मेरी दादी हम चारों बहनों को पंजाबी में एक गाली देती थी ’नी रूड़ जानिये’ मतलब अरी तुम पानी में बह जाओ। ये पंजाब में पाँच नदियों की धरती पर बेटियों को प्यार या गुस्से में किया जाने वाला सम्बोधन है। नदियों, बहियों से महिलाओं का घरेलू काम के कारण बहुत अधिक वास्ता पड़ता होगा। जिसमें एक दो बह जाती होंगी तो ’रूड़ जानी’ का अविष्कार हो गया। क्योंकि सभ्यता एक निश्चित जगह की होती है। यह इस बात पर र्निभर करता है कि कैसे वह वहाँ की प्रकृति को देखता है। जल ही जीवन है। इसलिये आदि मानव ने नदियों के पास ही खानाबदोश जीवन छोड़ स्थायी जीवन शुरू किया था। कोई भी महानगर देखें तो वह किसी न किसी नदी के किनारे बसा है। सभ्यता का विकास नदी किनारे ही हुआ और इन्हीं के किनारों में वह फूली फली है। पंजाब में वैसाखी के दिन नदियों के पास ही मेले लगते हैं। सुबह सपरिवार जो भी पास में नदी या बही होती है, वहाँ स्नान करते हैं। लौटते हुए जलेबी और अंदरसे खाते हैं। लोटे में नदी का जल, गेहूँ की पाँच छिंटा(बालियों वाली डंडियां) घर लाकर उस पर कलेवा बांध कर मुख्य द्वार से लटका दिया जाता है और नदी के जल को पूजा की जगह रख दिया जाता है। । स्कूलों में भी बाडियां( गेहूं की कटाई) की छुट्टियां हो जाती हैं। फिर सपरिवार कटाई में लग जाते हैं। इन दिनों जो नौकरी पेशा सदस्य दूसरे शहरों में रहते हैं। वे भी पैतृक घरों में जाकर बाडियां में मदद करते हैं। बर्जुग परिवार को चेतावनी देते हुए कवित्त करते हैं ’पक्की ख्ती जान कर, न कर तूं अभिमान, मींह(वर्षा) नेरी(आंधी) देख के घर आई ते जान। जब फसल खेत से खलिहान में आ जाती है। तब बैसाखी में लाये उस नदी के जल को खाली खेत में छिड़क दिया जाता है। कोई भी संस्कार कर्म करने से पहले लोटे में जल लेकर गंगा, यमुना, गोदावरी, सरस्वती, नर्मदा, सिंधु, कावेरी, कृष्णा, इन सातों नदियों का आह़़.वान किया जाता है। सात इसलिये हमारे यहाँ सात अंक पवित्र माना जाता है। नदियों के किनारे प्राचीन नगर, महानगर या तीर्थस्थल हैं। र्तीथस्थल हमारी आस्था के केन्द्र हैं। यहाँ जाकर मानसिक संतोष मिलता है। देश के कोने कोने से तीर्थयात्री आते हैं। एक ही स्थान पर समय बिताते हैं। अपने प्रदेश की बाते करते हैं और दूसरे की सुनते हैं। कुछ हद तक देश को जान जाते हैं। उनमें सहभागिता आती है। अपने परिवेश से नये परिवेश में कुछ समय बिताते हैं। कुछ एक दूसरे से सीख कर जाते हैं कुछ सीखा जाते हैं। मानसिक सुख भी प्राप्त करते हैं। धर्म लाभ तो होता ही है।
