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Wednesday, 27 December 2017

रीमिक्स ब्राइड नीलम भागी Remix Bride Neelam Bhagi


   

  ठंड के रिर्काड टूट रहे थे। रात 11 बजे रजाई में दुबकी सोई ही थी कि अचानक जोर-जोर से ढोल बजने की आवाज से, नींद टूट गई। पड़ोस में न ही उस दिन कोई शादी थी, और न ही कोई मैच था। अब तो ठंड की परवाह न करते हुए, मैं बाहर झांकने आई तो देखा, यह सारा तमाशा मेरी सहेली मिन्नी के घर के आगे हो रहा था।   मिन्नी का बेटा मनु नाच रहा था। साथ में दूर से जो लड़का सा दिखाई दे रहा था, वह  लड़की थी। उसका नाम शालू था, जिसे मैंने अक्सर मनु के साथ देखा था, आज उसकी दुल्हन थी। जो जीन्स, जैकेट, घुटनों तक के लैदर शूज पहने़ यानि ठंड से पूरी तरह मौर्चाबंदी करके, दो-दो सैट चूड़ा पहने, पावभर सिन्दूर मांग में लगाए खड़ी, अब अपने पति का डांस देख रही थी। ढोल वाला युवा था। उसे यह शादी मौहब्बत करने वालों की जीत लग रही थी। इसलिये वह रात के सन्नाटे में पूरी ताकत से, टेढ़ा हो होकर ढोल पीट रहा था।
   इतने में अन्दर से मिन्नी थाली में घी से भरा आटे का दीपक लाकर आरती उतारने लगी। बड़ी मुश्किल से वह अपने आँसू रोक कर ,जबरदस्ती मुस्करा रही थी। कभी वह थाली क्लॉक वाइज़ घुमाती, कभी एन्टी क्लॉक वाइज़। अचानक उसे लगा, दुल्हनिया का सर तो ढका होता है, बहू तो नंगे सिर है,  उसने अपनी शॅाल से शालू का सिर ढक दिया। अब वह ’रीमिक्स ब्राइड’ अपनी कुछ समय पहले बनी सास की हड़बड़ाहट का मज़ा ले रही थी। ससुर जी तो बाहर ही नहीं आये। स्वागत के बाद मिन्नी ने ,बेटा बहू को अन्दर बिठा, दरवाजा बन्द कर लिया। वह इतनी परेशान थी कि उसे सामने खड़ी, मैं भी दिखाई नहीं दी। अनजाने में अपने आप से हुई, इस तमाशबीनी से मैं स्वयं शर्मिंदा थी।
   घर आकर मैं सोचने लगी कि कुछ दिन पहले, मनु की मधु के साथ  रिंग सैरेमनी पर हम सब पड़ोसी-रिश्तेदार खूब खुशी मना कर आये थे। मिन्नी अपनी होने वाली बहू मधु की खूब तारीफ़ कर रही थी। मुझसे कहने लगी,’’ मेरा एक ही बेटा है। मधु के दादा दादी भी साथ ही रहते हैं। इसकी माँ, सास के साथ निभा रही है, तो उम्मीद करती हूँ कि मधु भी मेरे साथ निभायेगी।’’डी. जे. पर मनु ने भी, सबके साथ खूब डाँस किया। तब भी मैं यही सोच रही थी कि जिस लड़की(शालू) को अक्सर मनु के साथ घूमते फिरते देख कर, मैं उसे मनु की प्रेमिका समझती थी, उस दिन से मैं, शालू को उसकी गर्लफ्रेंड समझने लगी। तब मुझे जमाना बहुत अजीब लग रहा था और उस दिन मनु भी आज्ञाकारी बेटे की तरह सब रस्में निभा रहा था।       
आज मुझे जमाना बहुत खराब लग रहा था। माँ-बाप ने प्यार ,अहसानों का वास्ता दिया तो उनका कहना मान सगाई कर ली। जब प्रेमिका से सॉरी कहने गए, तो शायद उस सुन्दरी के आँसू देखकर पिघल गये होंगे और शालू को पत्नी बना  कर घर ले आये।
  यह हिम्मत पहले क्यों नहीं दिखाई? दो परिवारों का तमाशा बनाने की क्या जरुरत थी? यदि माता पिता को मालूम था कि उनका लख्ते-जिगर किसी अन्य लड़की के मामले में इतना सीरियस है तो उन्हें किसी अन्य परिवार का तमाशा नहीं बनाना चाहिये था न।


Saturday, 16 December 2017

गवार रजाइयां # Warmth of rustic razai Neelam Bhagi नीलम भागी



            रुई की रजाई तह लगा रही थी। इतने में उत्कर्षिणी आ गई। रजाई देखते ही बोली ’’तुम रूई से भरी रजाई में सोती हो? सुनते ही मन किया कि कहूँ कि नहीं तुम्हें दिखाने के लिए रखी है, पर मेरे कुछ कहने से पहले ही वह बोलने लगी,’’ सर्दी में रुई रजाई में सोने का स्वाद ही कुछ और है। मैं तो कभी भी रजाई में 5 किलो से कम रूई नहीं भरवाती थी। गर्माहट बरकरार रखने के लिए, दूसरे साल दोबारा से रजाई की भराई करवाती थी। एक रजाई जैसी मामूली चीज को देखकर, सम्पन्न घर की महिला ने रजाई पुराण ही शुरू कर दिया और मैं सुन-सुन कर बोर होती रही। मेरी रजाई को ऐसे देख रही थी जैसे कई दिनो का भूखा खाने को देखता है।
आजकल जगह-जगह खादी भंडार में छूट है। और वैसे ही दुकाने गद्दे, रजाई की खुल गई है। यहाँ शनील, कश्मीरी, सिंथेटिक रूई की जयपुरी, हर तरह की रजाईयाँ मिल रही हैं। रजाई भराई करने वाले लोगों ने भी मशीनें लगा रखी हैं। जैसी चाहो ले सकते हो। पता नहीं उत्कर्षिणी को क्यों कपास से बनी साधारण रूई की सस्ती रजाई पसन्द है?
कल मैं उत्कर्षिणी के घर गई। दीवारों के रंग  से मेल खाते खूबसूरत मुलायम कबंल को ओढ़े लेटी हुई ,वह टी.वी. देख रही थी। कमरा गर्म करने के लिए हीटर भी था। मैंने उसके  कबंल की तारीफ की, तो वह शुरू हो गई कि उसकी शादी की शनील की रजाइयाँ भी इसी रंग की थीं, उन्हें बहुत पसंद थीं। बहू ने रजाइयां मेड को दे दीं। लेकिन कबंल की तारीफ सुनकर उसकी बहु बहुत खुश हुई और बोली, ’’आंटी रजाई का लुक अच्छा नहीं लगता। रजाई भारी होती है और उसे तो ग्रामीण क्षेत्र के लोग ही अब पसंद करते हैं।’’सुन कर मैं चुप रही.
मैं अपने बेटे के घर गई। मेरे लेटने पर अंकुर  ने मुझ पर सुन्दर सा कंबल फैला दिया। हल्का सा कंबल पर खूब गर्म, आदतन मुझे अपनी ग्रामीण रूई की रजाई याद आने लगी। उसमें गर्मी लगती है तो एक लात मार कर हटा दो, फिर ठंड लगती है तो कस कर लपेट लो। मैंने बेटे से कहा, ’’मुझे तो तू रजाई दे दे। "श्वेता ने एक पैकेट निकाला उसमें से एक बहुत सुन्दर जयपुरी रजाई निकाली और मुझे औढ़ा दी। मैं उस खूबसूरत रजाई को ओढ़ कर लेटी थी और वो दोनों खुश होकर रजाई की तारीफ में कसीदे पढ़ रहे थे। इन बातों में सबसे अच्छी बात मुझे  बहू कि यही लगी, ’’इसमें माँ का रंग भी गोरा लग रहा है।’’ क्योंकि मैं काली हूँ। अब मुझे यह फैंसी रजाई बहुत प्यारी लगी।
बत्ती बंद करते ही मुझे अपनी गवार रजाई याद आने लगी, साथ ही उत्कर्षिणी भी। बच्चे तो अपनी आमदनी के अनुसार हमें नई चीजें देते हैं शायद जरूरत और आदत हमें नया अपनाने नहीं देती। वे हमें साथ लेकर चलना चाहते हैं और हम....
अगले दिन मैं बाजार से अपनी पसन्द की ग्रामीण रजाई लाई। बेटा रजाई देखकर हंसने लगा और मैं भी मुस्करा दी।


