गीता के जन्म से और उसके अमेरिका जाने तक 3 साल मैं दिल्ली से मुंबई और मुंबई से दिल्ली आती-जाती रही। कारण, उत्कर्षनी उन दिनों सरबजीत फिल्म की कहानी और डायलॉग लिखने में व्यस्त रहती थी। कहानी ही ऐसी थी कि इसमें वो भी दुखी हो जाती थी कभी कभी तो लिखते हुए रो पड़ती थी। जिसके कारण छोटी सी गीता के चेहरे पर भी उदासी आ जाती थी। वो घर में बैठकर लेखन करती और अपनी कहानी की दुनिया में खो जाती। बचपन से उसकी आदत है पढ़ना लिखना वह दिल से करती है इसलिए उसमें खो जाती है। मैं लिखती हूं तो उसे समझती हूं। सुबह 9 से रात 9:00 बजे तक गुड़िया गीता की देखभाल के लिए आती थी। मैं वहां रहने लगी। पर मैगजीन के सिलसिले में मुझे बहुत बार नोएडा आना पड़ता था। मुझे हमेशा रेल से सफ़र करना पसंद है क्योंकि रेल यात्रा में हमारी संस्कृति भी साथ चलती हैं और सहयात्रियों से बतियाना भी चलता है। एयरपोर्ट घर से बहुत दूर है कम से कम 4 घंटे पहले निकलना पड़ता है और जाम का भी डर लगता है लेकिन निजामुद्दीन स्टेशन 20 मिनट की दूरी पर है। ट्रेन में शाम 4 बजे के बाद बैठो बतियाओ, सो जाओ सुबह उठो तो मुंबई। शुरु में मुझे मुंबई समझ नहीं आता था। मैं जहां पर ट्रेन खत्म होती थी, वहां तक जाती थी। वहां से सैयद मुझे पिक अप कर लेते थे। फिर मुंबई सेंट्रल से या बांद्रा से लोखंडवाला आना यानि मुंबई दर्शन। कुछ समय पहले ही मेरा अचानक आने जाने का प्रोग्राम बनता था।
हमेशा पहले मेरी उत्कर्षिनी से लड़ाई होती। वह मुझे फ़्लाइट में भेजना चाहती मैं ट्रेन से आना चाहती और ट्रेन से ही आती। मजबूरी या जब राजीव उत्कर्षिनी भी जब दिल्ली आते तब फ्लाइट पकड़ती। राजधानी में सीनियर सिटीजन महिला को 50% की किराए में छूट थी और कुछ रिजर्वेशन थी। इसलिए उसमें बुकिंग पहले से रहती थी, सीट मिलना मुश्किल रहता। मुझे कभी-कभी ही सीट मिल पाती थी क्योंकि मेरा आना कम समय में बनता था। राजधानी अंधेरी में रुकती थी तब मैं अंधेरी से ट्रेन पकड़ती क्योंकि ये लोखंडवाला के पास है। और मैं चाहती थी कि मैं जल्दी सीनियर सिटीजन हो जाऊं। उन दिनों मुझे दिल्ली मुंबई की सभी ट्रेनों में सफ़र करने का मौका मिला, जिसमें भी सीट मिल जाती। सबसे अच्छी मुझे गरीब रथ ट्रेन लगती थी। इस में 16 घंटे पता नहीं कैसे मेरे बीत जाते थे। इसमें टिकट 45+ वर्षीय सिंगल महिला होने के कारण लोअर सीट इसलिए मिल जाती थी क्योंकि महिला के लिए इसमें reserve सीट थी लेकिन किराए में छूट नहीं थी। इतने ही किराए में राजधानी में सीनियर सिटीजन महिला को सफ़र पड़ता था तो कोई क्यों गरीब रथ में आएगा भला!! इसलिए मुझे सीट मिल जाती थी। जिस भी ट्रेन में आई हूं, कोटा जंक्टी्श स्टेशन जरुर आता है। और गाड़ी 5 मिनट तक रुकती है। गाड़ी के चलते ही चाय कॉफी के वेंडर आते, चाय कॉफी से हमारी यात्रियों से बातचीत शुरू हो जाती