अरुणा ने आज चहकते हुए घर में कदम रक्खा और बड़ी खुशी से मुझे बताया,’’दीदी मेरे बेटे ने कहा कि इस गणपति पर वह मुझे सोने की चेन लेकर देगा।’’मैंने पूछा कि तेरे बेटे की बढ़िया नौकरी लग गई हेै क्या? वो बोली,’’नहीं दीदी, मेरा बेटा बहुत अच्छा ढोल बजाता है। बप्पा को ढोल, नगाड़े बजाते, नाचते हुए लाते हैं और ऐसे ही विसर्जन के लिए ले जाते हैं। इन दिनों गणपति बप्पा उस पर बड़ी मेहरबानी करते हैं।’’ और बिना कहे गाते हुए ’सजा दो घर को दुल्हन सा, गजानन मेरे घर में आएं हैं ’ घर का कोना कोना चमकाने लगी। मेरा मुम्बई में यह पहला गणपति उत्सव था। मेरे मन में बड़ा उत्साह था कि मैं स्वतत्रंता सेनानी समाज सुधारक लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक द्वारा रोपा पौधा सार्वजनिक गणेश उत्सव, जो आज विशाल वट वृक्ष बन गया है जिसकी शाखाएं पूरे देश में जम गईं हैं उसे मुम्बई में मनाउंगी। 10 दिनों तक चलने वाला सबसे बड़ा त्यौहार है।
तिलक ने हमारे अग्रपूज्य, दक्षिण भारत के कला शिरोमणि गणपति को, 1893 में पेशवाओं के पूज्यदेव गजानन को बाहर आंगन में विराजमान किया था। आम आदमी ने भी, छुआछूत का भेद न मानते हुए पूजा अर्चना की, सबने दर्शन किए। उस समय का उनका शुरु किया गणेशोत्सव, राष्टीªय एकता का प्रतीक बना और समाज को संगठित किया। आज यह पारिवारिक उत्सव, समुदायिक त्योहार बन गया है।
कई दिन से अस्थाई दुकानों में बरसात से बचाते हुए, हर साइज के गणपति सजे हुए थे और महानगर गणपतिमय था।
हमारी सोसाइटी में भी बड़ी जगह का इंतजाम किया गया था। गणपति के लिए वाटर प्रूफ मंदिर बनाया, स्टेज़ बनाई गई और बैठने की व्यवस्था की गई। सभी फ्लैट्स में गणेश चतुर्थी से अनंत चतुदर्शी तक होने वाले बौद्धिक भाषण, कविता पाठ, शास़्त्रीय नृत्य, भक्ति गीत, संगीत समारोह, लोक नृत्य के कार्यक्रमों की समय सूची पहुंच गई थी।
सांस्कृतिक कार्यक्रमों की मैं सूची पढ़ती जा रही थी और अपनी कल्पना में, मैं तिलक की आजादी की लड़ाई से इसे जोड़ती जा रही थी। इनके द्वारा ही समाज संगठित हो रहा था, आम आदमी का ज्ञान वर्धन हो रहा था और छुआछूत का विरोध हो रहा था। गणेश चतुर्थी की पूर्व संध्या को सब तैयार होकर गणपति के स्वागत में सोसाइटी के गेट पर खड़े हो गए। ढोल नगाड़े बज रहे थे और सब नाच रहे थे। गणपति को पण्डाल में ले गए। अब सबने जम कर नाच नाच कर, उनके आने की खुशी मनाई। आवाहन से लेकर विर्सजन तक श्रद्धालु, आरती, पूजा, सांस्कृतिक कार्यक्रमों में लगभग सभी उपस्थित रहते। गणपति को कभी अकेला नहीं छोड़ा जाता था। बच्चों को इन दिनों पण्डाल में रहना पसंद था। मांए खींच खींच कर इन्हें घर में खिलाने पिलाने लातीं, खा पीकर बच्चे फिर पण्डाल में। रात को ये नन्हें दर्शक, जो प्रोग्राम यहां देखते, दिन में गर्मी की परवाह किए बिना वे उसकी नकल दिन भर स्टेज पर करते। सभी बच्चे इस समय कलाकार होते। दर्शकों की उन्हें जरुरत ही नहीं थी। मुझे बच्चों के इस कार्यक्रम में बहुत आनंद आता।