Saturday, 9 December 2017

चुप्पी तोढ़ो, खुल कर बोलो Chuppe toro khul ker bolo नीलम भागी

लम्हे ने खता की,सदियों तक सजा पाई।
                                                        नीलम भागी
नारी सुरक्षा सप्ताह के तहत यू.पी. पुलिस द्वारा चलाये जा रहे माननीय मुख्यमंत्री उत्तर प्रदेश श्री योगी आदित्यनाथ जी द्वारा चलाई जा रही सुरक्षित और सशक्त नारी  कार्यक्रम के अर्न्तगत नौएडा एम्लाइज एसोसिएशन(एनईए) और ज्वाला फाउण्डेशन ने आत्मरक्षा शिविर का आयोजन किया। आठ दिसम्बर को सरस्वती शिशु मंदिर में छात्राओं को आत्मसुरक्षा के टिप्स दिये गये। एस पी क्राइम प्रीति बाला गुप्ता ने बच्चियों को उनकी अनजाने या असावधानी में हुई भूल के दुष्परिणाम इस तरह समझाये जैसे कोई माँ या बड़ी बहन ही समझा सकती है, मसलन कानों में लीड लगा कर घर से बाहर न चलें। घर में आता कोई भी आदमी अगर बुरा लगता है तो मातापिता को बतायें आदि। एसपी सिटी अरूण कुमार सिंह ने छात्राओं को समझाया कि कैसे वे खतरों का अनुमान लगा सकती हैं और किस तरह से पुलिस से मदद ले सकती हैं। एनईए अध्यक्ष विपिन मल्हन ने सुझाव दिया कि स्कूल र्बोड पर महिला हेल्पलाइन 1090 और 100 न0 भी लिखा होना चाहिये। ज्वाला फाउण्डेशन ने छात्राओं को मनचलों से निपटने के लिये आत्मरक्षा का प्रशिक्षण दिया और उन्हे प्रैक्टिस भी दी। तीन घण्टे के इस सराहनीय कार्यक्रम की तारीफ के लिये मेरे पास शब्द नहीं है। समापन पर मैं सोचने लगी,’’ भारत भवन बच्चों से भरा हुआ था लेकिन उन्हें एक बार भी नहीं कहना पड़ा। बच्चो ध्यान से सुनो, चुप बैठो।’’ क्योंकि बच्चे मंत्रमुग्ध सुन रहे थे। इस तरह के कार्यक्रम सभी स्कूलों में आयोजित होने चाहिए। इस दौरान सीओ ट्रैफिक श्वेताभ पांडेय, सीओ द्वितीय राजीव कुमार सिंह, थाना सेक्टर 24 प्रभारी निरीक्षक उम्मेद कुमार प्रधानाचार्य केशव जी, प्रकाशवीर जी, प्रदीप मेहता सहित स्कूल के शिक्षक भी मौजूद रहे।     



Tuesday, 5 December 2017

माँ के हाथ का भोजन Maa Key hath ka bhojan नीलम भागी

माँ के हाथ का भोजन
                                              नीलम भागी
आज 5 दिसम्बर को सुबह दस बजे मैं और अंजना भागी सरस्वती शिशु मंदिर(सी 41) सेक्टर 12 में आमन्त्रित थे। जिसमें कुछ माँएं चार बच्चों का खाना और खिलाने के बर्तन लेकर आयीं थीं। बच्चों ने तो कुछ करना ही है इसलिये उनकी उर्जा को किसी न किसी एक्टिविटी में लगाना ही पड़ता है। अतः वे कक्षाओं से गाते हुए लाइन में आ रहे थे, गाने के बोल थे,’’भारत माता सबकी माता, हम उनकी संतान है।’’ हॉल में गोल घेरे में बैठते जा रहे थे। माँएं कुर्सियों पर बैठी, बाल गोपालों को खिलाने का इंतजार कर रहीं थी। जैसे ही उन्हे परोसने को बुलाया, एक घेरे में दो माँए और आठ बच्चों के साथ आकर बैठ गई। उनसे कहा गया कि भोजन उतना परोसे कि बाद में डस्टबिन में न जाये। खाने से पहले प्रार्थना की फिर खाना शुरू। ये विशेष ध्यान रक्खा गया कि किसी भी घेरे में महिला का अपना बच्चा न हो। माँओं के चेहरे से ऐसा लग रहा था कि उनसे कोई बच्चा भूखा न रह जायें। इसलिये बड़ी मनुहार से खिला रहीं थी। इतने बड़े हॉल में बहुत ही प्यारा माहौल था। बच्चों को खिला कर कक्षाओं में भेजा और माँओं को जलपान के लिये आमन्त्रित किया। मैंने प्रधानाचार्य प्रकाशवीर जी  कहा कि मुझे बहुत अच्छा लगा कि कोई खाने में चाउमीन, बर्गर आदि नहीं लाया। उनका जवाब था कि उन्होने पहले कह दिया था कि जो आप घर में भारतीय भोजन करते हो वही लाना, केवल दाल चावल भी ला सकते हो। दूसरी शिफ्ट में भी हम ढाई बजे आमन्त्रित थे। सब कुछ वैसा ही, दूसरे बच्चे अलग माँएं। कार्यक्रम का नाम था ’मातृ हस्तेन भोजनम् ’ मुझे हैरानी हुई दोनों शिफ्ट में खाने में किसी भी बच्चे ने परेशान नहीं किया। 



Wednesday, 29 November 2017

शिव जी की 76 फुट ऊँची दर्शनीय प्रतिमा जबलपुरSivji ke 76 ft unchi darshaniye pratima Jabalpur yatra 5 नीलम भागी

शिव जी की 76 फुट ऊँची दर्शनीय प्रतिमा जबलपुर यात्रा भाग 5
                                               नीलम भागी
सुबह नींद खुली, मैंने और डॉ. शोभा ने सोच लिया था कि बाथरूम जब खाली होगा, तब बिस्तर छोड़ेंगे। हम मोबाइल में लग गई। जब हम बाथरूम से निकली, तो महिलाएं जा चुकी थीं। हम भी जल्दी जल्दी तैयार होकर बाहर खड़े एक ऑटो से अधिवेशन स्थल पर पहुँचे। उसी ऑटो वाले मुकेश से हमने 400रू में छूटा हुआ जबलपुर घूमना तय कर लिया। आज लंच टाइम में पास की ही कोई जगह दिखाने को कहा। क्योंकि तीन बजे से शोभा यात्रा थी। उसका मोबाइल नम्बर ले लिया था। नाश्ता उठने वाला था। स्वादिष्ट पकौड़े, पतली पतली सुनहरी जलेबियाँ, पोहा नमकीन और न जाने क्या क्या था। नाश्ता करके साहित्य विर्मश में बैठे। लंच टाइम से थोड़ा पहले मुकेश को फोन कर दिया। उसने कहा कि वह आधे घण्टे में पहुँच जायेगा। नाश्ता बहुत हैवी कर लिया था इसलिये लंच मिस कर दिया। मुकेश के आते ही हम कचनार सिटी स्थित शिव मंदिर गए। चप्पल जमा करवा कर, टोकन सम्भाला। अन्दर 76 फुट ऊँची शिवजी की मूर्ति थी। पास ही नंदी विराजमान थे। हमने मुकेश को फोन कर दिया कि वो हमारा इंतजार न करे। अधिवेशन स्थल मंदिर के पास था इसलिये हमने पैदल जाने का मन बना लिया। भगवान जी तक जाने के लिये दोनो ओर कार्पेट बिछा था। मैं बीच में खड़ी होकर पूजा करना चाहती थी पर मेरे पैर जल रहे थे। हमें यहाँ बहुत अच्छा लग रहा था। हम यहाँ बरामदे में बैठ गये। किसी ने आकर पंखा चला दिया। हम निशब्द भगवान आशुतोष को निहारते रहे। हरियाली भी बहुत अच्छी से मेनटेन की हुई थी। खुले आकाश के नीचे भोले सब को आकर्षित कर रहे थे। जो भी आता पेड़ों की छाँव में, हरी हरी घास पर बैठ जाता और प्रतिमा को देखता रहता। मैंने डॉ. शोभा से कहा कि भगवान के चेहरे की भाव भंगिमा.......मेरी बात को पूरा किया एक स्थानीय सज्जन ने जो अपने मेहमानों को दर्शन कराने लाये थे बोले,’’जिस शिल्पकार के. श्रीधर ने इसे बनाया हैं, उसका भी यही कहना है कि उन्होंने अब तक 12 प्रतिमाएं बनाई हैं पर इस प्रतिमा की बात ही अलग है। उन्होंने बताया कि बिल्डर अरूण कुमार तिवारी 1996 में बेंगलूर में एक बिल्डिंग कंस्ट्रक्शन देखने गये। वहाँ उन्होने 41 फीट की भोले की प्रतिमा देखी। जिसे वे मन में बसा कर लौटे। सन् 2000 में जब उन्होने कचनार सिटी की शुरूवात की तो सबसे पहले भोले के लिये भूखंड रक्खा। वे बैंगलूर गये। बड़ी मुश्किल से मूर्तिकार का पता लगाया, जो वहाँ से 300 किमी. की दूरी पर शिमोगा में रहता था। उसने भी नार्थ में आने से साफ मना कर दिया। काफी मिन्नतों के बाद, वह अपनी शर्तों पर आने को राजी हुआ। अरूण जी ने के. श्रीधर की सभी बाते मानी क्योंकि उन्होंने तो जबलपुर के गौरव को बढ़ाने में अपना योगदान देना था। शिल्पकार अपने 15 मजदूरों को लेकर आ गये और 2003 में निर्माण शुरू कर दिया। तीन वर्ष यानि 2006 में प्रतिमा तैयार हो गई। हम सुन रहे थे और ये अति सुन्दर भव्य प्रतिमा उनके शहर में होने से, उनके चेहरे से गर्व टपक रहा था ये महसूस भी कर रहे थे। इस परिसर में श्रीधर ने अन्य बेहतरीन प्रतिमाएं भी बनाई हैं। सुबह शाम यहाँ आरती होती है। महाशिवरात्री और मकरसंक्राति को यहाँ मेले का आयोजन किया जाता है। अब हम यहाँ से पैदल अधिवेशन स्थल की ओर चल पड़े। जब से यहाँ से लौटी हूँ मेरे मन में शिवजी का यही रूप छा गया है।   क्रमशः     



Saturday, 25 November 2017

सड़क का सम्मान, ट्री गार्ड बना कूडेदान स्वच्छ भारत sadak ka samman Tree Gaurd bana kurey dan नीलम भागी

