अभिनय
का शहंशाह ओम पुरी
नीलम
भागी
6 जनवरी को उत्तकर्षिनी का फोन आया ,”मम्मी बहुत दुखद खबर, ओमपुरी नहीं रहे। आपको तो सोसायटी के व्हाट्सअप ग्रुप से पता चल ही गया होगा।" सुन कर बहुत दुख हुआ। 1983 में मुझसे किसी ने पूछा,”आपने अर्द्धसत्य देखी है? और साथ ही ओमपुरी की एक्टिंग की तारीफों के पुल बांधने शुरू कर दिये। मेरे साथ बैठी लड़कियों ने कोरस में पूछा,”देखने में कैसा है? जवाब मुहं पर चेचक के गहरे दाग हैं पर एक्टिंग...!!.। संडे को प्रगति मैदान के शाकुंतलम थियेटर में बारह से तीन अर्द्धसत्य देख कर आये और दिमाग पर ओमपुरी के अभिनय की छाप लेकर आये। उस महीने थियेटर में लगने वाली चारों फिल्म में ओमपुरी थे। अब तो हर संडे शाकुंतलम जाना हमारा नियम बन गया था। शायद ही ओमपुरी की कोई फिल्म होगी, जिसे मैंने न देखा हो। मुझे ये देख कर बड़ा अच्छा लगता कि बड़ी संख्या में वही लोग हर सण्डे फिल्म देखने आते थे। मैं कभी भी फिल्म का रिव्यू पढ़ कर फिल्म देखने नहीं गई हूँ। इसका भी एक कारण है, तब नौएडा में कोई हॉल नहीं था, सण्डे ही छुट्टी होती थी। सीधी बस थी, गेट नम्बर दो पर उतरे। सामने टिकट घर, थोड़ा लाइन में लगे टिकट ली। टिकट हाथ में लेकर देखती थी कि कौन सी पिक्चर है? अगर प्रचार देख कर फिल्म देखने जाती तो गिद्ध, देवशिशु, पार, आक्रोश, स्पर्श, स्पन्दन, मंडी, अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है, जाने भी दो यारो, तमस, मिर्चमसाला आदि सभी उनकी फिल्में मैं देखने जाती भला!! इन फिल्मों ने ही मुझे हर रविवार को शाकुन्तलम जाने की लत लगाई, जब तक नौएडा में हॉल नहीं बने। मैंने कभी सोचा नहीं था कि जिनकी मैं इतनी प्रशंसक हूँ, वो एकदम मेरे सामने होंगे। हुआ यूं कि मुंबई में हमारी सोसाइटी में गीता के हम उम्र बच्चे दो से पाँच साल के ,रात नौ बजे खेलने आते हैं माँएं बतियाती रहती हैं। बच्चे खेलते रहते हैं। गीता सबसे छोटी हैं इसलिये मैं उसके साथ रहती हूंँ। एक दिन गीता के पास ओमपुरी आकर उससे बोले,”व्हॉट्स योर नेम।“ गीता ने जवाब दिया,”नो।“ मैं बोली,”आप यहाँ रहते हैं!” बाते करने लगी। बच्चों से बहुत प्यार से बाते कर रहे थे। अपने घर जाते समय गीता को “बाय नो नेम।“मेरे सामने जब भी वे बच्चों के खेलने के समय आये, तो बच्चों से कुछ देर जरूर बतियाये। गीता को नो नेम ही कहा। और मुझे ,”अभी आप मेहमानदारी में ही हैं।“ मैंने कई बार उनके साथ सेल्फी लेने की सोची, बस यही सोच कर रूक गई कि ये तो हमारे पड़ोसी हैं, कभी भी ले लूंगी। दिवाली पर सिक्योरिटी वाले सब घरों से इनाम लेकर आये, मैंने सिक्योरिटी सुपरवाइज़र से पूछा,”खुश हो न।" उसने जवाब दिया,”मैंडम, ओमपुरी साहब ने तो दिल खुश कर दिया, उस समय जो जेब में था, सब दे दिया।" आज उनके दिल ने ही उन्हे धोखा दे दिया।
ओम पुरी जी की पुण्यतिथि पर
उनकी मृत्यु पर उस समय मेरी त्वरित प्रतिक्रिया जो छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश से प्रकाशित दैनिक बहुमत समाचार पत्र में प्रकाशित हुई थी।