उत्सव यानि पर्व या त्यौहार का हमारी संस्कृति में विशेष स्थान है। साल भर कोई न कोई उत्सव चलता ही रहता है। हर ऋतु में हर महीने में कम से कम एक प्रमुख त्यौहार अवश्य मनाया जाता है। तीर्थस्थान पर स्नान करते हैं। धर्म और लोककथाओं के बाद उत्सव की एक महत्वपूर्ण उत्पत्ति कृषि है। धार्मिक स्मरणोत्सव और अच्छी फसल के लिए धन्यवाद दिया जाता है। रवि की फसल की बुआई सितम्बर से नवम्बर तक हो जाती है। फिर बड़ी श्रद्धा और उत्साह से उत्सव मनाते हैं। इन सभी उत्सवों में प्रकृति वनस्पति और जल है। अक्टूबर से जनवरी वह समय होता है जब पूरे देश को उत्सवमय देखा जा सकता है। रेल विभाग को अतिरिक्त गाड़ियां चलानी पड़ती हैं। हवाई टिकट मंहगी होती है। कुछ उत्सव किसी अंचल में मनाए जाते हैं। कुछ देश भर में, भले ही नाम अलग अलग हों। हिन्दू देवी देवताओं की पूजा करना, परिवार के साथ सामाजिक समारोहों में जाना, मेलों में खरीदारी करना और उपहार देना, भण्डारे करना, भ्रमण, सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन करना और पर्यटन के लिए छुट्टियां भी हैं।
’’सारे तीरथ बार बार, गंगा सागर एक बार’’ मकर संक्राति (15 जनवरी) को गंगा जी जहाँ सागर (बंगाल की खाड़ी) में विलीन होने से पहले, गंगा जी में पवित्र डुबकी लगाने के लिए तीर्थयात्री देश विदेश से गंगासागर पहुँचते हैं। यहाँ 8 जनवरी से 16 जनवरी को लगने वाले मेले को गंगा सागर मेला कहते हैं। लेकिन डुबकी मकर संक्राति को ही लगाई जाती है।
’’विकसित युवा -विकसित भारत’’की थीम पर इस वर्ष राष्ट्रीय युवा दिवस पर 12 जनवरी( स्वामी विवेकानन्द के जन्मदिवस ) से 16 जनवरी तक कर्नाटक के हुबली-धारवाड़ में आयोजित किया जा रहा है। जिसमें स्वामी विवेकानन्द जो युवाओं के प्रेरणास्रोत हैं उनके विचारों और दर्शन को अपनाने के लिए युवाओं को प्रोत्साहित करना है।
अमृतसर में छोटी पतंग को गुड्डी कहते हैं और बड़ी पतंग को गुड्डा कहते हैं। यहां लोहड़ी को पतंगबाजी देखने लायक होती है। इस दिन छुट्टी होती है। बाजार बंद रहते हैं। आसमान गुड्डे, गुड़ियों से भर जाता है। छतों पर माइक लगा कर कमैंट्री चलती है। मसलन लाल गुड्डी दा चिट्टे गुड़डे नाल पेंचा लड़दा पेया। लाल गुड्डी आई बो।(लाल और सफेद पतंग का पेच लड़ रहा है। लाल पतंग कट गई)। आई बो के साथ ही शोर मचता है। घरवालों को पतंगबाजों के खाने पीने की चिंता है तो छत पर पहुंचा दो, ये खा लेंगे, वरना भूखे मुकाबला करते रहेंगे। लेकिन मोर्चा छोड़ कर नहीं जायेंगे, वहीं डटे रहेंगे। शाम को लोहड़ी(13 जनवरी, पंजाब और उत्तर भारत का फसल उत्सव) जलाई जाती है। तब ये पतंगबाज, लोहड़ी मनाने, ढोल पर नाचने के लिए नीचे उतर कर आते हैं। बाकि बची पतंगे संक्रांति को उड़ाते हैं। यहां पर परंपरा का पालन जरुर किया जाता है। लोहड़ी की रात को सरसों का साग और गन्ने के रस की खीर घर में जरुर बनती हैं, जिसे अगले दिन मकर सक्रांति को खाया जाता है। इसके लिए कहते हैं ’पोह रिद्दी, माघ खादी’(पोष के महीने में बनाई और माघ के महीने में खाई) बाकि जो कुछ मरजी़ बनाओ, खाओ। हमारा कृषि प्रधान देश है। फसल का त्यौहार हैैं। इस