 सड़क का सम्मान, ट्री गार्ड बना कूडेदान
                                       नीलम भागी
लोगों को तरह तरह के शौक होते हैं। मसलन पड़ोसियों से लड़ना, नौकरानी से इश्क लड़ाना, आधी रात को गाड़ी में कानफोड़ू म्यूजिक बजाते हुए घर लौटना आदि। ये शौक कब आदत में बदल जाते हैं, पता ही नहीं चलता। ऐसे ही मेरा शौक है, सड़क पर पैदल चलना। ज्यादातर मैं चलते चलते कुछ न कुछ खाती भी रहती हूँ। खाने का तरीका भी मेरा अपने जैसे लोगों की ही तरह हैं। अब जैसे मैं चलते हुए मूंगफली खा रहीं हूँ, तो मूंगफली की गिरी मैं अपने मुंह में डालती जाती हूँ और छिलका सड़क पर फैंकती रहती हूँ। ऐसा ही मैं चिप्स, बिस्किट, चॉकलेट, आइस्क्रीम आदि के साथ करती हूँ।  इन सबके रैपर मैं सड़क पर ही फैंकती हूँ। केला खाते हुए, मैं हमेशा इस बात का ध्यान रखती हूँ कि छिलका बीच सड़क पर न फैंक कर, फुटपाथ पर ही फैंकू। इसके पीछे मेरी एक थ्यौरी है, वो ये है कि  सड़क पर भीड़ होती है। यदि छिलके से कोई फिसला तो गिरने से किसी गाड़ी से टकरा सकता है। जिससे कोई दुर्घटना हो सकती है, लेकिन फुटपाथ पर फिसलने से वह उठ कर, हाथों से कपड़े झाड़ कर चल देगा। साथ ही मेरे जैसे लोग उसे नसीहत दे देंगें,’’भाई साहब देख कर चला करो। भगवान ने आंखे देखने के लिए दी हैं।’’
  हुआ यूं कि मैं अं उत्कर्षिनी के साथ टहलती हुई सड़क पर जा रही थी। फुटपाथ पर बढ़िया संतरों से लदा ठेला देख, मैंने संतरे खरीद लिए।  बैग से एक संतरा निकाल कर, मैंने उत्कर्षिनी को दिया। उसने नहीं लिया, बदले में थैंक्यू कह कर बोली,’’ उसे सड़क पर इस तरह खाते हुए, चलने की आदत नहीं है।’’ पर मुझे तो आदत है न और एक कहावत भी है कि आदत तो चिता के साथ ही जाती है। इसलिए मैं अपनी आदत के अनुसार एक संतरे को छिलती जा रही थी और साथ ही उसके छिलके चारों दिशाओं में फैंकती जा रही थी। मैंने उस संतरे की पहली फली को मुँह में डाल कर, उसके स्वाद का आनन्द लिया और बीजों को सड़क पर थू थू कर दिया। मेरी इस हरकत को देख कर, अं उत्कर्धि्नी उत्कर्षि उत्कर्षिनी को उपदेश देने का दौरा पड़ गया। वह बोली,’’तुम जैसे लोगों के कारण सड़क पर इतनी गंदगी रहती है। अपना घर साफ और कचरा सड़क पर। सड़क को तो डस्टबिन बना दिया है। सड़क पर खाना बुरा नहीं है पर रैपर, छिलके आदि तो कूड़ेदान में फैंकने चाहिए न।’’ अब मैं उसके भाषण से कनविंस भी होने लगी और बोर भी। पर मैं कहां हार मानने वाली!!  मैंने उसे कहा कि इतनी गंदगी क्या मेरे द्वारा ही फैली है? और सामने ट्री गार्ड दिखाया जिसको लोगो ने डस्टबिन की तरह इस्तेमाल किया था। वह बोली ये वो लोग हैं, जो सड़क पर कूड़ा नहीं फैलाना चाहते लेकिन आस पास कूड़ेदान न होने से उन्होंने यही कूड़ेदान बना दिया है। अब उसे प्रशासन पर भी  गुस्सा आने लगा क्योंकि जगह जगह कूड़ेदान न होने से लोगों ने सड़क पर कचरा न फैला कर सड़क का तो सम्मान किया, पर ट्री गार्ड को कूड़ेदान बना दिया।


Thursday, 23 November 2017

भेड़ाघाट का शि ल्प बाजार, चौंसठ योगिनी मंदिर, धुंआ धार जबलपुर Jabalpur Yatra 4Bheda Ghat ka shilp bazar, chaunsth yogini Mandir,Dhunaa Dhar जबलपुर यात्रा भाग 4 नीलम भागी

भेड़ाघाट का शि ल्प बाजार, चौंसठ योगिनी मंदिर, धुंआ धार जबलपुर यात्रा भाग 4
                                                      नीलम भागी
दो बच्चे लम्हेटाघाट से हमारी बस में चढ़े। कुछ दूरी पर उतर गये। बंदर कूदनी पर हमें आवाज आई। उपर देखा वही बच्चे जो बस में चढ़ेथे। ऊँची चट्टान पर वह नर्मदा जी में कूदने को तैयार थे। मैं उन्हें नहीं कूदने का इशारा कर रही थी और नाविक से भी कह रही थी कि प्लीज  आप उन बच्चों को कूदने से मना करे। जवाब में वह बोला,’’ डूबने वाले को चुल्लू भर पानी ही बहुत है, तैराक के लिये एक हजार रू. भी कम है। मैंने पूछा,’’मतलब।’’उसने समझाया कि तैराक संसार में कहीं भी तैर सकता है। इन बच्चों को इतनी़ ऊँचाई से कूद कर तैरने की आदत है। मैंने कहा कि मुझे बच्चों को इतनी ऊँचाई से कूदता देखने की आदत नहीं है। पर वह बच्चा कूदा, छोटे से विडियो में बच्चे का कूदना और उन जबरदस्ती विडियो में घूसे सज्जन की अदायें दोनो हैं। एक ही 3.33 मिनट का विडियों, उनकी सूरत के बिना मुझसे बन गया। किनारे पर लगने से पहले ही नर्मदा जी में लोगो ने फूल मालायें आदि चढ़ा कर उन्हें प्रदूषित करने का अभियान चला रक्खा था। शौचालय यहां भी बेहद गंदे थे। नाव से उतरते ही अब सीढ़ियों के दोनो ओर शिल्पियों की कलाकृतियों को देखना शुरू किया। सबसे पहले मेरी नज़र सफेद पत्थर के इयरिंग पर पड़ी जिसमें सुनहरे मोती पिरोये थे। पहने हुए इयरिंग्स को उतार कर, मैंने पत्थर के पहन लिये और उससे रेट पूछा। उसने 10 रू. बताया। सुनते ही मैं हैरानी से उसे देखने लगी क्योंकि इतने कम दाम की तो मैंने कल्पना भी नहीं की थी। मुझे चुप देखकर वह बोला,’’50 रू. के 6’’ मैंने सभी ले लिये। डॉ. शोभा ने छोटे छोटे गणपति ले लिये, जितने हम उठा सकते थे। बाकि नायाब शिल्पकला देखने से तो मन ही नहीं भर रहा था। पास में ही ऊँची पहाडी पर ़चौंसठ योगिनी का मंदिर है। करीब 160 सीढ़ी चढ़कर यहाँ पहुँचें। लोगों का मानना है यह महर्षि भृगु की जन्मस्थली है। इसे दसवीं शताब्दी में कलचुरी साम्राज्य के शासकों ने माँ दुर्गा के मंदिर  में स्थापित किया था। यहाँ मंदिर की गोल चारदीवारी के अंदर की ओर चौंसठ योगिनियों बहनों की जो तपस्विनियां थीं, उनकी विभिन्न मुद्राओं को पत्थर में तराश कर मूर्तियाँ स्थापित की गई हैं।  चारदीवारी के दक्षिण में मंदिर का निर्माण किया गया है। सबसे पीछे के कक्ष में शिव पार्वती जी स्थापित हैं सामने चबूतरे पर शिवलिंग की स्थापना की गई है। जिनकी वहाँ भक्तजन पूजा करते हैं। धुआंधार जल प्रपात बहुत ही सुन्दर है। ऊँचाई से नर्मदा जी गिरती हैं, जिससे पानी के कण धुंआ की तरह लगते हैं। इसलिये इसका नाम धुंआधार पड़ा है। इस बार वर्षा कम होने से स्थानीय लोगों का कहना है कि धुंआ कम बन रहा था। मुझे तो इतना धुंआ ही विस्मय विमुग्ध कर रहा था। लौटने पर भी भेड़ा घाट की सुन्दरता, संगमरमर की चट्ानों का सौंदर्य मुझ पर छाया रहा। जब लौटे तो अधिवेशन स्थल पर चाय नाश्ता लगा था। सबसे पहले मेरी नज़र मुरमुरे पर पड़ी, मैंने थोड़ी चखी, वो तो बहुत कुरकुरी और उस पर गज़ब का मसाला लगा था। उसे वहाँ पर लइया बोल रहे थे। मुझे मीठी चाय के साथ लइया बहुत अच्छी लगी। इसके बाद प्रांतीय बैठक हुई। फिर कवि सम्मेलन शुरू हो गया। डिनर करके हम रात दस बजे डेरे पर चले गये। कवि सम्मेलन काफी रात तक चला क्योंकि हमारे अपार्टमेंट की चार महिलायें कविता पाठ करके ही आईं थीं। मैं तो लेटते ही सो गई थी।   क्रमशः https://youtu.be/jawrlIeEgAY          