संस्कृति सैंकड़ों हजारों सालों में स्वरूप लेती है। ये प्रकृति से लेकर हमारी जीवन शैली व विचारों में हुई उथल पुथल का परिणाम होती है। हर नदी वहाँ के स्थानीय लोगो के लिये पवित्र है और उनकी संस्कृति से अभिन्न रूप से जुड़ी है। हमारे अवतारों की जन्मभूमि भी नदियों वाले शहरों में है। जितनी भी प्राचीन सभ्यताएं हैं, वे किसी न किसी नदी के नाम से है। जैसे सिंधु घाटी की सभ्यता, जिसमें हड़प्पा और मोहनजोदाड़ो उस समय के विकसित नगर थे। वहाँ से मिले औजारों से पता चलता है कि मनुष्य ने तब खेती करना सीख लिया था। वर्षा पर निर्भर खेती थी। शुरू में नदियों के आसपास बड़े बड़े उथले तालाबनुमा गड्डे कर लिये जाते थे। बरसात में नदियों के अतिरिक्त पानी से वे भर जाते थे। नदियां अपने साथ उपजाऊ मिट्टी भी लातीं, जो खाद का काम करती। इन गड़डों में बीज डाले जाते थे। अतिरिक्त जल धीरे धीरे जमीन सोख लेती थी। वही जल पौधों की जड़े मिट्टी से वापिस लेती। आवश्यकता अनुसार इसमें उन्नति होती रही। ये सभ्यता की शुरूआत तो नदियों के कारण ही इुई। जानवरों को पालतू बनाने का काम भी नदियों से ही सम्भव हुआ। क्योंकि पानी और चारा तो नदी के किनारे ही उपलब्ध था। जैसी जहाँ की जलवायु और नदियों और उनकी उपनदियों में जल स्तर रहता, वैसी ही वहाँ की जीवन शैली हो जाती है और वहाँ की सभ्यता कहलाती है। हर नदी की अपनी कहानी है और उसके आस पास बसने वाली जन जातियों की अपनी संस्कृति है।
हमारे यहाँ नदियों को माँ कहा जाता है। जैसे माँ निस्वार्थ संतान का पोषण करती है। वैसे ही नदी हमें देती ही देती है। जीवनदायनी नदियों को लोग पूजते हैं, मन्नत मानते हैं। वनवास के समय सीता जी ने भी गंगा नदी पार करने से पहले, उनसे सकुशल वापिस लौटने की प्रार्थना की थी। हमारे यहाँ नदियों के गीत हैं। मैं अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलन में जबलपुर गई थी। वहाँ शाम को सांस्कृतिक कार्यक्रम में डिंडोरी से आये आदिवासियों ने जो भी प्रस्तुती दी, उनमें सब भगवानों, के रूप में माँ नर्मदा थी। नदी तो पत्थर को भगवान बना देती है। तभी तो कहते हैं
नर्मदा के कंकर, सब शिव शंकर।
होशंगाबाद स्टेशन आने से पहले मैं गाड़ी में रेल नीर की बोतल खरीदने लगी। एक यात्री बोले,’’मत खरीदिये, यहाँ माँ नर्मदा का पानी है। जी भर कर पीजिए, बिना डरे पियो। बोतल का तो अपनी दिल्ली में ही पीना।’’मैंने उसका कहना मान लिया। ख़ैर सेठानी घाट पर पहुँच कर मैं विस्मय विमुग्ध माँ नर्मदा को निहारने लगी।
त्रिभिः सारस्वतं तोयं, सप्ताहेन तु यामुनाम।
सद्यः पुनाति गांगेयं, दर्षनादेवि नर्मदा।।
स्कन्द पुराण में कहा गया है कि सरस्वती का जल तीन दिनों में, यमुना का जल सात दिनों में या सात बार स्नान करने पर, गंगा जी का जल एक बार स्नान करने पर पवित्र करता है किन्तु माँ नर्मदा जी का जल दर्शन करने से ही पवित्र कर देता है। नर्मदा जी का प्रवाह किस ओर है?’’मैं ध्यान से स्थिर नज़रों से उन्हे देख रही हूँ। मुझे लगा वे भी रूकी हुई मुझे देख रहीं हैं। मैं नहीं समझ सकी, वे किस दिशा में बह रहीं हैं? शाम को नर्मदा जी की आरती देखने गई....
