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Tuesday, 31 August 2021

महिलाओं के लिए लाजवाब नसीहत!! दिल्ली से मुम्बई यात्रा गरीब रथ नीलम भागी

 


एक बार मेरा संडे की गरीब रथ ट्रेन में वेटिंग में टिकट था। सबको यकीन था कि संडे की गरीब रथ में टिकट कनर्फम नहीं होगा। पर मुझे यकीन था कि टिकट कनर्फम हो जायेगा। क्योंकि यात्राओं के दौरान ही मेरा ज्ञान बढ़ा था कि सीनियर सीटीजन महिलाएं राजधानी और गरीबरथ दोनों में सीट बुक करवातीं हैं क्योंकि उनका किराया बराबर लगता है। वे राजधानी में टिकट कनर्फम होते ही गरीब रथ की टिकट कैंसिल करवा लेती हैं। फिर हम जैसों की महिला कोटे से टिकट कनर्फम हो जाती है। मेरा  भी हो गया। सायं 3.35 पर गाड़ी निजामुद्दीन से चली। हमेशा की तरह मैं बैडिंग जिसमें दो चादर, एक तकिया और एक कंबल अटैण्डट को ढूंढ कर, उससे लेकर आई। दिल्ली से मथुरा तक लेटने की जगह रहती है। मैं कंबल, एक चादर, तकिया सिर के नीचे लगा कर एक चादर ओढ़ कर सो जाती हूं। मथुरा से कोटा तक बैठना ही पड़ता है। इस बार मथुरा से मेरे आस सभी कपड़े के व्यापारी थे। उनकी बातें अलग तरह की थीं। श्राद्ध शुरू हुए थे। त्यौहार आने वाले थे। सभी की बातें साड़ियां, लैगिंग आदि कपड़ों के रिवाज़ पर थीं। किसी की भी दुकान से ग्राहक न लौटे इसलिए कोई वैराइटी छूटे न, इस पर चर्चा चल रही थी। मेरे सामने की सीट पर बहुत ही मामूली कपड़े पहने हुए बुर्जुग बैठे थे। वे बहुत ध्यान से सबकी बातें सुन रहे थे। अब कपड़ों सें उनकी बातें उनके शहर में होने वाली रामलीला पर शुरू हो गईं। मसलन पिछले साल क्या बजट था और अब क्या होगा!! एक व्यापारी जो सबसे ज्यादा सुना जा रहा था। उसने बड़े गर्व से बताया कि बाहर से रामलीला के कलाकार आते हैं लेकिन जब से रामलीला शुरू हुई है। रामचन्द्रजी हमेशा उनके यहां ठहरते हैं। कोई कलाकार इतने दिन बीड़ी, सिगरेट, शराब नहीं पीता। रात 8.15 पर जब कोटा से गाड़ी चली तब सबने अपना खाना निकाला। आसपास मसालों की महक फैल गई। मेरे सामने के बाउजी ने भी पतले पतले परांठे जो थोड़ा थोड़ा घी लगा कर, ईट से लोहे का तवा चमका कर उस पर  कड़छी से घिस घिस कर बनाये जाते हैं, मिर्च के आचार के साथ निकाले और एक सौ ग्राम नमकीन का पैकेट निकाल कर उससे पराठे खाने ही लगे थे कि सब कोरस में चिल्लाये बाउजी इधर आइये। उनमें से एक व्यक्ति उनकी विंडो सीट पर आकर बैठ गया और बाउजी परांठा, आचार और नमकीन लेकर उसकी जगह पर जाकर बैठ गए। जो आकर बैठा, मैंने उनसे पूछा,’’आप डिनर नहीं करेंगे!!’’उन्होंने जवाब दिया कि दोस्त के बेटे का नामकरण था वो स्टेशन के पास ही रहता है। उसे बता रखा था। दिनभर दुकानदारी करके आते समय दावत खाकर आया हूं। सफ़र में हूं इसलिए रात को नहीं खाउंगा। उससे पता चला कि ये सब मथुरा और उसके आस पास के शहरों के दुकानदार हैं। सोमवार को इनकी दुकाने बंद रहती हैं। इन्हें जब भी आना होता है, ये मथुरा से गरीब रथ से आते हैं। ए.सी. ट्रेन हैं किराया कम है। कभी लेट नहीं होती। रात भर इसमें सोते हैं। सुबह पौने पांच बजे गाड़ी सूरत में उतार देती है। दिन भर खरीदारी करते हैं, मार्किट देखते हैं। कल रात की गाड़ी से वापसी करेंगे। होटल का किराया भी बचता है। कुछ सामान साथ भी लाते हैं बाकि सब ट्रांसर्पोट से आता है।  अब सबकी तो इतनी हैसियत नहीं होती कि दुकान में खूब माल भर ले। ग्राहक न लौटे इसलिए हर वैरायटी रखनी होती है। बार बार सूरत भी नहीं आ सकते। ये बाउजी(नमकीन से पराठा खाने वाले) तो बहुत माल खरीदते हैं। इनकी सेल इतनी ज्यादा है कि ये कैश लेकर बैंक नहीं जाते, बैंक कर्मचारी कैश कलैक्शन के लिए आता है। जैसे लहरिया साड़ी आई इन्होंने खूब माल उठाया। हम लोगों की कोई वैराइटी खत्म होती है तो थोड़ा बहुत इनसे खरीद कर काम चला लेते हैं। इनका भी फायदा, हमारा भी काम चल जाता है। अब मैं सुन उनको रही थी पर मेरी आंखें बाउजी पर टिकी थीं। शायद वह मेरे मनोभाव समझ गया और बताने लगा कि बाउजी ने दुकानदारी बेटों पर छोड़ दी है पर सबसे ज्यादा कमाऊ ये ही हैं। परचेजिंग करना, घर में जो ये लायेंगे वही बनेगा। बेटे मुर्गी, अण्डा बाहर से खा आते हैं। बराबर के दुकानदार के लिए दुसरी दुकान तलाश करके, उसे उसमें शिफ्ट करवाना और खूब कैश देकर राजी करना। इस तरह इनका बहुत बड़ा शो रूम बन गया है। लोग शादी ब्याह की सब खरीदारी इनके यहां से करते हैं। ये मर्जी से दुकान पर कभी विजिट करने जाते हैं। खाना खाते ही दिनभर के थके सब सो गए। बाउजी मेरे सामने की लोअर सीट पर थे। बतियाने लगे, संघर्ष भरी अपनी जीवन यात्रा सुनाई। मैंने पूछा,’’महिलाएं तो एक साड़ी लेनी होगी तो कई साड़ी खुलवा देतीं हैं। आपको गुस्सा नहीं आता था?’’ ये सुन कर वे पहले मुस्कुराये फिर बोले,’’मेरा गुस्सा तो मुनाफ़ा सोख लेता था। दादी से भी बड़ी महिला को मैं दीदी कहता हूं। साड़ी बेचते समय मैं हमेशा कहता हूं, घर में पसंद न आए तो आज ही बदल लेना। जब कोई बदलने आती तो उससे कम रेट की साड़ियां ही उसे दिखाई जातीं। वह बड़ी खुशी से बदल कर ले जाती है। इस मुनाफे से ही साड़ियां तह लगाने वाले लड़कों की तनखाह निकलती है और हमारा ग्राहक परमानेंट हो जाता है।’’बुढ़ापे में नींद कम आती है। कहां तक उन्हें सुनती मैं सो गई।                 