समय खेतों में गेहंू, सरसों, मटर और रस से भरे गन्ने की फसल लहरलहा रही होती है। आग जला कर अग्नि देवता को तिल, चौली(चावल) गुड़ अर्पित करते हैं। परात में मूंगफली, रेवड़ी और भूनी मक्का के दाने, चिड़वा लेकर परिवार सहित अग्नि के चक्कर लगा कर थोड़ा अग्नि को अर्पित कर, प्रशाद खाते और बांटतें हैं। नई बहू के घर में आने पर और बेटा पैदा होने पर उनकी पहली लोहड़ी धूमधाम से मनाई जाती है। भोज भी करते हैं। कडा़के की सर्दी में आग के पास ढोलक पर उत्सव के अवसरों पर गाये जाने वाले अलिखित और अज्ञात रचनाकारों द्वारा रचितः अनेकानेक लोकगीत सुनने को मिलते हैं। जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक मौखिक परांपरा से सुरक्षित हैं। अगले दिन मकर संक्राति को आस पास के नदी सरोवर में स्नान करके, खिचड़ी और तिल का दान करते हैं और खिचड़ी और तिल के लड्डू खाये जाते हैं। स्वाद से खाते हुए बुर्जुग कवित्त बोलते हैं ’खिचड़ी तेरे चार यार, घी पापड़ दहीं अचार’।
क्योंकि देशभर में कई शहरों में पतंगे मकर संक्रांति को उड़ाने की परंपरा है इसलिए इसे पतंग उत्सव भी कहते हैं। कुछ राज्यों तेलंगाना, गुजरात, राजस्थान, पंजाब में ’पतंग महोत्सव’ मनाया जाता है। उत्तर भारत में इन दिनों कड़ाके की ठंड पड़ती है। इस दिन पतंगें उड़ाते हुए, कई घंटे सूर्य के प्रकाश में बिताना शरीर के लिए स्वास्थ्यवर्द्धक और त्वचा व हड्डियों के लिए बेहद लाभदायक होता है।
94 वर्षीय अम्मा प्रयागराज में बिताए वर्षो के कल्पवास और माघ मेले को याद करती हैं। मकर संक्राति से कल्पवास शुरु है। इस बार यह 52 दिन का माघ मेले को मिला कर हो जायेगा। वे बताती हैं कि त्रिवेणी, संगम, गंगा जी, यमुना जी के किनारे निशुल्क कुटिया इतनी बन गईं कि लगता जैसे कोई गांव बस गया। श्रद्धालू यहां कल्पवास करने आते हैं। कल्पवास में स्नान के साथ यहाँ ज्ञान यज्ञ भी होता है। इनका आध्यात्मिक जीवन ही नहीं, आर्थिक दृृष्टि से भी बहुत महत्व है। ये आदरणीय लोग स्वेच्छा से न्यूनतम भौतिक साधनों पर जीवन निर्वाह करते हुए, पूरे समाज के सामने सादगी और त्याग का आदर्श रखते हैं। एक समय भोजन करते हैं , ठंड के कारण जगह जगह अलाव जलते हैं। सिंघाड़ा, शकरकंदी और आलू, मूंगफली भून के खाते हैं। र्बेरे की रोटी (जौं चने की मिक्स रोटी), ज्यादा अरहर की दाल, चावल और नमुना(मिक्स वैजीटेबल) प्राय इनका भोजन होता है। कुछ लोग साथ में अपनी बकरियां भी लाते हैं। वहां जरुरत के सामान के लिए अस्थाई दुकाने भी लग जातीं। घर के लोग जब इन्हें मिलने आते तो वे भी अतिआवश्यक सामान दे जाते हैं। रोज तो नहीं पर विशेष दिनों जैसे माघ पूर्णिमा, मकर संक्रांति, पौष पूर्णिमा, बसंत पंचमी पर पिता जी के ऑफिस जाने के बाद, अम्मा को लेकर दादी, दो दो आने सवारी के टांगे पर बैठ कर, घर से लोकनाथ तक जाती और आगे पैदल जाकर गंगा स्नान और माघ मेला देख कर आतीं। ये बताते हुए अम्मा के चेहरे पर ऐसे भाव थे जैसे अभी गंगा स्नान करके आ रहीं हों। मैं उनके चेहरे पर आए भाव को देखती रही इसलिए मेरा ऐसा मानना हैं कि अपनी समर्थ के अनुसार तीर्थ यात्रा जरुर करनी चाहिए।
