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Saturday 26 February 2022

गंगूबाई काठियावाड़ी फिल्म ने तो साठ के दशक में पहुंचा दिया!! नीलम भागी

 


हॉल में सबसे पहले जाकर अपनी लास्ट सीट पर बैठ कर, आने वाले दर्शकों को देख रही थी। जिसमें महिलाएं ज्यादा थीं और सीटें भरती जा रहीं थीं। हैरानी इस बात पर कि कोई भी दर्शक फिल्म शुरु होने के बाद नहीं आया, शायद वे भी मेरी तरह कुछ भी मिस नहीं करना चाह रहे होंगे। 

   शिक्षित संपन्न परिवार की नौंवी पास टीनएज़ छात्रा यानि 16 साल की खूबसूरत गंगा अपने पिता के कर्मचारी रमणीक से दिल की गहराइयों से प्यार करती है। पर वह तो प्यार के आड़ में व्यापार कर रहा है। वह गंगा को हीरोइन बनाकर, उसके हिरोइन बनने के सपने को पूरा करने का उसे विश्वास दिलाता हैं। गंगा अपने साथ घर का पैसा जेवर लेकर रमणीक के साथ मुंबई भाग जाती है। मुंबई पहुंच कर इस प्यार को रमणीक ने व्यापार में तब्दील करके मुनाफा कमाया, गंगा के साथ आया धन लेकर और गंगा को बेच कर एक हजार रुपए का। अब गंगा कमाठीपुरा की हजारों बेकसूर तन मन से लुटी महिलाओं के बीच में उन्हीं हालातों को अपनी नियति मान कर रहने लगती है। 

     आसान नहीं था गंगा से गंगू, गंगू से गंगूबाई काठियावाड़ी बनना। 

  बायोपिक फिल्म है तो कोई भी उसके साथ चमत्कार नहीं दिखाया गया है। बहुत कठिन था उसका रास्ता, जिसे दमदार डॉयलाग और एक सीन से दूसरे सीन में धाराप्रवाह दर्शाना जो उचित प्रकाश व्यवस्था के कारण फिल्म को बोझिल नहीं बना रहा है। बल्कि बहुत मनोरंजक ढंग से गंगूबाई की जीवन यात्रा को परोस रहा है।  प्रकाश कापड़िया और उत्कर्षिनी वशिष्ठ  के लिखे गज़ब डॉयलाग, जो हंसाते हुए दिल में उतर जाते हैं। क्रूर ग्राहक से बुरी तरह जख्मीं गंगू जब डॉन की मुहबोली बहन बनती है इसलिए लेडी डॉन का खिताब उसे मिलना ही है। जिनको परिवार भी नहीं अपनाता है। गंगू ने डरा कर नहीं, उन महिलाओं और उनके बच्चों के हक लिए आवाज उठा कर, उनके दिलों में अपने लिए सम्मान और प्यार की जगह बनाई है। उन महिलाओं की जीवन शैली और गंगू की कार्यशैली को बड़ी खूबसूरती से पर्दे पर दर्शाया गया है।

सबसे अच्छा सीन मुझे गंगूबाई का आजाद मैदान में साथ लाए, लिखे हुए भाषण को फाड़ कर, भाषण देना लगा है। जिस जीवन को वह जी रही है। अपनी चार हजार महिलाओं को भोगते हुए देख रही है। उसे कोई कुछ समय विजिट करने वाला कैसे शब्दों में लिख सकता है? गंगू जिस भाव से बोल रही है, वह उसका जिया और आंखों देखा हाल है। उसे भला पढ़ कर किताबी भाषा बोलने की क्या जरुरत? कमाल का लेखन! जो भावुक करने के साथ साथ  हंसाता भी है।

   स्क्रीन प्ले और डॉयलाग लेखन सराहनीय है इसलिए फिल्म में सर्पोट के लिए जरा भी वलर्गर सीन और शरीर दिखाने को अहमियत नहीं दी गई है। कस्ट्यूम डिजाइन का चुनाव फिल्म के अनुरुप और उस दशक के हैं। साउंडट्रैक दिलचस्प और सीन का साथ दे रहा है।

