रात को मन में एक इच्छा लेकर सोई थी कि र्स्वण मंदिर को बाहर से सूर्य की रोशनी में देखना है इसलिये बिना किसी के जगाये सुबह उठी और समान पैक कर तैयार होकर मंदिर चल दी।
एमपीसूर्य की रोेशनी में र्स्वण की आभा देखते
बनती थी। न जाने कितनी देर मैं वहाँ बैठी दूर दूर से आये श्रद्धालुओं को और उनके पहनावे को देखती रही। महिलाओं ने खूब सोना पहना हुआ था क्योंकि यहाँ उन्हें सैल्फ एम्प्लायड झपट मारों का डर नहीं था। इतने में हमारे साथी भी आ गये। अब सीढ़ी चढ़ कर दूसरे हॉल में गये। वहाँ एकदम जगमगाती साफ थालियाँ और कटोरियाँ रक्खीं थीं। मैंने एक थाली और कटोरी उठा ली। सामने दो व्यक्ति बूंदी और पोहा हमारी थाली में परोस रहे थे। वो बहुत देते थे, उनका हाथ रोकना पड़ता था। सामने बड़ी बड़ी केतली में मसाला चाय, आप अपनी कटोरी में आवश्यकतानुसार ले लें। यहाँ पोहा में भी मीठा था। तीखा पोहा खाते हुए, कटोरी में फूंक मार मार कर चाय पीने में बहुत आनन्द आ रहा था। वहाँ अखबार के स्क्वायर थे, कागज की प्लेटे भीं रक्खीं थीं। मैंने देखा कि यदि किसी का प्रशाद बचता तो वह उसे अखबार के टुकड़े पर रख कर ले जाता पर कोई भी जूठन में प्रशाद नहीं फेंक रहा था। ये देख कर बहुत अच्छा लगा। प्रशाद खाकर हम बस में बैठ गये और पहले गुजराती आदि कवि नरंिसंह मेहता के धाम चल दिये।
गुजराती साहित्य में नरसी का योगदान अतुलनीय है। नैतिक सिद्धांतों के प्रचारक और उपदेशक के रूप में गुजरात के मुख्य संतों में इनका नाम है। इन्होंने जाति, वर्ग और लिंग भूल कर सबको समान समझा। गुजराती साहित्य में नरसी के बाद केवल मीराबाई का नाम आता है।
विज्ञान छात्रा होने के कारण मैंने इनके बारे में नहीं पढ़ा था लेकिन सुना बहुत था कि सूरदास की तरह ये कृष्ण भक्त हैं। जब भी कहीं कथा होती तो कथावाचक नरसी भगत की हुण्डी और नरसी का भात सुना कर हम श्रोताओं को भावविभोर करते हैं। हम वहाँ पहुँचे, वहाँ निर्माण कार्य भी चल रहा था। पुजारी जी ने उनके बारे में बताया कि उनका जीवन काल 1414-1481 रहा। जन्म तलाजा गाँव सौराष्ट्र के जूनागढ़ में नागरवंशी कुलीन ब्राहम्ण परिवार में हुआ। जनश्रुती है कि पाँच साल की उम्र तक ये बोलना भी नहीं जानते थे और माता पिता की मृत्यु हो गई। दादी और बड़े भाई भाभी ने पाला। दादी एक साधू के पास ले गई और बालक को उनके चरणों में डाल कर कहाकि नरसी बोलता नहीं है। साधू ने उनके कान में राधेकृष्ण कहा और नरसी ने दोहरा दिया। तब से वह कृष्ण भक्ति में लगे रहते। नौ साल की उम्र में इनका विवाह कर दिया। 18 वर्ष की आयु में ये बेटा बेटी के पिता बन गए। साधू संतों का साथ था कमाते थे नहीं इसलिये भाभी का व्यवहार बहुत कठोर था। एक दिन भाभी ने कुछ ज्यादा ही कटु वचन कह दिए। ये दुखी होकर जंगल में शिव मंदिर में जाकर सात दिन तक भूखे आराधना करते रहे। सातवें दिन भगवान शिव एक साधू के रूप में प्रकट हुए। नरसी के अनुरोध पर भगवान शिव उन्हें वृन्दावन में रासलीला दिखाने ले गये। ये रासलीला देखने में इतने लीन हो गए की मशाल से अपना हाथ जला बैठे। भगवान कृष्ण ने आर्शीवाद देते हुए अपने स्पर्श से हाथ पहले जैसा कर दिया। घर आकर इन्होंने अपनी भाभी का धन्यवाद किया।
