम यूपी में ही थे। बड़े इंतजार के बाद गोरखपुर आया। इस समय दोनो साइड सीट की लड़कियां उठ कर बैठ चुकी थीं। उन्होंने मेकअप भी लगा लिया था। सीट न06 पर उनका एक साथी युवक आकर बैठ गया और वो आपस में बतियाने लगे। तमीज़दार  भाषा और अच्छी हिन्दी सुनने को मिल रही थी। लड़कियां जो भी खाने को देखती डिमांड करती, युवक उन्हें दिलवा देता साथ ही पहले खिलाये व्यंजनों को गिनवा देता। सुनकर वे खी खी कर हंस देतीं। वे कुछ भी खाने से पहले उस युवक से कहतीं,’’लीजिए, आप भी खाइए न।’’वह युवक बड़ी विनम्रता से जवाब देता,’’आप ही खा लीजिए, हमें कुछ भी खाते लैट्रिन लग जायेगी।’’ लड़कियां जवाब देतीं,’’लैट्रिन तो बिल्कुल साफ है।’’ उसने जवाब दिया कि उसमें पानी नहीं है। उनमें से एक लड़की ने कहाकि उसमें टॉयलेट पेपर तो हैं न। ये तो उनके लिए बहुत बड़ा मजाक बन गया। जिस पर वह हंसते हंसते लोट पोट हो गये। गाड़ी बघा पर रूकी तो चलने का नाम न ले। चली तो जाकर चमुआ पर तो अड़ ही गई। राह के स्टेशन साफ थे। कई जगह देखा कि सफाई कर्मचारी झाड़ू लगाते हुए कचरा इक्ट्ठा करने की बजाय रेल पटरी पर ही फैला रहे थे। शायद उनकी ड्यूटी में स्टेशन साफ करना होगा, पटरी साफ करना नहीं। नरकटिया के बाद बेतिया बड़ी देर में आया। एक सीन मुझे बहुत हैरान कर रहा था वह यह कि बीच में किसी भी जगह गाड़ी रूकती तो छोटे छोटे लड़के गले और हाथों में गुटके की पुड़ियों की माला लटकाये बेचने को आते। न कि चाय पकौड़े। पटरी के दोनो ओर फैली हरियाली मन को मोह रही थी। जमीन ऐसी कि मिट्टी दिखाई नहीं दे रही थी। किसी भी वनस्पति ने धरा को ढक रक्खा था। मोतिहारी से काफी पहले सुगौली स्टेशन पर, लगेज लेकर ए.सी. से बाहर आकर दोनो दरवाजों के बीच  ताजी़ हवा में मैं खड़ी हो गई। दोनो दरवाजों से दूर दूर तक हरियाली ही दिख रही थी। साथ ही मेरे दिमाग में ये प्रश्न भी खड़ा हो गया कि जहाँ की धरती
 इतनी उपजाऊ हो, वहाँ के लोग क्यों प्रवासी बनने को मजबूर हैं? और अब मैं मोतिहारी बापूधाम स्टेशन पर वही लोकगीत गुनगुनाते उतरी ’रेलिया बैरन, पिया को देरी से लाये रे।   
 


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Sunday 4 November 2018

रेलिया बैरन, पिया को लिये जाये रे Bihar Yatra बिहार यात्रा भाग 1 नीलम भागी


हमसफर गाड़ी पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन से दोपहर 1.45 पर चलनी थी। बारह बजे मैं घर से निकली, रास्ते में मैसेज़ आया, गाड़ी तीन घण्टे लेट थी। दशहरे का दिन था। जाम मिलने का डर था इसलिये स्टेशन पर बैठ कर इंतजार करना ही उचित समझा। और मैं घर नहीं लौटी। मेरी बिहार की यह पहली यात्रा थी। बताए गए प्लेटर्फाम पर और भी दूर दूर से आई सवारियाँ इंतजार कर रहीं थीं। कुछ सवारियों के चेहरे पर रेलवे के प्रति गुस्सा, आक्रोश था , ये वो लोग थे, जिन्हें रास्ते में बिहार से पहले उतरना था। कुछ सवारियां ऐसी थीं जिनके चेहरे पर महात्मा बुद्ध की तरह शान्ति थी। बात करने पर पता चला कि ये बिहार जाने वाले लोग हैं। उन्हें कोई रेलवे से  शिकवा शिकायत नहीं है। मैंने कुछ लोगो से पूछा कि ये गाड़ी हमेशा लेट होती हैं। उनका मुस्कुराते हुए जवाब था कि ये तीन घण्टे तो कुछ भी नहीं है, यहाँ की गाड़ियों का तो 8-10 घण्टे  विलंब से होना आम बात है। लेकिन राजधानी समय से रहती है। मैंने पूछा,’’ऐसा क्यों?’’ उनका जवाब था कि उसमें ’व्ही. आइ. पी VIP सफ़र करते हैं न इसलिए।’ मैंने भगवान का शुक्र किया कि मेरा वापसी का टिकट पटना से राजधानी का था। अब खाली गाड़ी के इंतजार में बैठी हूँ तो मेरे दिमाग में तरह तरह के प्रश्न उठ खड़े हो रहें हैं। मसलन अगर मुझे इस बैंच पर बैठने की जगह न मिलती तो!! क्योंकि मुझे डॉक्टर ने जमींन पर बैठने और पालथी मार कर बैठने को मना कर रक्खा है। तब तो मैं तीन घण्टे खड़े रहने की सजा भुगतती न। अब बैठने को  जगह जो मिल गई है, तो दिमाग तो चलेगा ही न। अब मेरा रेलवे के प्रति ज्ञान में और इजाफा हुआ। वो ये कि  अगर बताये हुए समय पर गाड़ी चल जाये तो भी गनीमत है। मैं बोली,’’ ऐसा भी होता है।’’ जवाब ,’’बिहार की गाड़ियों में ऐसा होना, आम बात है।’’जो अकेली सवारियाँ जिन्हें घर से निकले कई घण्टे बीत चुके हैं। वे प्राकृतिक क्रिया से फारिग होने कैसे जा सकते हैं ?  न तो गंदे टॉयलेट में सामान ले कर जा सकते हैं, न ही प्लेटर्फाम पर छोड़ कर जा सकते हैं। सबसे बड़ा संकट सीट भरने का था। उस सिचुएशन में ये बहुत बड़ी समस्या थी। इसलिए अकेली सवारी, सू सू आने के डर से, चाय पानी भी नहीं पी रही थी। खैर 5 बजे  गाड़ी आई। मेरी सीट न0 1 थी। रात को सोने का तो सवाल ही पैदा नहीं था। गाड़ी में मुझे वैसे ही कम नींद आती है। अब वाशरूम आने वाले धाड़ धाड़ दरवाजा खोले और बंद करेंगे और मेरी नींद टूटती रहेगी। सबसे पहले बैठते ही मैंने पानी पिया, फिर लगेज़ सैट किया। अपने आस पास देखा, मेरे सामने 4 न0 सीट पर डॉ0 संजीव थे और एक लखनऊ जाने वाला बहुत खूबसूरत युवा जोड़ा था और अब मैं चल दी, डिब्बे का मुआयना करने। मैंने देखा कि ज्यादातर सवारियाँ प्रवासियों की थी। जो घर जा रहीं थी। बहुत कम सपरिवार थे। जो अकेले थे, उनमें से कइयों का बैग कपड़े सब कुछ नये नये थे। उन पर कीमत के स्टिकर भी चिपके थे। और मेरी स्मृति में इलाहाबाद, जौनपुर में बिताया बचपन, उस समय वहाँ का सुना लोक गीत याद आया ’रिलिया बैरन पिया को लिये जाये रे’। ये परिवार के कमाऊ बेटा, भाई या पति घर लौट रहे थे । 5.15 पर रेलवा हिली फिर रूकी रही और 5.30 पर चली। रेलवा का पहला स्टॉपेज कानपुर था। पर इस रेलवा ने तो जगह जगह रूकने की ठान रक्खी थी। कहीं भी रूक जाती। मसलन साहिबाबाद में 6.10 पर अड़ गई। मुझे बापूधाम मोतिहारी उतरना था। समय 8.53 सुबह है। रेलवा के लच्छन देख कर मैं समझ गई कि शाम तक बापूधाम पहुँचूगीं। इसलिये मैंने समय देखना बंद कर दिया। मेरी सीट पर तीन बिना गिलाफ के तकिए थे। मैंने परिचारक से गिलाफ चढ़ाने को कहा, आधे घण्टे बाद वो मेरे पास एक गिलाफ रख कर बोला,’’लीजिए, चढ़ा लीजिए न।’’मैंने पूछा बाकि के दो का गिलाफ! उसने बड़ी नम्रता से जवाब दिया,’’जो लेंगे वो चढ़ाएंगे न, आप क्यों हलकान हो रहीं हैं।’’ मैं उस बिचारे को और परेशान न कर स्वयं ही दो चादरे ले आई। कंबल मुझे कहीं दिखाई नहीं दिया। वो मैंने उससे मांगा ,उसने कहा कि वह काम सिस्टमवा से कर रहा है। सबको चादर तकिया देकर कम्बलवा देगा।" सिस्टमवा के तहत मेरे पास किनारी उधड़ा न जाने किसी सवारी की तीखी इत्र की गंध वाला कंबल एक घण्टे बाद मेरे पास आया। तीन तकिए लगा और कंबल की तस्वीर ले, उसके नीचे चादर लगा के मैं अधलेटी सी बैठ गई। बाहर अंधेरा था। हां चाय बहुत बढ़िया थी।       क्रमशः          