Thursday, 9 November 2017

नज़र के सामने ये क्या हुआ!! Nazar k samne ye Kya hua!! नीलम भागी



प्रभावशाली व्यक्तित्व के एक युवक ने मेरी दुकान में प्रवेश किया। वह मोबाइल पर किसी से पूछ रहा था, ‘‘पाँच रूपये के सिक्कों की कितनी थैलियाँ? दो रूपये के सिक्कों की कितनी? और एक रूपये के सिक्कों की कितनी थैलियां ?
रेज़गारी सुनते ही मेरा रेज़गारी के प्रति मोह बुरी तरह जाग जाता है। मैं उतावली होकर उसका मुंह ताकने लगी और इंतजार करने लगी कि इसका फोन बंद हो। जैसे ही फोन बंद हुआ, मैंने पूछा,’’ आप बैंक में काम करते हैं ? उसने उत्तर प्रश्न में दिया,’’ क्यों, कोई काम है? ‘‘मैंने कहा,’’ रेज़गारी चाहिए ? वह बोला, ‘‘पचास हजार रूपये की दे दूँ’’? इतनी रेज़गारी सुनकर मैं बहुत खुश हो गई। पर मेरे पास पचास हजार नहीं थे। मैंने कहा, ‘‘मेरे पास इतने रूपए नहीं हैं। वह मुझे हिकारत से देखकर दुकान से बाहर चला गया। मानो कह रहा हो बिजनेस कर रहे हैं, गल्ले में पचास हजार रूपये भी नहीं हैं।
फिर एक दम पलटा और आकर बोला, ‘‘ कोई बात नहीं जितने की भी चाहिए,  अमुक बैंक में रूपया लेकर फटाफट पहुँचों।’’मैंने कहा कि मेरे पास दस, बीस हजार रुपए ही है। उसने जवाब दिया,"कोई बात नहीं।"
 दस हजार रूपए लेकर, मैं अमुक बैंक के पास पहुँचने ही वाली थी। वह युवक पीछे से मोटर साइकिल पर आया और बोला, ‘‘आ गई आप?’’ और फोन पर किसी से कहने लगा, ‘‘पचास हजार के सिक्के बाहर ही ले आओ, लाइन पर रहते हुए मुझसे पूछने लगा, मैम आपको कितने की चाहिए?’’ मैं झट से बोली,’’ दस हजार की, पाँच के सिक्के ही देना’’ उसने फोन पर निर्देश दिया,’’ पाँच के सिक्कों की थैली पहले बाहर ले आओ। लेडी हैं, कहाँ परेशान होंगी। महिलाओं के प्रति उसके ऐसे विचार सुनकर मैं बहुत प्रभावित हुई। ‘‘लाओ मैडम दस हजार’’ वह बोला। मैंने कहा,’’ सिक्के।’’  ’’वो आ रहे हैं न’’ बैंक की तरफ इशारा करके वह बोला। बैंक से एक आदमी थैला लेकर निकल रहा था। थैले वाले की ओर इशारा करके, युवक बोला,’’ जाइए, ले लीजिए।’’ मैं खुशी से उसे दस हजार देकर, तेज कदमों से थैला लेने को लपकी। जैसे ही उसका थैला छूआ। थैले वाला बोला,’’ अरे ........! क्या कर रही हैं आप? मैने पीछे मुड़कर देखा। सभ्य मोटर साइकिल सवार युवक नोट लेकर गायब था। थैले वाला आदमी कथा बाँचने लगा, ‘‘बैंक आ रहा था, देशी टमाटर का ठेला जा रहा था। सस्ते मिल रहे थे, दो किलो ले लिए थे। देशी टमाटर से सब्जी बहुत स्वाद बनती है। हाइब्रिड टमाटर का रंगरूप तो सुंदर, पर सब्ज़ी में वो जाय़का भला कहाँ?’’ वो देसी टमाटर के फायदो पर निबंध सुनाने लगा और कोई समय होता तो मैं उससे सुने देसी टमाटरों के फायदों पर थीसिस लिख सकती थी, पर मेरी उड़ी हुई रंगत देखकर, उसने एक दम पूछा, ‘‘बहिन जी क्या हुआ?  ऐसे मौके पर जैसे वेदपाठी के मुँह से श्लोक निकलता है , हमेशा की तरह मेरे मुँह से सड़क साहित्य यानि ट्रक के पीछे पर लिखी चेतावनी निकली ‘नजर हटी, दुर्घटना घटी’।

Sunday, 5 November 2017

शराबी बहुत खुले दिल के होते हैं !!! Sharabi bahut khuley dil ke hote hein! नीलम भागी


मेरी दुकान के बराबर में अंग्रेजी शराब की दुकान खुली है। जिसे सब इंग्लिश वाइन शॉप कहते हैं। इस दुकान ने खुलते ही मेरे दिमाग में कई प्रश्न खड़े किये हैं। मसलन बिना किसी महूर्त के, बिना किसी सजावट और प्रचार के, दुकान खुलते ही ग्राहकों को अपनी ओर खींचने लगी है!! व्यापार के बारे में एक कहावत बचपन से सुनती आ रही हूं' पहले साल चट्टी(यानी पैसा लगाओ, वैरायटी बढ़ाओ ) ,दूसरे साल हट्टी(दुकान जमती है), तीसरे साल खट्टी(अच्छे से कमाई)' यहां तो खुलते ही खट्टी(कमाई) शुरू हो गई। जैसे जैसे दुकान पुरानी होती जा रही है। वैसे वैसे मेरे दिमाग के खड़े प्रश्न बैठते जा रहें हैं। उन प्रश्नों का ज़िक्र फिर कभी। मेरे घर के सदस्यों ने वाइन पीना तो दूर, यहाँ तो कभी किसी ने  बोतल छुई भी नहीं है। लेकिन अब देखने से ही, मैं बात बात पर जो उदाहरण देती हूँ, उसका संबंध वाइन शॉप से ही होता है। जैसे मैं घर में तीन सौ रूपये का दूध ले कर गई। किसी ने कह दिया कि दूध तो अभी रखा था। मेरा दिमाग गर्म होने लगता है। मैं चिल्लाने लगती हूँ कि तुम्हारी उम्र के लड़के लड़कियाँ दो ढाई हजार की वाइन की बोतल ले जाते हैं, पीने के लिये। तुमसे 60-65रू की दूध की थैली नहीं पी जाती! हाँ तो मैंने देखा, वाइन शॉप के लगभग रैगुलर आने वाले ग्राहक कभी कभी विचित्र हरकत करते हैं। मसलन इस दुकान तक पहुँचने के दो रास्ते हैं। ये ग्राहक किसी को तो देख कर दूसरे रास्ते पर चल देते हैं। किसी वाइन खरीदने वाले को एक अंगुली के इशारे से बुलाते हैं। वह उनके पास जाता है, तो उन्हें बुलाने वाला कहता है कि आज क्वाटर में बीस रूपये कम पड़ गये हैं। वह शराबी से कोई प्रश्न नहीं करता, कोई नसीहत नहीं देता। चुपचाप वॉलेट खोलता है। उसे बीस रूपये दे देता है। इसी तरह वह अलग अलग लोगों से(सिर्फ वाइन के ग्राहकों से) पैसे लेता है। है न खुले दिल की बात!! जैसे ही क्वाटर के पैसे पूरे हो जाते हैं। वह क्वाटर खरीद कर चल देता है। अब उस दिन मैं एक काव्यगोष्ठी में गई। अमुक कवि जी वहाँ छा गये। उनके कुछ शिष्यों ने भी वाहवाही लूटी। अमुक जी के बराबर मैं बैठी थी। दो छात्र उनसे आकर बोले,’’सर हमें भी अपना शिष्य बना लीजिये न।’’सर ने जवाब दिया,’’मेरा आर्शीवाद तुम्हारे साथ है पर अब मैं शिष्य नहीं बनाता।’’ मैंने अमुक जी से कहा,’’सर आज के शराबी को, जब पहली बार, जिस शराबी ने शराबी बनाने के लिये, दीक्षित किया होगा, उसने अपनी जेब से वाइन का खर्च उठाया होगा, तब तक जब तक उनका शौक आदत में नहीं बदला होगा।’’ ये तो खुद रचना करेंगे, आपको सुनायेंगे आपको इन्हें मोटिवेट ही तो करना है। कौन सा दारू पीने की दीक्षा दे रहें। जिसमें आपका खर्च होगा।’’ सब मुझे घूरने लगे। बाद मेंं मुझे भी लगा कि मैंने शायद गलत उदाहरण दे दिया है।
 मैं अब साहित्यिक बैठकों में चुप रहती हूँ, बोलने से डरती हूँ। स्कूल में लिखा सत्संगति का निबंध हमेशा याद आता है, जिसमें किसी कवि की पंक्तियाँ लिखी थीं
अगर आग के पास बैठोगे जाकर, तो उठोगे एक रोज़ कपड़े जलाकर।
ये माना कि कपड़े बचाते रहे तुम, मगर सेक तो रोज खाते रहे तुम।
ख़ैर कपड़े तो कभी नहीं जलेंगे, मगर सेक का क्या करूँ क्योंकि चर्चा में भाग लेते ही मेरे उदाहरण ठेके पर चले जाते हैं। कॉलौनी की पुरानी मार्किट मेंं हलवाई की दुकान में जब अचानक वाइन शॉप खुल जाये तो शायद ऐसा ही होता है।

Friday, 3 November 2017

भेड़ा घाट, संगमरमर की चट्टानों के बीच माँ नर्मदा में नौका विहार, बंदर कूदनी Jabalpur Yatra3 Bheda Ghat, sangmermer ke chattano mein Narmada nauka vihar, Bander kudani जबलपुर यात्रा भाग 3 नीलम भागी