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Saturday, 28 August 2021

काबुली चने मुफ्त में काले करना Best out of waste Neelam Bhagi


   हुआ यूं कि हमारे साथियों ने धार्मिक जुलूस का स्वागत करना था और सभी श्रद्धालुओं को हलुआ, काले चनेे और चाय का जलपान करवाना था। हलवाई ने छोले उबाल कर चनों को अलग करके उसमें बहुत बढ़िया छौंक लगाया और पानी हमेशा की तरह अलग रख दिया। चार लोग जो जलपान की व्यवस्था में लगे थे। उनमें से एक बोला,’’चनों से ज्यादा, चनों के इस उबले पानी में ताकत होती है। घर में भी तो हम इसे फैंकते नहीं है। इसी से चने की ग्रेवी बनती है।’’उनके ऐसा कहते ही चारों ने एक एक गिलास उबले चने का निकला पानी पिया। जो बचा उसे भी थोड़ा थोड़ा आपस में बांट कर पी लिया। काला पानी उन्हें आयरन से भरपूर टाॅनिक लग रहा था। पीते ही उनमें गज़ब की फुर्ती का संचार हुआ और मन की खुशी के कारण चेहरे पर रौनक भी आ गई थी। 

पर ये क्या!! जलूस का स्वागत हुआ। जलपान की सबने तारीफ़ की। लेकिन वे चारो, चना टाॅनिक पीने वाले, कहीं दिखाई नहीं दिए। बाद में पता चला कि बहुत अधिक मात्रा में छोले उबालने के लिए मीठा सोडा भी तो उसी अनुपात में डाला गया था। जो चना टाॅनिक के द्वारा इन चारों के पेट में जाकर, उत्पात मचाने लगा। जिसके कारण इन्हें बार बार हाज़त रफा करने के लिए टाॅयलेट जाना पड़ रहा था। अब पाठक ही बताएं, इन हालात में किसी को भी जुलूस का स्वागत सूझाता है भला!! न..न..न..

पहले छोले भिगोते समय या उबालते समय मीठा सोडा डालती थी। लेकिन अब मैं कभी भी छोले उबालते समय बेकिंग सोडा वगैरहा नहीं डालती।

इस घटना से पहले मैं सफेद छोलों में भिगोते या उबालते समय थोड़ा सा मीठा सोडा डालती थी। फिर लोहे की कढ़ाई में छौंक लगाती तो वे काले हो जाते थे।

लेकिन इसके बाद छोले धोकर कम से कम 6 घण्टे भिगोकर, उसी पानी में प्रेशर कुकर में दो चम्मच चाय पत्ती की पोटली बांध कर डाल देती थी। जैसी ही प्रेशर से सीटी नाचने लगती या एक सीटी बजने लगती तो गैस बिल्कुल स्लो करके सीटी का बजना रोक कर 25 मिनट तक मंदी आंच में पकने देती। बाद में गैस बंद करके प्रेशर खत्म होने पर चाय की पोटली निकाल कर, काले छोले छौंक देती।

फिर चाय की पोटली की जगह सफेद चने उबालते समय एक आंवला डाल देती। उबलने के बाद कुकर खोलते ही काले चनों में से आंवला निकाल कर फेंक देती। इसके लिए साल भर आवंला सूखा कर रखती हूं। कई बार आंवले के टुकड़े छोलों में बिखर जाते तो उन्हें निकालना पड़ता पर कुछ मुश्किल नहीं।

अब मैं अनार के छिलके बिल्कुल नहीं फैंकती। छोले उबालते समय अनार के छिलके का टुकड़ा उसमें डाल देती हूं। उबालने के बाद कुकर खोलते ही ऊपर छिलका रखा होता है उसे निकाल लिया। काबुली चने काले हो जाते हैं बिल्कुल मुफ्त में गज़ब की रंगत!!फिर  छौंक दिए।  ज्यादा काले करने हैं तो ज्यादा छिलका डाल दो। कम करने हैं तो कम। आधा किलो छोले में आधा अनार का छिलके से बिल्कुल काले हो जाते हैं बाकी इस हिसाब से आप बनाते  समय डालें।

  नीलम भागी           




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Tuesday, 17 August 2021

मुंबई से दिल्ली गरीब रथ में कृष्णा के सत्संगी नीलम भागी

 