Thursday 18 October 2018

हम महिलाये राजा राम मोहन राय और बापू की ऋणी हैं Sabermati Aashram यात्रा भाग 5 नीलम भागी



हम महिलायेंं राजा राम मोहन राय और बापू की ऋणी हैं Sabermati यात्रा भाग 5
                                                              नीलम भागी
गाँधी जी के समय में महिलाओं को वह  आजादी नहीं थी, जिस आजादी की वह हक दार हैं। गाँधी जी कहते थे एक बेटी को पढा़ना ,पूरे कुल  को पढ़ाने जैसा है | पढ़ी लिखी माँ आगे अपनी सन्तान की शिक्षा का भी ध्यान रखेगी, तभी समाज में सुधार आयेगा. गाँधी जी ऐसे समाज की कल्पना करते थे, जिसमें बालिका को समान अधिकार हों. यदि स्त्रियाँ या बालिकायें अशिक्षित रहेंगी, देश उन्नति नहीं कर सकेगा | वह  पुत्र और पुत्री दोनों को समान मानते थे | गाँधी जी बालक बालिकाओं की सह शिक्षा के समर्थक थे | वे  कहते थे," मैं लड़कियों को सात तालों में बंद  रखने का बिलकुल समर्थन नहीं करता,  लड़के लड़कियों को साथ पढ़ने, मिलने जुलने का मौका मिलना चाहिए।" आश्रम में यदि कभी कभार लड़के लड़कियों में कोई  अनुचित व्यवहार की घटना हो जाती थी तो गाँधी जी प्रायश्चित में स्वयं उपवास करते थे . केवल शिक्षा ही नहीं, उनकी स्थिति में सुधार कर उन्हें आर्थिक दृष्टि से भी मजबूत बनाना चाहिए उनके अनुसार हमारे कुछ ग्रन्थ महिलाओं को पुरुष के मुकाबले हीन  मानते हैं, ऐसा सोचना गलत है। स्त्री के लिए आजादी और स्वाधीनता जरूरी है। कई महिलाओं ने स्वतन्त्रता संग्राम में हिस्सा लिया। वे  विदेशी वस्तुओं की दुकानों में पिकेटिंग करती थी। उनका बहिष्कार करने के लिए लोगों को समझाती थी। स्वतन्त्रता आन्दोलन में उनका योगदान कम नहीं था । उसमें पुरुष के मुकाबले बौद्धिक क्षमता कम नहीं होती। गाँधी जी दहेज प्रथा के विरोधी थे। उनके अनुसार  अपनी बेटी को पढ़ने का अवसर दो, यही सबसे बड़ा दहेज हैं |
उन्होंने कालेज के छात्रों को फटकारा वे स्त्रियों को घर की दासी समझते हैं. उन्हें इस बात का बहुत दुःख था. दहेज ने योग्य पुरुषों को बिकाऊ बना दिया है | वह कहते थे,” यदि मेरे कोइ लड़की होती, मैं उसे जीवन भर कुवारी रख लेता लेकिन ऐसे पुरुष से विवाह नहीं करता जो दहेज में एक कोड़ी भी मांगे , वह  विवाह में तड़क भड़क के विरोधी थे. वह बाल विवाह के विरोधी थे। उनके अनुसार जब भी मैं किसी तेरह वर्ष के बालक को देखता हूँ, मुझे अपने विवाह की याद आ जाती है. गोद में बिठाने लायक बच्ची को पत्नी रूप में ग्रहण करने में मुझे कोई धर्म नजर नहीं आता | वे विधवाओं के पुनर्विवाह का वह  समर्थन करते थे, कुछ परिस्थितियों में वह  तलाक के भी पक्ष धर थे। उन्होंने जेल से एक हिन्दू स्त्री को अपना आशीष भेजा ,जो अपने पहले पति को त्याग कर दूसरा विवाह करने जा रही थी। गाँधी जी कट्टर सनातनी थे परन्तु जाति, संप्रदाय के बाहर विवाह