भेड़ा घाट, संगमरमर की चट्टानों के बीच माँ नर्मदा में नौका विहार, बंदर कूदनी
                                                             नीलम भागी
1.30 बजे हमारी बस ’प्रहलाद बाजपयी जिन्दाबाद’ के नारे लगाती भेड़ाघाट की ओर चल पड़ी। इसमें सभी कानपुर से थे। गन्दी सी गर्मी अचानक 1.ः50 पर बारिश आने से सुहाने मौसम में बदल गई। मैं कण्डक्टर को अपनी सीट पर बिठा कर उसकी ड्राइवर राहुल के बराबर वाली सीट पर बैठ गई। उसने मुझे कहाकि आप भीग जाओगी, शीशा टूटा है। पर मुझे तो शहर से परिचय करना था। सामने से सब ओर दिखता है। एक जगह पानी देख मैं तस्वीर लेने लगी तो राहुल बोला,’’अरे यहाँ तो 50-52 ताल हैं किसकिस की फोटो लेंगी!’’ उसे अपने शहर से इतना मोह था कि मुझे जबलपुर के बारे में बताता भी जा रहा था। बरसात के पानी को सड़क के गड्डों में भरा देख मैंने पूछा,’’यहाँ सड़कों का यही हाल है।’’ वह बोला,’’नही जी, बस ये भी बनने वाली हैं। आगे जाकर जब साफ सड़क आई तो तुरंत बोला,’’अब अच्छी है न सड़क, ये हाइवे है।" सड़क के दोनो ओर हरियाली से भरे खेत, इतनी उपजाऊ जमीन! एक जगह बोर्ड लगा था, प्लॉट लें 480रू प्रति स्क्वायर फीट किसी नई कालोनी का नाम लिखा था। पढ़ का अच्छा नहीं लगा, क्यों इतनी हरी भरी जमीन को कंकरीट के जंगल में बदला जायेगा। ऐसी जगह में तो बहुमंजिली इमारते होनी चाहिये। जमीन खेती के लिये बचानी चाहिये। रात गाड़ी में मैं बहुत ही कम सोई थी पर यहाँ की ताज़गी के कारण बिल्कुल फ्रेश थी। राहुल बोला," ये लम्हेटा घाट है।" सब कोरस में बोले,’’पहले भेड़ा घाट।’’मैंने राहुल से पूछा से पूछा,’’स्टेशन से भेड़ाघाट की बस सर्विस कैसी है?’’ वो बोला,’’वहाँ से हमेशा आपको बस मिलेगी, कुल 23 किमी दूर है। बस का किराया बहुत सस्ता है ऑटो टैक्सी में आपकी बारगेनिंग का हुनर काम आयेगा ।’’ स्टेशन से विजय नगर तक का किराया कुल 15रू लगा था। क्यूंकि सुबह हमने अधिवेशन की सवारी का इंतजार नहीं किया था। यानि बहुत कम किराया । बस रूकी हम सब भेड़ाघाट की ओर चल दिये। सड़क के दोनो ओर दुकानो में र्माबल की मूर्तियाँ, शो पीस, हल्के पत्थर के इयररिंग न जाने क्या क्या कलाकृतियाँ थी, जो मुझे रूकने को मजबूर कर रहीं थी इसलिये मैंने दायं बायं देखना बंद कर दिया। सीढ़ियाँ उतरने लगी सामने नर्मदा जी!! जो मुझे सांवली लग रहीं थी मैं उन्हें देखती हुई किनारे किनारे चलती जा रहीं हूँ, फर्श खत्म हुआ तो खड़ी होकर सोचने लगी, माँ तो यहाँ होशंगाबाद, अमरकंटक से अलग लग रही हैं। अब मैंने चारो ओर देखा वे तो काले संगमरमर की चट्टानों के बीच से जा रहीं हैं और आसमान में भी बादल थे इसलिये वे सांवली लग रहीं थी। साथियों ने नाव तय कर ली। सौ रू प्रति सवारी। हरिद्वार में जबसे डूबने से बची थी। तब से मैं पानी के किनारे ही रहती हूँ। मैंने नाव में बैठने से मना कर दिया। शोभा मुझे डाँट लगाते हुए बोली,’’नौएडा में मरेगी, तो भी तेरी अस्थियाँ विर्सजन के लिये गंगा जी जाना पड़ेगा। यहाँ सदेह तूं नमामि देवी नर्मदे की गोद में होगी।’’नर्मदा जी को प्रणाम कर दिल से उन्हें कहा कि माँ ,मैं भारत भ्रमण करना चाहती हूँ, मरना नहीं चाहती और सब के बीच में दुबक कर बैठ गई। नर्मदा मइया की जै बोल कर नाव चली, साथ ही मेरा डर भी चला गया। हल्की बूंदे भी कभी पड़ जातीं, मोबाइल खराब होगा, कोई परवाह नहीं पर मैं विडियों बनाने में लगी रही। रंग बदलती संगमरमर की चठ्टानों के साथ माँ का भी रूप बदलता जाता था। नाविक का नाव खेते हुए वर्णन करना, कमाल का! उसने कहा,’’ऊपर झाड़, नीचे पहाड़, बीच में आप करते नौका विहार।’’ साहित्यिक साथियों ने इसे समवेत स्वर में नौटंकी स्टाइल में गाया। अब वह उत्साहित होकर सीधी सरल मनोरंजक तुकबंदियां कर रहा था और मंच के विद्वान वक्ता ठहाके लगाते हुए, उसे जिज्ञासु श्रोता की की तरह सुन रहे थे। बंदर कूदनी एक ऐसी जगह थी जहाँ पहले सतपुड़ा और विंघ्याचल की पहाड़ियाँ इतनी पास थीं कि बीच में से नर्मदा जी संकरी होकर बहती थीं और ऊपर से बंदर कूदकर दूसरी ओर चले जाते थे। लेकिन अब पानी के कटाव ने दूरी बढ़ा दी है। उसे बंदरों द्वारा अब कूद कर पार लायक नहीं छोड़ा। नाविक ने बताया कि हमारी यात्रा 50 फीट की गहराई से शुरू हुई थी, अब नर्मदा जी 600 फीट गहरी हैं और संगमरमरी चट्टाने 120 फीट तक ऊँची थी। उनमें तरह तरह की आकृतियाँ अपने आप बन गई थीं। जिधर इशारा नाविक का होता सबकी गर्दन वहीं घूम जाती थी। नाविक ने दोनों हाथों से कटोरा बनाकर नर्मदा जी का पानी पीना शुरू किया। मैंने भी तुरंत अपनी बोतल का पानी, नर्मदा जी में पलट कर उसमें नर्मदा जल भर कर पिया। उस बोतल को भर भर कर सभी ने पवित्र जल को पिया। ढाई किमी. दूर हम घाट से आ गये थे। अब लौटे यानि कुल पाँच किमी का नौका विहार। विडियो बनाने के लिये खड़े हाने पर नाव का बैलेंस बिगड़ता था, मैं बीच मैं बैठी थी। इसलिये बाँह उठा कर बना रही थी। बाँह दुखने लगती थी। एक सज्जन मेरे पीछे ऊँचाई पर बैठे थे। वे मेरी मदद के लिये बीच में मोबाइल ले लेते थे। घर लौट कर जब मैंने विडियो देखे, मजाल है कोई भी विडियो उनकी सूरत और अदाकारी से छूटा हो। अपने मोबाइल में अपना विडियो बना कर अपनी सूरत को निहारते रहो, कौन मना करता है? जबरदस्ती दूसरे के विडियो में घुसना! पर ये तो  अच्छा हुआ बीच बीच में मैं उनसे मोबाइल ले लेती थी। नही ंतो मुझे विडियो में नर्मदा जी के सौन्दर्य के स्थान पर उनकी सूरत देखनी पड़ती।https://youtu.be/2rCmBjI0hRI
https://youtu.be/2rCmBjI0hRI क्रमशः

Sunday, 29 October 2017

साफ स्टेशन,आंचल कक्ष, स्वादिष्ट भोजन जबलपुर Jabalpur Yatra 2 यात्रा भाग 2 नीलम भागी