हमेशा मुंबई से आते समय डिब्बा बोरीवली पर भर जाता है लेकिन इस बार बांद्रा में ही पूरी सीट भर गई । मैं अपनी लोअर विंडो सीट पर बैठी । मेरे सामने एक महिला और दो आदमी  बैठे थे। गाड़ी के चलते ही  वे उठ गए। थोड़ी देर में उसके  साथी ने बड़ा सा बैग उठाया था और मेरे सामने वाला  सबको एक पैकेट पकड़ा रहा था। जिसमें इवनिंग स्नैक्स थे। जब सबको वह डिब्बे बांट चुके तो उसी पुरुष ने सबको चाय देनी शुरू कर दी।  वे सबको देने के बाद अपनी सीट पर बैठे तो मुझे भी चाय और पैकेट देने लगे। मैंने उन्हें कहा," धन्यवाद, मैंने अभी अभी प्लेटफार्म पर वडा पाव और चाय पी है।" फिर उन्होंने खुद लिया और अपने साथ की महिला को दिया। महिला मुझसे बोली,"बेन, हमारे पास इस सीट पर आपको बड़ी डिस्टरबेंस होगी, आप चाहें तो हम आपकी सीट बदल सकते हैं। मैंने जवाब दिया," कोई बात नहीं, मुझे को अच्छा लगेगा।" ऐसा मैंने इसलिए भी कहा क्योंकि मेरे सामने महिला है और मैं पालथी मार कर नहीं बैठ सकती और ज्यादा पैर लटका कर बैठेने से, मेरे पैर सूज जाते हैं।" मैंने उनसे पूछा, " मैं कभी-कभी आपकी सीट पर पैर रख लूंगी, आपको बुरा तो नहीं लगेगा!!" वे बोली," नहीं नहीं, दोनों एक दूसरे के आमने सामने पैर रखती रहेंगी।" हमेशा की तरह, मैंने अपनी बैडिंग लेकर कंबल  चादर तकिया सिर के नीचे लगाया और एक चादर ओढ़ कर अधलेटी सी सिकुड़ कर टिक गई ताकि  बाकि आराम से बैठ सके । अब वे मुझे बेन कहने लगी और मैं उन्हें बेन। हमारी आमने सामने  की सीट पर मुझे और उस बेन को  छोड़कर, वहां सवारियां बदलती रहती जो वहां से गुजरता, उनसे कहता," जय श्री कृष्णा।" फिर पास में बैठ कर दुनिया जहान की बातें शुरू हो जाती पर सब बातें गुजराती में ही होती। इतने में और कोई गुजरता, जय श्री कृष्णा बोलता और पहले वाला प्रणाम करके चल देता। बेन नाते पोतियों वाली थी।  कोई महिला उसे छोटा बच्चा पकड़ा के जाती तो बेन उसे गोदी में लिटाके थपकते  हुए कान्हा को सुनाने वाली लोरी वह गाती, बच्चा सो जाता तब उसकी मां उसे ले जाती। फिर हारमोनियम तबले पर डिब्बे में भगवान कृष्ण के भजन गाए जाने लगे लेकिन हमारी सीट पर बातें चलती, आगे की मथुरा वृंदावन यात्रा, गोवर्धन परिक्रमा के बारे में सलाह मशवरे चलते। अब बेन अगर खाली होती तभी मैं उनसे इस यात्रा के बारे में बात करती। उनसे तो मिलने वाले ही बहुत आ रहे थे और उनकी अपनी बातचीत थी पर मेरा सफर बहुत अच्छा कट रहा था। सूरत पर गाड़ी रुकी, खाने की ट्रे के बक्से हमारे डिब्बे में लोड हुए। गाड़ी के चलते ही मैंने घर से लाया अपना खाना निकाला। बेन ने मुझे कहा इसको अंदर रखो। अब जय श्री कृष्णा का प्रसाद खाना। इतने में जो दोनों आदमी शुरू में बेन के पास बैठे थे। सबको खाने की ट्रे और छाछ की बोतल देते हुए हमारे पास आए और हमें भी एक एक ट्रे पकड़ा दी। खाना क्या था पूरी लाजवाब गुजराती थाली। हम सब ने खाना खाया। मैं अपनी थाली डस्टबिन में डालने के लिए उठने लगी तो वही दोनों आदमी बड़े-बड़े पॉलिथीन लिए सबके सामने जा रहे थे और खाने की खाली थाली  डालते जा रहे थे। मैं उठ कर डिब्बे का चक्कर लगाकर आई। उसमें सभी गुजराती थे अब वे खाना खाकर आपस में बतिया रहे थे और ठहाके लगा रहे थे। मैं अपनी सीट पर लौटी, मेरी सीट पर कोई भी नहीं बैठा था बिल्कुल  मुझे पूरा बैठने का स्थान दिया। अब इनके बतियाते बड़ोदरा आ गया। यहां गाड़ी 10 मिनट खड़ी हुई तो बड़े-बड़े आइस बॉक्स हमारे डिब्बे में लोड हुए अब सबको आइसक्रीम मिली फिर उन दोनों आदमियों ने ऐसे ही हमारे खाली  कप इकट्ठे किया। अब सब ने अपने-अपने बिस्तर लगाने शुरू कर दिए। थोड़ी देर में पूरा डिब्बा शयन कक्ष में बदल गया हमारे आसपास से भी खर्रतों की आवाज आ रही थी। मैं अपनी देर से सोने वाली और देर से उठने वाली आदत के कारण जाग रही थी। सामने की सीट पर  बेन भी मेरी ओर देख रही थी। अब हमने सवारियों वाली बातें शुरू की। उन्होंने पूछा आप कहां जा रही हो? कहां से आ रही हो? मैंने बताया मुंबई बेटी के घर से आ रही हूं और नोएडा अपने घर जा रही हूं। मैंने पूछा आप सब लोग। बेन बोली," हम सब मुंबई से, वो जो इधर बैठा था।  मेरा छोटा भाई है। यह साल में दो बार कम से कम सौ डेढ़ सौ लोगों को मथुरा मथुरा वृंदावन की यात्रा पर अपने खर्चे से हैं ले जाता है। गरीब रथ ए सी ट्रेन है। खाना बढ़िया बाहर से ऑर्डर का होता है जो गरम गरम आ जाता है। 2 दिन मथुरा वृंदावन सबको यात्रा, वहां के मशहूर खाने खिलवाने के साथ करवाएंगे। किसी को वहां एक पैसा खर्च नहीं करने देते और फिर सबको बांद्रा स्टेशन पर जय श्री कृष्णा करेंगे। हमारे साथी जो भजन गाते हैं, साज बजाते हैं इनमें कोई भी प्रोफेशनल नहीं है, यह सब गाते बजाते हैं।  कन्हैया ने जहां-जहां अपने कदम रखें  मथुरा, वृंदावन, गोकुल, बरसाने के दर्शन करेंगे। बेन रात को बहुत आनंद आता है। खूब भजन कीर्तन  करते हैं। भाई ने शादी नहीं किया। व्यापार में खूब कमाई है। सब अच्छे कामों में लगाता है। हर बार यह कोशिश करता है हमारा कोई दोस्त साथी मथुरा वृंदावन देखे बिना ना रह जाए। हर बार पहले  उनका नंबर लगता है जो पहले नहीं आए। सब एक ही स्टेशन से चढ़ते हैं और  उनको वहीं छोड़ा जाता है। कृष्णा की कृपा से अब तक यात्रा में कोई परेशानी नहीं आई है ना ही किसी की कभी तबीयत खराब  हुई है। आप भी चलो न, बहुत आनंद आएगा जब हम लौटेंगे इसी स्टेशन  मथुरा से आप दिल्ली चले जाना, हम मुंबई। फिर दुनिया जहान की बातें करते करते सो गए। सुबह 07.27 पर गाड़ी मथुरा में 2 मिनट के लिए रूकती है। सब अपना सामान लेकर लाइन में लग गए ताकि भगदड़ न मचे । 6:00 बजे तक यह सब लगभग उठ चुके थे। बैडिंग इकट्ठे करने वाला भी कंबल चादर तह कर रहा था।  डिब्बा खाली हो रहा था तो वह यहां का काम पहले निपटा रहा था। जब तक वह हमारे पास आया।  गाड़ी रुक गई, पूरा डिब्बा खाली हो गया। यह क्या! 2 मिनट से ज्यादा हो गए, गाड़ी चली नहीं। जब उसने मेरे सामने की सीट से कंबल उठाया वहां दो मोबाइल बेन के भाई के रखे थे। जल्दी-जल्दी में उस पर बेन  ने कंबल सरका दिया था। भाई को याद नहीं रहे होंगे। मैंने देखते ही झटपटकर मोबाइल उठाएं। कर्मचारी चिल्लाया आपके हैं!! मैंने उसे जवाब नहीं दिया, दरवाजे की ओर नंगे पैर दौड़ी, दरवाजा पास ही था और उनके ग्रुप की ओर चिल्लाने लगी इतने में उसके भाई की ही नजर मुझ पर पड़ी, गाड़ी हिलने लग गई थी। वह अपनी जेबों पर हाथ मारते हुए, मेरी तरफ दौड़ा। मेरे हाथ से मोबाइल लेते ही गाड़ी ने स्पीड पकड़ ली और मैं एकदम पलटी, मेरे पीछे ही कर्मचारी खड़ा था। और कुछ सवारिया एकदम पूछने लगी क्या हुआ था? क्या हुआ?  वह कर्मचारी बोला," अभी जो बैठे थे ना उनके बहुत कीमती दो फोन  छूट गए थे। उन्हें दे दिए। उनके फोन उनके पास पहुंचते ही, मैं बता नहीं सकती मुझे कितना अच्छा लगा!! वरना सारे तीर्थ यात्रियों का स्वाद बिगड़ जाता। सब कुछ तो उनका इंतजाम, खाना, रहना  उन मोबाइलों  में ही तो कैद था। उनके लिए  कन्हैया ने जहां  जन्म से लेकर बचपन बिताया वैसे ही पराया शहर हो जाता। पर  माखन चोर, नंदकिशोर अपने भक्तों के  साथ ऐसा कैसे होने दे सकते थे!