बारिश तो कभी भी आ जाती है पर कोई परवाह नहीं, न ही कभी किसी के श्रद्धा और उत्साह में कमी दिखती है। घरों में भी गणपति 1,3,5,7या 9 दिन बिठाते हैं। गौरी पूजन, दो दिन लक्ष्मी पूजन, छप्पन भोग आदि के निमन्त्रणों सब व्यस्त रहते हैं। गणपति से मिलने बेटियां भी मायके आती हैं और बहुएं भी मायके जाती हैं।
मसलन हमारे सामने के फ्लैट में रहने वाले परिवार ने गणपति बिठाए तो उनके तीनों भाइयों के परिवार वहीं आ गए। पूजा तो हर समय नहीं होती बच्चे आपस में घुल मिल रहें हैं। महिलाओं पुरुषों की अपनी गोष्ठियां चल रहीं थी। एक दिन अप्टमी मनाई गई। ऐसा कहा जाता है कि इस दिन गौंरा अपने गणपति से मिलने आती हैं। उपवास रखकर, कुल्हड़ के आकार या गुड़ियों के रुप में गौरी पूजते और सबको भोजन कराते हैं। दक्षिणा उपहार देते हैं पर उस दिन जूठन तक नहीं फेंकते। यहां तक कि पान खिलाया तो उसका कागज भी दहलीज से बाहर नहीं डालते। अगले दिन दक्षिणा उपहार ले जा सकते हैं। शाम को आरती के बाद कीर्तन होता। उसमें नाचते गाते हैं। मंगलकारी बप्पा साल में एक बार तो आते हैं। इसलिए उनके सत्कार में कोई कमी न रह जाए। अपनी सामर्थ्य के अनुसार मोदक, लड्डू के साथ तरह तरह के व्यंजनों का भोग लगाते हैं। जो सब मिल जुल कर, प्रशाद में खाते हैं। थोड़ी सी जगह में संबंधियों मित्रों के साथ आनंद पूर्वक नाच भी लेते हैं।
लगातार तीन साल तक गणेशोत्सव में मैं प्रतिदिन कहीं न कहीं गई हूं। वहां हर जगह नियंत्रित भीड़ और जिस भी सोसाइटी के गणपति उत्सव में मैं गई, देखा सब थोड़ी जगह में एडजस्ट हो जाते हैं। दोनों समय की आरती में सभी की कोशिश होती है कि वे जरुर पहुंचें। मेड और मैम दोनो एक दूसरे का सहयोग करते हैं। काम में नागा विसर्जन पर ही एक दिन का। आपके घर मेड काम कर रही है। सोसाइटी के गणपति की आरती शुरु हो गई। उसी समय काम छोड कर, हाथ धो कर बोलेगी,’’दीदी, मैं जाकऱ आती।’’ और आरती में जाकर शामिल हो जाती। समापन पर आकर वैसे ही जल्दी जल्दी काम में लग जाती।
विर्सजन का दिन तो मुझे घर से बाहर ही रहने को मजबूर करता। गणेश चतुर्थी के बाद मैं पहली बार लोखण्डवाला से इन्फीनीटी मॉल के लिए निकली। सोसाइटी के गेट से बाहर निकलते ही देखती हूं। एक लड़की ने बड़ी श्रद्धा से गणपति गोद में ले रखे हैं। दूसरी लड़की साथ चल रही है। और ढोल की ताल पर उनके पैर चल रहें हैं। उनके चेहरे से टपकती श्रद्धा को तो मैं लिखने में असमर्थ हूं। मनचला तो मुंबई में होता ही नहीं है। सामने से भी बड़ा विर्सजन जूलूस आ रहा था। इसमें ढोल से ज्यादा ऊंची आवाज़ में श्रद्धालु जयकारे लगा रहे थे,’’गणपति बप्पा मोरिया, अगले बरस तूं जल्दी आ।’’मैंने सैयद से पूछा,’’ये दोनों लड़कियां क्यों विर्सजन के लिए अकेली जा रहीं थीं?’’सैयद बोले,’’बाहर की होंगी। बप्पा ने जल्दी सुन ली होगी। नई नौकरी होगी, तभी तो एक दिन के गणपति बिठाएं हैं।’’