                                                                                               नींद तो मेरी उखड़ ही चुकी थी। सब खर्राटे भर रहे थे। साइड सीट का सिख छात्र मोबाइल पर लगा था और मैं बर्थ पर लेटे लेटे गंदगी फैलाने वालों और सफाई करने वालों दोनों को मन ही मन कोस रही थी। चादरों के सैट पेपर बैग में देने की क्या जरूरत! कुछ यात्रियों ने चादरें बड़ी तमीज से बिछाई और उनके कागज के कवर फर्श पर फैंक दिये। कुछ देर सो भी ली। कटनी आने पर हमारे सहयात्रियों ने उतरने से पहले मीडिल बर्थ को भी ऊपर कर दिया ताकि हमें बैठने में तकलीफ न हो। जाते जाते भी गुप्ता जी 10रू वाली चाय को 20 रू की तीन करवा कर गए। चाय पीकर मैं बाहर की हरियाली देखती रही। कोई चिंता तो थी नहीं ,स्टेशन पर हमें प्लेटफार्म न0 6 पर जाना था। सीढ़ी चढ़ने का चक्कर ही नहीं था स्लाइड था। दुर्गंध रहित साफ स्टेशन। वहाँ बोर्ड लगा था। जहाँ सब बैठे थे। मध्य प्रदेश में मुझे साँची मिल्क पार्लर का मीठा दहीं और नमकीन मट्ठा बहुत अच्छा लगता है। डॉ. शोभा सबके साथ बैठ गई। मैं साँची की खोज में निकल गई। पार्लर मिला पर बंद था। महिला वेटिंग रूम और उसके आंचल कक्ष ने तो मेरा मन मोह लिया। सब स्टेशन से बाहर आये। एक बस भर गई। दूसरी में हम बैठे। मैं तो खिड़की के बाहर आँखे गड़ाये देखती रही। हमारी बस एक बहुत बड़े नये बने हाउसिंग कॉम्पलैक्स के आगे रूकी। सामने ठंडा पानी और गर्म चाय थी। कुर्सियाँ रक्खी थीं। हमें अर्पाटमेंट का न0 दिया। वहाँ हम  पहुँचे। दो कमरों और हॉल में फर्श पर गद्दे और उन पर साफ सुथरी चादरें बिछी हुई थीं। इण्डियन और वैस्टर्न साफ दो बाथरूम थे। प्रत्येक कमरे की बालकोनी थी। 15 सितम्बर तक ऑन लाइन होटल में कमरे के लिये बुकिंग थी। एक बार मनु से करवाने की कोशिश की, उसने कहा कि सरवरडाउन है। दोनों कमरों में एक ही जगह की, चार चार महिलाएं तैयार हो रहीं थीं। किचन में सामान रख हम हॉल में आ कर कुर्सी पर बैठ गये। मुझे डॉक्टर ने पालथी मार कर बैठने और नीचे बैठने को मना किया है। मैं नीचे व्यवस्था वालों के पास आई, उनसे होटल में रूम के लिये कहा, उन्होंने फोन किये सब फुल। लेकिन कोशिश करेंगे, ऐसा कहा। काफी देर मैं वहाँ वैसे ही बैठी, देखती रही कि पूरे भारत से आये प्रतिनिधियों को कितनी शांति से सैटल कर रहे थे। जब मैं गई तो व्यवस्था वालों के लिये मेरे मन में साधूवाद था। सब महिलायें तैयार होकर जा चुकी थीं। एक बाथरूम में डॉ. शोभा थी, दूसरे में जो थी उनका पति फ्लैट से बाहर बैठा था। मेरे अंदर जाते ही उसने कहा कि मेरी वाइफ से कहना मैं तैयार होने जा रहा हूँ। मैंने दरवाजा बंद किया और बैग से कपड़े निकालने लगी। इतने में वह महिला बाथरूम से निकली, जूते पहने और मेकअप किट ली। जूतों समेत गद्दों पर चलती, खिड़की पर शीशा टिका मेकअप करने लगी। मैं बोली,’’अरे! आप ने जूते नहीं उतारे।’’उसने जवाब दिया,’’मेरे जूते बिल्कुल साफ हैं।’’ मैंने कहा,’’आप मेरे सामने से नीचे से यही जूते पहने चलती हुई आईं हैं। यहाँ महिलायें सोयेंगी।’’ उन्होंने जूते तो उतार दिये। पर क्रोधित होने से मेकअप करने पर भी अच्छी नहीं लग रहीं थीं। मैं बाथरूम चली गई। बाहर आई तो शोभा ने बताया कि वो महिला पता नहीं क्यों बैग लेकर चली गई है। तैयार होकर हमने लॉक लगाया, चाबी नीचे देकर, जल्दी जल्दी हम बाहर खडी गाड़ी से कार्यक्रम स्थल पर 11 बज कर आठ मिनट पर पहुँचे। वहाँ नाश्ते का समय खत्म हो गया था। लेकिन हमें सेब और अमूल दूध की बोतल देदी। कानों में हमारे व्याख्यान पड़ रहा था और हम पंजीकरण करवा रहे थे। उसके बाद उन्होंने हमें किट दी। उस दिन उस समय बहुत गंदी गरमी थी। उस गरमी में भी खचाखच भरा पण्डाल था। व्याख्यान थोड़ा लंबा खिच गया। लेकिन खाना एक बजे लग गया था। परिपत्र में तो साधारण भोजन लिखा था पर मैं तो उसे असाधारण कहूंगी क्योंकि उसमें कच्चा, पक्का प्रांतीय मीठा सलाद पापड़ आचार सबकुछ और बहुत स्वादिष्ट था। पढे़ लिखों से मुझे उम्मीद थी कि यहाँ जूठा नहीं छोड़ा जायेगा, पर छोड़ा गया। प्लेट में खाना लेकर जो पंखों के आगे कुर्सी लेकर बैठ कर खा रहे थे, अगर उनके और पंखे के बीच में कोई खड़ा होकर खाता तो बैठ कर खाने वालों को बहुत बुरा लगता। बैठे लोग आपस में कहते, लोगों को तमीज़ नहीं है। और  खाना लेने जब कोई जाता, तो खाली कुर्सी पर कोई बैठने लगता तो साथ बैठी महिला झट से पर्स रख देती और बोलती,’’इस पर कोई बैठा है।’’पेट भरने पर चल देते जगह जगह कुर्सियां ही कुर्सियां थी, कहीं भी बैठते बतियाते। खाते ही हम भवन के दो गेटों में से एक के  बाहर आकर, ऑटो के लिये बैठ गये। ये पॉश इलाका था। इसलिये कोई ऑटो आ नहीं रहा था। आता तो किसी को छोड़ने। सवारी उतरते ही जब तक हम उसके पास पहुँचते कोई और बैठ चुका होता। इतने में दूसरे गेट की ओर से एक बस साहित्य सम्मेलन का स्टिकर लगी आ रही थी। उसमें हमारे डेरे के साथी थे। हम भी बैठ गये ये सोच कर कि जहाँ हमें लगेगा कि पब्लिक ट्रॉस्पोर्ट मिल सकता है उतर जायेंगे। पर बस में ही उसी बस को भेड़ाघाट ले जाने का कार्यक्रम बन गया जबकि रेल में बनी हमारी पर्यटन सूची में भेड़ाघाट 8 अक्टूबर समापन के बाद था। हम भला कैसे इस मौके को छोड़ सकते थे!  क्रमशः  






Tuesday, 24 October 2017

पॉलीथिन में गऊ ग्रास Polythene mein Gau Grass नीलम भागी


पॉलीथिन  में गऊ ग्रास
                                     नीलम भागी
               
गऊ माताएँ और साँड पिता झुंड में खड़े थे। एक गाड़ी उनके करीब आकर रुकी। पति-पत्नी उतरे गाड़ी की डिक्की खोल कर ढेर खाना , जो पॉलिथिन में बँधा था। उनके सिंगो के डर से दूर रक्खा और श्रद्धा से झुण्ड की दिशा में हाथ जोड़ कर , वे गाड़ी में बैठ कर चल दिये और पशु खाने की ओर दौड़े। किसी भी शुभ दिन या गोपाष्टमी के पर्व पर, ऐसा सीन कहीं भी देखने को मिल जाता है ।
     एक नज़ारा आमतौर पर दिखाई देता है। कूड़ेदान के पास गाड़ी रुकती है, शीशा नीचे कर, महिला जोर से पॉलिथिन की थैली फेंकती है। कई  बार थैली फट जाती है , तो देखकर हैरानी होती है। उसमें बचे हुए खाने के साथ, कई बार टूटे काँच के टुकड़े, ब्लेड आदि होते हैं। पशु पॉलिथिन नहीं खोल सकता इसलिये खाने के साथ साथ, ये चीजे़ उनकी जान ले लेती हैं। और यह देख कर..........
    मुझे कावेरी की मौत याद आ जाती है। कृष्णा  चार महीने की थी।  कावेरी ने चारा खाना बंद कर दिया। हम उसकी पसन्द का गुड़ सौंफ डाल कर दलिया रखते पर वह नहीं खाती। वह हर तरह के खाने को टुकुर-टुकुर देखती और आँखों से आँसू बहाती रहती। वह कितने कष्ट में थी! ये वो जानती थी, या उसे पालने, प्यार करने वाला हमारा परिवार।  कावेरी की हालत देख कर हमने पशु चिकित्सक भइया को सूचित किया। सूचना मिलते ही भइया इज्ज़तनगर से आये। घर का डॉक्टर है, खूब  कावेरी का दूध पिया है। अब हमें पूरी उम्मीद थी कि  कावेरी भइया के इलाज से ठीक होकर चारा खायेगी,  कृष्णा को चाट-चाट कर , पहले की तरह दूध पिलायेगी। लेकिन भइया ने जाँच करके ,बताया कि  कावेरी नहीं बचेगी। सबके मुहँ से एक साथ निकला,"" आखिर क्यों?"
     भइया बोले,’’  कावेरी पॉलिथिन खा गई है। पॉलिथिन इस तरह खाने की नली में अटक जाती है कि पशु जुगाली नहीं कर पाता। खाना बंद कर देता है। ’’ इसी घर में जन्मी  कावेरी को हमने तिल तिल कर मरते हुए देखा था। हम तो उसके चारा पानी का खूब ख्याल रखते , पर वह जानलेवा पॉलिथिन कैसें खा गई!!
     राजू ग्वाला सब घरों की गाय, सुबह 10 बजे से लेकर 3 बजे तक चरवाने लेकर जाता था। इस आउटिंग को सभी की गायें , बहुत एन्जॉय करतीं। घर से चारा खाकर जातीं , आते ही नाँद में चारा तैयार मिलता। बस घूमने के लिए 10 बजे से बाहर देखना शुरु कर देती। शायद वहीं रास्ते में खाने की पॉलिथिन में ब्लेड, काँच निगल गई। और धीरे धीरे  कावेरी मर गई। हमने सबको पॉलिथिन का नुकसान बताया। बिन माँ की कृष्णा को खूब लाड प्यार से पाला। उसने गोमती( हमारे घर में बछिया का नाम नदियों पर रखते हैं) को जन्म दिया।
     कृष्णा, गोमती और उसके बछड़ों के साथ हम मेरठ से नौएडा शिफ्ट हुए। किसी को शिकायत का मौका नहीं मिला। जर्सी और साहिवाल नस्ल की  कृष्णा, गोमती दिन के उजाले में चोरी हो गई। इस चोरी के बाद से हमने गाय पालना बंद कर दिया।
  पॉलिथिन में खाना ,दो दिन रखने से वैसे ही वह प्रदूषित हो जाता है। जिसे खाकर जानवर बीमार ही पड़ेगें। पॉलिथिन में बंधा खाना खाते देख ,जब मैं आवारा पशु के मुंह से पॉलिथिन खींच कर खाने से पालिथिन हटाती हूँ , तो मुझे लगता है कि एक  कावेरी कष्टदायक मौत से बच गई।