Thursday, 12 August 2021

दिल्ली सेे मुंबई, Garib Rath से रेल यात्रा नीलम भागी

गीता के जन्म से और उसके अमेरिका जाने तक 3 साल मैं दिल्ली से मुंबई और मुंबई से दिल्ली आती-जाती रही। कारण, उत्कर्षनी उन दिनों सरबजीत फिल्म की कहानी और डायलॉग लिखने में व्यस्त रहती थी। कहानी ही ऐसी थी कि इसमें  वो भी दुखी हो जाती थी कभी कभी तो लिखते हुए रो पड़ती थी। जिसके  कारण छोटी सी गीता के चेहरे पर भी  उदासी आ जाती थी। वो घर में बैठकर  लेखन करती और अपनी कहानी की दुनिया में खो जाती। बचपन से उसकी आदत है पढ़ना लिखना वह दिल से करती है इसलिए उसमें खो जाती है। मैं लिखती हूं तो उसे समझती हूं। सुबह 9 से रात 9:00 बजे तक गुड़िया गीता की देखभाल के लिए आती थी। मैं वहां रहने लगी। पर मैगजीन के सिलसिले में मुझे बहुत बार नोएडा आना पड़ता था। मुझे हमेशा रेल से सफ़र करना पसंद है क्योंकि रेल यात्रा में हमारी संस्कृति भी साथ चलती हैं और सहयात्रियों से बतियाना भी चलता है। एयरपोर्ट घर से बहुत दूर है कम से कम 4 घंटे पहले निकलना पड़ता है और जाम का  भी डर  लगता है लेकिन निजामुद्दीन स्टेशन 20 मिनट की दूरी पर है। ट्रेन में शाम 4 बजे के बाद बैठो बतियाओ, सो जाओ सुबह उठो तो मुंबई। शुरु में मुझे मुंबई समझ नहीं आता था। मैं जहां पर ट्रेन खत्म होती थी, वहां तक जाती थी। वहां से सैयद मुझे पिक अप कर लेते थे। फिर मुंबई सेंट्रल से या बांद्रा से लोखंडवाला आना यानि मुंबई दर्शन। कुछ समय पहले ही मेरा अचानक आने जाने का प्रोग्राम बनता था।