सैयद जहां से भी रास्ता बदलते वहीं हमें विसर्जन का जूलूस मिलता ये देख मैं दावे से कह सकती हूं कि आस्था और भक्ति भाव से किए उन नृत्यों को जिन्हें मैंने विर्सजन जूलूस में देखा है उसे दुनिया का कोई भी कोरियोग्राफर नहीं करवा सकता। गणपति के आकार में और जूलूसों में श्रद्धालुओं की संख्या में र्फक था पर चेहरे के भाव को दिखाने के माप का अगर यंत्र होता तो सबका एक ही होता। किसी के गणपति चार या तीन पहिए के सजे हुए ठेले पर हैं, सजे हुए ऑटो रिक्शा में तो किसी ने उन्हें सिर पर बिठा रक्खा है। कोई बहुत सजे हुए ट्रक में विराजमान हैं।
पर सब गणपति से विनती कर रहें हैं ’’ अगले बरस तूं जल्दी आ।’’
अगले दिन उत्कर्षिनी बोली,’’संगीता दास के घर गणपति आये हैं। उसका घर दूर हैं पहले उसके घर जायेंगे फिर विजेता के गणपति से मिलेंगे।’’गीता लहंगा पहन कर तैयार हुई। संगीता के घर हम तीन बजे पहुंचे। वह फिल्म इण्डस्ट्री में है, यहां अकेली रहती है। भतीजी चंचल दास(टुन्नु) दूरी के कारण होस्टल में रह कर पढ़ती है। किसी कारणवश गाँव नहीं जा पाई। गणपति को अकेला तो छोड़ते नहीं। घर में दादी के गणपति के पास तो परिवार है। यहां वह बुआ के गणपति के पास आ गई।
संगीता ने बड़ी प्लेटों में तीनों को अलग अलग, बहुत वैराइटी का प्रशाद दिया। सब कुछ घर में बनाया हुआ और बहुत स्वाद। उत्कर्षिनी ने पूछा,’’अकेली ने इतना सब कैसे बनाया!! एक को तो गणपति के पास बैठना है। टुन्नु चाय बना कर लाई बोली,’’कोई आता है तो चाय पानी प्रशाद मैं लाती हूं, बुआ उनसे बात करती है।’’ संगीता ने जवाब दिया,’’तीन दिन के लिए तो गणपति आएं हैं। बाजार का भोग लगाने को मन नहीं मानता, मैं बहुत शौक से बनाती हूं। विजेता का घर तो हमारे रास्ते में था। वहां हम आरती के समय पहुंचे। पण्डित जी नौ बजे के बाद आरती करवाने आए, वो बहुत बिजी थे। आरती सम्पन्न होने तक घर के सभी सदस्य पहुंच गए थे सबने भोजन प्रसाद साथ किया। रात 11 बजे हम लौटे।
आनंद चर्तुदशी के दिन सोसाइटी के गणपति का विर्सजन था। सायं चार बजे से नाचते जयकारे लगाते, सब गणपति के जूलूस में चल दिए। पर्यावरण का ध्यान रखते हुए, वर्सोवा में एक तालाब बनाया था, वहां विर्सजन था। ट्रक में गणपति बाकि पैदल नाचते हुए जा रहे थे। मैं बैक रोड से जल्दी जल्दी पेैदल पहुंच गई। वहां बड़ा मंच बना हुआ था। गणमान्य लोग उस पर बैठे थे। मैं किसी तरह तालाब के सहारे मंच के पास खड़ी हो गई। इस जगह से मुझे तीनों सड़कों से आते विसर्जन के जुलूस दिख रहे थे। लोग अपने गणपति के साथ प्रतीक्षा कर रहे थे। अपने नम्बर से पहले आरती करते। माइक से जब सोसाइटी का नाम बोला जाता तो वो गणपति को सुनिश्चत जगह पर लाते, तालाब में खड़े तीन आदमियों में से दो बड़ी श्रद्धा से गणपति लेकर विसर्जित करते। जोर जोर से जयकारे लगते और म्यूजिक बजता। मैं अपनी सोसाइटी के गणपति के इंतजार में खड़ी थी। पर वे नाचते हुए आ रहे थे। अब वे लाइन में लगे हैं।