चुम्मू फर्स्ट आया न! Chummu First aya na! नीलम भागी


चुम्मू फर्स्ट आया न!                                                                                                  नीलम भागी
                                       
 चुम्मू की क्रेच से मुझे ऑफिस में फोन आया कि इस संडे को शाम 5 बजे क्रेच के बच्चों  के लिये फैंसी ड्रेस प्रतियोगिता आयोजित की जा रही है। पेरेंट ही अपनी मरजी से बच्चों को तैयार करके , उसका मंच पर इन्ट्रोडक्शन देंगे। सुन कर ,मैं खुशी से फूली नहीं समायी, मेरा 1 साल 6 महीने का चुम्मू कम्पटीशन में भाग लेगा। मैं उसी समय  फोन से सहेलियों, रिश्तेदारों से सलाह लेने लगी की अपने लाडले चुम्मु को क्या बनाऊँ?
    अब देखिये न डेढ़ साल का चुम्मू ता ता पा पा बोलता है। सू सू पौटी तक नैपी में करता है। वो तो बता नहीं सकता कि उसे क्या बनाया जाये? मेरा चुम्मू सबसे डिफरेंट लगे ,इसलिये मैंने सबकी सलाह माँग ली। शनिवार की छुट्टी लेकर, बस ड्रेस लेंगे। मैंने उसके दादा, दादी, बुआ की राय लेने के लिये उन्हे भी बुला लिया।
  ड्रेस लेना बहुत ही कठिन काम था। नगर परिक्रमा करने पर दो चार दुकाने ही मिलीं। वहाँ चुम्मू के नाप की ड्रेस बहुत ही कम और अगर मिलीं भी तो फल और सब्जियाँ। दुकानदार बोला,’’यह बैंगन, टमाटर, शिमलामिर्च में बहुत प्यारा लगेगा।’’मैं चुप, मुझे चुप देखकर बोला,’’बच्चे को एप्पल, केला, सन्तरा बना दो।‘‘ उसकी बुआ ने मुहँ बिचका कर कहा,’’जूट की बोरी लपेट कर, आलू न बना दें, सब्ज़ियों का राजा लगेगा और झट से मना कर दिया। हम डिसाइड नहीं कर पा रहे थे कि उसे क्या बनाया जाये, इसलिए टेंशन में थे और चुम्मू परिवार के साथ घूमने में बहुत खुश था। सहेलियों ने दो महिलाओं का पता बताया, उनके पास मेरे बच्चे के नाप में सिर्फ चुहिया और गिलगरी की ड्रेस थी। जिसे देखते ही उसकी दादी जी बोली,’’चुम्मू की मर्दाना पर्सनैलटी है, चुहिया, गिलहरी, न न , बिल्कुल नहीं। यह सुनते ही चुम्मू के पापा बोले,’’इसे चड्डी पहनाकर ,सुम्मो रैसलर का मेकअप कर दूँगा बिल्कुल छोटा सा मर्द लगेगा।’’
    इस खोज में मोबाइल का इस्तेमाल खूब हो रहा था। मुझे एकदम चुम्मू को मोबाइल बनाने का आइडिया आया। मैंने अपना आइडिया दुकानदार को बताया। ड्रेस का खर्च हमारा, बाद में ड्रेस दुकानदार की, वह अर्जेंट भी तो दे रहा था न इसलिए। तय करके एडवांस देकर हम घर लौटे।
   चुम्मू  की मोबाइल पोशाक पर  एन्टीना था, जिसे वह नोचे जा रहा था। मैं स्टेज पर ले जाने से पहले उसे मेकअप लगाने लगी। जैसे ही लिपिस्टिक लगाई। झट से उसने चाकलेट की तरह अपने चारो दाँतों से उसका टुकड़ा काट लिया। मैंने उसके मुहँ में अँगुली डाल कर लिपिस्टिक निकाली तो वो चीख चीख कर रोने लगा। साथ ही उसका नाम एनाउन्स हो गया।
     रोते हुए चुम्मू ने एक हाथ से पापा की अँगुली पकड़ी और एक हाथ से मेरी, हमने खुशी से पूरे दाँत निपोड़ रखे थे। मंच पर मोबाइल(चुम्मू) को लेकर आए। खूब तालियाँ बजी । तालियाँ सुन, अब चुम्मू भी खरगोश की तरह अपने चारों दाँत दिखा कर हमारी अँगुली छुड़ा मंच पर फुदकने लगा। सांत्वना पुरुस्कार लेकर, हमारे खानदान का पहला एक साल 6 महीने का बच्चा पुरुस्कृत हुआ। पर मैं दुखी थी क्योंकि मेरा बच्चा फस्ट नहीं आया था। अगले दिन क्रेच की छुट्टी थी।
    अब मैं छुटटी लेकर घर पर  चुम्मू को खिला रही थी, वो सब खिलौने छोड़, केवल इनाम में मिली ट्रॉफी को ही पटक-पटक कर, मुँह में लेकर खेल रहा था। मैं सजाने के लिए छिनती, तो हृदय विदारक विलाप करता। तंग आकर मैंने उसका इनाम उसे दे दिया वह खुशी से खेलने लगा। मुंझे लगातार सबके फोन आ रहे थे, सबका एक ही प्रश्न’’ चुम्मू ़र्फस्ट आया न!
  मुझे स्ट्रेस होने लगा। उत्कर्षिनी आई। उसने मुझे समझाया कि क्या प्रतियोगिता में भाग लेने का मतलब फस्ट आना ही है? हमने, बच्चों ने कितना एन्जॉय किया। क्योंकि बच्चे छोटे थे वे फस्ट, सेकण्ड की दौड़ से बाहर थे। शायद इसलिए खुश थे। उन बच्चों पर कितना प्रेशर होता होगा, जिनके माता-पिता के लिए प्रतियोगिता में भाग लेने का मतलब फस्ट आना ही होता है। यह समझ आते ही मैं तनाव से बाहर आने लगी। 

Sunday, 22 October 2017

रेल में भारतीय संस्कृति, आगरे का पेठा, Jabalpur Yatra 1जबलपुर यात्राReil mein Bhartiye Sanskrity,Agara Ka Petha, जबलपुर यात्रा भाग 1 नीलम भागी