यहाँ मेरे पास शब्द नहीं हैं कि जो मैंने आरती के समय महसूस किया, उसका वर्णन कर सकूँ। क्योंकि श्रद्धा और आस्था से जो लोगो के दिल से आरती गाई जा रही थी, उसने अलग ही समां बांध रखा था। घण्टे घड़ियाल बज रहे थे। लोग आते जा रहे थे और ताल से तालियाँ बजाते हुए, आरती में शामिल हो रहे थे। नर्मदा जी में आरती के धीरे धीरे चलते हुए दीपक देख कर लगा कि माँ नर्मदा धीरे धीरे बह रही हैं। दिन में ऐसे लग रहा था जैसे विश्राम कर रहीं हों। लोग मछलियों को आटे की गोलियाँ खिलाने लाये थे और खिला रहे थे। हम भी ठंडे ठंडे पानी में पैर डाल कर स्थानीय लोगों से बतियाने में मशगूल हो गये। कुछ लोगों का कहना था कि वे रोज माँ नर्मदा के पास बैठने आते हैं। नदी किनारे बैठ कर चिंतन मनन करने से गहरी सच्चाइयों का अहसास होता है। गहरा दर्शन उपजता है। कल्पना को नई उडान मिलती है। दस दिन की यात्रा में अमर कंटक तक मैंने बोतल का पानी नहीं पिया। दुकानों के नाम नर्मदा ट्रांसर्पोट, नर्मदा मिष्ठान भण्डार, नमामि देवी नर्मदे वस्त्रालय आदि हैं। ऐसा क्यों ? क्योंकि नदियां सदियों से हमारी पोषक हैं। सागर मिलन से पहले हमारे लिए उपजाऊ डेल्टा छोड़ जाती हैं। ये हमारी भारतीय सम्यता का उनके प्रति स्नेह प्रर्दशन ही तो है। दादी परिवार मे पलने वाली गाय, जब बछिया देती थी तो उसका नाम नदी के नाम पर ही रखती थीं। उनका मानना था कि जैसे नदियों में पानी रहता है। ऐसे ही इनके थनों में दूध रहेगा।
मेरे पिताजी का स्थानान्तरण प्रयागराज हुआ तो मेरी तैराक दादी गंगा जी के कारण बहुत खुश थी। पंजाब में सभी रिश्तेदार खुश थे। इसलिये कि जब भी वे हमारे यहाँ आयेंगें तो गंगा जी जायेंगे। अम्मा बताती हैं कि आजादी के बाद वहाँ जो पहला कुंभ आया, सब रिश्तेदार पंजाब से कुंभ में आये थे। कोई शुभ दिन हो, चलो, गंगा जी नहाने। अब मेरी ठेठ पंजाबी ब्राह्मण दादी भोजपुरी गीत गातीं थीं ’ओ गंगा तोरी लहर, सबही के मन भायी’। सत्तू और भूजा या चबेना उनका फास्ट फूड था। अपनी माँ, बीजी को हम अम्मा कहने लगे। यहाँ बैसाखी से ज्यादा होली मनाई जाती थी। कहीं पढ़ा था कि बच्चे किसी भी संस्कृति को जल्दी अपना लेते हैं। हमारी यह गंगा जमुनी संस्कृति, उस समय पंजाब जाने पर हमें उनसे अलग लगती थी, हमारे साथ के बच्चे हमें जब भइये बोलते थे। लखनऊ से ताऊ जी का परिवार आता और आते ही कहने लगते ,’चलो, गंगा मैया के दर्शन कर आयें।’ नहाने को वो दर्शन करना कहते थे। हम उनसे पूछते,’’आपके यहाँ गंगा नहीं है।’’वे हंसते हुए बताते थे है न, गोमती है। नदियों से पहचान थी किसी भी पंजाबी को देख कर दादी पूछती,’’ तुम रावी पार से हो या दो आब से।’’ छोरा गंगा किनारे वाला तो सबने सुना है। देश बंट गया पर सभ्यता संस्कृति बदलने में समय लगता है। तभी तो दुबई में एयरर्पोट से बाहर आते ही पाकिस्तानी रेहान ने मेरे पैर छूते हुए कहा,’’पैरी पैना मासी जी।’’