का समर्थन करते थे| देश आजाद हुआ भारत के संविधान में स्त्रियों को समान अधिकार दिये। हम महिलाएं राजा राम मोहन राय की ऋणी हैं, जिन्होंने हमारी पूर्वज महिला समाज को चिता से उठाया . इतिहासकार इबनबतूता भारत की यात्रा पर आये थे। उन्होंने एक प्रसंग का वर्णन करते हुए कहा कि मैं एक क्षेत्र से गुजर रहा था। मैंने देखा, एक लड़की उसकी उम्र मुझे अधिक नहीं लगी। वह पूरी तरह दुल्हन की तरह सजी हुई थी। लेकिन लड़खड़ा कर सहारे से चल रही थी। आगे -आगे एक अर्थी जा रही थी। एक श्मशान के पास जलूस रुक गया। वहाँ एक चिता चुनी गई, चिता में मृत शरीर के साथ उस लड़की को बिठाया गया, चारोंं तरफ लाठियाँ लेकर कुछ लोग खड़े थे और तेज बाजे बज रहे थे। उस लडकी ने भागने की कोशिश की ,उसे वहीं चिता में दबा कर ज़िंदा जला दिया गया। यह नजारा मैं सह नहीं सका. मैं बेहोश हो गया | राजाराम मोहन राय की बहन विधवा हुई। वह छोटी थी। उसके पति की मृत्यु के बाद उसे सती कर दिया गया। वह छोटे थे, कुछ नहीं कर सके, इसका उनके दिल पर बहुत असर पड़ा. उन्होंने इस कुरीति को जड़ से उखाड़ फेकने की प्रतिज्ञा की। उनके और अंग्रेज वायसराय लार्ड बैटिंक के प्रयत्नों के परिणाम स्वरूप सती प्रथा पर रोक लगी। उनके समकालीन अनेक समाज सुधारकों ने बाल विवाह , पर रोक लगाने की कोशिश की विधवाओं की दशा सुधारने का, उनके दुबारा विवाह का प्रयत्न किया। राजाराम मोहनराय ने महिलाओं को चिता से उठाया तो महात्मा गाँधी ने महिलाओं को सम्मान से जीने का हक एवं अधिकार देने की वकालत की। 
गाँधी जी स्वस्थ शरीर पर बल देते थे उनके अनुसार स्वस्थ शरीर के लिए हृदय और मस्तिष्क से गंदे अशुद्ध और निकम्मे विचार निकाल देने चाहिए। यदि मन चंगा होगा तो शरीर भी स्वस्थ होगा इसलिए शरीर और मन में तालमेल जरूरी है। सभी को प्रात: कल उठ कर ताज़ी हवा का सेवन करना चाहिए अपने परिवेश को साफ़ सुथरा रखें. सदैव चुस्त रहें सीधे बैठें और खड़े भी सीधे रहें | भोजन उतना करें, जितना शरीर की जरूरत है. ठूस- ठूंस कर कभी न खायें । हर कौर को चबा – चबा कर खायें | खाना इसलिए खाना चाहिए शरीर में ताकत रहे। मानव बंधुओ की सेवा कर सकें | जैसा भोजन करेंगे, वैसा ही मन बनता हैं | वह शाकाहारी भोजन के पक्षधर थे उनकी पत्नी और बेटा बीमार था, डाक्टर ने उन्हें मांंस का शोरबा देने की सलाह दी. उन्होंने डाक्टर की बात नहीं मानी | उनके आश्रम में विभिन्न जातियों धर्मों के लोग रहते थे. सफाई का पूरा काम आश्रमवासी खुद करते थे, कहीं भी गंदगी या कूड़ा  दिखाई नहीं देता था | सब्जियों के छिलकों और जूठन को खाद बनाने वाले गढ्डे में डाल दिया जाता, उसे मिट्टी से ढक दिया जाता जिससे खाद बनाई जाती. इस्तेमाल  किये गये पानी से बाग़ की सिंंचाई होती | मल मूत्र दोनों के लिए अलग व्यवस्था थी. गाँधी जी के आश्रमवासियों स्त्री और पुरुष के मन से गंदगी के प्रति घृणा समाप्त हो चुकी थी | अब भी कुछ यहां आने वाले पर्यटक खा कर रेपर आश्रम परिसर में कहीं भी फेंक देते हैं. यह देख मुझे अच्छा नहीं लगा। साबरमती मेंं आना मुझे तीर्थ यात्रा लगा। अब मैं बापूधाम मोतीहारी , चम्पपारण जा रहीं हूं और आपसे अपनी यात्रा शेयर करूंगी.