राधे मिस्त्री काम करते हुए अम्मा को सुन रहा था, बताने लगा,’’जिसके पास गंगाजी नहीं होती वो जो भी पास में नदी होती है। वहीं मकर संक्राति नहान करता है। जैसे हमारा गाँव ननियुरा, जलालाबाद( उसके अनुसार जहाँ परशुराम ने अवतार लिया था) शाहजहाँ पुर, वहाँ से गंगाजी की एक धारा 5 किमी, बहाबुल नदी 2 किमी, रामनगरिया गंगा जी 20 किमी दूर हैं। वहाँ पवित्र दिन स्नान के लिए गाँव से ट्रॉली भर भर के राम नगरिया जाते हैं। रास्ते में कोई पैदल जाता दिखा तो उसे भी बैठने का आग्रह करते हैं। वो पैसे देकर ही ट्रॉली में बैठने को राजी होता है। उसका मानना है कि अगर उसने डीजल के भी पैसे नहीं दिए तो उसका गंगा स्नान का पुण्य तो मुफ्त में, ले जाने वाले को लगेगा न।’’ त्यौहार मनाने का तरीका हमारा उनका एक सा है। वही तिल, गुड़, खिचड़ी आदि।
पूर्वोत्तर भारत में भोगाली बिहू मनाते हैं। यह मकर संक्राति का उत्सव, माघ बिहू एक सप्ताह तक मनाया जाता हैं। मकर संक्रातिं की पूर्व संध्या को लकड़ी बांस, फूस आदि से मेजी बनाई जाती हैं। वहां पारंपरिक भोज बनाये और खाए जाते हैं। मकर संक्रातिं को सुबह मेजी की प्रदक्षिणा करके उसमें आग लगा दी जाती है। एक दूसरे को गमुछा(गमछा) भेंट करके प्रणाम करते हैं। चिड़वा, दहीं, गुड़ खाया जाता है। हुरुम(परमल), नारियल, तिल के लड्डू बनाते हैं। दावत में तिल नारियल का पीठा जरुर बनता है। भोगाली बिहू यानि माघ बिहू में अलाव जलाने और भोज खाने और खिलाने की परंपरा है। नये कपड़े पहनते हैं पर युवाओं का दूसरे के बाड़े से सब्जी चुरा कर तोड़ना शगल है।
नवान्न और सम्पन्नता लाने का त्यौहार पोंगल का इतिहास कम से कम 1000 वर्ष पुराना है। दक्षिण भारतीय देश विदेश में जहां भी रहते हैं। पोंगल उत्साह से मनाते हैं। इस त्यौहार का नाम पोंगल इसलिए है क्योंकि सूर्यदेव को जो प्रसाद अर्पित करते हैं वह पगल कहलाता है। तमिल भाषा में पोंगल का एक अर्थ है, अच्छी तरह उबालना। चार दिनों तक चलने वाले पोंगल में वर्षा, धूप, खेतिहर मवेशियों की अराधना की जाती है। जनवरी में चलने वाले पहली पोंगल(15 जनवरी) को भोगी पोंगल कहते हैं जो देवराज इन्द्र( जो भोग विलास में मस्त रहते हैं) को समर्पित है। शाम को अपने घरों का पुराना कूड़ा, कपड़े लाकर आग लगा कर, उसके इर्द गिर्द युवा भोगी कोट्टम(एक प्रकार का ढोल) जिसे भैंस के सींग से बजाते हैं।
दूसरा पोंगल सूर्य देवता को निवेदित सूर्य पोंगल है। मिट्टी के बर्तन में नये धान, मूंग की दाल और गुड़ से बनी खीर और गन्ने के साथ, सूर्य देव की पूजा की जाती है।
तीसरा मट्टू पोंगल तमिल मान्यताओं के अनुसार माट्टु भगवान शंकर का बैल हैं जिसे उन्होंने पृथ्वी पर हमारे लिए अन्न पैदा करने को भेजा है। इस दिन बैल, गाय और बछड़ों को सजा कर उनकी पूजा की जाती है। कहीं कहीं इसे कनु पोंगल भी कहते हैं। बहने भाइयों की खुशहाली के लिए पूजा करतीं हैं। भाई उन्हें उपहार देते हैं।