इन्होंने 740 से अधिक भजनों की रचना की है और 22000 के लगभग भजन कीर्तन किये हैं। नरसी की नज़र में सभी जाति के लोग कृष्ण की उपासना कर सकते थे। वे शूद्रों और स्त्रियों को बराबर का अधिकार देते थे। इन्होंने भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति में अनेक रचनाएं की थीं। जिनमें सूरत संग्राम, गोविंद गमन, सुदामाचरित आज भी जन जन में लोकप्रिय है। गांधी जी का प्रिय
वैष्णव जन तो तेने कहिये, जे पीर पराई जाणे रे ।
सुविख्यात पद नरसी मेहता का है। इसे सुनना मुझे बहुत अच्छा लगता है। दर्शन के बाद हम बस में बैठ कर पोरबंदर की ओर चल पड़े। क्रमशः
गुजराती साहित्य में नरसी का योगदान अतुलनीय है। नैतिक सिद्धांतों के प्रचारक और उपदेशक के रूप में गुजरात के मुख्य संतों में इनका नाम है। इन्होंने जाति, वर्ग और लिंग भूल कर सबको समान समझा। गुजराती साहित्य में नरसी के बाद केवल मीराबाई का नाम आता है।
विज्ञान छात्रा होने के कारण मैंने इनके बारे में नहीं पढ़ा था लेकिन सुना बहुत था कि सूरदास की तरह ये कृष्ण भक्त हैं। जब भी कहीं कथा होती तो कथावाचक नरसी भगत की हुण्डी और नरसी का भात सुना कर हम श्रोताओं को भावविभोर करते हैं। हम वहाँ पहुँचे, वहाँ निर्माण कार्य भी चल रहा था। पुजारी जी ने उनके बारे में बताया कि उनका जीवन काल 1414-1481 रहा। जन्म तलाजा गाँव सौराष्ट्र के जूनागढ़ में नागरवंशी कुलीन ब्राहम्ण परिवार में हुआ। जनश्रुती है कि पाँच साल की उम्र तक ये बोलना भी नहीं जानते थे और माता पिता की मृत्यु हो गई। दादी और बड़े भाई भाभी ने पाला। दादी एक साधू के पास ले गई और बालक को उनके चरणों में डाल कर कहाकि नरसी बोलता नहीं है। साधू ने उनके कान में राधेकृष्ण कहा और नरसी ने दोहरा दिया। तब से वह कृष्ण भक्ति में लगे रहते। नौ साल की उम्र में इनका विवाह कर दिया। 18 वर्ष की आयु में ये बेटा बेटी के पिता बन गए। साधू संतों का साथ था कमाते थे नहीं इसलिये भाभी का व्यवहार बहुत कठोर था। एक दिन भाभी ने कुछ ज्यादा ही कटु वचन कह दिए। ये दुखी होकर जंगल में शिव मंदिर में जाकर सात दिन तक भूखे आराधना करते रहे। सातवें दिन भगवान शिव एक साधू के रूप में प्रकट हुए। नरसी के अनुरोध पर भगवान शिव उन्हें वृन्दावन में रासलीला दिखाने ले गये। ये रासलीला देखने में इतने लीन हो गए की मशाल से अपना हाथ जला बैठे। भगवान कृष्ण ने आर्शीवाद देते हुए अपने स्पर्श से हाथ पहले जैसा कर दिया। घर आकर इन्होंने अपनी भाभी का धन्यवाद किया।
इन्होंने 740 से अधिक भजनों की रचना की है और 22000 के लगभग भजन कीर्तन किये हैं। नरसी की नज़र में सभी जाति के लोग कृष्ण की उपासना कर सकते थे। वे शूद्रों और स्त्रियों को बराबर का अधिकार देते थे। इन्होंने भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति में अनेक रचनाएं की थीं। जिनमें सूरत संग्राम, गोविंद गमन, सुदामाचरित आज भी जन जन में लोकप्रिय है। गांधी जी का प्रिय
वैष्णव जन तो तेने कहिये, जे पीर पराई जाणे रे ।
सुविख्यात पद नरसी मेहता का है। इसे सुनना मुझे बहुत अच्छा लगता है। दर्शन के बाद हम बस में बैठ कर पोरबंदर की ओर चल पड़े। क्रमशः
7 comments:
तथ्यपूर्ण जानकारी आभार
दर्शनीय स्थलों पर ले जाता लेख
नरसी मेहता के बारे मे दी गई जानकारी के लिये धन्यवाद । आपकी गुजरात यात्रा मंगलमय हो ।
हार्दिक धन्यवाद
हार्दिक धन्यवाद
बहुत अच्छी जानकारी सुंदर फोटो के साथ धन्यवाद जी
Hardik dhanyvad
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