एक बार मेरा संडे की गरीब रथ ट्रेन में वेटिंग में टिकट था। सबको यकीन था कि संडे की गरीब रथ में टिकट कनर्फम नहीं होगा। पर मुझे यकीन था कि टिकट कनर्फम हो जायेगा। क्योंकि यात्राओं के दौरान ही मेरा ज्ञान बढ़ा था कि सीनियर सीटीजन महिलाएं राजधानी और गरीबरथ दोनों में सीट बुक करवातीं हैं क्योंकि उनका किराया बराबर लगता है। वे राजधानी में टिकट कनर्फम होते ही गरीब रथ की टिकट कैंसिल करवा लेती हैं। फिर हम जैसों की महिला कोटे से टिकट कनर्फम हो जाती है। मेरा भी हो गया। सायं 3.35 पर गाड़ी निजामुद्दीन से चली। हमेशा की तरह मैं बैडिंग जिसमें दो चादर, एक तकिया और एक कंबल अटैण्डट को ढूंढ कर, उससे लेकर आई। दिल्ली से मथुरा तक लेटने की जगह रहती है। मैं कंबल, एक चादर, तकिया सिर के नीचे लगा कर एक चादर ओढ़ कर सो जाती हूं। मथुरा से कोटा तक बैठना ही पड़ता है। इस बार मथुरा से मेरे आस सभी कपड़े के व्यापारी थे। उनकी बातें अलग तरह की थीं। श्राद्ध शुरू हुए थे। त्यौहार आने वाले थे। सभी की बातें साड़ियां, लैगिंग आदि कपड़ों के रिवाज़ पर थीं। किसी की भी दुकान से ग्राहक न लौटे इसलिए कोई वैराइटी छूटे न, इस पर चर्चा चल रही थी। मेरे सामने की सीट पर बहुत ही मामूली कपड़े पहने हुए बुर्जुग बैठे थे। वे बहुत ध्यान से सबकी बातें सुन रहे थे। अब कपड़ों सें उनकी बातें उनके शहर में होने वाली रामलीला पर शुरू हो गईं। मसलन पिछले साल क्या बजट था और अब क्या होगा!! एक व्यापारी जो सबसे ज्यादा सुना जा रहा था। उसने बड़े गर्व से बताया कि बाहर से रामलीला के कलाकार आते हैं लेकिन जब से रामलीला शुरू हुई है। रामचन्द्रजी हमेशा उनके यहां ठहरते हैं। कोई कलाकार इतने दिन बीड़ी, सिगरेट, शराब नहीं पीता। रात 8.15 पर जब कोटा से गाड़ी चली तब सबने अपना खाना निकाला। आसपास मसालों की महक फैल गई। मेरे सामने के बाउजी ने भी पतले पतले परांठे जो थोड़ा थोड़ा घी लगा कर, ईट से लोहे का तवा चमका कर उस पर कड़छी से घिस घिस कर बनाये जाते हैं, मिर्च के आचार के साथ निकाले और एक सौ ग्राम नमकीन का पैकेट निकाल कर उससे पराठे खाने ही लगे थे कि सब कोरस में चिल्लाये बाउजी इधर आइये। उनमें से एक व्यक्ति उनकी विंडो सीट पर आकर बैठ गया और बाउजी परांठा, आचार और नमकीन लेकर उसकी जगह पर जाकर बैठ गए। जो आकर बैठा, मैंने उनसे पूछा,’’आप डिनर नहीं करेंगे!!’’उन्होंने जवाब दिया कि दोस्त के बेटे का नामकरण था वो स्टेशन के पास ही रहता है। उसे बता रखा था। दिनभर दुकानदारी करके आते समय दावत खाकर आया हूं। सफ़र में हूं इसलिए रात को नहीं खाउंगा। उससे पता चला कि ये सब मथुरा और उसके आस पास के शहरों के दुकानदार हैं। सोमवार को इनकी दुकाने बंद रहती हैं। इन्हें जब भी आना होता है, ये मथुरा से गरीब रथ से आते हैं। ए.सी. ट्रेन हैं किराया कम है। कभी लेट नहीं होती। रात भर इसमें सोते हैं। सुबह पौने पांच बजे गाड़ी सूरत में उतार देती है। दिन भर खरीदारी करते हैं, मार्किट देखते हैं। कल रात की गाड़ी से वापसी करेंगे। होटल का किराया भी बचता है। कुछ सामान साथ भी लाते हैं बाकि सब ट्रांसर्पोट से आता है। अब सबकी तो इतनी हैसियत नहीं होती कि दुकान में खूब माल भर ले। ग्राहक न लौटे इसलिए हर वैरायटी रखनी होती है। बार बार सूरत भी नहीं आ सकते। ये बाउजी(नमकीन से पराठा खाने वाले) तो बहुत माल खरीदते हैं। इनकी सेल इतनी ज्यादा है कि ये कैश लेकर बैंक नहीं जाते, बैंक कर्मचारी कैश कलैक्शन के लिए आता है। जैसे लहरिया साड़ी आई इन्होंने खूब माल उठाया। हम लोगों की कोई वैराइटी खत्म होती है तो थोड़ा बहुत इनसे खरीद कर काम चला लेते हैं। इनका भी फायदा, हमारा भी काम चल जाता है। अब मैं सुन उनको रही थी पर मेरी आंखें बाउजी पर टिकी थीं। शायद वह मेरे मनोभाव समझ गया और बताने लगा कि बाउजी ने दुकानदारी बेटों पर छोड़ दी है पर सबसे ज्यादा कमाऊ ये ही हैं। परचेजिंग करना, घर में जो ये लायेंगे वही बनेगा। बेटे मुर्गी, अण्डा बाहर से खा आते हैं। बराबर के दुकानदार के लिए दुसरी दुकान तलाश करके, उसे उसमें शिफ्ट करवाना और खूब कैश देकर राजी करना। इस तरह इनका बहुत बड़ा शो रूम बन गया है। लोग शादी ब्याह की सब खरीदारी इनके यहां से करते हैं। ये मर्जी से दुकान पर कभी विजिट करने जाते हैं। खाना खाते ही दिनभर के थके सब सो गए। बाउजी मेरे सामने की लोअर सीट पर थे। बतियाने लगे, संघर्ष भरी अपनी जीवन यात्रा सुनाई। मैंने पूछा,’’महिलाएं तो एक साड़ी लेनी होगी तो कई साड़ी खुलवा देतीं हैं। आपको गुस्सा नहीं आता था?’’ ये सुन कर वे पहले मुस्कुराये फिर बोले,’’मेरा गुस्सा तो मुनाफ़ा सोख लेता था। दादी से भी बड़ी महिला को मैं दीदी कहता हूं। साड़ी बेचते समय मैं हमेशा कहता हूं, घर में पसंद न आए तो आज ही बदल लेना। जब कोई बदलने आती तो उससे कम रेट की साड़ियां ही उसे दिखाई जातीं। वह बड़ी खुशी से बदल कर ले जाती है। इस मुनाफे से ही साड़ियां तह लगाने वाले लड़कों की तनखाह निकलती है और हमारा ग्राहक परमानेंट हो जाता है।’’बुढ़ापे में नींद कम आती है। कहां तक उन्हें सुनती मैं सो गई।