चौथा दिन कानुम पोंगल मनाया जाता है। इस दिन दरवाजे पर तोरण बनाए जाते हैं। महिलाएं मुख्यद्वार पर रंगोली बनाती हैं। नये कपड़े पहनते हैं। रात को सामुदायिक भोज होता है। तमिल की तन्दनानरामयाण के अनुसार श्री राम ने मकर संक्रातिं को पतंग उड़ाई थी और उनकी पतंग इन्द्रलोक में चली गई। अब सागर तट पर लोग पतंग उड़ाते और धूप से मुफ्त में प्राप्त विटामिन डी का सेवन करते मिलेंगे। तमिल नाडु से जुड़े होने से यही दिन आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक और केरल में संक्रान्ति के नाम से मनाया जाता है।
केरल में राजा राजशेखर ने अयप्पा को देव अवतार मान कर सबरीमालाई में देवताओं के वास्तुकार विश्कर्मा से डिजाइन करवा कर अयप्पा का मन्दिर बनवाया। ऋषि परशुराम ने उनकी मूर्ति की रचना की और मकर संक्रातिं को स्थापित की। आज भी यह प्रथा है कि हर साल मकर संक्रातिं के अवसर पर पंडालम राजमहल से अयप्पा के आभूषणों को संदूक में रख कर, एक भव्य शोभा यात्रा निकाली जाती है। जो 90 किलोमीटर तीन दिन में सबरीमाला पहुंचती है।
अंतर्राष्ट्रीय पतंगबाजी महोत्सव(14 -15 जनवरी) साबरमती रिवरफ्रंट अहमदाबाद में पतंगबाज पहुंचेंगे।
बीकानेर ऊँट महोत्सव(13 से 15 जनवरी) इसकी शुरूवात जूनागढ़ किले के परिसर से ऊँटों के एक रंगीन जुलूस से होती है।
टुसू महोत्सव(टुसू परब, मकर परब, पूस परब)(15 दिसम्बर से 15 जनवरी) झाड़खंड के कुड़मी और आदिवासियों का सबसे महत्वपूर्ण पर्व है। एक महीने तक नाच गानों, कर्मकांडों से मनाया जाता है। अंतिम दिन मकर संक्राति को मनाए जाने वाले इस लोक उत्सव में सुबह नदी में स्नान करके उगते सूरज की प्रार्थना की जाती है। और कुवांरी कन्याओं द्वारा बनाई टुसू देवी की मूर्ति, एक माह तक प्रतिदिन शाम को पूजने के बाद विसर्जित कर दी जाती है।
ृतिरूवल्लूर दिवस तमिलनाडु सरकार ईसा पूर्व चौथी शताब्दी के प्रसिद्ध तमिल कवि दार्शनिक, तिरूवल्लुर के सम्मान में 15 जनवरी को तिरूवल्लूर दिवस के रूप में मनाती है।
गुरू गोविंद सिंह जयंती(17 जनवरी) सिख धर्म के दसवें और अंतिम गुरू गोविंद सिंह जी का जन्मोत्सव दुनिया भर के गुरूद्वारों में मनाया जाता है।
तैलंग स्वामी जयंती(21 जनवरी) तैलंग स्वामी अपनी योग शक्तियों और लंबे जीवन के लिए प्रसिद्ध हैं।
नेताजी सुभाषचंद्र बोस जयंती(23 जनवरी) हमारे स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी नेता, आज़ाद हिंद फ़ौज को गठने वाले, देश को राष्ट्रीय नारा ’’जय हिन्द’’ देने वाले नेताजी को इस दिन देश याद करता है।
शाकंभरी देवी जयंती उत्सव(25 जनवरी) माँ शाकंभरी देवी मंदिर सहारनपुर में मेले का आयोजन किया जाता है। इस दिन लाखों भक्त दर्शन के लिए आते हैं।
गणतंत्र दिवस(26 जनवरी) सुबह परेड देखना और दिन भर जगह जगह देशभक्ति के कार्यक्रमों में शिरकत करके राष्ट्रीय त्यौहार को मनाते हैं।
इस प्रकार मकर संक्राति के माध्यम से भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति की झलक हमें अलग अलग रुपों में दिखाई देती है। जिसमें प्रकृति के साथ मवेशियों का भी उपकार माना जाता है।
नीलम भागी
लेखिका, जर्नलिस्ट, ब्लॉगर, ट्रैवलर
यह आलेख प्रेरणा शोध संस्थान से प्रकाशित प्रेरणा विचार पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।
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