 आलिया भट्ट(गंगूबाई) का अभिनय कमाल का, शांतनु महेश्वरी(अफ़शान) सच्चा प्रेमी लगा, विजय राज (रजिया) की भूमिका में जब भी आए छा गए हैं। अजय देवगन ने रहीम लाला का किरदार बखूबी निभाया। सीमा पहवा (शीला मासी), इंंिदरा तिवारी (कमली), जिम सरभ (फैजी जर्नलिस्ट), अनमोल कजानी (बिरजू) सभी का अभिनय सराहनीय है। हुमा कुरैशी विवाह समारोह में जान डाल गई। शाम कौशल के एक्शन सीन अच्छे हैं।

  संजय लीला भंसाली की फिल्म है इसलिए कमी तो उनकी नजरों से बच ही नहीं सकती है। अलग अंदाज में बनी गंगूबाई काठियावाड़ी फिल्म की सिनेमेटोग्राफी, बैग्राउंड स्कोर, म्यूजिक और डांस बहुत शानदार हैं। इस फिल्म को देखने के बाद मन में आता है कि इसे न देखते तो जरुर कुछ मिस करते।    


Thursday 24 February 2022

जब गंगुबाई काठियावाड़ी फिल्म देखोगी, तब आप ही इसका जवाब देना।’’ नीलम भागी Gangubai Kathiawari Neelam Bhagi


 उत्तकर्षिनी वशिष्ठ अंतरराष्ट्रीय लेखिका का लॉस एन्जिलस से फोन आया बोली,’’मां मुझे बर्लिन से ऑफिशियल लैटर आ गया है, गंगुबाई के प्रीमियर में जाने के लिए।’’ मैंने उसकी आगे नहीं सुनी और  तुरंत बोलने लगी,’’जा बेटी, जरुर जा, तुझे जाना ही है।’’उसने फोन काट दिया। मुझे बुरा नहीं लगा क्योंकि वह अत्यंत व्यस्त लेखिका है। समय का फर्क होने के कारण मैं उसे कॉल नहीं करतीं, मैसेज़ करती हूं। वह मुझे उसकी सुविधा अनुसार कॉल करती है। 

      उसे गंगुबाई के प्रीमियर में जाने का कहने के बाद मुझे चिंता होने लगी कि उसकी छोटी बेटी दित्या कुल छ महिने की है और गीता भी 6 साल की है। बेटियों की परवरिश में कोई कमी न रहे इसलिए लेखन घर में रह कर करती है। जनवरी में मुम्बई में प्रीमियर था। वह राजीव और दोनों बेटियो के साथ भारत आ रही थी और मैं नौएडा से मुम्बई जा रही थी। कोरोना के कारण फिर परिवर्तन हुआ।  

   2011में संजय लीला भंसाली ने उसे भंसाली प्रोडक्शन में नियुक्त किया और उसे समझाया कि तुम अपने विचारों और शब्दों को लेखन में उतारो। लिखते समय ये मत सोचो कि तुम्हारा लेखन कैसा बिजनैस करता है और वह गंगुबाई की कहानी में खो गई। उन दिनों मैं मुम्बई में थी। वह लैपटॉप पर लिखती, अचानक उठ कर वॉशरुम जाती और मुंह धोकर आती। मैं उसका चेहरा देख कर समझ जाती कि ये रोकर आ रही है। कभी उसकी सहेलियां वीकएंड पर घूमने या पिक्चर का प्रोग्राम बनातीं। वह बीच में हमें छोड़ कर आ जाती  थी। हम आकर दूसरी चाबी से दरवाजा खोलते, देखते वह लैपटॉप पर लिख रही होती थी। मैंने एक दिन पूछा,’’बेटी तूं दीन दुनिया से बेख़बर ऐसा क्या लिख रही है!!’’उसने जवाब दिया,’’ मां जब फिल्म बनेगी तब देखकर आप ही इसका जवाब देना।’’

अगली बार मैं मुम्बई गई तो उत्कर्षिनी एयरपोर्ट के बाहर खडी थी। चेहरे पर वही भाव जो उसका पहली बार र्बोड का रिजल्ट आने से पहले था। मैंने कारण पूछा तो उसने बताया,’’मां पता नहीं पहले गंगुबाई बनेगी या रामलीला।’’मैंने जवाब दिया,’’ बेटी मैं जब टी.वी. पर कोई प्रोग्राम देखतीं हूं तो ब्रेक में चैनल बदलती हूं। अगर किसी चेनल पर संजय लीला भंसाली की देवदास आ रही होती है फिर तो देवदास ही देखती हूं। जो प्रोग्राम देख रही थी, उसे भी पूरा नहीं देखती हूं जबकि जितनी देवदास अब तक बनीं हैं सब देख चुकी हूं। शरद चंद्र का नॉवल भी पढ़ चुकी हूं पर फिर भी देखती हूं! हमारे खानदान में दूर दूर तक कोई फिल्म इंडस्ट्री में नहीं है न! वे बहुत अनुभवी हैं और जब वे गंगुबाई बनायेंगे तब हम बहुत खुश होंगे। ये सोचना उनका काम है। अब उसका चेहरा नार्मल हो गया। 