                                           
6 अक्टूबर से आठ अक्टूबर तक अखिल भारतीय साहित्य परिषद का 15वाँ राष्ट्रीय अधिवेशन जबलपुर में आयोजित किया गया था। हमारे साथी दिल्ली से 4 को चल कर 5 को पहुँच रहे थे और वापिसी 9 को कर रहे थे, क्योंकि आयोजकों ने लिखा था कि पर्यटन 6 से पहले और 8 के बाद करें। अधिवेशन के प्रत्येक सत्र में उपस्थिति अनिवार्य है। मेरे साथ डॉ. शोभा भारद्वाज को जाना था। वे डायबटिक हैं और उनकी सितम्बर में डायबटीज बहुत बड़ गई थी। उनके डॉक्टर पति ने कहा था कि कंट्रोल होने पर ही वे उसे जाने के लिये 3 दिन की  परमीशन देंगे। मैंने दो टिकट एम. पी. संपर्क क्रांति की 3 ए.सी. में करवाली। बी 3 में 9 और 12 न0 सीट कनर्फम हो गई थी। डॉ.शोभा ने भी जाने के लोभ में नियमित दवाइयां ली और जमकर परहेज किया। उन्हे जाने की अनुमति मिल गई। गाड़ी में सीट पर जाते ही हमारे सहयात्रियों ने सीट के नीचे हमारा सामान लगा दिया। जैसे ही हम सामान में चेन लगाने लगे। उन्होंने वह भी लगा कर, हमें चाबी देदी। वे एक दूसरे को तिवारी जी, त्रिपाठी जी.... आदि से सम्बोधित कर रहे थे इसलिये हमने सबको पण्डित जी से सम्बोधित किया और उनका नाम नहीं पूछा। ज्यादातर ने कटनी पर उतरना था, वे आस पास की जगहों के 30 सहयात्री, सभी व्यापारी थे। किसी कम्पनी ने उन्हें घूमने के लिये पैकेज पर हरिद्वार, ़ऋषिकेश, मसूरी भेजा था। साधूवाद उस कंपनी को, जिसने सेल पर उन्हें नगद पुरूस्कार न देकर, घुमाया था। किसी का बोल बोल कर गला बैठा था। किसी को बहुत डुबकियां लगाने से मामूली ठंड की शिकायत थी, पर सभी बहुत खुश थे। सभी उम्र के लोग थे ,अपनी बीती बातों को खूब दोहरा रहे थे और खुश थे। गाड़ी ने ग्वालियर रूकना था। आगरे का पेठा बेचने वाले आते तो उससे शुगल के लिये मोलभाव किया जाता, आधा किलो 80रू का पेठा का डिब्बा 70 रू में, दो डिब्बे यानि एक किलो 130रू के लिये गये। मैं तो लौटते समय खरीद सकती थी कहाँ कहाँ उठाये घूमती इसलिये नहीं लिया। पेठा सबके आगे किया जाता। मेरे आगे डिब्बा करने से पहले कहते,’’देखिए, आपके सामने लिया और खोला है।’’ मैं एक टुकड़ा ले लेती। डॉ.शोभा परहेज में थी। गाड़ी आगरा में रूकी। जबकि ट्रेन शेड्यूल में आगरा नहीं है। कई युवा पण्डित जी उतरे, मैं डरती हुई खिड़की से देखती रही कि इनकी गाड़ी न छूट जाये। गाड़ी चलते ही सब आ गये। प्रत्येक के हाथ में अंगूरी पेठे का डिब्बा था। सबके चेहरों से खुशी टपक रही थी। एक डिब्बा खोला गया। बहुत स्वाद पेठा कुल 70रू किलो। मैंने पूछा,’’इतना सस्ता कैसे?’’सबने कोरस में जवाब दिया,’’गुप्ता जी की वजह से।़’’ अब पता चला कि अलग जातियों के भी लोग थे। मैंने पूछा,’’कैसे?’’जवाब में 10 न0 सीट के पंण्डित जी बोल,े’’मैंने वाइफ के लिये कुछ सामान लिया, बिल्कुल वैसा ही इन्होने लिया मुझसे चार सौ रू कम में, उसी दुकान से, जबकि मैं एम.बी.ए. हूँ। गुप्ता जी बोले,’’बनिया नहीं हो न इसलिये।’’सब हंस पडे। मैंने कहा,’’मुझे सीखा दीजिये बारगनिंग।’’ इतने में पेठा बेचने वाला आया। मैंने सीखने वाली छात्रा की तरह पूरा ध्यान, गुप्ता जी और पेठे वाले की वार्ता पर लगा दिया। उसने पेठे का भाव वही आधा किलो अस्सी रू डिब्बा बताया। गुप्ता जी ने उसे अंगूरी पेठे का डिब्बा दिखा कर कहा,’’ये सत्तर रू किलो लिया है। तू लगा न, सारे डिब्बे ले लेंगे।’’ फिर पेठे वाले पर बिल्कुल भी ध्यान न देकर सब लोगों से ऐसे बतियाते रहे, जैसे पेठे से कोई मतलब न हो। पेठे वाला बोला,’’50रू का डब्बा।’’ गुप्ता जी बोले,’’चल तू भी क्या याद करेगा, 80 रू किलो यानि 40 रू का डिब्बा। कैश पैसे।’’ कहकर पेठे वाले से विरक्त हो गये। पर वह दे गया। जिन्होंने 130रू किलो लिया था। उन्होने भी और डिब्बे लिये। अब हमसे पूछा कि हम कहाँ जा रहें हैं। हमने बताया। उन्होंने हमें तुरंत जबलपुर के पर्यटन स्थल बताये। हमने उन्हें अपनी समस्या बताई कि जाते ही अधिवेशन शुरू और अधिवेशन समापन पर शाम 7ः10 की हमारी यही गाड़ी है। इतने में उनका एक जबलपुर का साथी आया। उन्होंने हमारी समस्या उनके सामने रक्खी। मैंने उन्हें कहा कि मैं प्रत्येक सत्र में भी रहना चाहती हूँ और घूमना भी चाहती हूँ। क्या ये सम्भव है? मैंने मोबाइल में उन्हें तीनों दिन का टाइम टेबिल निकाल कर दिया, उन्होंने ध्यान से पढ़ कर कहा कि जबलपुर 11-12 कि.मी. में है। जैसे मैं बताउँगा उसी प्रकार करोगी तो भाषण भी सुन लोगी और भ्रमण भी कर लोगी। मैंने डायरी पैन लेकर सब लिख लिया। मैंने कहा,’’मैं तो ऑटो से ही जाऊंगी।’’उन्होंने कहा कि फिर तो हम शत प्रतिशत घूम लेंगी। ये सुनकर सब बहुत खुश हुए। अब सब सोने की तैयारी में लग गये। मेरी अब तक की रेल यात्रा में इतने गंदे टॉयलेट कभी नहीं मिले। किसी में लाइट नहीं। फर्श तक गंदगी से भरे हुए। इसलिये रात भर मैं ठीक से सो नहीं पाई। डॉ.शोभा ने तो दवा खा रक्खी थी, वे खर्राटे ले रहीं थी। रात दो बजे अटैण्ट ने कहाकि इनकी सफाई तो कटनी में होगी, आप दूसरे डिब्बे में हो आओ, फिर मैं गई न । क्रमश:


Tuesday, 10 October 2017

अन्तर्राष्ट्रीय पर्यटकों को आकर्षित करते समुद्र तट, मनमोहक सूर्योदय सूर्यास्त,Goa 8 गोआ का तो चप्पा चप्पा Anterashtriya Peryatako ko aakershit kerte samundra tath ,Manmhak surya asth, Suryodaya नीलम भागी





                               नीलम भागी               
इतने दिन गोवा रहने पर भी हमने सूर्योदय और सूर्यास्त नहीं देखा कारण देर से सोना देर से उठना। आज हमने दोपहर को नहीं सोना था क्योंकि अंधेरा होने पर ही आँख खुलती थी। धूप ढलते ही हम बीच पर बैठ गये और सूरज डूबने के नज़ारे को कैमरे में कैद करने लगे। अंधेरा होते ही चाय पीने चल दिये। चाय के साथ हमने उसल मिसल पाव खाया। शॉपिंग की। आज हमारा यहाँ आखिरी डिनर था। हमने थेचा, भाखरी और आलू ची पातल भाजी खाई। अंकूर ने फिश रेशैडो खाई। अगले दिन हमने जिस कैब वाले को बुलाया था, उससे तय कर लिया था कि वह सुबह हमें सूर्योदय दिखाता हुआ, मडगाव स्टेशन छोड़ेगा। 9 बजे की राजधानी से जाना था। मेरी 12 बजे की मुंबई के लिये फ्लाइट थी। सूूर्य उदय देखने के कारण अंकूर श्वेता जल्दी स्टेशन पहुँच जायेंगे। वही कैब मुझे डैबोलिन हवाई अड्डे पर पहुँचा देगी। रात हमने पैकिंग कर ली थी। सुबह जल्दी उठ कर तैयार हो गये। कैब आ गई। चालक अजय ने सामान गाड़ी में रक्खा। अजय ने पूछा,’’कौन से बीच।’’ हमने कहा,’’जो रास्ते में पड़े।’’ हल्की नीली रोशनी में हम बीच पर बैठ गये, सूर्य देवता के स्वागत में। देवता उदय हुए। उन्हें और सागर को नमन कर हम कैब में बैठे और चल दिये। हम सब बाहर देखते हुए जा रहे थे। बहुत पहले हम स्टेशन पर पहुँच गये। श्वेता अंकूर ने सामान उतारा। अजय मुझे लेकर एयरपोर्ट चल पड़ा। ये रास्ता आने वाले रास्ते से अलग था। जो भाग गोवा का छूटा था वो देख रही थी। वास्कोडिगामा से भी गुजरी। अजय यहाँ गाइड का भी काम कर रहा था। मोर भी मैदानों में देखे, बेहद पुराने पेड़ भी। यहाँ का मुख्य उद्योग पर्यटन है। लौह अयस्क का 40%निर्यात होता है। चावल, काजू, सुपारी और नारियल की खेती की जाती है। गोवन फिश करी, प्रॉन करी मशहूर है। एक बात की मुझे बहुत खुशी हुई, वो ये कि मैंने जिससे भी हिन्दी में बात की, वह बहुत अच्छी हिन्दी में बात करता था। यहाँ कोंकणी, मराठी बोली जाती है। कुछ लोग पुर्तगाली भी बोलते हैं। अंग्रेजी तो है ही। यहाँ लगने वाले बाजारों में दुकानदार महिला पुरूषों का अंग्रेजी  बोलने का लहज़ा बिल्कुल विदेशी था। मरियम को स्थानीय कोंकणी भाषा में साइबिन माई पुकारा जाता है।
घरों के आँगन के बीचो बीच छोटा सा ऊँचा चबूतरा जो कई रंगों से सजाया होता था, उस पर तुलसी जी का गमला विराजमान था।
समुद्र तट पैरासैलिंग, जल क्रीड़ाओं, वागाटोर, अंजुना, और पालोलम बीच पर अन्तर्राष्ट्रीय पर्यटकों का आना जाना है। वे जैसे मरजी घूमे उनकी ओर कोई ध्यान नहीं देता। सिनेमा में जिस तरह माइकल और गोअन लड़की की वेश भूषा दिखाते हैं। वैसा मुझे तो कहीं नहीं दिखा। गोवन महिला पारंपरिक पोशाक में या देश की महिलाओं की तरह सलवार कुर्ते या रिवाज़ के अनुसार दिखीं, भारतीय महिलाओं की तरह। मैं बहुत जल्दी एअरर्पोट पहुँच गई। अब अंदर जाकर मैं अपनी फ्लाइट का इंतजार करने लगी। मार्था का फोन आया कि हमारे कुछ कपड़े रह गये हैं। मैंने धन्यवाद करते हुए उन्हें कहाकि अपर्णा और सौरभ हमसे एक दिन बाद आयेंगे। वे आपसे ले लेगें। जाते जाते यहाँ की इमानदारी ने भी मेरा मन मोह लिया।