हमेशा  पहले मेरी उत्कर्षिनी से लड़ाई होती। वह मुझे फ़्लाइट में भेजना चाहती मैं ट्रेन से आना चाहती और ट्रेन से ही आती। मजबूरी या जब राजीव उत्कर्षिनी भी जब दिल्ली आते तब फ्लाइट पकड़ती।  राजधानी में सीनियर सिटीजन महिला को 50% की किराए में छूट थी और कुछ रिजर्वेशन थी।  इसलिए उसमें बुकिंग  पहले से रहती थी, सीट मिलना मुश्किल रहता। मुझे कभी-कभी ही सीट मिल पाती थी क्योंकि मेरा आना कम समय में बनता था। राजधानी अंधेरी में रुकती थी तब मैं अंधेरी से ट्रेन पकड़ती क्योंकि ये लोखंडवाला के पास है। और मैं चाहती थी कि मैं जल्दी सीनियर सिटीजन हो जाऊं। उन दिनों मुझे दिल्ली मुंबई की सभी ट्रेनों में सफ़र करने का मौका मिला, जिसमें भी सीट मिल जाती।  सबसे अच्छी मुझे गरीब रथ ट्रेन लगती थी। इस में 16 घंटे पता नहीं कैसे मेरे बीत जाते थे। इसमें टिकट 45+ वर्षीय  सिंगल महिला होने के कारण लोअर सीट इसलिए  मिल जाती थी क्योंकि  महिला के लिए इसमें  reserve सीट थी लेकिन किराए में छूट नहीं थी। इतने ही किराए में राजधानी में सीनियर सिटीजन महिला को सफ़र पड़ता था तो कोई क्यों गरीब रथ में आएगा भला!! इसलिए मुझे सीट मिल जाती थी। जिस भी ट्रेन में आई हूं, कोटा जंक्टी्श स्टेशन जरुर आता है। और गाड़ी 5 मिनट तक रुकती है। गाड़ी के चलते ही चाय कॉफी के वेंडर आते, चाय कॉफी से हमारी यात्रियों से बातचीत शुरू  हो जाती है। मेरी हमेशा सामने की सीट से दोस्ती होती थी। हम इतनी बातें करते कि एक दूसरे का नंबर लेना और एड्रेस लेना याद ही नहीं रहता। यहां तक की वे अपनी चालाकी समझदारी कुछ भी नहीं छुपाते जैसी बात होती हैं, खुलकर बताते हैं। पहली बार गरीब रथ में यात्रा  की ।  मेरे सामने की सीट पर  मथुरा से एक सज्जन चढ़े। उन्होंने कोटा जाना था।  हमेशा मुझे इसमें सहयात्री बातें करने वाले मिले हैं। कोटा जाने वाले सज्जन से मैंने पूछा," आप कोटा में ही रहते हैं। यहां कि क्या खासियत है? सभी  गाड़ियां भी रुकती हैं  और खूब सवारी चढ़ती उतरती हैं। उन्होंने बताया,"  मैं अमुक जाति से हूं। उनके यहां व्यापार ही होता है। पर जिनके लड़के डॉक्टर, इंजीनियर  आईआईटी कर गए।  उनके  लड़को की शादी में बहुत कैश मिलता है। मेरे दो लड़के हैं और एक लड़की। कोटा में आईआईटी की तैयारी कराने का उद्योग चलता है। जहां के कोचिंग सेंटर बहुत मशहूर हैं। मैं अपने बड़े लड़के को लेकर यहां आया।   उसके रहने खाने की व्यवस्था में लगा रहा। कमरे का किराया मुझे बहुत लगा। मथुरा में हमारा  सड़क पर घर है नीचे खली(पशुओं को खिलाने) की दुकान। घर जाना है तो सीढ़ी चढ़ गए। घर में बैठने से अच्छा तो दुकान करना इसलिए सुबह से दुकान में बैठे रहते हैं। सबको पता है लाला जी वही रहते हैं इसलिए जब चाहे खली लेने आ जाते हैं। न हम कहीं आते न जाते। पैंट बुशर्ट भी पार्टी में ही पहनी। घरवाली ने शादी का सूट ऐसे संभाला है कि जब पहनता हूं तो आज भी नया लगता है। मैंने  हिसाब लगाया कि साल में इतना किराया देना होगा फिर दूसरा लड़का पढ़ने आएगा तो उसका इतना लगेगा लड़की पढ़ने आएगी उसका भी कितना लगेगा इसलिए मैंने कोचिंग के पास ही मकान खरीद लिया। बेटे के आने जाने का समय और किराया भाड़ा भी बच गया। उसने अपने साथी पी जी रख लिए। मेरा लड़का तो पहले साल में ही आई आई टी  में आ गया। दूसरे लड़के ने भी वहीं से तैयारी की और सिलेक्ट हो गया। अब लड़की वहां से  तैयारी कर रही है। लड़की के साथ मैंने उसकी मां को भी वहीं  रखा है। पेपर होते ही मकान बेच दूंगा। मैं मार्किट में रेट  पता कर रहा हूं। 3 बच्चों का अपने घर में रहना भी हो गया, मेरा एक पैसा भी नहीं लगा और मकान की कीमत भी मुझे ढाई गुना मिल गई। मेरे बेटे के सेलेक्ट होते ही, हमारे यहां से ही लड़के वहां जाने लगे। रहते वे वहां, किराया मुझे यहां मिलता। इतनी तेजी से  मकान की कीमत बढ़ी, मैंने सोचा ही नहीं था।  अब दुनिया जहान की बातें करता जा रहा था।" मैंने पूछा," आप लोगों को यह रास्ते कैसे मिल जाते हैं?"उसने जवाब दिया,"  हम दुकानदार हैं। ग्राहकों से संबंध बन जाता है। वे लोग ही समझा जाते हैं।  कहां हम अनपढ़ लोग?"  मैं भी सोचने लगी मुझे कौन सा इस तरह का व्यापार पता था। और ऐसा नया किस्सा सुनने को मिला।

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Sunday, 8 August 2021

स्यापा नीलम भागी Siyapa Neelam Bhagi

 

