कड़ाके की ठंड थी पर धूप भी खूब खिली हुई थी। भोजन के लिए हॉल में गए। बहुत अच्छी बैठने की व्यवस्था थी। चारों ओर कुर्सी मेज़ लगी थीं। बीच में परोसने का सामान और कुल्हड़, मिट्टी के बर्तन और पत्तल आदि देख कर मुझे प्रयागराज में बिताया बचपन याद आ गया, जहां तब पत्तल दावत होती थी।
धूप का लालच कोई भी नहीं छोड़ना चाहता था और सब कुछ भारतीय ग्रामीण परंपरा के अनुसार था तो भला मेज कुर्सी का क्या काम!! सबने कहा कि हम तो आलती पालथी मार कर धूप में नीचे बैठ कर खायेंगे। तुरंत घास पर दरियां आदि बिछा दी गईं। ये व्यवस्था में परिवर्तन तो तुरंत हुआ पर बहुत लाजवाब हुआ। वहां का स्थानीय खाना खेत से प्लेट में और चूल्हे पर बना हुआ था। वहां वैसे धूप में बैठने के लिए मेज कुर्सियां भी थीं। पर दो चार साहित्यकार ही उन पर बैठे थे। शायद उन्हें भी डॉक्टर ने पालथी मारने को और नीचे बैठने को मना कर रखा होगा। अब हॉल में तो जितने लोग बैठ सकते थे, उतने ही एक बार में भोजन करते पर इस व्यवस्था परिवर्तन से तो अब लगभग सभी बैठ गए। शिक्षकों का ऐसा मैनेजमैंट था कि विद्यार्थी किसी की भी पत्तल खाली नहीं रहने दे रहे थे। आखिर में हम तीन महिलाएं एक मेज को घेर कर बैठ गईं।
हमारी पत्तल पर पहले गुड़ फिर घी टपकाती चूल्हे की रोटियां, चावल, मटर पनीर, दो तरह की दाल जिसमें एक दाल में कोई पत्ते मिलाकर बनी थी। मेरे पास पहुंचते ही दाल, सब्जीं सब खत्म हो जाती थी। वे बड़ी फुर्ती से लेने जाते, अध्यापिका कहती कि उधर से शुरु करो। और वे आज्ञाकारी छात्र वहीं से शुरु करते। मैं मजे से गुड़ के साथ घी रोटी का आनन्द उठा रही थी और कुर्सी पर बैठी छात्रों द्वारा भोजन परोसना देख रही थी। मज़ाल है जो किसी की पत्तल जरा भी खाली रह जाये। मेरे साथ बैठी दोनो महिलाएं हरी दाल पर चर्चा कर रहीं कि इसमें बथुआ, मेथी, पालक का पत्ता तो नहीं लग रहा ये साग किसका मिलाया है? खाते हुए ये खोजबीन जारी थी। हमें कुछ और चाहिए छात्र परोसने आए तो मेरे सकोरे खाली देख कर न जाने कितनी बार उन्होंने सॉरी किया। और परोसा, सबका स्वाद लाजवाब! न मिर्च मसाला तेज, सबका अपना स्वाद था। मैं भी गहन खोजबीन में लग गई कि हरी दाल में कौन सा साग है? नहीं समझ पाई पर जो भी था लजी़ज़ था। दो दिनों में मुझे नहीं लगता कि उन्होनें कोई भी सर्दी में खाया जाने वाला स्थानीय व्यंजन हमें न खिलाया हो। कहीं उपलों पर बाटी बन रही थी
। काले सफेद तिलों के साथ गुड़ का न जाने क्या क्या था मुझे तो नाम भी नहीं पता। पहले तो मैं भगत कश्यप कुक के पास पहुंच गई। पर कितने नाम याद रख सकती थी। जितने भी मोटे अनाज हैं उन सब की भी छोटी छोटी रोटियां थीं। ज्यादा वैराइटी का स्वाद लेना है तो सब एक एक ले लो। अपनी पसंद की खानी है तो वही जितनी भूख उतनी ले लो। ताकि वेस्टेज़ न हो। खाना बनाने में सफाई का बहुत ध्यान रखा जा रहा था। यह लजीज़ खाना डॉक्टर शशिकांत पांडे जी की देखरेख में बन रहा था। अगर किसी के पेट में गड़बड हुई होगी तो ओवर इटिंग से! खाना स्वाद ही इतना था कि हाथ रोक कर खाना पड़ता था। यह देख कर मुझे बहुत अच्छा लगा, मेरे साथ बैठी दोनों महिलाओं ने जरा भी जूठा नहीं छोड़ा। मैं तो छोड़ती ही नहीं हूं। क्रमशः