    ’गोलियों की रासलीला रामलीला’ में उत्तकर्षिणी इस फिल्म की एसोसियेट डायरेक्टर थी। संजय लीला भंसाली के लिए उनका कहना है कि वे फिल्म निर्माण के विश्वविद्यालय हैं। उनके साथ काम करने का मतलब है सीखना। भंसाली जी का और उत्कर्षिनी का फोन पर भी और मिलने पर भी गंगूबाई पर काम लगातार चलता रहता था।

   अचानक  दो चार दिन बाद बेटी का फोन,’’मां, मैं बर्लिन पहुंच गई।’’मैंने पूछा,’’दित्या!!’’ उसने फोटो के साथ मैसेज़ किया, अपने पापा के साथ पार्टी कर रही है। पड़ोसी दूसरे देशों के मित्र परिवार अमेरिका में राजीव जी का सहयोग कर रहे थे। उत्कर्षिनी के पास गीता दित्या की जो फोटो जाती, वह मुझे फॉरवर्ड करती थी। जैसे उत्कर्षिनी गंगुबाई के लेखन के समय उसमें खो गई थी। वैसे ही मैं सोशल मीडिया पर गंगूबाई फिल्म पर जो भी आ रहा है। उसे देखने, पढ़ने में खो जाती हूं। गंगूबाई के निर्माण में भी बहुत बाधाएं आई। तीन बार तो कोविड के कारण निर्माण रोकना पड़ा। दो साल में सब कठिनाइयों पर विजय पाकर यह लाजवाब गंगूबाई फिल्म बनी। उत्कर्षिनी ने घर लौटते ही गीता और दित्या का लाइव विडियों दिखाया। मैंने भगवान और Utkarshini Vashishtha  के मित्र परिवारों का धन्यवाद किया। अब फिल्म देखने जा रही हूं।






   





Thursday 17 February 2022

हरि-द्रोही से हरदोई भाग 3 नीलम भागी अखिल भारतीय साहित्य परिषद का त्रैवार्षिक अधिवेशन

 


जलपान करने के बाद परिसर में लगी प्रदर्शनी देखने चल दी। जिसका प्रवेश द्वार बहुत सुन्दर बनाया गया था।


प्रवेश करते ही होलिका दहन का दृश्य था। होलिका के स्थान पर मैं लकड़ियों में जाकर बैठ गई।

शहर का नाम भी हरि-द्रोही से हरदोई नाम पड़ा अर्थात जो भगवान से द्रोह करता हो। कहते हैं कि हिर्ण्याकश्यप्प ने अपने नगर का नाम हरिद्रोही रखवा दिया। उसके पुत्र प्रह्लाद जो भगवान विष्णु का भक्त था। उसने विद्रोह किया। पुत्र प्रह्लाद को दण्ड देने के लिए उसकी बहिन होलिका अपने भतीजे प्रह्लाद को लेकर अग्नि में बैठ गई। उसके पास एक जादुई चुनरी थी जिसे ओढ़ने के बाद अग्नि में न भस्म होने का वरदान उसे प्राप्त था। ईश्वरीय वरदान के गलत प्रयोग के कारण, चुनरी ने उड़ कर प्रह्लाद को ढक लिया। होलिका जल कर राख हो गई। प्रह्लाद एक बार फिर ईश्वरीय कृपा से बच गया। होलिका के भस्म होने से उसकी राख को उड़ा कर खुशी मनाई। होलिकादहन के बाद अबीर गुलाल उड़ा कर खेले जाने वाली होली इस पौराणिक घटना का स्मृति प्रतीक है। आज भी यहां श्रवण देवी का मंदिर है और प्रहलाद कुण्ड है। एक यज्ञशाला भी है जहां होलिका प्रह्लाद को लेकर बैठी थी। पुराणों में उल्लेख है कि जब हिर्ण्याकश्यप को वरदान मिला था कि वह साल के बारह माह में कभी न मरे तो भगवान ने मलमास की रचना की। अधिक मास अर्थात परषोतम मास भगवान विष्णु ने मानव के पुण्य के लिए ही बनाया है। प्रदर्शनी की जितनी प्रशंसा की जाए कम है। हरदोई के छोटे से अल्लीपुर में इस भव्य आयोजन में भारत दिखाई दिया। प्रदर्शनी सभी राज्यों के साहित्य परिषद के कार्यों का वैभव पूर्ण प्रदर्शन कर रही थी। सबसे अच्छा आइडिया मुझे पर्यावरण संरक्षण के लिए पेड़ लगाने का तरीका लगा। ये मेरी अपनी सोच है कि पेड़ लगा कर उसके चारों ओर एक मीटर का घेरा छोड कर कुर्सी की ऊंचाई तक दीवार बना दी जाये तो यह बाउण्ड्री ट्री गार्ड का भी काम करेगी और बैठने के भी काम आयेगी इससे पेड़ के विकास में भी बाधा नहीं आयेगी। कुछ देर मैंने यहां लगाए केले के पेड़ के नीचे बैठ कर देखा। प्रदर्शनी देखते हुए बाहर आई तो निकास द्वार भी बहुत सुन्दर सजा रखा था।  