राज ने मुझसे पूछा, "दीदी, ताई जी कहां है? कब तक आएंगी? " मुझे नहीं पता था। मैंने भी जवाब में प्रश्न ही किया, "क्यों कोई काम है?" वह बोली, "हां  मेरी जेठानी की मां मर गई है।  उसके सियापे में उन्हें ले जाना है। वे वाह वाह  रौनक लगाती है। देवरानी जेठानी बहने बहने ही होती हैं।  नहीं तो मेरी जेठानी कहेगी कि इसके मायके वालों को मेरी मां के मरने का दुख नहीं हुआ है। मैं सुनकर हैरान! मरने पर भी कोई  दुख का दिखावा करता है। शाम को जब मामी जी, जो  मेरे ननिहाल कपूरथला में सबकी ताई जी कहलाती थीं, जैसे ही घर आई तो मैंने उन्हें बताया कि राज ने आपको, उसकी जेठानी के मायके ले जाना है। उसकी मां मर गई है। यह सुनते ही मामी जी ने झोला पटका और मुझे को साथ लेकर राज के घर चली गई और उससे कहां कि तू तो हमारी बेटी है, जरा फिकर मत कर। कितने बजे और कब जाना है? बताओ हम तैयार रहेंगे। यह सुनकर राज के चेहरे पर बड़ी तसल्ली आई। हम घर आ गए। अब मामी जी को जैसे बहुत बड़ा इवेंट मिल गया हो। यह मेरी अनपढ़ बड़ी मामी  घरेलू मामलों में पीएचडी थी। हर मौके पर कैसा व्यवहार करना है उसमें ये निपुण थी और बीएचयू में  पढ़े, मेरे बड़े मामा से ब्याही थी। मामा का गवर्नमेंट जॉब था। वे पढ़ने के शौकीन और मामी जी,आस पड़ोस की जानकारी रखने की शौकीन। वे उन्हें  किस्से सुनाती, मामा किताब में आंखें गड़ाए, हां हूं करते रहते थे। हमेशा यह ट्रांसफर के कारण, परिवार से बाहर रहे। मामा की रिटायरमेंट के बाद वे ननिहाल के सामने दूसरे अपने मकान में रहने आ गई। इकलौते बेटे की शादी करने के बाद, मामा उन्हें लेकर हरिद्वार रहने चले गए। अचानक मामा जी  स्वर्ग चले गए । मामी फिर कपूरथला आ गई। अब वे सामाजिक कामों में यानि मोहल्लेदारी में व्यस्त रहती थी। मसलन खुशी के मौके पर परिवार की सभी बहुओं को भेजती और दुख के या बीमारी के समय हालचाल पूछने खुद जाती थीं । उत्कर्षिनी के जन्म से पहले कपूरथला में मैं छोटे मामा श्री निरंजन दास जोशी के पास रह रही थी। सुषमा भाभी मुझसे काम नहीं कराती थी। रात को मैं पढ़ती। पर दिन भर मेरा बड़ी मामी की शागिर्दी में कटता था। यानि इधर उधर बतियाना  और हाथ से बुनाई करन। मामी मुझे तरह-तरह के स्वेटर बुनने सिखाती और मोहल्ला पंचायत में मुझे साथ लेकर बैठती। ज्यादातर वे सुबह अपने मायके करतारपुर बस पकड़ कर  जाती और शाम को लौट आती। मेरे ममेरे भाई हरीश ने मजाक में  कहा," ताई जी अमुक दुकानदार मुझसे पूछ रहा था कि तेरी ताई कहीं नौकरी करती है? सुबह जाती है और शाम को लौट आती है।" अब मामी जी ने जाना कम कर दिया सिर्फ़ हफ्ते में दो बार ही जाती। मैं स्यापा वगैरा जानती नहीं थी। मेरे लिए यह बहुत उत्सुकता का विषय था, राज से पता चला कि इसमें  मेरी मामी पारंगत थी। 8 महिलाओं ने जाना था जिसमें 4 राज के परिवार की थीं। मामी ने मुझे कहा,"  राज हमारी बेटी की तरह है। तेरे मामा के स्कूल में पढ़ाती है। उसकी जेठानी के मायके में ऐसी  छाप छोड़ कर आएंगे कि वे याद केरेंगे कि कपूरथलेवालियों जैसा स्यापा (शोक में रोना पीटना)कोई नहीं कर सकता। अचानक उन्हें याद आया कि सुल्तानपुर से उर्मिल को भी बुलवा लेती हूं। मैंने पूछा," मामी जी वे  क्या करेगी?" मामी बोली,"  वो ऐसे बैन डालती है कि दीवारें भी रो पड़े और स्यापे में, मेरा साथ अच्छे तरीके से देती है।" मैंने पूछा मामी जी बैन क्या होते हैं? उन्होंने मुझे  घुड़कते हुए कहा," कॉलेज जाती थी तुझको यह भी नहीं पता बैन क्या होते हैं?" मैंने कहा," मम्मी जी मेरे कॉलेज में बॉटनी, जूलॉजी, केमिस्ट्री पढ़ाई जाती थी,  बैन नहीं पढ़ाए जाते थे।" ये सुनकर वे चुप हो गई, अब मुझे समझाने लगी कि मृतक के बारे में एक महिला रोते हुए  उसके बारे में बताती है कि अब उसके बिना कैसे होगा !! बाकि रो रो के दोहराती हैं।  मैंने पूछा कि जेठानी की मां को तो कोई नहीं जानता तो उसके बारे में आप कैसे बोलोगे? मामी बोली," मां के बारे में तो कोई भी बोल सकता है क्योंकि मां तो सबकी  एक सी होती है। मैंने कहा," मैं भी जाऊंगी?"  मम्मी बोली नहीं, तूं प्रेगनेंट है, ऐसे मौके पर शोक ग्रस्त परिवार में नहीं जाते। अब मैं भला कहां मानने वाली!! जिस कार्यक्रम की इतनी देर से तैयारी हो रही हो। बाहर से भी भाभी को बुलाया जा रहा हो। मैं भी स्यापा देखूंगी क्योंकि मैंने पहले कभी यह सब स्यापा देखा ही नहीं था। मैंने तो दुख में आंखों से चुपचाप से आंसू निकलते देखें है।  मामी ने कहा कि तूं गाड़ी में बैठी रहना। उनके घर नहीं जाना। मैं इतने में ही खुश हो गई। उन दिनों फोन की सुविधा नहीं थी। सुलतानपुर लोधी जाने वाली बस में हरीश भाई ने किसी सवारी से संदेश भेज दिया और उर्मिल भाभी भी  स्यापे में जाने के लिए आ गई। अगले दिन राज गाड़ी में अपनी मां बहन और भाभी को लेकर आ गई। हम भी उसमें बैठ गए। ड्राइवर उनके मोहल्ले का ही कोई लड़का था जो अपनी गाड़ी चलाता था। चलते ही हंसी मजाक करते हुए संतरे, मूंगफली खाते खाते हम शेखुपुरा पहुंच गए। मामी ने ड्राइवर से कहा कि काके उनके घर से चार घर पहले गाड़ी लगा देना। वहीं से स्यापा करते जाएंगे ताकि पड़ोसियों को पता चले की देवरानी के मायके वाले आए हैं। काका और भी समझदार! उसने गाड़ी साइड में लगाई है और वहां किसी से पूछा कि यहां जो बूढ़ी मरी थी, उनका घर कहां पर है और पूरा जुगराफिया समझ कर आया।  जब हम पहुंचे तो जिठानी के परिवार ने बाहर ही धूप में मातमपुर्सी के लिए दरिया  बिछाई हुई थी। हमारी महिलाओं ने दूर से दुखी मुंह बनाया। सफेद कपड़ों में सामने बैठी महिलाएं गाड़ी की ओर देखने लगी। हमारी गाड़ी से जो जो महिला उतरती जाती वह नाक तक पल्लू करती जाती। इतने में मेरी मामी ने बड़ी ऊंची हूंक  लगाकर कर रोने की आवाज निकाली। सारी महिलाओं ने भी उसी स्वर में रोने की आवाज निकाली और उस घर की ओर  घूंघट निकालें झुंड में चल दी और वहां पर गोल घेरे में खड़ी हो गई। दो हाथ गालों पर, फिर सीने पर उसके बाद जांघों पर 1,2,3, की गिनती पर सबके हाथ एक साथ चल रहे थे और एक ताल में थप थप की आवाज़ आ रही थी।  मामी और उर्मिल भाभी को सब कॉपी कर रही थी। एक स्यानी महिला ने मामी का हाथ पकड़ा फिर सबके हाथ रुक गए। इसके बाद बैठकर फिर एक दूसरे के गले लग कर ऊं ऊं ऊं ऊं करके रोने लगीं। एक स्वर मेरी मामी निकालती, हाय वे! मांवा ठंडिया छावा, ऊं ऊं ऊं,...  मां नहीं मिलती। बाकि बोली, नहीं मिलेगी कर रही थी। एक महिला ने राज और उसकी जेठानी को अलग किया। अब सभी ने नाक और आंखें पोछी और घुंघट थोड़ा ऊंचा उठाके आंखों तक करके बैठ गई और बतियाने लगी।


