हम बाजारों से गुजरते हुए सीतामढ़ी से परिचय कर रहे थे। चीनी का एकदम सफेद बताशा, और बालूशाही दुकानों में खूब बिक रही थी। नदियों और पोखरों के कारण सब्जियाँ और तरह तरह की मछलियाँ भी सड़क किनारे कहीं से भी खरीदी जा सकतीं हैं। गोल लौकी का इतना बड़ा साइज मैंने यहीं पर देखा।
ये सब दुकानों के सामने फुटपाथ पर बिक रहा था। सड़क के किनारे टोकरों में महिलाएं मखाना बेच रहीं थीं। यह मखाने के लिए मशहूर है। मैंने रेट पूछा, उसने तीन सौ रुपए किलो बताया। मैंने झट से 2 किलो खरीद लिया। वो तो बहुत बड़े बड़े काले पॉलिथिन में उसने दिए। उनका साइज़ देखकर पहले मुझे चिंता हुई कि इतनी दूर ले जाना है। अंकुर ने कहा था कि गाड़ी 4.50 सुबह पर पहुँचेगी। सर्दी में अंधेरा होता है इसलिए वह मुझे लेने आयेगा। बस यहाँ से चढ़ना, वहाँ की चिंता ही नहीं। आकार जितना मर्जी हो, वजन तो कुल दो किलो ही है। कुछ दूरी पर बातों में मश़गूल धर्मेन्द्र पाण्डेय और भुवनेश सिंघल मेरा इंतजार कर रहे थे। मेरे न न करने पर भी भुवनेश जी ने दोनों थैले मुझसे ले लिए। मैंने कहा,’’एक थैला मैं उठा लेती हूँ।’’ उन्होंने तुरंत कहा,’’नहीं बहन जी, बिल्कुल नहीं।’’होटल काफी दूर था। हम खादी ग्रामोद्योग गए। फिर डिनर के लिए जल्दी पहुँच गए, ये सोचकर कि होटल जाकर गाड़ी के समय ही निकलेंगे। खाना तैयार हो रहा था। वहाँ आलू की एक बहुत क्रिस्पी स्नैक की तरह बेहद आसान सब्जी बनती है। जो मैंने वहाँ बैठे बैठे सीख ली। बहुत छोटे आलूओं को अच्छी तरह धो कर बिना छीले बारीक बारीक काट लेते हैं। लोहे की कढ़ाही में सरसों का तेल डाल देते हैं जब तेल गर्म हो जाता है तो उसमें आलू के कतरन डाल देते हैं। बीच बीच में पलटे से आलू पलटते रहते हैं।
ऐसे सभी आलू सुनहरे हो जाते हैं और तेल छोड़ने लगते हैं। अब उसमें नमक डाल देते हैं। अगर पहले नमक डालेंगे तो तेज हो सकता है। इसे ढक कर नहीं पकाना है। डिनर के बाद हम पैदल होटल गए। मैं तो अपने कमरे में जाकर सो गई। हमारे प्रवीण आर्य जी का फोन आया। उन्होंने कई प्रश्न यात्रा के संबंध में हमेशा की तरह किए और पूछा,’’भुवनेश जी कहाँ है? वे फोन नहीं उठा रहे हैं।’’ मैंने बताया कि वे धर्मेन्द्र पाण्डे के साथ हैं। उन्होंने बड़ी खुशी से पूछा,’’ धर्मेन्द्र जी से बात हो सकती है।’’ मैं उनके रूम की ओर चल दी। उनका कमरा खुला हुआ था, दोनों रूम में नहीं थे। फोन ऑफ होत ही भुवनेश जी का फोन था,’’उन्होंने कहा,’’बहन जी, आप सामान लेकर रिसेप्शन पर आ जाओ।’’मैं भी वहाँ पहुँच गई। धर्मेन्द्र जी भुवनेश जी के सामान के साथ बैठे थे। इतने में भुवनेश जी बाहर से आए और बोले,’’सड़क पर खड़े होते हैं, शायद कोई गाड़ी मिल जाये। कोई ऑटो नहीं रुका। एक शेयरिंग ऑटो में उसका परिवार बैठा था, पहले उसने मना कर दिया फिर आगे रोक कर बुला लिया। हम रात 9.30 पर स्टेशन पहुँच कर, खुले में एक बैंच पर बैठ गए। 1.30 बजे हमारी गाड़ी सदभावना एक्सप्रेस थी। भुवनेश जी बताने लगे कि होटल वाले ने जिन गाड़ी वालों के नम्बर दिए। वे पक्का सा नहीं कर रहे थे। मैं ये सोच कर ऑटो लेने चल दिया कि स्टेशन पर ही जाकर बैठते हैं। आप लोगों ने देख ही लिया न। अब मैं स्टेशन का चक्कर लगाने चली गई। वहाँ एनाउंस हो रहा था कि किसी अजनबी से बात मत कीजिए न किसी का दिया खाइए। वेटिंग रूम में तिल रखने की जगह नहीं थी। प्लेटफॉर्म पर भी लोग सो रहें हैं। खूब ठंड और हवा।
सुबह 5.30 पर गाड़ी में सवार हुए। टैम्परेचर ठीक मेंटेन किया हुआ था। हमारी अपर और लोअर साइड सीट थी। कंबल ओढ़ कर सो गई। 12 बजे नींद खुली। ये गाड़ी दिल्ली आ रही थी, इसमें बस सबको यही टेंशन थी कि समय पर पहुँचा दे।
गाड़ी आठ घण्टे लेट थी। किसी की फ्लाइट थी, शिव कुमार यादव को पी.सी.एल क्रिकेट ग्राउण्ड सेक्टर 140 नौएडा में मेैच खेलना था। अगली सुबह 4.50 के बाद तो भुवनेश जी को टाइम काटना बहुत मुश्किल हो रहा था। उन्होंने हिसाब लगाना शुरु किया कि गाड़ी का आठ घण्टे लेट होने का मतलब है एक आदमी के चार साल बेकार हो गए और मुझे कहीं पढ़ा याद आया "खाली बनिया क्या करें! इधर का बाट उधर धरे।" गाड़ी ने काफी कवर किया और हमारी यात्रा को 12.30 पर विराम मिला। भुवनेश जी ने जाते जाते खिलाड़ी को कहा कि वह बाइक बुक करे वो ही उसे सैकेण्ड मैच में पहुँचा सकती है। घर पहुंचते ही प्रवीण आर्य जी का फोन आया कि मैं ठीक पहुंच गई हूं और उन्होंने कहा कि यात्रा की तस्वीरें ग्रुप में लगाओ। समाप्त