   11 बजे उद्घाटन सत्र था इसलिए सभागार में पहुंची। सभागार करोना को ध्यान में रख कर बनाया था जिसमें क्रास वैटिंलेशन लाजवाब था और सभागार का नाम ’अमर बलिदानी शहीद स्व. मेजर पंकज पाण्डेय’ रखा गया है।  अधिवेशन का केन्द्रीय विषय था- ’साहित्य का प्रदेय’। इस अधिवेशन का उद्घाटन कन्नड़ के विख्यात उपन्यासकार पद्म पुरुस्कार से सम्मानित श्री एस. एल. भैरप्पा ने मां सरस्वती के समक्ष दीप प्रज्जवलित कर किया। उद्घाटन सत्र को संबोधित करते हुए श्री एस. एल. भैरप्पा ने कहा कि भारत की समृद्ध ज्ञान परम्परा रही है। हमारे पास पौराणिक साहित्य का विपुल भण्डार है। रामायण आदि महाकाव्य हैं। उन्होंने कहा कि साहित्य का उद्देश्य है जीवन मूल्यों को प्रतिष्ठित करना। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय बौद्धिक प्रमुख श्री स्वान्त रंजन ने कहा कि अंग्रेजों ने सुनियोजित तरीके से भारत एक राष्ट्र नहीं है और आर्य बाहर से आए हैं इत्यादि मनगढंत बातें फैलाई हैं। आज यह सब बातें असत्य सिद्ध हो चुकी हैं। भारत प्राचीन राष्ट्र है। शहर में रहने वाले, गांव, वनवासी और गिरिवासी सभी मूल निवासी हैं। उन्होंने कहा कि जैसे राष्ट्र और नेशन अलग हैं, उसी तरह धर्म और रिलीजन अलग है। आज आवश्यकता है इन सब बातों को हम साहित्य के विविध माध्यमों से समाज के सामने रखें। श्री रंजन ने साहित्यकारों का आह्वाहन किया कि सभी भारतीय भाषाओं का उन्नयन कैसे हो, इस पर काम करने की आवश्यकता है। दो बजे तक ये सत्र चला और सबको भोजन के लिए आमन्त्रित किया। अगला सत्र तीन बजे से था। क्रमशः     


