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Friday 24 May 2019

द्वारका में कौन छे, राजा रणछोड़ छे! द्वारकाधीश का मंदिर Dwarkadhish Mandir Gujrat Yatra Part 16 Neelam Bhagi गुजरात यात्रा भाग 16 नीलम भागी

द्वारका में कौन छे, राजा रणछोड़ छे! द्वारकाधीश का मंदिर गुजरात यात्रा भाग 16
नीलम भागी
रात सवा तीन बजे हम होटल पहुंचे। अपने अपने रूम की चाबी ली और रूम में आते ही सो गये। सुबह चाय के साथ ही नींद खुली। हम तैयार होकर रिसेप्शन पर आ गये। देखा सभी साथी उसी समय आये थे। द्वारकाधीश जाने के लिए किसी ने इंतजार नहीं करवाया। हम पैदल मंदिर की ओर चल पड़े। वहाँ पहुंच कर पहले बाहर से मंदिर की वास्तुकला देखती रही। छैनी हथौड़ी का पत्थरों पर कमाल! न बिजली थी, न ड्रिल मशीन तब भी इतना भव्य। यहाँ भी न कैमरा, न मोबाइल, कुछ भी इलैक्ट्रानिक नहीं ले जा सकते, सब कुछ जमा करवा लिया, अच्छा लगा। अब भगवान के दर्शन मन की आँखों से करेंगे और दिल में बसायेंगे। बाहर तुलसी की माला बिक रही थी। अंदर जाते ही दाहिने हाथ पर कई मंदिर थे। सबके दर्शन करके द्वारकाधीश के मंदिर के सामने श्रद्धालुओं की भीड़ में लाइन में खडे हो गये। महिलाओं की लाइन अलग थी। इस समय मेरी लाइन थोड़ी ऊंची थी। पुजारी परदा हटाते और एक झलक भगवान की दिखाते। साथ ही दर्शनार्थी जय जयकार करने लगते। अब मैं ऊंचे में सबसे आगे थी ,मेरे आगे से परिक्रमा वाले निकलते। सबसे आगे पण्डा बोलता,’’द्वारका में कौन छे।’’ पीछे परिवार का मुखिया, फूलों से सजी टोकरी सिर पर रक्खे चल रहा होता, साथ के लोग परिक्रमा करते बोलते,’’ राजा रणछोड़ छे।’’ मेरे बराबर पुरूषों की लाइन थी। वहाँ तो सभी भावविभोर थे। साथ वाले ने भरे गले से पूछा,’’ ये मेरे द्वारकाधीश को रणछोड़ क्यों कह रहें हैं?’’ मैंने अपनी दादी से जो सुना था सुनाने लगी कि मगधपति जरासंध की दोनो बेटियां कंस से ब्याही थीं। जब भगवान ने कंस का वध किया तो जरासंध अपने दामाद की मौत का बदला लेने के लिये बार बार मथुरा पर चढ़ाई करता। प्रजा को कष्ट न हो एक बार श्री कृष्ण अपने भाई बलराम के साथ युद्ध से भाग गये। जरासंध के सैनिकों ने उनका पीछा किया और जरासंध उन्हें रणछोड़ कह कर अपने सैनिकों के साथ हंसते हुए उनका मज़ाक बनाने लगा। दोनों भाई थकान से चूर प्रर्वशक पर्वत पर आराम के लिए चढ़ गये। यहाँ वर्षा बहुत होती थी। जरासंध ने दोनो को बहुत ढूंढा पर वे नहीं मिले। उसने अपने सैनिकों से पर्वत के चारों ओर आग लगवा दी। लेकिन दोनों भाइयों ने पर्वत से छलांग लगा दीं और समुद्र से घिरी द्वारका पुरी में पहुंच गये। वे संदेश देना चाहते थे। जब अपने से ज्यादा शक्तिशाली शत्रु से जान का खतरा हो तो जान बचा कर उससे दूर होकर, अपनी शक्ति का संचय करो। मुकाबला तब करो, जब अपने बल पर यकीन हो। जरासंध उन्हें मरा समझ कर खुशी खुशी लौट गया और अपने को बहुत शक्तिशाली समझ घमण्ड में चूर होकर, श्रीकृष्ण के लिये रणछोड़ नाम फैला दिया।  लाइन भी धीरे धीरे खिसक रही थी। मैं भी द्वारकाधीश के सामने पहुंच गई। अच्छे से दर्शन हो गए। अब मंदिर में जितने भी हमारे देवी देवता प्रतिष्ठित थे, मैंने सबके दर्शन किए, जैसी भी मुझे पूजा आती है की। अब मैं बैठ कर देश के कोने कोन से आये श्रद्धालुओं को देखती रही। भीड़ में मुझे वो पण्डा दिख गया जो बोल रहा था ’’द्वारका में कौन छे, राजा रणछोड़ छे ’’ मैंने उसके पास जाकर पूछा कि आपके पीछे एक आदमी सजा टोकरा लेकर जा रहा था, उसके पीछे लोग चल रहे थे। ये सब क्या था? पण्डित जी ने बताया कि टोकरे में  पताका होती है। इसे चढ़ाने के लिए दो साल की वेटिंग है। वो सगे संबंधियों मित्रों और बैण्ड बाजे के साथ आते हैं।  बैण्ड बाजा मंदिर परिसर में नहीं आने देते। मंदिर के अंदर तो द्वारकाधीश के नामों के जयकारे लगते हैं। और मैं मन में इनका एक भजन दोहराने  लग गई।  इनके तो अनेक नाम हैं ’’कोई कहे गोविंदा, कोई कहे गोपाला, मैं तो कहूं सांवरिया बांसुरी वाला।’’ मैं चल दी। हम सब चप्पल काउंटर पर मिले। मोबाइल लिये। बैण्ड की आवाज सुनते ही वहाँ पहुंची, कोई झण्डा ला रहा था। "ये देश है वीर जवानों का, अलबेलों का मस्तानों' का इस धुन पर परिवार नाच रहा था। मेरे साथियों के साथ एक सन्यासी भी उठ कर नाचने लगा।

 मैंने वीडियो बनाया। मेरा सौभाग्य उस परिवार ने मेरे सिर पर भी पताका की टोकरी रक्खी।  क्रमशः 



             



बैण्डबाजों से ध्वज आता, द्वारकाधीश के प्रेमी नाचने लगते। क्रमशः

मंदिर के बाहर बिकते मसाले

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