  बातें करने लगी कि मां कैसे मरी? सब ध्यान से सुन रही थी। बीच में किसी ने पूछा," गाड़ी में कौन बैठी है?" उन्होंने बताया कि ड्राइवर की बहन है रास्ते में इसका घर पड़ता था। उसको भी ले आया कि वो 4 दिन मायके रह जाएगी, पेट से है। जेठानी बोली," उसे भी  बुला लो।  घर के अंदर नहीं जाते। हम तो बाहर ही बैठे हैं धूप में ,यह भी बैठ जायेगी। मैं भी जाकर बैठ गई। मामी मुझे बहुत प्यार करती थी मेरे बालों में टपकता हुआ तेल डालकर काली परांदे से कसके मेरी चोटी बांध देती थी और मैं सचमुच उस समय काके की बहन लग रही थी ।
अब मरने वाले की बातें छोड़कर, इधर उधर की बातें शुरू हो गई। उन्होंने चाय नाश्ता कराया, खाना खिलाया। फिर से सबने जेठानी के पीठ पर प्यार से हाथ फेरा और जल्दी से गाड़ी में बैठ गए।
गाड़ी स्टार्ट होते ही राज ने मुझसे पूछा,"चंगी रौनक लगाई न!"  मेरे मुंह से निकल गया  पड़ोस के  लोग भी आ गए थे तमाशा देखने के लिए। मैंने सोचा कि तमाशा सुन कर इनको बुरा लगेगा। पर ये तो  बहुत खुश हुई कि उनका शो हिट गया।

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Wednesday, 4 August 2021

काले गोरे का फ़र्क यहां!! नीलम भागी

 


समझदार बिल्ली साल में एक या दो बार बच्चे देने हमारे घर आती है। इस बार उसने 3 बच्चे दिए दो बादामी और  एक काला है।


दोनों बादामी तो आपस में बहुत मिलकर रहते हैं, खेलते हैं , कुर्सी पर बैठते हैं । लेकिन  काले को मुंह नहीं लगाते। न ही कभी उसे कुर्सी पर बैठने देते हैं। वह हमेशा नीचे बैठता है।

जब वे थोड़े बड़े हो जाते हैं तो मेरी 92 साल की अम्मा उनको अंदर तो घुसने नहीं देती।  कभी-कभी वह तीनों हमारे आंगन में आकर खेलते हैं और जब उनकी मां आ जाती है, तब उसके साथ चले जाते हैं । पिछला आंगन  उनका जन्म स्थान  हैं। जब वे बहुत छोटे थे तब मैं वहां जब भी किसी काम से जाती तो उस समय अगर समझदार बिल्ली आती तो सबसे पहले वह दोनों बादामी अपनी मां को चिपक जाते हैं, कालू चुपचाप दूर खड़ा देखता। वे मां को खूब  लाड करते लेकिन मां तो मां ही होती है। कुछ देर बाद  मां उन्हें एक घुड़की देती तो दोनों भाग कर अलमारी के पीछे चुप खड़े हो जाते और वहां से झांकते।


अब कालू मां से लाड लड़ाता था। मां भी उसे खूब प्यार करती जब वह पेट भर के दूध पी लेता और खुद हटता था तब मां उन दोनों बादामियों को आने देती। यह सिलसिला देखने में मुझे बहुत मजा आता। जब ये हमारा घर छोड़कर जाते हैं, तो  कभी यहां विजिट करने आते हैं तब मैं सब काम छोड़ कर इनकी हरकतें देखती हूं। मां पानी से भरी कटोरी में इन्हें पानी नहीं पीने देती, पंजे से गिराती है, जो पानी बिखर जाता है उसे इन्हें जमीन से चाटना सिखाती।


