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Saturday, 2 May 2020

हाय!द्वारकाधीश, जिनने मारी ...मथुरा जी यात्रा Mathura Yatra भाग 6 Hai! Dwarkadhish Jinne mare...Neelam Bhagi नीलम भागी


इतने में उसने वापिस आकर घोषणा कर दी कि हम लोगों की चप्पलें वहां से चोरी हो गई हैं। और वह बताने लगी कि वह चार हजार की चप्पल, अमुक कंपनी की पहन कर आई थी। मैं




तो इन सबके साथ चप्पल उतार के चल दी थी। ये नहीं देखा था कि कहां उतारी है!! मैंने कहा कि यहां सब खाली हाथ हैं। कोई भी दो जोड़ी चप्पल नहीं पहन सकता। न ही, चोरी की चप्पल हाथ में लेकर चलेगा। घ्यान से सोचो कहां उतारी थी? मैं बोली,’’ फोन न होने से हम आपस में कांटैक्ट नहीं कर सकते। सब अलग अलग ढूंढों। मैं यहीं खड़ी रहती हूं, मिले चप्पल या न मिले, सब यहीं आ जाना। जब सब चप्पल खोजो अभियान में निकल गईं। तो इतने में एक ग्रामीण दिखने वाली सौभाग्यवती महिला, जिसने चटकीली चम चम करती साड़ी पहनी हुई थी। पैरों में आलता लगाया हुआ था। एक एक पैर में तीन तीन बिछुए पहने, नंगे पांव किसी अनजान चोर के लिए द्वारकाधीश से फरियाद कर रही थी। मैंने हमदर्दी से पूछा,’’क्या हुआ?’’जवाब में वह देख मेरी तरफ रही थी, पर कह द्वारकाधीश को रही थी,’’हाय हाय!द्वारकाधीश, जिनने मारी चप्पल चौराई, वाके सात छोरियां हौवैं। वाकि छोरियन के भी सात सात छोरियां हौवैं। एैसी हाय परै मॉरी हाय द्वारकाधीश।(हे द्वारकाधीश जिसने मेरी चप्पल चुराई है, उसकी सात बेटियां हों। द्वारकाधीश आगे उसकी बेटियों के भी सात सात बेटियां हों, मेरी ऐसी हाय लगे उसे हाय द्वारकाधीश)’’इतने में मेरी एक सखी बुलाने आई। आते ही बोली,’’जिस गेट से हम आये थे। उस गेट के पास ही चप्पले वैसे ही रक्खीं हैं। हम जगह भूल गए थे।’’ मैंने उस फरियादी महिला से कहा कि जहां जूती उतारी हैं, वहीं होंगी। हमारी भी वहीं मिल गई हैं।’’ जाते हुए वह मुझे सोचने को मजबूर कर गई कि वह जिस समाज से आई है, वहां आज भी बद्दुआ में छोरी(बेटी) का जन्म लेना है। मंदिर से बाहर आए। सब मोबाइल बैग लेने की लाइन लगीं। मैं बाहर दुकानों को और पूजा का सामान बेचने वालों को देखने लगी। मजीरे बेचने वाले मेरे पास आते, और खरीदने को कहते। मैं गर्दन में लटके तीन जोड़ी मजीरे दिखा कर कहती,’’भैया ले तो लिए हैं।’’ जवाब सबका एक ही था,’’ये तो लोहे के हैं। हमारे पास तो पीतल के हैं।’’ जबकि देखने में उनके मजीरे भी मेरे मजीरों जैसे ही थे। सुन कर मैं हंस देती। पर्स मोबाइल लेकर सखियां आ गईं। किसी ने भी मोबाइल ऑफ नहीं किया था। बस के साथियों ने खूब कॉल कर रक्खी थी। वे बस में हमारा इंतजार कर रहे थे। कहां पहुंचना है? बताया। हमने जगह बता कर ई रिक्शा किया दस रुपया सवारी, छयो कृष्टपूर्वक एक ही ई रिक्शा में लद फद कर बस पर पहुंचे। सब हमारे इंतजार में थे। यहां से वृदांवन के लिए बस चल दी।
   बस के चलते ही हमें रमेश ने बताया कि उनके स्कूल के बच्चे यहां के स्कूल की एक विज्ञान प्रदर्शनी में आए हुए हैं। उनको लेकर फिर हमको बांके बिहारी जी के दर्शन कराने ले जायेंगे। जिस रास्ते से गये थे। पुलिस ने मार्ग बदल दिया कि परिक्रमा निकल रही है। र्माग बंद है। घूमते ढंूढते लोगों से पूछते, दूसरे रास्ते से गये। स्कूल से कुछ ही दूरी पर फिर मार्ग बंद वही जवाब,’’परिक्रमा निकल रही है।’’ कोई फोर व्हीलर नहीं एलाउड था। वहां से कोई मोटरसाइकिल पर दो दो बच्चे, फिर एक एक अध्यापक गलियों से ला लाकर बस में बिठाते रहे। बस में पीछे सब भजन सुन सुना रहे थे। मेरे दिल में पिछली बार यहां बिताए तीन दिन की घटनाएं चल रहीं थीं। मैं यहां की चाट, मलाई लस्सी, नमकीन और मिठाइयां मिस कर रही थी। बस जहां खड़ी थी। मैं उतर कर दूर तक देख आई, कोई खाने पीने की दुकान नहीं थी। दुकान का नामी होना या सजावटी होने से मुझे कोई मतलब नहीं था। क्योंकि ब्रज भूमि में कोई बेस्वाद बनाना नहीं जानता। मैंने सोचा था बांके बिहारी के दर्शन करके, खूब चाट, गोल गप्पे और टिक्की खायेंगे और मिठाई घर ले जायेंगे। यहां के पेड़े तो जल्दी खराब नहीं होते हैं। अब मैंने सीट पर बैठ कर निश्चय कर लिया कि ब्रजभूमि की यात्रा घर जाते ही लिखनी शुरु कर दूंगी। मन में उसे दोहराने लगी। क्रमशः