Saturday 5 February 2022

लो फिर बसंत आया, मन में उमंग छाया उत्सव मंथन नीलम भागी

विभाजन के बाद मेरे पिताजी का लाहौर से स्थानान्तरण प्रयागराज हुआ तो मेरी धार्मिक पुस्तकें पढ़ने वाली दादी, गंगा जी के कारण बहुत खुश थी। पंजाब में सभी रिश्तेदार इसलिये खुश थे कि जब भी वे हमारे यहाँ आयेंगें तो गंगा जी जायेंगे। अम्मा बताती हैं कि आजादी के बाद वहाँ जो पहला कुंभ 1954 में आया तो सब रिश्तेदार पंजाब से प्रयागराज बड़े हिसाब किताब से आये थे। जिसमें मौनी अमावस, बसंत पंचमी, माघी पूर्णिमा और कुंभ संक्रान्ति का उत्सव भी आ गया। इन उत्सवों में नदियों में स्नान करने की परंपरा है। कोई भी संस्कार कर्म करने से पहले लोटे में जल लेकर गंगा, यमुना, गोदावरी, सरस्वती, नर्मदा, सिंधु, कावेरी, कृष्णा, इन सातों नदियों का आह़़वान किया जाता है। और प्रयागराज में तो इनमें से तीन नदियों की त्रिवेणी है। कोई शुभ दिन हो, चलो, गंगा जी नहाने। अब मेरी ठेठ पंजाबी ब्राह्मण दादी, भोजपुरी गीत गातीं थीं। सत्तू, भूजा या चबेना उनका फास्ट फूड हो गया था। अपनी अनपढ़ सखियों के साथ, माघ मेले(वार्षिक मिनी कुंभ) जातीं। वहां से लोक गीत सुनकर आतीं और घर आकर गातीं। शब्द चाहे गलत हों पर स्वर से नहीं भटकती थीं और उनकी अनपढ़ सखियां कोरस बहुत अच्छा देतीं थीं। तभी तो बचपन में मेरी मैमोरी में फीड हो गया और आज लिखते समय धुन समेत गुनगुना रहीं हूं। मसलन

इधर बहै गंगा, उधर बहै यमुना, बिचवा में सरस्वती की धार।

माघवा महिनवा, त्रिवेणी के तट पर, जाइबो मैं करिके सिंगार ।

ओ गंगा तोरी लहर, सबही के मन भायी’.... 2 

तीर्थराज का जान महातम, ऐसो ही भज लै न रामा, ऐसो ही भज लै न।

अरे गंगा गोता खाय खाय के, हमहूं तर गयो न।

हो धन धन गंगे मात, सबही कै मन भाई। हो गंगा तोरी..... 

हमारे अवतारों की जन्मभूमि प्राचीन नगर, महानगर या तीर्थस्थल नदियों वाले शहरों में है। र्तीथस्थल हमारी आस्था के केन्द्र हैं। यहाँ जाकर मानसिक संतोष मिलता है। देश के कोने कोने से तीर्थयात्री माघ मेला में आते हैं। सभी तीर्थ भी अपने राजा से मिलने प्रयागराज, माघ में  आते हैं। इसलिए श्रद्धालु भी पौष पूर्णिमा से माघी पूर्णिमा तक यहां रहना, अपना सौभाग्य मानते हैं। एक ही स्थान पर समय बिताते हुए प्रदोष, माघी पूर्णिमा, गुरु रविदास जयंती, जानकी जयंती, छत्रपति शिवाजी जयंती, दयानंद सरस्वती जयंती मिलजुल कर मनाते हैं। अपने प्रदेश की बाते करते हैं और दूसरे की सुनते हैं। कुछ हद तक देश को जान जाते हैं। उनमें सहभागिता आती है। अपने परिवेश से नये परिवेश में कुछ समय बिताते हैं। कुछ एक दूसरे से सीख कर जाते हैं, कुछ सीखा जाते हैं। मानसिक सुख भी प्राप्त करते हैं। धर्म लाभ तो होता ही है। 

मौनी अमावस को मौन धारण कर गंगा जी या अपने आसपास नदी न होने पर वैसे ही स्नान करके तिल के लड्डू, तिल का तेल, आंवला वस्त्रादि का दान करते हैं। मौन व्रत भी तो मन को साधने की यौगिक क्रिया है। इस दिन मनु ऋषि का जन्म हुआ था। इस उत्सव में ठिठुरती ठंड में अध्यात्मिक आनन्द मिलता है।


  फूली हुई है सरसों और धरती तो फूलों के गहनों से सजने लगी है। ऋतुराज बसंत के स्वागत में। यानि ’बसंत पंचमी का उत्सव’ सब ओर रंग और उमंग। पीले कपड़े पहनना, पीले चावल या हलुआ बनाना, खाना, खिलाना और परिवार सहित सरस्वती पूजन करना। इस दिन बिना साहे के विवाह संपन्न किए जाते हैं। कोई भी शुभ कार्य कर सकते हैं। बच्चे का अन्नप्राशन यानि पहली बार अन्न खिलाने का संस्कार कर सकते हैं। परिवार का सबसे बड़ा सदस्य बच्चे को खीर चटाता है। बसंत पंचमी के बाद से बच्चे को सॉलिड फूड देना शुरु किया जाता है। वैसे बच्चे को छ महीने का होने पर पहले ही अन्न देने लगते हैं। पर अन्नप्राशन संस्कार बसंत पंचमी को कर लेते हैं। 