ब्रह्मपुत्र एशिया की सबसे लम्बी नदी, भूटान और उत्तर पूर्वी सात बहनों के राज्यों से पश्चिम बंगाल जाती है। वहीं असम में पले बड़े, मेरे रिश्तेदार जब पंजाब आते हैं तो उन्हें बंगाली ही कहा जाता है। वे जोशी सरनेम वाले तीसरी पीढ़ी के बच्चे अपने को पंजाबी कहना भूल गये हैं। मनदीप, मीना और राजेश जोशी सब को समझाते हैं कि हम बंगाली नहीं, असमियां हैं तभी तो बीहू और दुर्गा पूजा मनाते हुए वे अपनी तस्वीरें पोस्ट करते हैं। आरंभिक सभ्यताएं नदियों के किनारे फली फूली, उनमें नहाए, नदियों ने ही मछुआरों की जीविका सुनिश्चित की। प्रवासी पक्षियों को भी भोजन उपलब्ध करवाया। हम ’भागी’ पंजाब के सारस्वत ब्राह्मण कहलाते हैं लेकिन अब नहीं!! क्योंकि अब हैं के स्थान पर, थे हो गया है। हुआ यूं कि सोशल मीडिया पर मेरे हैदराबाद से मित्र हैं भागी शास्त्री जी, श्रीनिवास भागी और कश्यप भागी। कमेंट में किसी ने श्रीनिवास भागी से पूछा,’’आप कौन से ब्राह्मण हो?’’ उनका जवाब था ’तेलगू ब्राह्मण’। लेख लिखते हुए मुझे लग रहा है कि पहले नाव खेकर दूर दूर की यात्राएं करते थे। शायद पूर्वजों की इन्हीं यात्राओं में हमारी संस्कृति बदल गई।
ब्रह्मगिरी की पहाड़ियों में कावेरी का उद्गम स्थल तालकावेरी है। जहाँ मंदिर के प्रांगण में ब्रह्मकुण्डिका है। वहाँ श्रद्धालु स्नान करते हैं। 17 अक्टूबर को कावेरी संक्रमणा का त्यौहार मनाया जाता है। र्कूग यात्रा के दौरान मैंने देखा कि जीवनदायनी माता कावेरी ने दूर दूर तक कैसा अतुलनीय सौन्दर्य्र बिखेरा है। महाभारत के रचियता वेदव्यास मानसिक उलझनों में उलझे थे तब शांति के लिये वे तीर्थाटन पर चल दिए। दंडकारण्य(बासर का प्राचीन नाम) तेलंगाना में, गोदावरी के तट के सौन्दर्य ने उन्हें कुछ समय के लिए रोक लिया था। यहीं ऋषि वाल्मिकी ने रामायण लेखन से पहले, माँ सरस्वती को स्थापित किया और उनका आर्शीवाद प्राप्त किया था। आज उस माँ शारदे निवास को श्री ज्ञान सरस्वती मंदिर कहते हैं। बसंत पंचमी को बासर में गोदावरी तट स्थित इस मंदिर में बच्चों को अक्षर ज्ञान से पहले अक्षराभिषेक के लिए लाया जाता है। उत्तर भारत में इसे ’तख्ती पूजन’ कहते हैं। नदियों के कारण ही तो हमारा पर्यटन उद्योग है। महाबलेश्वर से कृष्णा भी महाराष्ट्र, र्कनाटक, तेलंगाना, आंन्ध्रप्रदेश को पोषित करती हुई, गोदावरी के साथ डेल्टा बनाती हुई बंगाल की खाड़ी से मिल जाती है। दो नदियों का संगम दो संस्कृतियों का संगम है। भारत में विविधता को बनाये रखते हुए अन्य से ग्रहण करने की संस्कृति है। तभी तो हरिद्वार, प्रयागराज, उज्जैन और नासिक में लगने वाले कुंभ में लाखो तीर्थयात्री पहुंचते हैं। जहाँ वैचारिक मंथन होता है।
