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Saturday 8 January 2022

लोहड़ी, मकर सक्रांति, ’पतंग महोत्सव’, कल्पवास, माघ मेला, भोगाली बिहू यानि माघ बिहू , पोंगल उत्सव मंथन नीलम भागी Utsave Manthan Neelam Bhagi


अमृतसर में छोटी पतंग को गुड्डी कहते हैं और बड़ी पतंग को गुड्डा कहते हैं। यहां लोहड़ी को पतंगबाजी देखने लायक होती है। इस दिन छुट्टी होती है। बाजार बंद रहते हैं। आसमान गुड्डे, गुड़ियों से भर जाता है। छतों पर माइक लगा कर कमैंट्री चलती है। मसलन लाल गुड्डी दा चिट्टे गुड़डे नाल पेंचा लड़दा पेया। लाल गुड्डी आई बो।(लाल और सफेद पतंग का पेच लड़ रहा है। लाल पतंग कट गई)। आई बो के साथ ही शोर मचता है। घरवालों को उनके खाने पीने की चिंता है तो छत पर पहुंचा दो, ये खा लेंगे, वरना भूखे मुकाबला करते रहेंगे। लेकिन मोर्चा छोड़ कर नहीं जायेंगे, वहीं डटे रहेंगे। शाम को लोहड़ी जलाई जाती है। तब ये पतंगबाज, लोहड़ी मनाने, ढोल पर नाचने के लिए नीचे उतरकर आते हैं। बाकि बची पतंगे संक्रांति को उड़ाते हैं। यहां पर परंपरा का पालन जरुर किया जाता है। रात को सरसों का साग और गन्ने के रस की खीर घर में जरुर बनती हैं, जिसे अगले दिन मकर सक्रांति को खाया जाता है। इसके लिए कहते हैं ’पोह रिद्दी, माघ खादी’(पोष के महीने में बनाई और माघ के महीने में खाई) बाकि जो कुछ मरजी़ बनाओ, खाओ। हमारा कृषि प्रधान देश है। फसल का त्यौहार हैैं। इस समय खेतों में गेहंू, सरसों, मटर और रस से भरे गन्ने की फसल लहरलहा रही होती है। आग जला कर अग्नि देवता को तिल, चौली(चावल) गुड़ अर्पित करते हैं। परात में मूंगफली, रेवड़ी और भूनी मक्का के दाने, चिड़वा लेकर परिवार सहित अग्नि के चक्कर लगा कर थोड़ा अग्नि को अर्पित कर, प्रशाद खाते और बांटतें हैं। नई बहू के घर में आने पर और बेटा पैदा होने पर उनकी पहली लोहड़ी धूमधाम से मनाई जाती है।

भोज भी करते  हैं। कडा़के की सर्दी में आग के पास ढोलक पर  उत्सव के अवसरों पर गाये जाने वाले अलिखित और अज्ञात रचनाकारों द्वारा रचितः अनेकानेक लोकगीत सुनने को मिलते हैं। जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक मौखिक परांपरा से सुरक्षित है। अगले दिन मकर संक्राति को खिचड़ी और तिल का दान करते हैं और खिचड़ी और तिल के लड्डू खाये जाते हैं। स्वाद से खाते हुए बुर्जुग कवित्त बोलते हैं ’खिचड़ी तेरे चार यार, घी पापड़ दहीं अचार’।

  क्योंकि देशभर में कई शहरों में पतंगे मकर संक्रांति को उड़ाने की परंपरा है इसलिए इसे पतंग उत्सव भी कहते हैं। कुछ राज्यों तेलंगाना,



गुजरात, राजस्थान, पंजाब में ’पतंग महोत्सव’ मनाया जाता है। उत्तर भारत में इन दिनों कड़ाके की ठंड पड़ती है। इस दिन पतंगें उड़ाते हुए, कई घंटे सूर्य के प्रकाश में बिताना शरीर के लिए स्वास्थ्यवर्द्धक और त्वचा व हड्डियों के लिए बेहद लाभदायक होता है।

   92 साल की अम्मा नींद में उठ कर बैठ गईं। बाजू में मैं सोती हूं इसलिए श्रोता भी मैं हूं। उन्हें पिछली बातें बहुत याद आती हैं। बताने लगी कि विवाह के बाद वे प्रयागराज पिताजी और दादी के साथ गईं। वे उस समय 17 साल की थीं और वहां वे 17 साल रहीं। माघ मेला लगा तो त्रिवेणी, संगम, गंगा जी, यमुना जी के किनारे निशुल्क कुटिया इतनी बन गईं कि लगता जैसे कोई गांव बस गया। श्रद्धालू यहां कल्पवास करने आते हैं। कल्पवास में स्नान के साथ यहाँ ज्ञान यज्ञ भी होता है। इनका  आध्यात्मिक जीवन ही नहीं, इनका आर्थिक दृृष्टि से भी बहुत महत्व है। ये आदरणीय लोग स्वेच्छा से न्यूनतम भौतिक साधनों पर जीवन निर्वाह करते हुए, पूरे समाज के सामने सादगी और त्याग का आदर्श रखते हैं। एक समय भोजन करते, ठंड के कारण जगह जगह अलाव जलते हैं। सिंघाड़ा, शकरकंदी और आलू भून के खाते हैं। र्बेरे की रोटी (जौं चने की मिक्स रोटी), ज्यादा अरहर की दाल, चावल और नमुना(मिक्स वैजीटेबल) प्राय इनका भोजन होता। कुछ लोग साथ में अपनी बकरियां भी लाते हैं। वहां जरुरत के सामान के लिए अस्थाई दुकाने भी लग जातीं। घर के लोग जब इन्हें मिलने आते तो वे भी अतिआवश्यक सामान दे जाते। रोज तो नहीं पर विशेष दिनों जैसे माघ पूर्णिमा, मकर संक्रांति, बसंत पंचमी पर पिता जी के ऑफिस जाने के बाद, अम्मा को लेकर दादी, दो दो आने सवारी के टांगे पर बैठ कर, घर से लोकनाथ तक टांगे पर जाती और आगे पैदल जाकर गंगा स्नान और माघ मेला देख कर आतीं। अम्मा ये बता कर फिर से सो गईं। मैं उनके चेहरे पर आए भाव को देखती रही। वे बोलते हुए ऐसे लग रहीं थीं, जैसे अभी माघ मेले से लौटी हैं। इसलिए मेरा ऐसा मानना हैं कि अपनी समर्थ के अनुसार तीर्थ यात्रा जरुर करनी चाहिए।