और मेरे दिमाग में अब तक की सुनी गणपति की कथाएं चल रहीं थीं। महर्षि वेदव्यास ने गणपति को महाभारत की कथा लिखने को कहा क्योंकि उनके विचार प्रवाह की रफ्तार से, कलम साथ नहीं दे रही थी। उन्होंने गणेश चतुर्थी के दिन लिखना स्वीकार कर किया पर तय कर लिया था कि वे लगातार लिखेंगे जैसे ही उनका सुनाना बंद होगा, वह आगे नहीं लिखेंगे। महर्षि ने भी गणपति से विनती कर कहा कि आप भी एडिटिंग साथ साथ करेंगे। गणपति ने स्वीकार कर लिया, जहां गणपति करेक्शन के लिए सोच विचार करने लगते, तब तक महर्षि अगले प्रसंग की तैयारी कर लेते। वे लगातार कथा सुना रहे थे। दसवें दिन जब महर्षि ने आखें खोलीं तो पाया कि गणपति के शरीर का ताप बढ़ गया है। उन्होंने तुरंत पास के जलकुंड से जल ला कर उनके शरीर पर प्रवाहित किया। उस दिन भाद्रपद की चतुर्दशी थी। इसी कारण प्रतिमा का विर्सजन चतुर्दशी को किया जाता है। महाराष्ट्र इसे मंगलकारी देवता के रूप में व मंगलपूर्ति के नाम से पूजता है।
गणपति उत्सव की शरूवात, सांस्कृतिक राजधानी पुणे से हुई थी। शिवाजी के बचपन में उनकी मां जीजाबाई ने पुणे के ग्रामदेवता कस्बा में गणपति की स्थापना की थी। तिलक ने जब सार्वजनिक गणेश पूजन का आयोजन किया था तो उनका मकसद सभी जातियों धर्मों को एक साझा मंच देना था। पहला मौका था जब सबने देव दर्शन कर चरण छुए थे। उत्सव के बाद प्रतिमा को वापस मंदिर में हमेशा की तरह स्थापित किया जाने लगा तो एक वर्ग ने इसका विरोध किया कि ये मूर्ति सबके द्वारा छुई गई है। उसी समय निर्णय लिया गया कि इसे सागर में विसर्जित किया जाए। दोनों पक्षों की बात रह गई। तब से विर्सजन शुरु हो गया। हमारे गणपति का रात नौ बजे विर्सजन हुआ और मैं सबके साथ घर लौटी। कोरोना काल में मित्रों की गणपति की घर में मनाई तस्वीरे आ रहीं थीं। गमलों पौधों से सजा कर, लाल आसन पर गणपति को हरियाली से सजे कुंज में बिठाया है। प्रथम लेखक गणपति, शक्ति(लाल) समृद्धि(हरा) लाते हैं। और बताया कि इस साल कोरोना संक्रमण के कारण लोगों से अपील की है कि इस दौरान गाइड लाइन का पालन करें।
आगमन, विर्सजन के जूलूस नहीं निकल रहे थे। कोरोना मुक्त भारत हो इसके लिए स्वास्थ से जुड़ी जानकारियां दी जा रहीं थीं
गणपति उत्सव में, तिलक की याद आ रही थी। उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध सबको संगठित किया था। उस समय कोरोना से बचाव और स्वास्थ्य संबंधी जानकारी दी जा रही थी।
गणेश चतुर्थी पर अदम्य शाश्वत मेरे साथ मंदिर गए।
गीता की अमेरिका से वीडियो और फोटो गणेश उत्सव मनाते हुए उत्कर्षिनी ने भेजी।
1 comment:
Wahhh bahut sundar lekh 👌👌👌🙋♂🤝Ganpati Utsav ka savistarr anubhav aapka Ek dum 💕Se shabdon mein bayaan kar diyaa aapne.. 👍👍👍🌹🌹🌹Ganpati Bappa Morya 🙏🙏🙏
धन्यवाद गोपी मिश्रा जी
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