दिल्ली में पुराने लोहे के यमुना पुल पर मैं बीच में जाम में फंस गई। नीचे से बहने वाली यमुना से बदबू आ रही थी। जहाँ पानी बह रहा था, वह नाला लग रहा था। बीच बीच में रेत के टीले थे। मुझे याद आती है उस समय की यमुना, मेरे मामा स्वर्गीय द्वारका दास जोशी, नेशनल हैराल्ड में काम करते थे। नावल्टी के पास पीली कोठी में रहते थे। सुबह मुंह अंधेरे कुदेसिया घाट पर यमुनाजी में नहाने जाते थे। मैं छोटी थी, जब भी दिल्ली आती उनके साथ यमुना जी जाती थी। मामा ने आदि मानव द्वारा आग बनाना बताया था। वहाँ पत्थर से पत्थर टकरा कर चिनगारियां बना, मैं आदि मानव बन जाती। साफ स्वच्छ यमुना जी के किनारे बैठ मामा जी गाते ’तेरो ही दरस, मोको भावे सुन यमुना मैया।’ तब तक दिन निकल आता फिर वे उसमें तैरते। मैं भी किनारे पर बैठ कर नहाती। कुछ समय बाद दिल्ली आयी तो यमुना स्नान के लिये बहुत दूर वजीराबाद आये। मैैंने कहा कि मामा जी इतनी दूर क्यों नहाने आये हो जबकि यमुना जी तो घर के पास है। वेे मुुुझ से बोले,’’मुनिया, जहाँ हम नहाने आये हैं न, नाले इसके बाद इनमें मिले हैं।’’ वैसे ही मामा जी ने भजन गाया और तैरे। जब तक उनके शरीर में हिम्मत रही वे यमुना में ही नहाये। कहाँ खो गई वह कल कल बहती यमुना। मेरी आँखों से पानी बहने लगा यमुना की र्दुदशा पर और मामा की याद में। हमारी संस्कृति सभ्यता विकसित होती जा रहीं हैं और इन्हें पोषित करने वाली नदियां प्रदूषित होती जा रहीं हैं।
लॉकडाउन में सोशल मीडिया पर लोग साफ़ नदियों की तस्वीरें पोस्ट कर रहे हैं कि बिना सरकारी अनुदान के नदियां साफ़ हो रहीं हैं। यह देख कर बहुत खुश हूं। लॉकडॉउन खुलने पर यमुना नदी को देखने जाऊंगी, वो मेरे घर के पास है।
ब्रह्मगिरी की पहाड़ियों में कावेरी का उद्गम स्थल तालकावेरी है। जहाँ मंदिर के प्रांगण में ब्रह्मकुण्डिका है। वहाँ श्रद्धालु स्नान करते हैं। 17 अक्टूबर को कावेरी संक्रमणा का त्यौहार मनाया जाता है। र्कूग यात्रा के दौरान मैंने देखा कि जीवनदायनी माता कावेरी ने दूर दूर तक कैसा अतुलनीय सौन्दर्य्र बिखेरा है। महाभारत के रचियता वेदव्यास मानसिक उलझनों में उलझे थे तब शांति के लिये वे तीर्थाटन पर चल दिए। दंडकारण्य(बासर का प्राचीन नाम) तेलंगाना में, गोदावरी के तट के सौन्दर्य ने उन्हें कुछ समय के लिए रोक लिया था। यहीं ऋषि वाल्मिकी ने रामायण लेखन से पहले, माँ सरस्वती को स्थापित