पूर्वोत्तर भारत में भोगाली बिहू मनाते हैं।


यह मकर संक्राति का उत्सव, माघ बिहू एक सप्ताह तक मनाया जाता हैं। मकर संक्रातिं की पूर्व संध्या को लकड़ी बांस, फूस आदि से मेजी बनाई जाती हैं।

वहां पारंपरिक भोज बनाये और खाए जाते हैं। मकर संक्रातिं को सुबह मेजी की प्रदक्षिणा करके उसमें आग लगा दी जाती है। एक दूसरे को गमुछा(गमछा) भेंट करके प्रणाम करते हैं। चिड़वा, दहीं, गुड़ खाया जाता है। हुरुम(परमल), नारियल, तिल के लड्डू बनाते हैं। दावत में तिल नारियल का पीठा जरुर  बनता है। भोगाली बिहू यानि माघ बिहू में अलाव जलाने और भोज खाने और खिलाने की परंपरा है। नये कपड़े  पहनते हैं पर युवाओं का दूसरे के बाड़े से सब्जी चुरा कर तोड़ना शगल है।   

 नवान्न और सम्पन्नता लाने का त्यौहार पोंगल का इतिहास कम से कम 1000 वर्ष पुराना है। दक्षिण भारतीय देश विदेश में जहां भी रहते हैं। पोंगल उत्साह से मनाते हैं। इस त्यौहार का नाम पोंगल इसलिए है क्योंकि सूर्यदेव को जो प्रसाद अर्पित करते हैं वह पगल कहलाता है। तमिल भाषा में पोंगल का एक अर्थ है, अच्छी तरह उबालना। चार दिनों तक चलने वाले पोंगल में वर्षा, धूप, खेतिहर मवेशियों की अराधना की जाती है। जनवरी में चलने वाले पहली पोंगल को भोगी पोंगल कहते हैं जो देवराज इन्द्र( जो भोग विलास में मस्त रहते हैं) को समर्पित है। शाम को अपने घरों का पुराना कूड़ा, कपड़े लाकर आग लगा कर, उसके इर्द गिर्द युवा भोगी कोट्टम(एक प्रकार का ढोल जिये भैंस के सींग से बजाते हैं) बजाते हैं।

दूसरा पोंगल सूर्य देवता को निवेदित सूर्य पोंगल है। मिट्टी के बर्तन में नये धान, मूंग की दाल और गुड़ से बनी खीर और गन्ने के साथ, सूर्य देव की पूजा की जाती है।

 तीसरा मट्टू पोंगल तमिल मान्यताओं के अनुसार माट्टु भगवान शंकर का बैल हैं जिसे उन्होंने पृथ्वी पर हमारे लिए अन्न पैदा करने को भेजा है। इस दिन बैल, गाय और बछड़ों को सजा कर उनकी पूजा की जाती है। कहीं कहीं इसे कनु पोंगल भी कहते हैं। बहने भाइयों की खुशहाली के लिए पूजा करतीं हैं। भाई उन्हें उपहार देते हैं। 

चौथा दिन कानुम पोंगल मनाया जाता है। इस दिन दरवाजे पर तोरण बनाए जाते हैं। महिलाएं मुख्यद्वार पर रंगोली बनाती हैं। नये कपड़े पहनते हैं। रात को सामुदायिक भोज होता है। तमिल की तन्दनानरामयाण के अनुसार श्री राम ने मकर संक्रातिं को पतंग उड़ाई थी और उनकी पतंग इन्द्रलोक में चली गई। अब सागर तट पर लोग पतंग उड़ाते और धूप से मुफ्त में प्राप्त विटामिन डी का सेवन करते मिलेंगे। तमिल नाडु से जुड़े होने से यही दिन आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक और केरल में संक्रान्ति के नाम से मनाया जाता है।


केरल में राजा राजशेखर ने अयप्पा को देव अवतार मान कर सबरीमालाई में देवताओं के वास्तुकार विश्कर्मा से डिजाइन करवा कर अयप्पा का मन्दिर बनवाया। ऋषि परशुराम ने उनकी मूर्ति की रचना की और मकर संक्रातिं को स्थापित की। आज भी यह प्रथा है कि हर साल मकर संक्रातिं के अवसर पर पंडालम राजमहल से अयप्पा के आभूषणों को संदूक में रख कर एक भव्य शोभा यात्रा निकाली जाती है। जो 90 किलोमीटर तीन दिन में सबरीमाला पहुंचती है। इस प्रकार मकर संक्राति के माध्यम से भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति की झलक हमें अलग अलग रुपों में दिखाई देती है। जिसमें प्रकृति के साथ मवेशियों का भी उपकार माना जाता है।   केशव संवाद जनवरी अंक में प्रकाशित यह लेख