दोनों बादामी कुर्सी पर बैठ जाते हैं। उनमें से भी, जो तगड़ा है, वह लेट भी जाता है और फैल कर सो जाता है और दूसरा बादामी चुपचाप बैठ कर उसे देखता है। पर कालू को कुर्सी पर बैठने की परमिशन नहीं देते हैं। वह कुर्सी के नीचे ही बैठता है।


पहली बारिश आने पर वह डर के कपड़ों के बीच में कुर्सी पर छुप जाते हैं पर कालू नीचे पहली बरसात को देखते हुए कांपता है।


लेकिन मां शायद जानती है कि दोनों बादामी इसको इग्नोर करते हैं तभी तो वह कालू को ट्रेनिंग देती है कि अगर बाहर कुत्ता आ जाए तो गेट के जंगले में से कैसे अंदर आना है! बदामी खड़े देखते हैं पर सिखाने का सब काम मां कालू को ही करती है। यह सब देख कर मेरे दिमाग में आता है कि जानवरों में भी रंगभेद होता है!
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Monday, 2 August 2021

प्रशासन को कोसने का मौसम नीलम भागी

 

मेरठ में केंद्रीय  विद्यालय डोगरा लाइंस से हम सब  घर पैदल आते थे। हमारे रास्ते में सी डी ए ऑफिस के सामने गोला मैदान में बहुत बड़ा आम का बाग था। जो हमारे स्कूल और घर के रास्ते के बीच में पड़ता था, वहां से गुजरना हमें बहुत पसंद था। हमेशा हम सड़क का रास्ता छोड़ कर मैदान से ही पेड़ों के नीचे से निकल कर जाते थे। जब स्कूल साइकिल से आने-जाने लगे तब भी पक्की सड़क छोड़कर कच्चे रास्ते  में से बाग से ही निकलते थे। क्योंकि वहां पेड़ों के बीच में एक  तालाब था। वहां पेड़ के नीचे कुछ देर बैठ कर तालाब के पानी को देखने से हमारी  थकान उतार जाती। गर्मी की छुट्टियों के बाद हमारा स्कूल जून के आखिरी हफ्ते में खुलता था तब तालाब सूखा होता था। उसकी मिट्टी में दरारें पड़ी होती थी। बरसात होती तो तालाब  भी भरता पर अगले दिन पानी गायब! ऐसा ही  काफी बरसात होने तक चलता रहता था। हमेशा  बरसात होती, अगले दिन लौटते हुए तालाब पर जाते कि आज हमें वहां पर पशु पक्षी पानी पीने आते, भैंसे नहाती है दिखेंगे पर पानी गायब होता पानी कहां चला जाता! ये देख, हम बच्चों की एक ही राय होती की जमीन सारा पानी पी जाती है। उसको बहुत प्यास लगती है। तालाब जमीन के लिए पानी भर के रखता है। लेकिन बरसात के एक महीने के बाद से तालाब  भरा रहता था। जब पानी कुछ कम होता तो बीच में जो भी बरसात होती है उससे पानी भर जाता और धरती की प्यास तो बरसात ने पहले ही बुझा दी थी। थोड़ी बहुत बीच में होने वाली बरसात बुझा देती थी और तालाब को भर  देती थी। हमारी गर्मी की छुट्टियां आने तक तालाब भरा रहता था। स्कूल छूट गया, तालाब भी छूट गया। नोएडा आई यहां कोई आस पास तालाब था ही नहीं। जबलपुर गई तो भेड़ा घाट के रास्ते में पहला तालाब आया तो मैं फोटो लेने लगी। ड्राइवर बोला कितनी फोटो लीजिएगा? यहां तो 50-52 ताल है। तालाब देखते ही मेरे दिमाग में बचपन का गोला मैदान का तालाब आ जाता, जिसके चारों ओर पूरा एक इकोसिस्टम चल रहा था।





अब बरसात में कभी घर से बाहर जाते ही सड़कों पर स्विमिंग पूल बने देखकर गोला मैदान का तालाब मन में नहीं आता बल्कि यह जलभराव देखकर दुख होता है कि यह सारा पानी इंतजार कर रहा है  नालियों से

नालों में जाने का, व्यर्थ बह जाने का। ना कि धरती की प्यास बुझाने का। कहने को देशभर में रेन वाटर हार्वेस्टिंग


के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए भू जल सप्ताह का आयोजन किया जाता  है परंतु व्यवहारिक रूप है ना तो बारिश के जल को संचित करने का प्रयास किया जा रहा है और ना ही जल की बर्बादी पर पूरी तरह लगाम लग पाई है। लाखों घन मीटर बारिश का पानी  बह जाता है। लोगों का भी पानी की बर्बादी में बहुत बड़ा योगदान है जो भी घर बनाता है वह अपने घर के आस-पास सुंदर टाइल  लगा के या फर्श पक्का करके ऐसा पुख्ता इंतजाम कर लेता है कि मजाल है जो वर्षा का जल जमीन के अंदर चला जाए और वह भू जलस्तर को सुधारने में मदद
करें।  कारण सिर्फ  यहां हमारी गाड़ी खड़ी होगी  का स्वार्थ। बरसात के पानी की बर्बादी से कोई मतलब नहीं है। पहले सड़क के फुटपाथ इस तरह होते थे कि वर्षा होते ही पानी जमीन मे जाता था लेकिन अब लोगों द्वारा बनाए, पक्के फर्श के कारण जलभराव हो जाता है और फिर प्रशासन को कोसने का काम शुरू हो जाता है कि पानी भरा है, हाय पानी भरा है यानि कि बरसात का मौसम प्रशासन को कोसने का सबसे अच्छा मौसम होता है। अपनी गलती कोई नहीं देखता। ऐसे तो भूजल स्तर गिरता ही जाएगा। पानी व्यर्थ ना जाए इसके लिए बरसात आने से पहले ही वाटर हार्वेस्टिंग पर सबसे ज्यादा ध्यान देना होगा। स्कूल में एक कविता पढ़ी थी "प्यासी धरती देख मांगती तो क्या मेघो से पानी" पर यहां तो मेघ पानी देते हैं पर हम धरती की प्यास बुझाने में कोई मदद नहीं करते हैं।
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