किया और उनका आर्शीवाद प्राप्त किया था। आज उस माँ शारदे निवास को श्री ज्ञान सरस्वती मंदिर कहते हैं। बसंत पंचमी को बासर में गोदावरी तट स्थित इस मंदिर में बच्चों को अक्षर ज्ञान से पहले अक्षराभिषेक के लिए लाया जाता है। उत्तर भारत में इसे ’तख्ती पूजन’ कहते हैं। नदियों के कारण ही तो हमारा पर्यटन उद्योग है। महाबलेश्वर से कृष्णा भी महाराष्ट्र, र्कनाटक, तेलंगाना, आंन्ध्रप्रदेश को पोषित करती हुई, गोदावरी के साथ डेल्टा बनाती हुई बंगाल की खाड़ी से मिल जाती है। दो नदियों का संगम दो संस्कृतियों का संगम है। भारत में विविधता को बनाये रखते हुए अन्य से ग्रहण करने की संस्कृति है। तभी तो हरिद्वार, प्रयागराज, उज्जैन और नासिक में लगने वाले कुंभ में लाखो तीर्थयात्री पहुंचते हैं। जहाँ वैचारिक मंथन होता है।
दिल्ली में पुराने लोहे के यमुना पुल पर मैं बीच में जाम में फंस गई। नीचे से बहने वाली यमुना से बदबू आ रही थी। जहाँ पानी बह रहा था, वह नाला लग रहा था। बीच बीच में रेत के टीले थे। मुझे याद आती है उस समय की यमुना, मेरे मामा स्वर्गीय द्वारका दास जोशी, नेशनल हैराल्ड में काम करते थे। नावल्टी के पास पीली कोठी में रहते थे। सुबह मुंह अंधेरे कुदेसिया घाट पर यमुनाजी में नहाने जाते थे। मैं छोटी थी, जब भी दिल्ली आती उनके साथ यमुना जी जाती थी। मामा ने आदि मानव द्वारा आग बनाना बताया था। वहाँ पत्थर से पत्थर टकरा कर चिनगारियां बना, मैं आदि मानव बन जाती। साफ स्वच्छ यमुना जी के किनारे बैठ मामा जी गाते ’तेरो ही दरस, मोको भावे सुन यमुना मैया।’ तब तक दिन निकल आता फिर वे उसमें तैरते। मैं भी किनारे पर बैठ कर नहाती। कुछ समय बाद दिल्ली आयी तो यमुना स्नान के लिये बहुत दूर वजीराबाद आये। मैैंने कहा कि मामा जी इतनी दूर क्यों नहाने आये हो जबकि यमुना जी तो घर के पास है। वेे मुुुझ से बोले,’’मुनिया, जहाँ हम नहाने आये हैं न, नाले इसके बाद इनमें मिले हैं।’’ वैसे ही मामा जी ने भजन गाया और तैरे। जब तक उनके शरीर में हिम्मत रही वे यमुना में ही नहाये। कहाँ खो गई वह कल कल बहती यमुना। मेरी आँखों से पानी बहने लगा यमुना की र्दुदशा पर और मामा की याद में। हमारी संस्कृति सभ्यता विकसित होती जा रहीं हैं और इन्हें पोषित करने वाली नदियां प्रदूषित होती जा रहीं हैं।
लॉकडाउन में सोशल मीडिया पर लोग साफ़ नदियों की तस्वीरें पोस्ट कर रहे हैं कि बिना सरकारी अनुदान के नदियां साफ़ हो रहीं हैं। यह देख कर बहुत खुश हूं। लॉकडॉउन खुलने पर यमुना नदी को देखने जाऊंगी, वो मेरे घर के पास है।
2 comments:
Very informative
धन्यवाद
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