बच्चे का तख्ती पूजन(अक्षर ज्ञान) करते हैं। सरस्वती पूजन के बाद तख्ती पर हल्दी के घोल से बच्चे की अंगुली से स्वास्तिक बनवाते हैं। परिवार बोलता है

गुरु गृह पढ़न गए रघुराई, अल्पकाल सब विद्या पाई। 

और बच्चे की स्कूली शिक्षा शुरु होती है।       

पूर्वांचल में बसंत पंचमी को होलिका दहन के लिए ढाड़ा गाढ़ देते हैं।

फगुआ के बिना होली कैसी!! अब फगुआ, फाग, जोगीरा और होली गायन शुरु हो जाता है। जिसमें शास्त्रीय संगीत, उपशास्त्रीय संगीत और लोकगीत हर्षोल्लास से गाए जाते हैं। प्रवासी घर जाने की तैयारी शुरु कर देते हैं।

वृंदावन बांके बिहारी मंदिर, शाह बिहारी मंदिर, मथुरा के श्री कृष्ण जन्मस्थान और बरसाना के राधा जी मंदिर में ठाकुर जी को बसंत पंचमी के दिन पीली पोशाक पहनाई जाती है और पहला अबीर गुलाल लगा कर होलिका दहन के लिए ढाड़ा गाड़ा जाता है और बसंत पंचमी से फाग गाने की शुरुआत होती है। देश विदेश से श्रद्धालु ब्रजमंडल की होली में शामिल होने के लिए तैयारी शुरु कर देते हैं। बसंत पंचमी से ब्रज में चलने वाले 40 दिन के उत्सव पर, होलिका दहन को अनोखा नजा़रा देखना अपने सौभाग्य की बात है, ऐसा माना जाता है।  

खिचड़ी मेला गुरु गोरखनाथ जी के मंदिर गोरखपुर(जिले का नाम गुरु गोरखनाथ के नाम पर है) में मकर संक्राति को शुरु होता है जो एक महीने से अधिक समय फरवरी तक चलता है। मकर संक्राति को तड़के से खिचड़ी चढ़ाई जाती है। किसान अपनी पहली फसल की खिचड़ी चढ़ाने के लिए लाइनों में लगे होते हैं। इस प्रशाद की खिचड़ी को मंदिर की ओर से बनाया जाता है और विशाल मेले के साथ, मंदिर में खिचड़ी का भंडारा चलता है। रविवार और मंगलवार के दिन खास महत्व होता है। मेले में झूले और हर तरह के सामान, खाने पीने की दुकाने लगी रहती हैं। गुरु गोरखनाथ के खिचड़ी मेले में कोई भूखा नहीं रह सकता। खिचड़ी का प्रशाद खाओ और मेले का आनन्द उठाओ। देश के बड़े आयोजनों में यह मेला है।

माघ पूर्णिमा को काशी में जन्में संत रविदास की जयंती पवित्र नदी में स्नान करके उनके रचे पदों दोहों को कीर्तन में गाया जाता है। उनका जीवन बताता है कि भक्ति के साथ सामाजिक, परिवारिक कर्त्तव्यों को भी निभाना चाहिए। उनका कहना था कि ’मन चंगा तो कठौती में गंगा’

ब्राह्मण मत पूजिए जो होवे गुणहीन

पूजिए चरण चंडाल के, जो होवे गुण प्रवीण

हर नदी वहाँ के स्थानीय लोगो के लिये पवित्र है और उनकी संस्कृति और उत्सवों से अभिन्न रूप से जुड़ी है। नदियों को माँ कहा जाता है। जैसे माँ निस्वार्थ संतान का पोषण करती है। वैसे ही नदी हमें देती ही देती है। जीवनदायनी नदियों को लोग पूजते हैं, मन्नत मानते हैं। वनवास के समय सीता जी ने भी गंगा मैया पार करने से पहले, उनसे सकुशल वापिस लौटने की प्रार्थना की थी। इसलिए जानकी जयंती पर श्रद्धालु पवित्र नदी का पूजन भी करते हैं। यही हमारे उत्सवों की मिठास है जिसमें प्रकृति भी हमारे साथ है.

केशव संवाद के फरवरी अंक में प्रकाशित यह लेख