है। मेरी हमेशा सामने की सीट से दोस्ती होती थी। हम इतनी बातें करते कि एक दूसरे का नंबर लेना और एड्रेस लेना याद ही नहीं रहता। यहां तक की वे अपनी चालाकी समझदारी कुछ भी नहीं छुपाते जैसी बात होती हैं, खुलकर बताते हैं। पहली बार गरीब रथ में यात्रा की । मेरे सामने की सीट पर मथुरा से एक सज्जन चढ़े। उन्होंने कोटा जाना था। हमेशा मुझे इसमें सहयात्री बातें करने वाले मिले हैं। कोटा जाने वाले सज्जन से मैंने पूछा," आप कोटा में ही रहते हैं। यहां कि क्या खासियत है? सभी गाड़ियां भी रुकती हैं और खूब सवारी चढ़ती उतरती हैं। उन्होंने बताया," मैं अमुक जाति से हूं। उनके यहां व्यापार ही होता है। पर जिनके लड़के डॉक्टर, इंजीनियर आईआईटी कर गए। उनके लड़को की शादी में बहुत कैश मिलता है। मेरे दो लड़के हैं और एक लड़की। कोटा में आईआईटी की तैयारी कराने का उद्योग चलता है। जहां के कोचिंग सेंटर बहुत मशहूर हैं। मैं अपने बड़े लड़के को लेकर यहां आया। उसके रहने खाने की व्यवस्था में लगा रहा। कमरे का किराया मुझे बहुत लगा। मथुरा में हमारा सड़क पर घर है नीचे खली(पशुओं को खिलाने) की दुकान। घर जाना है तो सीढ़ी चढ़ गए। घर में बैठने से अच्छा तो दुकान करना इसलिए सुबह से दुकान में बैठे रहते हैं। सबको पता है लाला जी वही रहते हैं इसलिए जब चाहे खली लेने आ जाते हैं। न हम कहीं आते न जाते। पैंट बुशर्ट भी पार्टी में ही पहनी। घरवाली ने शादी का सूट ऐसे संभाला है कि जब पहनता हूं तो आज भी नया लगता है। मैंने हिसाब लगाया कि साल में इतना किराया देना होगा फिर दूसरा लड़का पढ़ने आएगा तो उसका इतना लगेगा लड़की पढ़ने आएगी उसका भी कितना लगेगा इसलिए मैंने कोचिंग के पास ही मकान खरीद लिया। बेटे के आने जाने का समय और किराया भाड़ा भी बच गया। उसने अपने साथी पी जी रख लिए। मेरा लड़का तो पहले साल में ही आई आई टी में आ गया। दूसरे लड़के ने भी वहीं से तैयारी की और सिलेक्ट हो गया। अब लड़की वहां से तैयारी कर रही है। लड़की के साथ मैंने उसकी मां को भी वहीं रखा है। पेपर होते ही मकान बेच दूंगा। मैं मार्किट में रेट पता कर रहा हूं। 3 बच्चों का अपने घर में रहना भी हो गया, मेरा एक पैसा भी नहीं लगा और मकान की कीमत भी मुझे ढाई गुना मिल गई। मेरे बेटे के सेलेक्ट होते ही, हमारे यहां से ही लड़के वहां जाने लगे। रहते वे वहां, किराया मुझे यहां मिलता। इतनी तेजी से मकान की कीमत बढ़ी, मैंने सोचा ही नहीं था। अब दुनिया जहान की बातें करता जा रहा था।" मैंने पूछा," आप लोगों को यह रास्ते कैसे मिल जाते हैं?"उसने जवाब दिया," हम दुकानदार हैं। ग्राहकों से संबंध बन जाता है। वे लोग ही समझा जाते हैं। कहां हम अनपढ़ लोग?" मैं भी सोचने लगी मुझे कौन सा इस तरह का व्यापार पता था। और ऐसा नया किस्सा सुनने को मिला।
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